Skip to content

Anandgaurav.jpg

पते पर जो नहीं पहुँची उस चिट्ठी जैसा मन है 

पते पर जो नहीं पहुँची
उस चिट्ठी जैसा मन है
रिक्त अंजली सा मन है

आहत सब परिभाषाएँ
मुझमें सारी पीड़ाएँ
मौन को विवश वाणी सी
बुझी अनगिनत प्रतिभाएँ
आस का गगन निहारती
खो गई सदी सा मन है

मीरा में भजन सा बहा
राधा में गगन सा दहा
बाती तो नित बाली पर
मंत्र मौन अनकहा रहा
दिवस दोपहर बुझा-बुझा
शाम बाबरी-सा मन है

मीठी यादों से छन-छन
उभरे ज़ख़्मों के रुदन
दमन कालजयी हो गए
नीलामी पर चढ़े नमन
अधरों पर जो सजी नहीं
उसी बाँसुरी-सा मन है

खिड़की से चिपका है दिन

खिड़की से चिपका है दिन
घर सन्नाटा बहता है
आँगन गुमसुम रहता है

वेदना दहाड़-सी हुई
विवशता पहाड़-सी हुई
बात जोड़ने की अब तो
सर्वथा बिगाड़-सी हुई
आसपास का विकसित भ्रम
निष्ठुरताएँ कहता है

कोंपल शाखों की अनबन
टेसू के लुप्त हुए वन
शब्द के परखने में ही
उलझ गए गीतों के मन
प्रश्न सदा प्रश्न ही रहा
पीड़ा के प्रण सहता है

श्वाँस-श्वाँस रीते सपने
मुझसे सब जीते अपने
आहट भी मौन हो गई
साँकल के बीते बजने
हूँ परम्परा बिछोह की
चटका दर्पण कहता है

प्यार का निराला युग हूँ 

प्यार का निराला युग हूँ
न यूँ अनमना कर देखो
मुझे गुनगुना कर देखो

मन दर्पण में बस तुम हो
सुधि सावन में बस तुम हो
श्वाँस-श्वाँस मेरे पूजन
और नमन में बस तुम हो
अधरों पर गीत की ऋचा
स्वर सुधा सजाकर देखो

काँटों की छाँव-सा हुआ
घाव भरे पाँव-सा हुआ
मेरा यह जीवन तुम बिन
पीड़ा के गाँव-सा हुआ
महका दो गीत का गगन
गले से लगाकर देखो

आहत है स्वप्न का गगन

आहत है स्वप्न का गगन
चेहरा है बिखरा काजल

हृदय नेह का सागर है
दृष्टि मेघमय गागर है
जब से चैतन्य मन हुआ
पल-पल जैसे चाकर है
चित्र में प्रविष्ट हो गया
बिन बरसे काला बादल

युग हुए न लौटे घर हम
हो गए छलावे मौसम
नून छिड़कती जख़्मों पर
सावनी सुरीली सरगम
सोच हो गई मधुशाला
चाहना रही गंगाजल

घर शहर की बत्तियाँ गुल हैं 

घर शहर की बत्तियाँ गुल हैं
ख़्वाब छत पर हैं टहलते
खोजते संभावनाएँ

मात्र हम परछाइयों को
ओढ़कर इतरा रहे हैं
हो ऋचाओं से विमुख
निज लक्ष्य ही बिसरा रहे हैं
दृष्टि में उगने लगी हैं
दंश सी संकीर्णताएँ

रोज़ मदिरा सोच में गुम
पीढ़ियाँ हैं जागरण पर
चंद नंगे तन सजाते
सभ्यताएँ आचरण पर
वासना की दलदलों धँसतीं
सृजक नवकल्पनाएँ

चुप्पियों को तौलती हैं
अनगिनत चाहें गगन पर
लोग सोए हैं लपेटे
नाग यादों के बदन पर
हैं थके सहमे हुए सपने
सजग हैं वर्जनाएँ

बाँट दिए घट तट पनघट सब

बाँट दिए घट तट पनघट सब
भाव बेग तन-मन बाँटे हैं
आँगन घर उपजे काँटे हैं

हम अनैतिहासिक अनुश्रुति से
हैं अनुस्यूत अनूतर कृति से
सदाचार के हाट सजाए
बैठे अथक अनैतिक भृति से
लिए त्राटकी अश्रु निवेदन
सबने निजी स्वार्थ छाँटे हैं

सरोकार सब व्यापारी से
विस्मृत हुए महामारी से
गीत गात सद्भावों के स्वर
आहत गूँगी लाचारी से
पुनः अहिल्या पाहन जैसी
राम आस पथ सन्नाटे हैं

आवाहन अब नहीं जागते
सुर चेतन भी नहीं रागते
राम लखन सीता रामायण
अब चौबारे नहीं बाँचते
नंगी पीठों को आयातित
आर लगे पैनी साँटे हैं

चाह स्वर्णिम भोर की

चाह स्वर्णिम भोर की
आकार बौने जागरण के
प्रावधानों की उलझती
भीड़ जीवन हो गई है

कृत्य काले दृश्य उजले
देह भस्मीली दिशा है
नृत्य बेड़ी में लपेटे
घूमती फिरती ऋचा है
पीर दूजों की चुराती
मानवी रुत सो गई है

नींद ओढ़े बिजलियाँ हैं
रतजगे पर तितलियाँ हैं
अब स्वयँ को पूजने की
आरती हैं तालियाँ हैं
जो धरा पूजे सजाए
वह जवानी खो गई है

हैं पराजित खोज सारी
गीत स्वर मृदु सोच सारी
अब सुगंधों से विमुख हैं
मूर्छित हैं फूल क्यारी
सद सुधा आवाहना
बेहद ज़रूरी हो गई है

बिकने के चलन में यहाँ चाहतें उभारों में हैं

बिकने के चलन में यहाँ
चाहतें उभारों में हैं
हम तुम बाज़ारों में हैं

बेटे का प्यार बिका है
माँ का सत्कार बिका है
जीवन साथी का पल-पल
महका शृंगार बिका है
विवश क्रय करें जो पीड़ा
ऐसे व्यवहारों में हैं

संदर्भों की खामी है
सपनों की नीलामी है
अवगाहन प्रीत मीत का
परिणामित नाकामी है
बस अपमानित होने को
सिलसिले कतारों में हैं

जो चाहें और किसी को
साथ जिएँ और किसी को
चित्र सजाकर कृष्णा का
धूपें कजरी गठरी को
इन्हीं मुखौटों के युग में
कुछ गवाह नारों में हैं

घबराहट घुटन बहुत है

घबराहट घुटन बहुत है
प्रीत पावना सावन दो
दो पूरा अपनापन दो

गुणा भाग की नगरी में
नहीं शेष कुछ गठरी में
सपने मुस्कान रहित से
तपते हैं दोपहरी में
सुलगी झुलसी रातों को
अब नींदों का चंदन दो

तुम रूठे तो जग रूठा
मौन हुआ गात अनूठा
छूट गया महका आँचल
दृश्य-दृश्य दर्पण झूठा
सुबक-सुबक चलतीं साँसे
औषध से आश्वासन दो

पीड़ा के संयोजन में
प्रेम यज्ञ आयोजन में
संवेदन भटकें राहें
शृंगारों के उपवन में
जहाँ मुस्कुराये थे हम
वो पहला-पहलापन दो

Leave a Reply

Your email address will not be published.