ऐसा वर दे!
मेरी जड़-
अनगढ़ वाणी को
हे स्वरदेवी, अपना स्वर दे!
भीतर-बाहर
घना अँधेरा
दूर-दूर तक नहीं सबेरा
दिशाहीन है
मेरा जीवन
ममतामयी, उजाला भर दे!
मानवता की
पढूँ ऋचाएँ
तभी रचूँ नूतन कविताएँ
एकनिष्ठ मन
रहे सदा माँ,
आशीषों का कर सिर धर दे!
अपने को
पहचानें-जानें
‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ मानें
जागृत हो
मम प्रज्ञा पावन
हंसवाहिनी, ऐसा वर दे!
गली की धूल
समय की धार ही तो है
किया जिसने विखंडित घर
न भर पाती हमारे
प्यार की गगरी
पिता हैं गाँव
तो हम हो गए शहरी
गरीबी में जुड़े थे सब
तरक्की ने किया बेघर
खुशी थी तब
गली की धूल होने में
उमर खपती यहाँ
अनुकूल होने में
मुखौटों पर हँसी चिपकी
कि सुविधा संग मिलता डर
पिता की जिन्दगी थी
कार्यशाला-सी
जहाँ निर्माण में थे
स्वप्न, श्रम, खाँसी
कि रचनाकार असली वे
कि हम तो बस अजायबघर
बुढ़ाए दिन
लगे साँसें गवाने में
शहर से हम भिड़े
सर्विस बचाने में
कहाँ बदलाव ले आया?
शहर है या कि है अजगर
माँ
घर की दुनिया माँ होती है
खुशियों की क्रीम
परसने को
दुःखों का दही बिलोती है
पूरे अनुभव
एक तरफ हैं
मइया के अनुभव
के आगे
जब भी उसके
पास गए हम
लगा अँधेरे में
हम जागे
अपने मन की
परती भू पर
शबनम आशा की बोती है
घर की दुनिया माँ होती है
उसके हाथ का
रूखा-सूखा-
भी हो जाता
है काजू-सा
कम शब्दों में
खुल जाती वह
ज्यों संस्कृति की
हो मंजूषा
हाथ पिता का
खाली हो तो
छिपी पोटली का मोती है
घर की दुनिया माँ होती है
पिता
पिता हमाए
मैं रोया तो
मुझे चुपाया
‘बिल्ली आई’
कह बहलाया
मुश्किल में
जीवन जीने की-
कला सिखाए
पिता हमाए
नदिया में
मुझको नहलाया
झूले में
मुझको झुलवाया
मेरी जिद पर
गोद उठाकर
मुझे मनाए
पिता हमाए
जब भी फसली
चीजें लाते
सबसे पहले
मुझे खिलाते
कभी-कभी खुद
भूखे रहकर
मुझे खिलाए
पिता हमाए
शब्द सुना
पापा का जबसे
मैं भी पिता
बन गया तब से
मधुर-मधुर-सी
संस्मृतियों में
अब तक छाए
पिता हमाए
चुप बैठा धुनिया
सोच रहा
चुप बैठा धुनिया
भीड़-भाड़ वह
चहल पहल वह
बन्द द्वार का
एक महल वह
ढोल मढ़ी-सी
लगती दुनिया
मेहनत के मुँह
बँध मुसीका
घुटता जाता
गला खुशी का
ताड़ रहा है
सब कुछ गुनिया
फैला भीतर
तक सन्नाटा
अंधियारों ने
सब कुछ पाटा
कहाँ-कहाँ से
टूटी पुनिया
बाज़ार-समंदर
चेहरे पढ़ने पर
लगें
टेढ़े-मेढ़े अन्दर
थर्मामीटर तोड़ रहा है
उबल-उबल कर पारा
लेबल मीठे जल का
लेकिन
पानी लगता खारा
समय उस्तरा है
जिसको
चला रहे हैं बन्दर
चीलगाह जैसा है मंजर
लगती भीड़ मवेशी
किसकी कब
थम जाएँ सांसें
कब पड़ जाए पेशी
कितने ही घर
डूब गए
यह बाज़ार-समंदर
त्याग दिया
हंसों ने कंठी
बगुलों ने है पहनी
बागवान की नज़रों से है
डरी-डरी-सी टहनी
दिखे छुरी को
सुन्दर-सा
सूरज एक चुकंदर
वक्त की आंधी
वक्त की आंधी
उड़ा कर
ले गई मेरा सहारा
नम हुई जो आँख,
मन के बादलों का
झुण्ड जैसे
धड़ कहीं है
पर यहाँ तो
फड़फडाता मुंड जैसे
रो रही सूखी
नदी का
अब न कोई है किनारा
पांव खुद
जंजीर जैसे
और मरुथल-सी डगर है
रिस रही
पीड़ा ह्रदय की
किन्तु दुनिया बेख़बर है
सब तरफ
बैसाखियाँ हैं
कौन दे किसको सहारा
सोच-
मजहब, जातियों-सी
रह गई है मात्र बंटकर
जी रही है
किस्त में हर साँस
वो भी डर-संभल कर
सुर्खियाँ बेजान-सी हैं
मर गया
जैसे लवारा?
चरण पखार गहूँ में
मेरी कोशिश
सूखी नदिया में-
बन नीर बहूँ मैं
बह पाऊँ
उन राहों पर भी
जिनमें कंटक बिखरे
तोड़ सकूँ चट्टानों को भी
गड़ी हुई जो गहरे
रत्न, जवाहिर
मुझसे जन्में
इतना गहन बनू मैं
थके हुए को
हर प्यासे को
चलकर जीवन-जल दूँ
दबे और कुचले पौधों को
हरा-भरा
नव-दल दूँ
हर विपदा में-
चिन्ता में
सबके साथ दहूँ मैं
नाव चले तो
मुझ पर ऐसी
दोनों तीर मिलाए
जहाँ-जहाँ पर
रेत अड़ी है
मेरी धार बहाए
ऊसर-बंजर तक
जा-जाकर
चरण पखार गहूँ मैं
अपना गाँव-समाज
बड़े चाव से बतियाता था
अपना गाँव-समाज
छोड़ दिया है चौपालों ने
मिलना-जुलना आज
बीन-बान लाता था
लकड़ी
अपना दाऊ बागों से
धर अलाव
भर देता था, फिर
बच्चों को
अनुरागों से
छोट, बड़ों से
गपियाते थे
आँखिन भरे लिहाज
नैहर से जब आते
मामा
दौड़े-दौड़े सब आते
फूले नहीं समाते
मिल कर
घण्टों-घण्टों बतियाते
भेंटें होतीं,
हँसना होता
खुलते थे कुछ राज
जब जाता था
घर से कोई
पीछे-पीछे पग चलते
गाँव किनारे तक
आकर सब
अपनी नम आँखें मलते
तोड़ दिया है किसने
आपसदारी का
वह साज
एक विचारणीय क्षण / पैडी मार्टिन
इसीलिए मैं बैठता हूँ यहाँ
निर्जन बागीचे के एकांत कोने में
विचार करता हुआ कि
कितनी बार किया है मैंने प्रयास
इन्द्रधनुष को पकड़ने का
तब तक
जब तक कि घेरे रहे मुझे
आस्ट्रेलियाई प्रजाति के सुन्दर तोते
और तितलियाँ
अरे! याद आता है
वह समय
जब बैठा था मैं
नदी के किनारे
अंजान होकर
कि मेरे ही समीप
वह बह रही है
अपनी डगर पर
किसी सुन्दर स्थान की ओर
काश! मैं जान पाता
जब मैं वहां बैठा हुआ था
क्या मैंने कभी प्रयास किया
उसे थामने का
अब नीरवता में
बैठा हूँ मैं
बागीचे के इस कोने में
जानता हूँ
जो कुछ भी वहाँ था
उसका अपना अर्थ था
और जो होना है
समय आने पर होगा ही
तितलियाँ, तोते, नदी और मैं
सभी बढ़ते रहेंगे
विशालतम की ओर
और ‘मैं’ ही हूँ
तितली, तोता और नदी
जैसे कि
तितली, तोता और नदी है ‘मैं’
अंग्रेजी भाषा से अनुवाद : अवनीश सिंह चौहान
ब्रह्मांड का माली / पैडी मार्टिन
आते हुए देखा है
आपको
आपने पुकारा मुझे
‘कवि’ कहकर
‘सावधान!’
गंभीरता से आपने चेताया
‘अभिमान’ और ‘नम्रता’
प्रतीत होते हैं
जुड़वां
किन्तु जनक
अलग हैं उनके
एक को जना
अहं ने
दूसरे को
सदाचार एवं पवित्रता ने
नश्वर प्राणी
नहीं है
शब्द-सृजक
कोई दरवाजा नहीं
आपके उद्यान का
ठहरना चाहे
वहाँ पर जो
उन सभी का
स्वागत है
शब्द
आपके उद्यान में
उगते हैं
कल्पना की
चाहरदीवारी से परे
समय की धुंध से होकर
होते हैं प्रकट
माली हैं आप
शब्दों के
वे बीज हैं
आत्मा के गीतों के
मैं आया हूँ
आपके शब्दों का
पान करने
उद्धार करने
अपने इस शरीर का
और करने अनुप्राणित
अपनी आत्मा को
इससे पहले कि
मैं प्रवेश करूँ
नये दिवस में
अगली यात्रा के लिये
अंग्रेजी भाषा से अनुवाद : अवनीश सिंह चौहान
जरूरी नहीं…
जरूरी नहीं
जरूरी नहीं
जो पढ़ा है तुमने
पढ़ा सकोगे
जिनके घर
जिनके घर
बने हुए शीशे के
लगाते पर्दे
डर
घर-घर में
फैला रहे हैं डर
टीवी-चैनल
एक कहानी
तेरी-मेरी है
बस एक कहानी
राजा न रानी
भोग
प्रभु के लिए
छप्पन भोग बने
खाये पुजारी
समय नहीं
बड़े दिनों से
मन है मिलने का
समय नहीं
उल्लू के पठ्ठे
उल्लू के पठ्ठे
उल्लू नहीं होंगे तो
भला क्या होंगे
किसे पता है
किसे पता है
नाचे कृष्ण-मुरारी
वृन्दावन में
मैया
लगे अधूरा
यह घर, संसार
मैया के बिना
आग
घोंसले जले
आग से जंगल में
भागे परिंदे
प्रेमी
प्रेमी युगल
अक्सर मुस्काते हैं
मन ही मन
प्रश्न
प्रश्न यह है
कब तक जिएंगे
मर-मर के
चलते रहे
अजाने रास्ते
चलते रहे पाँव
ज़िंदगी भर
आखिर फिर
आखिर फिर
फूल हुए शिकार
पतझड़ में
अजब राग
अजब राग
अपने-अपने का
बजाते लोग
प्रतिनिधि
पण्डे कहते
खुद को प्रतिनिधि
भगवान का
खाता
दर्ज बही में
हम सब का खाता
होता भी है क्या ?
सफर
कहने को तो
सफर है सुहाना
थकते जाना
कितने कवि
कितने कवि
कविता लिखने से
हुए पागल
पड़ी लकड़ी
पड़ी लकड़ी
जब भी है उठायी
आफ़त आयी
पहल
पहल हुई
महिला हो मुखिया
कागज़ पर
नदिया
नदिया चली
तटों से गले मिल
पिया के घर
तारे
रास्ता दिखाते
जगमगाते तारे
रोड किनारे
उसूल
कैसा उसूल
पत्थरों के हवाले
मासूम फूल
अब तो जागो !
कौन देख रहा है
हमारे बहते आँसू
लहूलुहान मन
और तन
जिस पर
करते आए हैं
प्रहार
जाने कितने लोग
सदियाँ गुजर गईं
पीड़ाएँ भोगती रहीं
हमारी पीढियां
हमने
फूल दिए
फल दिए
और दीं
तमाम औषधियाँ
फिर भी
हम रहे
उपेक्षित
पीड़ित
अपने ही घर में
अपनों के ही बीच
अब तो जागो-
हे कर्णधारो!
क्योंकि
हम बचेंगे
तो बचेगा
धरा पर
जल और जीवन
हम बंजारे
हम बंजारे
मारे-मारे
फिरते-रहते
गली-गली
जलती भट्ठी
तपता लोहा
नए रंग ने
है मन मोहा
चाहें जैसा
मोड़ें वैसा
धरे निहाई
अली-बली
नए-नए-
औज़ार बनाएँ
नाविक के
पतवार बनाएँ
रही कठौती
अपनी फूटी
खा भी लेते
भुनी-जली
राहगीर मिल
ताने कसते
हम हैं फिर भी
रहते हंसते
अभी आपका
समय सुनहरा
जो सुन लेते
बुरी-भली
मेरे लिये
कहो जी कहो तुम
कहो कुछ अब तो कहो
मेरे लिये!
भट्ठी-सी जलती हैं
अब स्मृतियाँ सारी
याद बहुत आती हैं
बतियाँ तुम्हारी
रहो जी रहो तुम
रहो साँसो में रहो
मेरे लिये!
बेचेनी हो मन में
हो जाने देना
हूक उठे कोई तो
तडपाने देना
सहो जी सहो तुम
सहो धरती-सा सहो
मेरे लिये!
चारों ओर समंदर
यह पंछी भटके
उठती लहरों का डर
तन-मन में खटके
मिलो जी मिलो तुम
मिलो कश्ती-सा मिलो
मेरे लिये!
गौरैया
नहीं दीखती
अब गौरैया
गाँव-गली-घर या शहरों में
छत-मुँडेर पर,
गाँव-खेत में
चिड़ीमार ने जाल बिछाए
पकड़-पकड़ कर,
पिंजड़ों में धर
चिड़ियाघर में उसको लाए
सुधिया कभी
दिखे ना कोई
बुत-से लगते चेहरों में
सहमी-सी
बैठी गौरैया
टूटे पर अपने सहलाए
दम घुटता है
साँसें दुखतीं
उड़ जाने की आस जगाए
गोते खाती है
छिन-पलछिन
अंदर-बाहर की लहरों में
दाना भी है,
पानी भी है
मीठे बोल, रवानी भी है
पराधीनता में
सुख कैसा?
बात सभी ने जानी भी है
राजा-रानी,
सभी यहाँ चुप
रखकर उसको पहरों में!
फिर महकी अमराई
फिर महकी अमराई
कोयल की ऋतु आई
नए-नए बौरों से
डाल-डाल पगलाई !
एक प्रश्न बार-बार
पूछता है मन उघार
तुम इतना क्यों फूले?
नई-नई गंधों से
सांस-सांस हुलसाई!
अंतस में प्यार लिए
मधुरस के आस लिए
भँवरा बन क्यों झूले?
न-नए रागों से
कली-कली मुस्काई!
फिर महकी अमराई
कोयल की ऋतु आई
नए-नए बौरों से
डाल-डाल पगलाई!
वे ठौर-ठिकाने
बीत रहे हैं
मास-दिवस औ’
बीत रहे हैं पल
यादों में वे ठौर-ठिकाने
नैनों में मृदुजल
ताल घिरा पेड़ों से जैसे
घिरे हुए थे बाहों में
कूज रहे सुग्गे ज्यों तिरियां
गायें सगुन उछाहों में
आँचल में इक
मधुफल टपका
चूम लिया करतल
शाम, जलाशय
तिरते पंछी
रात
पेड़ पर आ बैठे
चक्कर कई लगा कर
हम तुम
झुरमुट नीचे जा बैठे
पर फड़का कर
पंछी कहते
देर हुई घर चल
नीड़ बुलाए
मंगल पाखी
वापस आओ
सूना नीड़ बुलाए
फूली सरसों
खेत हमारे
रंगहीन है
बिना तुम्हारे
छत पर मोर
नाचने आता
सुगना शोर मचाए
आँचल-धानी
तुमको हेरे
रुनझुन पायल
तुमको टेरे
दिन सीपी के
चढ़ आये हैं
मोती हूक उठाए
ताल किनारे
हैं तनहा हम
हंस पूछते
क्यों आँखें नम
द्वार खड़ा जो
पेड़ आम का
बहुत-बहुत कड़ुवाए
धूप आँगने आई
डूबा था इकतारा
मन में
जाने कब से
चाह रहा था
खुलना-खिलना
अपने ढब से
दी झनकार सुनाई
खुलीं खिड़कियाँ
दरवाज़े
जागे परकोटे
चिड़ियाँ छोटीं
तोते मोटे
मिलकर लोटे
दृश्य लगे सुखदाई
महकीं गलियाँ
चहकीं सड़कें
गाजे-बाजे
लोग घरों से
आये बाहर
बनकर राजे
गूँजी फिर शहनाई
अनुभव के मोती
बन कर ध्वज हम
इस धरती के
अम्बर में फहराएँ
मेघा बन कर
जीवन जल दें
सागर-सा लहराएँ
टूटे-फूटे
बासन घर के
अपनी व्यथा सुनाते
सभी अधूरे सपने
मिल कर
अक्सर हमें रुलाते
पथ के कंटकवन को
आओ
मिल कर आज जराएँ
बाग़ लगाएं
फूल बनें हम
कोयल-सा कुछ गाएँ
भोर किरण का
रूप धरें हम
तम को दूर भगाएँ
चुन-चुन कर
अनुभव के मोती
जोड़ें सभी शिराएँ
चिड़ियारानी
दिन भर फ़ोन
धरे कानों पर
चिड़ियाँ बैठीं क्या बतियाएँ
बात-बात में खुश हो जाना
जरा देर में ख़ुद चिढ़ जाना
अपनी-उनकी, उनकी-अपनी
जाने कितनी कथा सुनाना
एक दिवस में
कट जाती हैं
कई साल की दिनचर्याएं
बातें करती घर आँगन की
सूने-भुतहे पिछवारे की
क्या खाया, क्या पाया जग में
बातें होतीं उजयारे की
कभी-कभी होतीं कनबतियां
आँखें लज्जा से भर जाएँ
ढीली-अण्टी कभी न करती
‘मिस कॉलों’ से काम चलाना
कठिन समय है, सस्ते में ही
उँगली के बल उसे नचाना
‘टाइम पास’ किया करती हैं
रच कर कल्पित गूढ़ कथाएँ
जाल तोड़ कर कैसे-कैसे
खोज-खोज कर दाना-पानी
धीरे-धीरे चिड़ियारानी
हुई एक दिन बड़ी सयानी
फुर्र हो गईं सारी बातें
घेर रहीं भावी चिंताएँ