निगाहों दिल का अफसाना
निगाहों दिल का अफ़साना करीब-ए-इख्तिताम आया ।
हमें अब इससे क्या आया शहर या वक्त-ए-शाम आया ।।
ज़बान-ए-इश्क़ पर एक चीख़ बनकर तेरा नाम आया,
ख़िरद की मंजिलें तय हो चुकी दिल का मुकाम आया ।
न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,
तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बला-ए-बाम आया ।
इसे आँसू न कह एक याद अय्यामें गुलिश्ताँ है,
मेरी उम्रे खाँ को उम्रे रफ़्ता का सलाम आया ।
बेरहमन आब-ए-गंगा शैख कौशर ले उड़ा उससे,
तेरे होठों को जब छूता हुआ मुल्ला का जाम आया |
सफ़-ए-अव्वाल से फ़क्त एक ही मयक्वार उठा
सफ़-ए-अव्वाल से फ़क्त एक ही मयक्वार उठा ।
कितनी सुनासान है तेरी महफ़िल साकी ।।
ख़त्म हो जाए न कहीं ख़ुशबू भी फूलों के साथ,
यही खुशबू तो है इस बज़्म का हासिल साखी ।
लहू का टीका
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
तिरे नामूस पर सब कुछ लुटा देने का वक़्त आया
वह ख़ित्ता देवताओं की जहां आरामगाहें थीं
जहां बेदाग़ नक़्शे-पाए-इंसानी से राहें थीं
जहां दुनिया की चीख़ें थीं, न आंसू थे न आहें थीं
उसी को जंग का मैदां बना देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
रुपहली बर्फ पर है सुर्ख़ ख़ूं की आज इक धारी
सहर की नर्म किरनों ने यहां दोशीज़गी खोई
हुई आलूदा यह मासूम दुनिया अप्सराओं की
अब इन नापाक धब्बों को मिटा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
गिराकर हर निज़ाए-दर्मियां की चारदीवारी
सियासत की धड़ेबाज़ी, ज़बां की तफ़रिक़ाकारी
मिटा कर सूबा-ओ-ईमानो-मिल्लत की हदें सारी
हिमाला पर नयी सरहद बना देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
हर इक आंसू का शोला जज़्ब करके दिल के ख़िर्मन में
हर इक फ़रियाद की लै ढाल कर इक अज़्मे-आहन में
हर इक नारे की बिजली करके आसूदा निशेमन में
हर इक बिजली को दुश्मन पर गिरा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
हर इक बाज़ारो-कू को रज़्मगह शायद बनाना हो
हर इक दीवारो-दर पर मोर्चा शायद बनाना हो
ख़ुद अपनी किश्त को आतिशकदा शायद बनाना हो
हर इक चप्पे पे आहूती चढ़ा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
यह अहले-ख़ाना की ग़ासिब लुटेरों से लड़ाई है
यह चढ़ती रात की रौशन सवेरों से लड़ाई है
चराग़े – आदमियत की, अंधेरों से लड़ाई है
हर इक बस्ती में इंसां को सदा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
निक़ाबे-सुर्ख़ के पीछे है पीली शक्ले-ख़ाक़ानी
वही सफ़्फ़ाक नज़रें हैं, वही है चीने पेशानी
वही चंगेज़ का जज़्बा, वही ख़्वाबे- जहांबानी
अब इन ख़्वाबों को मट्टी में मिला देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
जबानाने-वतन आओ क़तार अन्दर कतार आओ
दिलों में आग, नज़रों में लिए बर्को-शरार आओ
बढ़ो, क़हरे-ख़ुदा अब बन के सूए-कारज़ार आओ
जलाले-ग़ैरते-क़ौमी दिखा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
बहादुर हिन्द के लड़ते हैं कैसे आज दिखलाओ
रिवायाते-शुजाअत को नये कुछ बाब दे जाओ
मिटो तो दास्तानें हों, जियो तो ताज़दार आओ
लहू का, मां को फिर टीका लगा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
महात्मा गाँधी का क़त्ल
मश्रिक़ का दिया गुल होता है, मग्रिब पे सियाही छाती है
हर दिल सुन्न-सा हो जाता है, हर साँस की लौ थर्राती है
उत्तर, दक्षिण पूरब, पश्चिम, हर सम्त से इक चीख़ आती है
नौए-इंसां शानों पे लिए गाँधी की अर्थी जाती है
आकाश के तारे बुझते हैं, धरती से धुआँ-सा उठता है
दुनिया को यह लगता है जैसे सर से कोई साया उठता है
कुछ देर को नब्ज़े-आलम भी चलते-चलते रुक जाती है
हर मुल्क का परचम गिरता है हर क़ौम को हिचकी आती है
तहज़ीबे-जहाँ थर्राती है तारीख़े-बशर शर्माती है
मौत अपने किए पर ख़ुद जैसे दिल ही दिल में पछताती है
इंसाँ वह उठा जिसका सानी सदियों में भी दुनिया जन न सकी
मूरत वह मिटी नक़्क़ाश से भी जो बन के दुबारा बन न सकी
देखा नहीं जाता आँखों से यह मंज़रे-इब्रतनाके-वतन[1]
फूलों के लहू से प्यासे हैं अपने ही ख़सो-ख़ाशाके-वतन[2]
हाथों से बुझाया ख़ुद अपने वह शोल:ए-रूहे-पाके-वतन
दाग़ इस से सियहतर कोई नहीं दामन पे तिरे अय ख़ाके-वतन
पैग़ाम अजल लाई अपने इस सबसे बड़े मुहसिन के लिए
अय वाए तुलूए-आज़ादी, आज़ाद हुए इस दिन के लिए
जब नाख़ुने-हिकमत ही टूटे, दुश्वार को आसाँ कौन करे
जब ख़ुश्क हो अब्रे-बाराँ ही शाख़ों को गुलअफ़शाँ कौन करे
जब शोल:ए-मीना सर्द हो ख़ुद जामों को फ़रोजाँ कौन करे
जब सूरज ही गुल हो जाए, तारों में चराग़ाँ कौन करे
नाशादे-वतन ! अफ़सोस तिरी क़िस्मत का सितारा टूट गया
उँगली को पकड़कर चलते थे जिसकी वही रहबर छूट गया
इस हुस्न से कुछ हस्ती में तिरी अज़्दाद[3] हुए थे आके बहम [4]
इक ख़्वाबो-हक़ीक़त का संगम, मिट्टी पे क़दम, नज़रों में इरम [5]
इक जिस्म नहीफ़ो-जार[6] मगर इक अज़्मे-पबानो-मुस्तहकम[7]
चश्मे-बीना, मासूम का दिल-ख़ुर्शीद नफ़स ज़ौक़े-शबनम
वह इज़्ज़[8], गुरूरे-सुल्ताँ भी जिसके आगे झुक जाता था
वह मोम कि जिससे टकराकर लोहे को पसीना आता था
सीने में जो दे काँटो को भी जा उस गुल की लताफ़त क्या कहिए
जो ज़हर पिए अमृत करके उस लब की हलावत[9] क्या कहिए
जिस साँस से दुनिया जाँ पाए उस साँस की निकहत क्या कहिए
जिस मौत पे हस्ती नाज़ करे उस मौत की अज़्मत क्या कहिए
यह मौत न थी क़ुदरत ने तिरे सर पर रक्खा इक ताजे-हयात
थी ज़ीस्त तिरी मेराजे-वफ़ा[10] और मौत तिरी मेराजे-हयात[11]
यकसां नज़दीको-दूर पे था, बाराने-फ़ैज़े-आम[12] तिरा
हर दश्तो-चमन हर कोहो-दिमन में गूँजा है पैग़ाम तिरा
हर ख़ुश्को-तरे-हस्ती पे रक़म है ख़त्ते-जली[13] में नाम तिरा
हर ज़र्रे में तेरा माबद[14] है हर क़तरा तीरथ धाम तिरा
इक लुत्फ़ो-करम के आईं में मरकर भी न कुछ तरमीम हुई
इस मुल्क के कोने-कोने में मिट्टी भी तिरी तक़सीम हुई
तारीख़ में कौमों की उभरे कैसे कैसे मुमताज़ बशर
कुछ मुल्के-ज़मीं के तख़्तनशीं कुछ तख़्ते-फ़लक[15] के ताज बसर
अपनों के लिए जामो-सहबा[16], औरों के लिए शमशीरो-तबर[17]
नर्दे-इंसां[18] पिटती ही राही दुनिया की बिसाते-ताक़त पर
मख़लूक़े-ख़ुदा की बनके सिपर[19] मैदां में दिलावर एक तू ही
ईमाँ के पयम्बर आए बहुत इंसाँ का पयम्बर एक तू ही
बाजूए-खिरद उड़ उड़के थके तेरी रिफ़अत[20] तक जा न सके
ज़िहनों की तजल्ली काम आई ख़ाके भी तिरे काम आ न सके
अल्फ़ाजो-मआनी ख़त्म हुए, उनवां भी तिरा अपना न सके
नज़रों के कंवल जल जल के बुझे परछाईं भी तेरी पा न सके
हर इल्मो-यक़ीं से बालातर तू है वह सिपहरे-ताबिन्दा[21]
सूफ़ी की जहां नीची है नज़र शाइर का तसव्वुर शर्मिन्दा
पस्तिए-सियासत को तूने अपने क़ामत[22] से रिफ़अत दी
ईमाँ की तंगख़याली को इंसान के ग़म की वुसअत दी
हर साँस से दरसे-अम्न[23] दिया, सर जब्र[24] पे दादे-उल्फ़त[25] दी
क़ातिल को भी, गो लब हिल न सके, आंखों से दुआए-रहमत दी
हिंसा को अहिंसा का अपनी पैग़ाम सुनाने आया था
नफ़रत की मारी दुनिया में इक ‘प्रेम संदेसा’ लाया था
इस प्रेम संदेसे को तेरे, सीनों की अमानत बनना है
सीनों से कुदूरत धोने को इक मौजे-नदामत[26] बनना है
इस मौज को बढ़ते बढ़ते फिर सैलाबे-महब्बत बनना है
इस सैले-रवां के धारे को इस मुल्क की क़िस्मत बनना है
जब तक न बहेगा यह धारा, शादाब न होगा बाग़ तिरा
अय ख़ाके-वतन दामन से तिरे धुलने का नहीं यह दाग़ तिरा
जाते जाते भी तू हमको इक ज़ीस्त का उनवां देके गया
बुझती हुई शमए-महफि़ल को फिर शोल:ए-रक़्सां देके गया
भटके हुए गामे-इंसाँ[27] को फिर जाद:ए-इंसां[28] देके गया
हर साहिले-जुल्मत को अपना मीनारे-दरख़्शां[29] देके गया
तू चुप है लेकिन सदियों तक गूँजेगी सदाए-साज़ तिरी
दुनिया को अँधेरी रातों में ढारस देगी आवाज़ तिरी
- ऊपर जायें↑ देश की दयनीय दशा
- ऊपर जायें↑ घास-फूस
- ऊपर जायें↑ पूर्वज
- ऊपर जायें↑ एक
- ऊपर जायें↑ स्वर्ण
- ऊपर जायें↑ जर्जर शरीर
- ऊपर जायें↑ जवान और दृढ़ संकंल्प
- ऊपर जायें↑ विनम्रता
- ऊपर जायें↑ मिठास
- ऊपर जायें↑ वफ़ा की पराकाष्ठा
- ऊपर जायें↑ जीवन की पराकाष्ठा
- ऊपर जायें↑ दया की बारिश
- ऊपर जायें↑ बड़े अक्षर
- ऊपर जायें↑ आराधना-घर
- ऊपर जायें↑ आकाश का सिंहासन
- ऊपर जायें↑ शराब और जाम
- ऊपर जायें↑ तलवार और क़ब्र
- ऊपर जायें↑ चौसर की गोट-इंसान
- ऊपर जायें↑ ढाल
- ऊपर जायें↑ ऊँचाई
- ऊपर जायें↑ चमकता हुआ आकाश
- ऊपर जायें↑ क़द
- ऊपर जायें↑ शांति का पाठ
- ऊपर जायें↑ अत्याचार
- ऊपर जायें↑ प्रेम की दाद
- ऊपर जायें↑ लाज की लहर
- ऊपर जायें↑ इंसान के क़दम
- ऊपर जायें↑ इंसानी मार्ग
- ऊपर जायें↑ प्रकाशमान मीनार
भूले से भी लब पर सुख़न अपना
भूले से भी लब पर सुख़न अपना नहीं आता
हाँ हाँ मुझे दुनिया में पनपना नहीं आता
दिल को सर-ए-उल्फ़त भी है रुसवाई का डर भी
उस को अभी इस आँच में तपना नहीं आता
ये अश्क-ए-मुसलसल हैं महज़ अश्क-ए-मुसलसल
हाँ नाम तुम्हारा मुझे जपना नहीं आता
तुम अपने कलेजे पे ज़रा हाथ तो रक्खो
क्यूँ अब भी कहोगे के तड़पना नहीं आता
मै-ख़ाने में कुछ पी चुके कुछ जाम ब-कफ़ हैं
साग़र नहीं आता है तो अपना नहीं आता
ज़ाहिद से ख़ताओं में तो निकलूँगा न कुछ कम
हाँ मुझ को ख़ताओं पे पनपना नहीं आता
भूले थे उन्हीं के लिए दुनिया को कभी हम
अब याद जिन्हें नाम भी अपना नहीं आता
दुख जाता है जब दिल तो उबल पड़ते हैं आँसू
‘मुल्ला’ को दिखाने का तड़पना नहीं आता
दिल की दिल को ख़बर नहीं मिलती
दिल की दिल को ख़बर नहीं मिलती
जब नज़र से नज़र नहीं मिलती
सहर आई है दिन की धूप लिए
अब नसीम-ए-सहर नहीं मिलती
दिल-ए-मासूम की वो पहली चोट
दोस्तों से नज़र नहीं मिलती
जितने लब उतने उस के अफ़साने
ख़बर-ए-मोतबर नहीं मिलती
है मक़ाम-ए-जुनूँ से होश की रह
सब को ये रह-गुज़र नहीं मिलती
नहीं ‘मुल्ला’ पे उस फ़ुग़ाँ का असर
जिस में आह-ए-बशर नहीं मिलती
दुनिया है ये किसी का न इस में
दुनिया है ये किसी का न इस में क़ुसूर था
दो दोस्तों का मिल के बिछड़ना ज़रूर था
उस के करम पे शक तुझे ज़ाहिद ज़रूर था
वरना तेरा क़ुसूर न करना क़ुसूर था
तुम दूर जब तलक थे तो नग़मा भी था फ़ुग़ाँ
तुम पास आ गए तो अलम भी सुरूर था
इस इक नज़र के बज़्म में क़िस्से बने हज़ार
उतना समझ सका जिसे जितना शुऊर था
इक दर्स थी किसी की ये फ़न-कारी-ए-निगाह
कोई न ज़द में था न कोई ज़द से दूर था
बस देखने ही में थीं निगाहें किसी की तल्ख़
शीरीं सा इक पयाम भी बैनस-सुतूर था
पीते तो हम ने शैख़ को देखा नहीं मगर
निकला जो मै-कदे से तो चेहरे पे नूर था
‘मुल्ला’ का मस्जिदों में तो हम ने सुना न नाम
ज़िक्र उस का मै-कदों में मगर दूर दूर था
ख़मोशी साज़ होती जा रही है
ख़मोशी साज़ होती जा रही है
नज़र आवाज़ होती जा रही है
नज़र तेरी जो इक दिल की किरन थी
ज़माना-साज़ होती जा रही है
नहीं आता समझ में शोर-ए-हस्ती
बस इक आवाज़ होती जा रही है
ख़मोशी जो कभी थी पर्दा-ए-ग़म
यही ग़म्माज़ होती जा रही है
बदी के सामने नेकी अभी तक
सिपर-अंदाज़ होती जा रही है
ग़ज़ल ‘मुल्ला’ तेरे सेहर-ए-बयाँ से
अजब एजाज़ होती जा रही है
क़हर की क्यूँ निगाह है प्यारे
ख़मोशी साज़ होती जा रही है
नज़र आवाज़ होती जा रही है
नज़र तेरी जो इक दिल की किरन थी
ज़माना-साज़ होती जा रही है
नहीं आता समझ में शोर-ए-हस्ती
बस इक आवाज़ होती जा रही है
ख़मोशी जो कभी थी पर्दा-ए-ग़म
यही ग़म्माज़ होती जा रही है
बदी के सामने नेकी अभी तक
सिपर-अंदाज़ होती जा रही है
ग़ज़ल ‘मुल्ला’ तेरे सेहर-ए-बयाँ से
अजब एजाज़ होती जा रही है
रह-रवी है न रह-नुमाई है
रह-रवी है न रह-नुमाई है
आज दौर-ए-शकिस्ता-पाई है
अक़्ल ले आई ज़िंदगी को कहाँ
इश्क़-ए-नादाँ तेरी दुहाई है
है उफ़ुक़ दर उफ़ुक़ रह-ए-हस्ती
हर रसाई में नारसाई है
शिकवे करता है क्या दिल-ए-नाकाम
आशिक़ी किस को रास आई है
हो गई गुम कहाँ सहर अपनी
रात जा कर भी रात आई है
जिस में एहसास हो असीरी का
वो रिहाई कोई रिहाई है
कारवाँ है ख़ुद अपनी गर्द में गुम
पाँव की ख़ाक सर पे आई है
बन गई है वो इल्तिजा आँसू
जो नज़र में समा न पाई है
बर्क़ ना-हक़ चमन में है बद-नाम
आग फूलों ने ख़ुद लगाई है
वो भी चुप हैं ख़मोश हूँ मैं भी
एक नाज़ुक सी बात आई है
और करते ही क्या मोहब्बत में
जो पड़ी दिल पे वो उठाई है
नए साफ़ी में हो न आलाइश
यही ‘मुल्ला’ की पारसाई है
ज़िंदगी गो कुश्ता-ए-आलाम है
ज़िंदगी गो कुश्ता-ए-आलाम है
फिर भी राहत की उम्मीद-ए-ख़ाम है
हाँ अभी तेरी मोहब्बत ख़ाम है
तेरे दिल में काविश-ए-अंजाम है
इश्क़ है मैं हूँ दिल-ए-नाकाम है
इस के आगे बस ख़ुदा का नाम है
आ कहाँ है तू फ़रेब-ए-आरज़ू
आज ना-कामी से लेना काम है
मैं वही हूँ दिल वही अरमाँ वही
एक धोका गर्दिश-ए-अय्याम है
अपने जी में ये के दुनिया छोड़ दें
और दुनिया को हमीं से काम है
जल चुके चश्म-ए-अइज़्ज़ा में चराग़
सो भी जा ‘मुल्ला’ के वक़्त-ए-शाम है