उदासी के गीत
पिछली कई रातों की नदी में
तैरती है नींद की मछलियाँ
कुतरे हुए जाल लिए
उदास बैठा मछुआरा
ठोकता है पीठ किनारों के….
बड़ी उम्मीद से निहारता है
उसठ हस्तरेखाएँ
फटी चमड़ियों में दिखते हैं
चूहे के बिल
वो सोचता है जहर के बारे में…
फटी बिवाईयों में पैर के
भर जाते हैं कीचड़
चिकनी चमड़ियों का दुःस्वप्न
ले डूबता है नाव
और डूब जाती नाव वाली लड़की
आँखें रोटी थी जिसकी….
पिछली कई रातों से
सोच रही हूँ कितनी बातें
नींद उचट गयी है
कुछ जाते पाँव और छूटते हाथों के नाम
चाहती हूँ कोई आवाज गुनगुनाती रहे
कि मछुआरे का गीत-स्वर मद्धम हो
दिखने लगे हैं आजकल
देहरी पर हल्दी वाले हाथ…..
और झुकी पलकें उदास सी…!!!
संवाद की कविता
आत्मचिंतन
लेकर आता है झंझावात
अपराधबोध,अफसोस
घृणा, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या
करुणा, क्षमा
निःशब्द अन्तस दर्पण बन जाता है
स्पष्ट दिखाता है
हूबहू प्रतिबिम्ब अपना
मैं चुप हूँ
अनुत्तरित प्रश्नों के रेतीले ढेर से
ढूँढ लाती हूँ उत्तर कोई
देख पाती हूँ
भीतर जमा मवाद
महसूसती हूँ अवसाद
युद्धरत मनसा से
कर्मणा सामान्य रहना
और वाचन में मधुर होना
नित एक अध्याय की तरह
पढा जाना स्वयं को स्वयं ही
पाठोपरान्त सीख देता है
कि हम देख पाते हैं कमियाँ भी अपनी
प्रायः अपनी चुप्पियों में
तौलते हुए स्वयं को
तुम्हारी खामोशियाँ चमकती हैं
प्यास की धूप में नदी की तरह
कदम-दर-कदम बढते हुए पानी की तरफ
भयभीत हो जाती हूँ
मौन के पर्यायवाची के हाहाधार से
झटकती हूँ सर अपना
और सौंपती हूँ खुद को तुम्हें
कि जानती हूँ चुप होना नहीं होता कभी-कभी बेबसी/घृणा/नफरत का द्योतक
स्वीकार्यता में नहीं होता कभी-कभी
कोई भी शोर
गणितीय प्रमेय नहीं होते प्रेम में
नहीं होता कोई समीकरण
नजदीकियों के दर पर
आहट देती दूरियों की दस्तक में
अनकहे/अनसुने के भावानुवाद से
तुम्हारे अंक का सुख पाकर
हो जाती हूँ बीर-बहूटी वधू
सुनो मीत !
स्वतः संवाद
स्वगत हो जाए यदि
तो जटिल होगी संधियाँ प्रेम की
शीत युद्ध से पूर्व ही ढूँढ ली मैंने
कविता संवादों की
तुम मुस्कुराकर थपथपाना पीठ
आश्वस्ति की ऊष्ण हथेली से!
थपकी और माँ
गोद में माँ की दुबका हुआ बच्चा
ज्ञात-अज्ञात भय से
सो जाता है गहरी नींद
मुट्ठियों में भरकर आंचल की कोर
ठीक ऐसे ही महसूस किया
जब दिन का भय
रात संग गहराता गया
कोई याद आता
जैसे थपकियां दे रही हो माँ
वैसे ही आश्वस्ति
स्नेहिल आवाज में झिलमिल।
आशाएँ
कभी हल नहीं होते
कुछ प्रश्न
चुप्पियाँ मातम मनाती हैं
चीखों का
जैसे धुधुआती आग फूँकती चिता
तोड़ती है मरघट का सन्नाटा
चटकती हड्डियों का अगीत लेकर
अतृप्त आत्माएँ…..
भटकती हैं
देह के समकोणों में
लय-भंग मानस की विछिन्नता
संत्रास की आपदा से स्तब्ध
अवसन्न, तिर्यक श्वाँसें
ऊर्ध्वगामी गति के तल में
बचाए रखती हैं जिजीविषा
जीवन की…..
विपरीत परिस्थितियों में
सींचती है जीवटता
मुस्कुराना सीख जाता है मन
भींगी पलकों से……….
आशाएँ लिए…….!!!!
विदेह में देह
किश्तों में मिली जिन्दगी के-
रंग बराबर रहे हरदम
कि जाना स्वीकृत करने के बाद
आने का आह्लाद संयत हो गया
कुछ निशान शेष खुरचने के
स्पर्श के नाखूनों के
नकार दिया करीबियों को
बचाए रखा संदेह
जिज्ञासा नहीं बची
जानने जैसी सामान्य बातों में
इतना समझ आते ही
कि गलत है जो भी है
कच्ची उम्र ने गाँठ बाँध ली कसकर
कि बन्द कर ली आँखें
मूँद लिए कान
लब सी लिए……………
उम्र का बोध लिए अबोध रही लड़की
सुलझा रही रहस्य देह का
उसने विदेह होना चुना था कभी !!!
प्रतीक्षा
और लौट आना फिर
ड्योढी पर टिकी नजरें उदास
किसी की प्रतीक्षा का चरम होकर
कमरे में कैद हो जाती हैं
रास्तों से गुफ्तगू करते हुए दिन भर
शाम का जल जाना चाँद संग
रात के चौथे पहर में जागती हैं
छाँव की स्मृतियाँ
मोह के रंग आँसू में मिलाकर
मन की दीवारों को नम करना
और चुप में घोलना शब्दों की झल्लाहट
प्रतीक्षा की आकुलता….
न पहुँची चिठ्टियों की व्याकुलता
घड़ी की टिकटिक संग
घन्टे और दिन की गिनतियों में
ऊँगलियाँ काँपते हुए स्थिर हो जाती हैं
पुतलियाँ घूमती नहीं….
अधर नहीं बोलते
चीखती आत्मा देहरी का दीप बनकर
प्रार्थना की लौ बन जाती है
कि तुम्हारा लौट आना/तुम्हारी कुशलता
ईश्वर का द्योतक/प्रमाण होता है
प्रतीक्षा मीठी से खारी हो उठती है
जब भय जागता है कहीं गहरे
भूलकर शब्द प्रार्थना वाले
तुम्हारा नाम लेती हूँ
और बरसती रहती है कहीं
बेमौसम की बारिशें !!!
जिजीविषा
हर दिन चौकस
और हर पल आश्वस्त रहती हूं
अपनी मृत्यु को लेकर
पिछली कई आत्महत्यायों के बाद।
किसी का जाना सुनिश्चित करना
आने से पूर्व ही
पथ को आश्वस्त करता है
आगत पदचाप की विदा के लिए।
अवसाद के आहत स्वरों का
भाव स्यन्दन जटिल
दु:ख की एकनिष्ठता में
झर चुकी पलकों से देखती है वेदना
सम्वेदना का मूक होना
मृत वचा पर टिकता नहीं स्पर्श
बधिर स्पंदनों का।
अभिसार के वाचक पलों का
व्याकरण भी क्षीण है
मरीचिका की वीथियों में
भ्रमण, अर्थ जीवन का हुआ
सत्य, मृत्यु का अटल
किसने अधरों से सुना?
नवजात भय की आहटों से
जिजीविषा दृढ़ हुई
तरल नयन के अंतस में
मन-संरचना ठोस हुई।
शोर
जाने किस लहर से
किनारों पर जम रहे हैं
खामोशियों के नमक
डूबती बातें
कोशिश में है तैरने की
कोई आहट हो
और नमक पिघले
पसरी हुई तन्हाईयों से
शोर भले होंगे।
अबोले की तलाश
कितना गूंजते हैं न शब्द
प्रतिध्वनियां चुप क्यों नहीं होती
रात भी कितना जलाती है
कोयला दिन
अवाक् मन
तथ्य तर्क से परे भावना
नहीं ढूंढ पाती कोई अर्थ
अनुगूंजों का
थरथराती प्राचीरें अंतर्मन की
धूसर रंग पहनती हैं
नहीं पहुंचती कानों तक
होठों की कंपकंपी
नि:शब्द तलाशे जाते हैं
अबोले शब्द
दूरियां
तुम से मैं तक के फासले में
एक कदम पूरब को
एक कदम पश्चिम का साथ चाहिए
कम करते हुए रास्तों की लम्बाई
दरम्यां ख़ामोशियों के
लफ्ज़ झनझना कर गिरता
मन चौंकता है
आंखें खुलती हैं
देखती हैं बाहर मन के
जस की तस दूरियों का आकलन
न भाव करता है
न शब्द…
जैसे नहीं मिलते किनारे
नदी के सूखने पर भी
कुछ फासले कभी तय नहीं होते।
अंतहीन
डूबते सूरज संग
लम्बी होती परछाइयों का जन्म
ये थोड़ा कठिन समय होता है
परिस्थिति और समय की सापेक्षता का
अंधेरे की स्वीकार्यता
दिन के नाम विद्रोह नहीं लिखती
प्रतीक्षा की अन्तहीनता
साँझ के दीपक
और भोर की प्रार्थना को सौंप दी
आहटों की ऊँगलियाँ
पाँव गुदगुदाती हैं
मन को भरमाती हैं
मैं झाँक लेती हूँ उचक कर दरवाजा
कोई चिठ्ठी नहीं आती
मेरे पते पर
लोग लिखना भूल गये
डाकिए राह तकते हैं लिफाफों की महक का
वर्तमान की नीरसता
इतिहास की नीरवता में ढल कर
तन लाल, मन श्वेत
पथ केसरिया, यात्राओं के
किसी दिन
पोर-पोर हिना होगी
सांस-सांस मुक्ति
टूटने-पीसने के बाद
शाखों से
बरगद की छांव
एक दिन नष्ट होने का तय है
तय है कि बीत जाना है
सर पर घुंघराले लटों की तरह
उलझते रहेंगे अहं के तंतु
थामी गयी हथेलियों में
चुभते रहेंगे नाखून
गले मिलते ही
उभर आएंगे दंतक्षत
आंखों में चुभेंगी
उठी हुई ऊंगलियां
पीठ पर भंवर होगा
मन में बवंडर
नहीं झुकने का अर्थ
ताड़ का वृक्ष नहीं होता
झुकने की पात्रता
धनुष जानता है
भीड़ के कोलाहल में
हृदय मनुज पहचानता है
प्रेम करना सीखना होगा
दिलों पर राज करने से पहले
बरगदों की छांव में
पलते हैं कितने संसार…।
जायज सवाल
अपनी दांयीं कनपटी पर
सटाकर इल्जामों की लोडेड बंदूक
सोचना…
अवसर कौन से आए थे
जिसे वाद बना दिया गया
कुछ जायज ख्याल थे
जायज सवालों की तरह
वास्ता ज़िन्दगी से
आंसू भर कभी नहीं हुआ
ये और बात रही
हंसने पर ऊंगलियां उठीं
और रोने पर तालियां
जो हुआ वह अजीब नहीं था बिल्कुल
अवसर के ठेंगे से
ट्रिगर दबाती हूं
निशाने पर रखकर वाद
नजदीकी फडफ़ड़ा उठती है
गोलियों की आवाज से
चिडिय़ों की तरह
चल पड़े हैं लोग अब
पांव में पहनकर
जूतियां समय की
फूंकती हैं धूआं
आग आग वजूद की
प्रेम सबसे जायज जरूरत होते हुए भी
एक नाजायज ख्याल है।
डोर मोह की
सुरक्षित है पास मेरे
आशंका, संदेह, प्रश्न
अविश्वास, आत्मग्लानि मेरे लिए
तुम्हारी दृष्टि की स्थिरता में निबद्ध है
संभावना, निराकरण, उत्तर
विश्वास, आत्मबोध तुम्हारे लिए
मधुरिम शान्त प्रार्थना की उज्जवलता
हृदय में उतरी भोर की शीतलता
लिए हुए प्रेम
ज्येष्ठ की ताप सहता है
कार्तिक की गुनगुनी छवि
म्लान होकर
ताप के अंतर्बोध से
दिवा के यज्ञ में निशा का होम करती है
जागरण का कालखण्ड
अनिश्चित होता है
निश्चित होती है श्राप की अवधि
प्रेम के सम्मोहन में
नायक मुक्त करता है नायिका को
आजीवन बँधी रह जाती है
डोर मोह की अदृश्य में…
पुरानी किताबों के नये जिल्द
यादों की गुल्लक
भरकर रीत रही
जैसे रहट हो कोई
उस पार रेत
इस पार दलदल
कहीं तो जाना होगा रास्तों को
कोई बुलाता होगा मंजिल को
हवाओं पर कान लगाए
आहटों का गीत सुनना
कितना शोर करता है समन्दर
दूर उठता है बवंडर
डूबते हैं घर शहर
मर गया है मन मेरा
फिर जिस्म में पैदा होगी
रुह नयी
लोग नये
ये किताबें एक जैसी
जिल्द होंगे बस नये…!!
समय का ताप
चलो कहीं और चलते हैं
हर यात्रा बोलती है
जरा रुककर
पथराए घाटों की छाती पर
कितनी पायलें चुभी हुई
चलते-फिरते कदमों के नीचे
कुछ निशानियाँ दबी हुई
उस पार से आती हर्फों के चेहरे
टकटकी बाँध देखना
और सोचना उसके रंग के बारे में
बन्द आँखें लौट आती हैं
करीब अपने
नहीं मालूम कितना हाथ है दिल का
दिमाग की साजिश में
पहेलियाँ अबूझ नहीं होती
कुछ पल शंकालु होते हैं
तभी सोचती हूँ मैं
वक्त षडयंत्र का पर्यायवाची तो नहीं
सुविधाओं के सुरक्षित दायरे में
कहाँ अनुमान लग पाता है सुदूर असुविधाओं का
किंचित संदेहास्पद हुए जाते हैं सन्दर्भ
व्याख्या प्रमाणित करे भी कौन
कोलाहल के उत्सवी नाद में
मौन का सौम्य निनाद
घाट के तपते पाषाणों की व्यथा-कथा
जल के कलरव की उपमा वृथा
उर्वशी के हिय में उगा जो सूर्य है
अपने समय का ताप है॥