लाला-ज़ारों में ज़र्द फूल हूँ मैं
लाला-ज़ारों में ज़र्द फूल हूँ मैं
फ़स्ल-ए-गुल है मगर मलूल हूँ मैं
चाँद-तारों को रश्क है मुझ पर
तेरे क़दमों की सिर्फ़ धूल हूँ मैं
क्यूँ मुझे संगसार करते हो
कब ये मैं ने कहा रसूल हूँ मैं
नूर-ए-सर-मस्ती-ए-अबद हूँ मगर
मय-ए-शफ़्फ़ाफ़ में हुलूल हूँ मैं
रंज-ओ-ग़म क्यूँ न मेरी क़द्र करें
बे-ग़रज़ और बा-उसूल हूँ मैं
चाँदनी क्या पयाम लाई है
आज कुछ और भी मलूल हूँ मैं
सब के हक़ में हूँ शाख़-ए-गुल लेकिन
सिर्फ़ अपने लिए बबूल हूँ मैं
मुझ पे ही यूरिश-ए-अलम क्यूँ है
जब हक़ीक़त में तेरी भूल हूँ मैं
ग़म-ए-हिज्राँ ही वो सही ‘आबिद’
कोई तो है जिसे क़ुबूल हूँ मैं
अगले पड़ाव पर यूँही ख़ेमा लगाओगे
अगले पड़ाव पर यूँही ख़ेमा लगाओगे
जितनी भी है सफ़र की थकन भूल जाओगे
बाहर हवा-ए-तेज़ लगाए हुए है घात
घर से जो निकले अब कि पलट कर न आओगे
हर शख़्स अपने आप में मसरूफ़ है यहाँ
किस को फ़साना-ए-दिल-मुज़्तर सुनाओगे
ताबिंदा-ख़्वाब देख कर आँखें खुलेंगी जब
ज़ुल्मात के बग़ैर यहाँ कुछ न पाओगे
इक दूसरे से हो के अलग ख़ुश रहेगा कौन
तड़पेंगे हम भी ख़ुद भी तुम आँसू बहाओगे
जा तो रहे हो जिंस-ए-वफ़ा की तलाश में
साथ अपने यासियत के सिवा कुछ न लाओगे
गिर्दाब सामने है मुख़ालिफ़ हवाएँ हैं
कश्ती को कैसे जानिब-साहिल घुमाओगे
जिस को ख़ुलूस समझे हुए थे वो क्या हुआ
कितना यक़ीन था तुम्हें धोका न खाओगे
पर्बत हैं बर्फ़-पोश क़दम देख-भाल कर
‘आबिद’ फिसल गए तो सँभलने न पाओगे
जब आसमान पर मह-ओ-अख़्तर पलट कर आए
जब आसमान पर मह-ओ-अख़्तर पलट कर आए
हम रुख़ पे दिन की धूप लिए घर पलट कर आए
नज़्ज़ारा जिन का बाइ’स-ए-रहम-ए-निगाह था
आँखों के सामने वही मंज़र पलट कर आए
हर घर सुलग रहा था अजब सर्द आग में
जब अर्सा-गाह-ए-जंग से लश्कर पलट कर आए
सद-रश्क-ए-इल्तिफ़ात था जब उस का जौर भी
जी क्यूँ न चाहे फिर वो सितमगर पलट कर आए
जो बात गुफ़्तनी थी वही अन-कही रही
बे-रस जो तज़्किरे थे ज़बाँ पर पलट कर आए
दुनिया से हो गए न हों आज़ुरदा-दिल कहीं
फिर इस ज़मीन पर न पयम्बर पलट कर आए
ये बात अगर है सच कि पलटता नहीं है वक़्त
लम्हात-ए-ग़म मिरे लिए क्यूँ कर पलट कर आए
कहते हैं उस ने देखी थी कल एक जल-परी
हर लब पे है दुआ कि शनावर पलट कर आए
ऐ ‘आबिद’ आसमाँ पे न कुछ भी असर हुआ
मुझ पर ही मेरी आह के पत्थर पलट कर आए
ख़ुद सवाल आप ही जवाब हूँ मैं
ख़ुद सवाल आप ही जवाब हूँ मैं
ज़िंदगी की खुली किताब हूँ मैं
यूँ तो इक जुरआ-ए-शराब हूँ मैं
गर्दिश-ए-वक़्त का जवाब हूँ मैं
जुस्तजू-ए-सुकून-ए-दिल थी मुझे
ग़र्क़-ए-दरिया-ए-इज़्तिराब हूँ मैं
मेरी क़ीमत है प्यार के दो-बोल
कितने सस्ते में दस्तियाब हूँ मैं
कभी नग़्मा-तराज़ था मैं भी
आज टूटा हुआ रबाब हूँ मैं
रंज ग़म दर्द बे-कसी हसरत
‘मीर’ का जैसे इंतिख़ाब हूँ मैं
कौन मुझ पर यक़ीन लाएगा
अपनी नज़रों में ख़ुद सराब हूँ मैं
पहले सैलाब से परेशाँ था
अब कि महव-ए-तलाश-ए-आब हूँ मैं
मुख़्तलिफ़ रंग हैं मिरे ‘आबिद’
कभी जल्वा कभी हिजाब हूँ मैं
ज़िंदगी भर जिन्हों ने देखे ख़्वाब
ज़िंदगी भर जिन्हों ने देखे ख़्वाब
उन को बख़्शे गए हैं फिर से ख़्वाब
दिन अंधेरा दिखाई देता है
रात देखे थे जगमगाते ख़्वाब
उस ने ऐसे भुला दिया है मुझे
याद रहते नहीं हैं जैसे ख़्वाब
रात की बख़्शिशें तो थीं मुझ पर
रोज़-ए-रौशन ने भी दिखाए ख़्वाब
जिन की ता’बीर ही नहीं कोई
मैं ने देखे हैं अक्सर ऐसे ख़्वाब
दिल का हर ज़ख़्म हो गया ताज़ा
आ गए याद भूले-बिसरे ख़्वाब
इश्क़ की ये अलामतें तो नहीं
दिल है बेचैन आँख है बे-ख़्वाब
मश्ग़ला है मिरा ये ऐ ‘आबिद’
देखना नित-नए सुनहरे ख़्वाब
मुक़द्दर में साहिल कहाँ है मियाँ
मुक़द्दर में साहिल कहाँ है मियाँ
मिरी नाव बे-बादबाँ है मियाँ
जो बर्क़-ए-तपाँ से मुनव्वर रहे
वही आशियाँ आशियाँ है मियाँ
कहाँ जाइए मय-कदा छोड़ कर
यही एक जा-ए-अमाँ है मियाँ
अबद तक मुकम्मल न हो पाएगी
शब-ए-ग़म की ये दास्ताँ है मियाँ
कहाँ पावँ रक्खूँ परेशान हूँ
ज़मीं सूरत-ए-आसमाँ है मियाँ
मुक़द्दस सही कारोबार-ए-वफ़ा
मगर इस में नुक़सान-ए-जाँ है मियाँ
अजब फीकी फीकी सी है चाँदनी
उदास आज क्यूँ चन्द्रमाँ है मियाँ
जहाँ दिल के बदले में मिलता है दिल
वो दुनिया न जाने कहाँ है मियाँ
नहीं मुझ से ‘आबिद’ वो कुछ ख़ास दूर
फ़क़त ज़िंदगी दरमियाँ है मियाँ
क्यूँ न अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे इतराती हवा
क्यूँ न अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे इतराती हवा
फूल जैसे इक बदन को छू कर आई थी हवा
यूँ ख़याल आता है उस का याद आए जिस तरह
गर्मियों की दोपहर में शाम की ठंडी हवा
और अभी सुलगेंगे हम कमरे के आतिश-दान में
और अभी कोहसार से उतरेगी बर्फ़ीली हवा
हम भी इक झोंके से लुत्फ़-अंदोज़ हो लेते कभी
भूले-भटके इस गली में भी चली आती हवा
एक ज़हरीला धुआँ बिखरा गई चारों तरफ़
सब को अंधा कर गई ऐसी चली अंधी हवा
उस ने लिख भेजा है ये पीपल के पत्ते पर मुझे
क्या तुझे रास आ गई बिजली के पंखे की हवा
क्यूँ कर ऐ ‘आबिद’ बुझा पाता मैं अपनी तिश्नगी
मुझ तक आने ही से पहले हो गया पानी हवा
बे-तमन्ना हूँ ख़स्ता-जान हूँ मैं
बे-तमन्ना हूँ ख़स्ता-जान हूँ मैं
एक उजड़ा हुआ मकान हूँ मैं
जंग तो हो रही है सरहद पर
अपने घर में लहूलुहान हूँ मैं
ग़म-ओ-आलाम भी हैं मुझ को अज़ीज़
क़द्र-दानों का क़द्र-दान हूँ मैं
ज़ब्त तहज़ीब है मोहब्बत की
वो समझते हैं बे-ज़बान हूँ मैं
लब पे इख़्लास हाथ में ख़ंजर
कैसे यारों के दरमियान हूँ मैं
छेद ही छेद हैं फ़क़त जिस में
ऐसी कश्ती का बादबान हूँ मैं
जो किसी को भी आज याद नहीं
भूली-बिसरी वो दास्तान हूँ मैं
या गिराँ-गोश है नगर का नगर
या किसी दश्त में अज़ान हूँ मैं
शाइ’री हो कि आशिक़ी ‘आबिद’
हर रिवायत का पासबान हूँ मैं