अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
ये काम सहल बहुत है मगर नहीं करना
ज़रा ही देर में क्या जाने क्या हो रात का रंग
सो अब क़याम सर-ए-रह-गुज़र नहीं करना
बयाँ तो कर दूँ हक़ीक़त उस एक रात की सब
पे शर्त ये है किसी को ख़बर नहीं करना
रफ़ू-गरी को ये मौसम है साज़-गार बहुत
हमें जुनूँ को अभी जामा दर नहीं करना
ख़बर है गर्म किसी क़ाफ़िले के लुटने की
ये वाक़िया है तो सैर ओ सफ़र नहीं करना
ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
फिर कोई फूल हो के पत्थर हो
मैं हूँ ख़्वाब-ए-गिराँ के नर्ग़े में
रात गुज़रे तो मारका सर हो
फिर ग़नीमों से बे-ख़बर है सिपाह
फिर अक़ब से नुमूद लश्कर हो
क्या अजब है के ख़ुद ही मारा जाऊँ
और इल्ज़ाम भी मेरे सर हो
हैं ज़मीं पर जो गर्द-बाद से हम
ये भी शायद फलक का चक्कर हो
उस को ताबीर हम करें किस से
वो जो हद-ए-बयाँ से बाहर हो
देखना ही जो शर्त ठहरी है
फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो
यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
गहराई में क्यूँ न उतर कर देखा जाए
तेज़ हवाएँ याद दिलाने आई हैं
नाम तेरा फिर रेत पे लिख कर देखा जाए
शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
अंदर देखा जाए के बाहर देखा जाए
गाती मौज़ूँ शाम ढले सो जाएँगी
बाद में साहिल पहले समंदर देखा जाए
सारे पत्थर मेरी ही जानिब उठते हैं
उन से कब ‘महफ़ूज़’ मेरा सर देखा जाए
ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के
ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
क्या कोई आग बुझ गई सरहद-ए-जाँ के आस-पास
शोर-ए-हवा-ए-शाम-ए-ग़म यूँ तो कहाँ कहाँ नहीं
सुनिए तो बस सुनाई दे दर्द-ए-निहाँ के आस-पास
बुझ गए क्या चराग़ सब ऐ दिल-ए-आफ़ियत-तलब
कब से भटक रहे हैं हम कू-ए-ज़ियाँ के आस-पास
उन को तलाश कीजिए हम तो मिलेंगे आप ही
अपनी भी जा-ए-बाश है गुम-शुदगाँ के आस-पास
सीना-ए-शब को चीर कर देखो तो क्या समाँ है अब
मंज़िल-ए-दिल के सामने कूचा-ए-जाँ के आस-पास
वो भी अजब सवार था आया इधर उधर गया
पहुँची न मेरी ख़ाक भी उस की इनाँ के आस-पास
आलम-ए-सर्द-ओ-गर्म की क्या हो भला उन्हें ख़बर
वो जो रहे हैं उम्र भर शोला-रुख़ाँ के आस-पास
उठिए के फिर ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
उठिए के फिर ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
ये कारवाँ है आख़िर कब तक रुका रहेगा
ज़ख़्मों को अश्क-ए-ख़ूँ से सैराब कर रहा हूँ
अब और भी तुम्हारा चेहरा खिला रहेगा
बंद-ए-क़बा का खुलना मुश्किल बहुत है लेकिन
जो खुल गया तो फिर ये उक़दा खुला रहेगा
सरगर्मी-ए-हवा को देखा है पास दिल के
इस आग से ये जंगल कब तक बचा रहेगा
खुलती नहीं है या रब क्यूँ नींद रफ़्तगाँ की
क्या हश्र तक ये आलम सोया पड़ा रहेगा
यकसर हमारे बाज़ू शल हो गए हैं या रब
आख़िर दराज़ कब तक दस्त-ए-दुआ रहेगा
उधर से आए तो फिर लौट कर नहीं गए हम
उधर से आए तो फिर लौट कर नहीं गए हम
पुकारती रही दुनिया मगर नहीं गए हम
अगरचे ख़ाक हमारी बहुत हुई पामाल
ब-रंग-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा उभर नहीं गए हम
हुसूल कुछ न हुआ जुज़ ग़ुबार-ए-हैरानी
कहाँ कहाँ तेरी आवाज़ पर नहीं गए हम
मना रहे थे वहाँ लोग जश्न-ए-बे-ख़्वाबी
यहाँ थे ख़्वाब बहुत सो उधर नहीं गए हम
चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
तो देखते ही रहे क्यूँ उतर नहीं गए हम
रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
जलते जलते सब कुछ जल कर ख़ाक हुआ
सब को अपनी अपनी पड़ी थी पूछते क्या
कौन वहाँ बच निकला कौन हलाक हुआ
मौसम-ए-गुल से फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ की दूरी क्या
आँख झपकते सारा क़िस्सा पाक हुआ
किन रंगों इस सूरत की ताबीर करूँ
ख़्वाब-नदी में इक शोला पैराक हुआ
नादाँ को आईना ही अय्यार करे
ख़ुद में हो कर वो कैसा चालाक हुआ
तारीकी के रात अज़ाब ही क्या कम थे
दिन निकला तो सूरज भी सफ़्फ़ाक हुआ
दिल की आँखें खोल के राह चलो ‘महफ़ूज़’
देखो क्या क्या आलम ज़ेर-ए-ख़ाक हुआ
फेंकते संग सदा-ए-दरिया-ए-वीरानी में हम
फेंकते संग सदा-ए-दरिया-ए-वीरानी में हम
फिर उभरते दाएरे-दर-दाएरे पानी में हम
इक ज़रा यूँ ही बसर कर लें गिराँ जानी में हम
फिर तुम्हें शाम ओ सहर रक्खेंगे हैरानी में हम
इक हवा आख़िर उड़ा ही ले गई गर्द-ए-वजूद
सोचिए क्या ख़ाक थे उस की निगह-बानी में हम
वो तो कहिए दिल की कैफ़ियत ही आईना न थी
वरना क्या क्या देखते इस घर की वीरानी में हम
महव-ए-हैरत थे के बे-मौसम नदी पायाब थी
बस खड़े देखा किये उतरे नहीं पानी में हम
उस से मिलना और बिछड़ना देर तक फिर सोचना
कितनी दुश्वारी के साथ आए थे आसानी में हम
अँधेरा सा क्या था उबलता हुआ
अँधेरा सा क्या था उबलता हुआ
के फिर दिन ढले ही तमाशा हुआ
यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
ये रस्ता है सब मेरा देखा हुआ
न देखो तुम इस नाज़ से आईना
के रह जाए वो मुँह ही तकता हुआ
न जाने पस-ए-कारवाँ कौन था
गया दूर तक मैं भी रोता हुआ
कभी और कश्ती निकालेंगे हम
अभी अपना दरिया है ठहरा हुआ
जहाँ जाओ सर पर यही आसमाँ
ये ज़ालिम कहाँ तक है फैला हुआ
बदन सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है
बदन सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है
तो फिर ये ख़्वाब-किनारा कहाँ से मिलता है
ये धूप छाँव सलामत रहे के तेरा सुराग़
हमें तो साया-ए-अब्र-ए-रवाँ से मिलता है
हम अहल-ए-दर्द जहाँ भी हैं सिलसिला सब का
तुम्हारे शहर के आशुफ़्तगाँ से मिलता है
जहाँ से कुछ न मिले तो भी फ़ाएदे हैं बहुत
हमें ये नक़्द इसी आस्ताँ से मिलता है
फ़ज़ा ही सारी हुई सुर्ख़-रू तो हैरत क्या
के आज रंग-ए-हवा गुल-रुख़ाँ से मिलता है
बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो
ग़ुबार जा के उसी कारवाँ से मिलता है
छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ
छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ
अपना तो सब के हाथों ख़सारा बहुत हुआ
क्या बे-सबब किसी से कहीं ऊबते हैं लोग
बावर करो के ज़िक्र तुम्हारा बहुत हुआ
बैठे रहे के तेज़ बहुत थी हवा-ए-शौक़
पस्त-ए-हवस का गरचे इरादा बहुत हुआ
आख़िर को उठ गए थे जो इक बात कह के हम
सुनते हैं फिर उसी का इआदा बहुत हुआ
मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
सोचा तो उस ख़याल से सदमा बहुत हुआ
अच्छा तो अब सफ़र हो किसी और सम्त में
ये रोज़ ओ शब का जागना सोना बहुत हुआ
किसी का अक्स-ए-बदन था न वो शरारा था
किसी का अक्स-ए-बदन था न वो शरारा था
तो मैं ने ख़ेमा-ए-शब से किसे पुकारा था
कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की
तमाम रात वहाँ ज़िक्र बस तुम्हारा था
मकाँ में क्या कोई वहशी हवा दर आई थी
तमाम पैरहन-ए-ख़्वाब पारा पारा था
उसी को बार-ए-दिगर देखना नहीं था मुझे
मैं लौट आया के मंज़र वही दोबारा था
सुबुक-सरी ने गिरानी अजीब की दिल पर
है अब ये बोझ के वो बोझ क्यूँ उतारा था
शब-ए-सियाह सफ़र ये भी राएगाँ तो नहीं
वो क्या हुआ जो मेरे साथ इक सितारा था