शाकाहारी बगुले और मछलियों की जिजीविषा
मेरे लिए ना का अर्थ है हाँ
और हाँ का मतलब
शुक्रिया खुदा होता है।
गर मैं बगुले को शाकाहारी और
शाकाहारी को हंस समझूँ तो तुम्हें
कोई आपत्ति तो नही होनी चाहिए…
तो सुनो!
जबसे खोया है मेरा
चितकबरा रंग का एक जोड़ा बत्तख
तबसे 6 अंडे सेने वाली
तुम्हारी देशी मुर्गी देने लगी है
दर्जन भर विलायती अंडे…
देखो!
या तो तुम मेरा बत्तख लौटा दो
या मेरी पोखरी में तीन पौआ माछ
उठौना कर दो…
लगभव साढे तीन महीने बाद आने
वाली है मानसून।
मुझे पसंद है बारिश में रूम झूम
भीगँते हुए पोखरी महाड पर बैठ कर
मछलियों को अपनी
प्रेम कविताएँ सुनाना…
मेरी 6 साल की बेटी को पसंद है
मेरे कंधे पर बैठ कर टुकुर-टुकुर
मछलियों को निहारते रहना
और मछलियाँअपनी जिजीविषा को
पुनः जागृत करके उस मासूम बच्ची
के आँखों में छुपे निश्चल मेघ से
करती है गुजारिश!
कि यूं ही झमा झमा अनवरत
झमकते रहे खुशियों की बारिश।
मछलियों के तरह मुझे भी
बरसात बहुत पसंद है…
हाँ मैं जानता हूँ कि नामुंकिन है
बत्तख को लौटा पाना!
और शायद इसलिए
बत्तख को ना लौटाने के शर्त पर
एक शाकाहारी बगुला बनने के लिए
तैयार हो जाना चाहिए तुम्हें…
अरे!
हाँ भाई मुश्किल तो जरूर है
पर मुश्किल का मतलब
आसान होता है मेरे लिए
और तुम्हें तो मालूम ही है ना
कि मैं बगुले को समझना चाहता हूँ
शाकाहारी और
शाकाहारी को समझता हूँ हंस।
सच तो यह है कि मैं तुम्हें
हंस की संज्ञा दे कर मछगिद्ध बनने से
बचाना चाहता हूँ…
शायद इसलिए क्यूंकि मैंने
मछलियों के आँखों में पढी है
उनकी जिजीविषा…
अगर तुम भी मेरी इन पंक्तियों में
उसे महसूस कर रहे हो
तो शाबास दोस्त!
मुबारक हो!
आदमी से इनसान बनने की
इस स्वतः प्रक्रिया में
तुम्हारा स्वागत है!!
चालीस पार की हुनरमंद औरतें
इतनी हुनरमंद होती है ये औरतें
कि भरने को तो भर सकती हैं
ये चलनी में भी टटका पानी।
मगर घड़ा भर बसिया पइन से
लीपते पोतते नहाते हुए यह धुआँ धुकर कर
बहा देती है
स्वयं की अनसुलझी ख्वाहिशें।
रेगिस्तान को उलीछ कर सेर-
सवा सेर
माछ पकड़ने के लिए तत्पर रहती है ये
औरतें!
कभी बाढ़ कभी सुखाड़
मगर उर्वर रहती है ये औरतें।
ख्वाहिशों की विपरीत दिशा में
मन मसोस कर
वृताकार पथ पर गोल गोल चक्कर
लगाती हुई
ये औरतें
पसारती बुहारती रहती है
उम्मीदों की खेसारी चिकना।
फिसलना पसंद है इन्हें
अपनी जिजीविषा को सँभालने के
लिए।
आईने के समक्ष
घूस में अदाएँ दिखलाते हुए उसे कर
लेती है राज़ी
झूठी तारीफ़ें करने के लिए।
आँखों के नीचे के काले धब्बे
को जीभ दिखला कर
और चेहरे पर पसरे सन्नाटे को
रतजगा रूमानी
ख़्वाबों की निशानी का नाम देकर
स्वयं को झूठी सांत्वना देती रहती है
ये औरतें!
कि दरअसल यही तो है वो लक्षण
कि वो दिन प्रतिदिन हो रही है
बचपना से जवानी की ओर अग्रसर।
पर अफ़सोस कि इस
झूठी सांत्वना को भजा-भजा कर
उम्मीदों का डिबीया लेसते हुए मन
ही मन खाता रहता उन्हें
घुप्प अँधेरा होने का डर।
डरने लगती है ये एकांत में भूत-भूत
चिल्लाते हुए!
जब बढ़ती उम्र सौतन बन कर मुँह
चमकाती है इन्हें।
सुनो ऐ
चालीस पार की हुनरमंद औरतें!!
अपनी उम्र को रख दो तुम संदुकची में
छिपा कर!
कबूतरों में बाँट
दो ज़िम्मेदारियों का कंकड़!
पुनः ख़्वाबों को सिझने दो मध्यम
आँच पर
अपनी ख़्वाहिशों से अनवांछित
अनसुलझी उलझनों को पसा कर
सहेज कर बाँध लो
आँचल की खूँट में।
कहो कब तक दलडती रहोगी
यूं अपनी छाती पर दलहन
सुनो
देह गलाना छोड दो तुम
व्यर्थ की चिंता और नियम धियम
का पसरहट्टा सजा कर।
हाँ सुनो ऐ
चालीस पार की हुनरमंद औरतें!
तुम हो जादूगरनी
क्या यह तुमको पता है ?
तुम्हारे देह की गंध से
ठंड में भी बादल का पनिहयाना
अजी टोना टनका नहीं
तो यह कहो और क्या है?
हाँक कर गाछ-पात
तुम नाप सकती हो नभ को
बस हौसला चाहिए
इस पिंजरे की खग को।
नियम शर्तो के पिंजरे को
कुतर दो ऐ चुहिया
बस स्वयं को पहचानो
तुम हो सावित्री
हाँ तुम्हीं हो अनसुइया।
हाँ सचमुच पतिवत्रा हो तुम
ऐ पवित्र जाहनुतनया!
बस खुश रहो तुम हमेशा
भाड़ में जाए यह दुनिया।
प्रतीक्षा
प्रतीक्षा जन्म लेती है
जब भी प्रेम की कोख से,
प्रेयस पालता-पोसता है उसे
प्रेयसी की भेंट समझ कर…
प्रतीक्षा भूख से
जब भी रोती है
अपने पिता की गोद में,
पिता बन जाता है कवि…
और प्रेयसी की देह दृष्टी पर
लिखी गई अपनी प्रेम कविता
ठूँस देता है बेटी की मुँह में…
बच्ची तृप्त हो कर
हँसती-खिलखिलाती है
जब भी,
एहसास रोपता है कवि
तन्हाई की देह पर…
तन्हाई मंगल सूत्र
पहनना चाहती है तब
प्रतीक्षा को मातृत्व सुख
देने के लिए…
अब तन्हाई बन जाती है बीबी
और कवि बन जाता है पिता…
प्रतीक्षा जवान युवती
बन कर
अब समझने लगती है
पिता के त्याग को….
वो एक चिट्ठी लिख कर
जवाब माँगना चाहती है
अपनी जन्मदायिनी माँ से…..
कि क्या त्याग-सर्मपण और
कर्तव्यनिष्ठता से बढ कर भी
कोई प्रेम होता है मेरी माँ?
नहीं
नहीं ना?
हाँ कहो ना माँ!
बोलो कुछ तो जवाब दो!
बुढ़ौती में प्रेम
बुढ़ौती में
किए गए प्रेम का स्वाद
होता है नूनछाहा
और होना भी चाहिए….
चीनी की बिमारी से पीडित
वयोवृद्ध मरीज जब भी
करता है
अपने प्रथम प्रेम का स्मरण!
अस्पताल की नर्स गन्ने का रस
वितरित करने लगती है
पीलिया के मरीजों में…
बुढ़ौती में प्रेम का रंग
गुलाबी होने के बजाय
अक्सर होता है ललछाहा
पर कभी कभी जामुनी भी।
जब ज्ञान चाँव जनमने के इंतजार में
लड़की
घोंटने लगती है
समाज के आर्दशों
और उसूलों का गला…
तब अति उत्साहित
बुढ़वा प्रेमी
अपने झड़ते हुए दाँत को
जमीन में रोप कर
उकेर देता है एक पगडंडी
और पगडंडी पर
टहलते हुए वह
पुनः चूमना चाहता है
तरूणावस्था के चौखट को…
उम्र की उल्टी गिनती को
गिनते हुए वह
प्रकाश की गति के
सात गुणे वेग से
तय करने लगता है
धरती से आसमान की दूरी…
हाँ चाँद में
उस वृक्ष के नीचे
जनेऊ काटने वाली
वह बुढ़िया
जो वर्षों से इंतजार कर रही है
मेरी जुल्फों के सफेद होने का….
मेरी दाढ़ी के
एक-एक बाल के
सुफेद होने से
बुढ़िया की वर्तमान उम्र
सहस्रों साल
खिसकने लगती है पीछे
और जवानी दस्तक देने
लगती है फिर से….
यानी ताउम्र तुम्हें चाँद में निहारने के
लिए मुझे
हमेशा हमेशा के लिए
होना पडेगा बूढा!
सुनो,
मंजूर है मुझे!
शर्त यह कि तुम मेरी डायबिटीज
बढाती रहो।
और हाँ
ललछाहा या
जामुनी रंग के वनिस्पत
प्रेम के गुलाबी रंग में
रँगना बेहद पसंद है मुझे….
नाइट्रस ऑक्साइड
यानि लाफिंग गैस की तरह होता है
बुढ़ौती में रचाए गए
प्रेम का गंध…
अपनी मायूसी को
कमीज की कॉलर में
छुपा कर
मैं ठहाके लगाना
सीख रहा हूँ
बुढ़ापे की प्रतीक्षा में…
लडकियों के शयनकक्ष में
लडकियों के शयनकक्ष में
होती है तीन खिडकियां
दो दरवाजे
तीन तकिए और
तीन लिफाफे भी…
दो लिफाफे खाली और
तिसरे में तीन चिट्ठीयां…
पहले लिफाफे में
माँ के नाम की
चिट्ठी डाल कर वो पोस्ट
करना चाहती है!
जिसमें लड़की
भागना चाहती है
घर छोड कर…
दूसरे खाली लिफाफे में
वो एक चिट्ठी
प्रेयस के नाम से
करती है प्रेषित..
जिसमें अपनी विवशता का
उल्लेख करते हुए
लड़की घर छोडने में
जताती है असमर्थता…
तीसरे लिफाफे के
तीनों चिट्ठियों में
वो खयाली पुलाव पकाती है
अपने भूत-वर्तमान और
भविष्य के बारे में…
अतीत को अपने चादर के
सिलवटों में छुपा कर भी
वो अपने प्रथम प्रेम को
कभी भूल नही पाती है
शायद…
जो उसे टीसती है जब भी
वो लिखती है
एक और चिट्ठी
अपने सपनों के शहजादे
के नाम से…
उनके सेहत, सपने और
आर्थिक ब्योरा का भी
जिक्र होता है उसमें…
अचानक से
सामने वाले दरवाजे से
भांपती है वो माँ की दस्तक।
तो वही पिछले दरवाजे पर
वो महसूसती है
प्रेयस के देह के गंध को…
लड़की पृथक हो जाती है
अब तीन हिस्से में!
एक हिस्से को बिस्तर पर रख कर,
माथा तकिए पर टिकाए हुए,
दूसरा तकिया पेट के नीचे
रख कर
वो ढूँढती है पेट दर्द के
बहाने…
तीसरे तकिए में
सारी चिट्ठियां छुपा कर
अब लड़की बन जाती है
औरत….
जुल्फों को सहेज कर
मंद मंद मुस्कुराते हुए
वो लिपटना चाहती है माँ से…
तीसरे हिस्से में लड़की
बन जाती है एक मनमौजी
मतवाली लड़की!
थोडी पगली जिद्दी और
शरारती भी…
वो दीवानी के तरह अब
बरामदे के तरफ वाली
खिड़की की
सिटकनी खोल कर
ख्वाहिशों की बारिश में
भींगना चाहती है…
प्रेयस चाकलेटी मेघ बन कर
जब भी बरसता है
खिडकी पर!
वो लड़की पारदर्शी शीशे को
अनवरत चूमते हुए
मनचली बिजली
बन जाती है…
अलंकृत होती है वो
हवाओं में एहसास रोपते हुए।
एकांत में प्रेम
एकांत में एकल प्रेम भी
हो जाता है द्विपक्षीय…
जब खिडकी पर पीठ टिका कर
लड़की लिखती है कविता…
लड़का सूँघ कर पहचान लेता है
उसके देह के गंध को…..
और हवाओं से छान कर
उसे सहेज लेता है
अपने मन की हसीन डायरी में…
जिसमें सैंकड़ों ख्वाहिशें
दम तोड़ रही है
किसी अनसुने जवाब के
प्रतीक्षा में…
सवाल तृप्त हो जाते है
उन गूढ रहस्यों के
पर्दाफास होने से….
छिडक देता है कुछ बुँद वो अपने
अलसाए हुए कपडे पर…
बचे खुचे हिस्से को पहन लेता है
वो ताबीज बना कर…
एहसास पुन: जिवीत
होने लगते है,
ख्वाहिशें अलंकृत हो कर
थिरकते है मयूर के जैसे…
आसमान का रंग
नीला के बजाए
हो जाता है भूरा…
उम्मीदों की बारिश में भींग कर
वो कभी चूमता है अपने देह को
तो कभी ताबीज को…
तब तन्हाई उस अढाई अक्षर को
रोप देती है कान में…
कि अचानक,
एकांत में एकल प्रेम भी
होने लगता है द्विपक्षीय…
सुनो बुढ़िया
सुनो उपले के आँच पर
चाँद को उसनने वाली बुढिया…
व्यर्थ है तुम्हारा अब इस उम्र में
प्रेम को परिभाषित करना…
काश बरसों पहले
तुमने हिया की हांडी में
अपनी गफलत को उबाला होता…
छान कर रख सकती थी
तुम उनमे से भी उम्मीदों के
अनगिनत चंन्द्रमा…
गर धैर्य के अंबर में तुमने
मेरी स्मृतियों को पसारा होता…
सुनो बुढिया!
स्मरण तो होगा तुम्हें वो
मेरे ख्वाबों का फलक से टूटना…
भूल सकती हो क्या?
अपनी ख्वाहिशों का असमय
जनाजा उठना…
कहो बुढिया!
उम्र ढलने से कहीं प्रेम
बूढाता है क्या?
खिज्र के मौसम में कहीं चाँद
छुप जाता है क्या?
भले ही शबनमी रात में भुतला कर
कोई राही ठिकाने बदले…
पर सूनी पगडंडी पर उकेरे हुए
पदचिन्हों को वो कभी
बिसार पाता है क्या?
नहीं!
नहीं ना…
हाँ तो सुनो
उपले के आँच पर
चाँद को उसनने वाली बुढ़िया…
प्रेम का रंग भले ही बदल जाए!
स्वाद और गंध तो है अब भी
वही का वही
मेरी जीभ और तेरी साँसे
चासनी आज भी वही का वही…
प्रेम के रंग को भी
बदलने से रोका हमने…
संगमरमर को पहनाया है तुमने
ये जो आसमानी लिहाफ…
उजले रंग हैं तुम्हारे जुल्फों के
मेरे कुरते का रंग भी है साफ…
परिस्थिति छींकने लगी है
कौआ के उचरने से
पहले ही
अब बगुला गटकना
चाहता है मछलियां…
इसलिए रात को
मरने वाली मछलियां
अब बगुला के जागने से
पहले ही
हो जाती है जीवित…
मछुआरे की बीबी
मसल्ला पीसते हुए
बहलाती रहती है
साहुकारों को…
अपनी जीभ से
लार टपकाते हुए
साहूकर करने लगा है
मर-मलाई…
या हो सकता है कि
शायद फाह-लोअत का
भी दिया जा रहा हो
प्रलोभन
मछुआरा की अनुपस्थिती में…
साहूकर की
संदिग्ध नियत को भाँप कर
घर में मौजूद आधा र्दजन
बच्चे
कित-कित थाह खेलते हुए
दे रहे हैं अपनी मौजूदगी
का संदेश…
परिस्थिति छींकने लगी है
यानि फिर से
तूफान आने वाला है शायद…
मेढ़कों की टर्रटर्राहट को
सुन कर
मन ही मन
खुश हो रही है मछलियां…
देखो ना!
वो काले-हरे बादल
पूर्णतः बकेन होकर
पनिहयाने लगे हैं
बिसकने से पहले…
यानी तेज बारिश की है
आशंका…
बगुला भागने लगा है
अचानक शहर की ओर…
मछुआरे ने अपने नाँव पर ही
जमा लिया है डेरा
और कर रहा है
नन्ही मछलियों के
व्यस्क होने का इंतजार…
गुलाब गैहूँ और कैक्टस /
मन की मरूभूमि में
स्वाभाविक है
कैक्टस का जनमना!
गुलाब उगाने के लिए
जरूरी यह है कि
मन के बलुआही जमीन को
सींचने हेतु
नहर निकाला जाए….
लाजिमी यह भी है कि
रोटी परोसी जाए
गुलाब उगाने से पहले…
अपने हिस्से की
रोटी के टुकड़े को
फेंकने के बजाए
रोप दो जमीन में…
नून-मरचाई को पीस कर
झोंक दो
समय की आँखों में…
मजदूरों को कहो
वो भूखे-प्यासे
बैशाखी मनाए
दुर्दिनता की मौत पर…
सुनो!
समय अब बदलने वाला है
अपना रुख…
घोंघा डरने लगा है नमक से!
परिस्थिति छींकने लगी है
आँसुओं में भींग कर!
जुकाम नहीं
यह उद्धीपन का लक्षण है….
जंगली जानवरों से
डरने के बजाए
फूँक दो मुट्ठी भर
फास्फोरस!
हवा में उछाल दो
मुश्किलों की पगड़ी को…
अपनी विवशता को
संघनित करके
पाषाण में तब्दील करो।
धैर्य को तपने दो भट्ठी में,
कुछ क्षण के लिए तुम
लोहार बन जाओ….
हमेशा विकल्प तैयार रक्खो,
विवशता को धैर्य का मुकुट
पहनाओ
अपनी कमजोरी को
अपना हथियार बनाओ…
मुबारक हो!
लो बन गया हथियार
अब शिकार बनने के बजाए
लकड़बग्घे का शिकार करो….
हाँ अपने जेहन में
यह गाँठ बाँध लो
कि देखो तुम खुद सियार
मत बन जाना!
अन्यथा याद रक्खो कि
एक दिन मरोगे तुम भी
लकडबग्घे की मौत….
जब मैं खुद लिखूंगा
तुम्हारी मौत की
युक्ति पर कविता!
और निर्धारित करूँगा कि
किस हथियार से मरना
सुखद होगा तुम्हारे लिए….
लिखता रहूंगा मैं तब तक
समस्या के निराकरण पर कविता
जब तक कैक्टस
तब्दील ना हो जाए
गुलाब में….
देखो,
बहुत आसान होता है
समय को
लेमनचूस देकर बहलाना…
यकिन मानो,
तुम्हारी कलाई घडी भी
तुम्हारे अनुसार ही
समय बताएगी…
हाँ अपने नब्ज को
बारंबर टटोलते हुए
रूधिर की रफ्तार को
संतुलित करने का हुनर
सीखना होगा तुम्हें….
अपनी रेडियल धमनी को
दिखलाओ
अपने होठ की पपड़ी…
सिखलाओ उन्हें
गुलाब, गैहूँ और कैक्टस के
मौलिकता को स्वीकार करके
सामंजस्य स्थापित करना…
प्रेम और देह
गर प्रेम अथाह सागर है
तो निःसंदेह देह एक कश्ती!
सच्चे तैराकों को भला
कश्ती की क्या ज़रूरत?
जिन्हे तैरना नहीं आता
वो डूबना जानते है!
जो डूबना जानते हैं
प्रेम उबारता है उसको…
डूबते-उबरते वो
सीख जाते हैं तैराकी
पर कश्ती चाहिए अब उसे
मछलियाँ पकड़ने के लिए…
समुंदर किनारे
मछुवारों का जत्था
पर मछुवारा नहीं वैरागी है वो
जो सिर्फ और सिर्फ
प्रेम करना जानता है…
हाँ आपसी सहमति से प्रेम
जब भी होता है दैहिक,
भले ही हो सकता है कि हो जाए
प्रेम की अकाल मृत्यु,
पर प्रेम अमरत्व को प्राप्त कर लेता है
हमेशा हमेशा के लिए…
आनंद की अनुभूति जब होती है
चरम पर….
प्रेयसी की सुखद अतृप्त चीख
बंद कमरे के दीवार से
टकराने के उपरांत
ख्वाहिशों के हरसिंहार में तब्दील
हो कर बरसने लगते हैं
अनवरत लंबवत्
प्रेयस के पीठ पर….
प्रेयस अनायस ही ख्वाहिशों के
स्वाद तले दब कर
प्रेयसी के अर्द्धनग्न
पलकों पर जीभ टिका कर
बना देता है हलन्त…
अब प्रेयसी बन जाती है
याचिका!
और अपने बाएँ हाथ के
अनामिका में
कनिष्ठिका को छुपा कर
रीढ की हड्डी को गिनते हुए
झट से
हिन्दी में नौ लिख देती है प्रेयस के
पीठ पर….
कि अचानक प्रेयस की आह
लताओं की भाँति लतडने लगती है
प्रेयसी के जीभ ठुड्डी को चूमते हुए
नाभि के मध्य तक…
और ख्वाहिशों के
हरसिंहार पीठ से सरक कर लिपट
जाते हैं उन लताओं से…
चीख और आह के इस
अद्भुत संयोग से,
प्रेयसी के नाभि पर अंकित
हो जाता है
एक प्रश्न वाचक चिन्ह (?)
इसी प्रश्न वाचक चिन्ह (?) में
छुपा होता है प्रेम के अकाल मृत्यु
का गूढ रहस्य….
प्रेयसी के पूर्ण विराम लिखने तक
प्रेयस करवट बदल कर
सुलझाता रहता है इस रहस्य को…
तब पूर्ण विराम के बिन्दु
को बिंदिया समझ कर प्रेयस
पहना देता है प्रेयसी के
ललाट पर…
और प्रेम बन जाती है एक
अनंत अपरिमित रेखा
कोई भी ओर-छोर नहीं है
जिसका…
ना उम्र की बंदिश
ना ही जन्म का कोई बंधन…!
और प्रेम अमरत्व को
प्राप्त कर लेता है
हमेशा-हमेशा के लिए…
प्रेम देह से परे हो सकता है
लेकिन,
देह प्रेम के बिना हो जाता है
शिथिल….
क्यूंकी,
जिन्हे तैरना नहीं आता,
वो डूबना जानते हैं.
और,
जो डूबना जानते हैं
प्रेम उबारता है उसको…!!
चमेली के फूल
तुम्हारा बचा खुचा प्रेम
जैसे गला हुआ पान का पत्ता।
कचर-कचर चबा कर
घूँट जाता हूँ मैं
थूकने के बजाए।
यादें सुफेदी की तरह
काटती है जीभ को
सिहर कर
अकुलाहट के आँख से
टपकने लगते हैं पसीने।
मुट्ठी भर
मिरचाई का पाउडर
फांक कर
बहलाते फुसलाते
मैं सुलाना चाहता हूँ
कत्था की डिब्बी वाली
कड़वी सच्चाई को।
तुम्हारे तकिए के नीचे
रखे हुए
तमाखू की चिनौटी में
घटता है तमाखू
और बढ़ने लगता है कत्था।
होने लगता है मेरा होठ स्याह
गुलाबी ख्यालों को
एकान्त में धूंकते हुए।
खैनी का चंद घूँट पी कर
बेहोशी का ढोंग रचाने वाली
तुम्हारी ये अतृप्त इच्छाएं
मर चुकी होती है
अर्द्धरात्रि से पहले ही!
जब पिचीक पिचीक कर
थूकता है छूछुंदर
हाँफने का
इंतजार किए बगैर।
तुम्हारे सिरहाने में
दिनों दिन कुम्हलाते हुए
इत्रदार चमेली के फूल
करते हैं
आपस में मूक संवाद।
मेरे बिस्तर पर
इत्रहीन कोरे कागज के
टुकड़े पर!
तुम्हारी यादें
इति श्री
लिखवाती है मुझसे
श्री गणेश कहने से
पहले ही।
रिश्तें आने लगे है मेरे
पनबट्टी में भर के।
पर मेरी पसंद वाला
वो मिठा पत्ता
पान का बिडूआ
मेरे ससुर का कागजी दामाद
परोसता है तहखाने में
तश्तरी में सजा कर।
पिपरमेंट
लपेट कर
जब भी वो
छुपाना चाहता है
हरियाली!
जख्म होता है हरा
कचोटता है मुझे
हृदय तल तक।
जैसे सिल्ला-लोढ़ी पर
पंचफोरना को
थकूचा गया हो
ठोक-बजा कर।
चाहे जितनी भी
खर्च करती रहो तुम
मेरे अशेष प्रेम को
चानन-चनरोटा पर
घीस-घीस कर !
पवित्रता बढती ही जाएगी
खर्च होने के बजाए।
इत्रहीन
कागज के टूकडे
तैरते रहेंगे
पसीने में !
भले ही ख्वाबों की
पीठ पर
अनंत शब्द ही
क्यूँ ना
उकेरा जाए।
चमेली के फूल
महकते रहेंगे
कयामत तक
कुम्हलाने के
बाद भी।
एहसासों की पगडंडी
चरवाहा नहीं
बल्कि हरवाहा की तरह
मैं बरसों से जोतता
आ रहा हूँ
तुम्हारे यादों को…
ख्वाहिशों के कंधे पर
पालो बाँध कर,
हालात को पुचकारते हुए
जोत लेता हूँ मैं
अढाई डिसमील…
मगर फिर भी यह तन्हाई
नींद में उठ कर
चरने लगती है रात को!
अन्यथा इस डरावनी रात
का रंग
काला तो नही होता…
जब तुम साथ होती थी
तो हरे-भरे घास
लहलहाते थे रात भर…
जब एक नीलगाय
तुम्हारी आँखों में
दौडता था इधर से उधर…
कुछ हिरणों को
बाँध दिया था हमने खूँटे से
एक नदी बहती थी
एहसासों की पगडंडी पर…
और मेरे होठ से
तुम्हारी नाभी तक
बिलबिलाने वाली
वो नीली मछलियाँ
याद है ना तुम्हें….
जब अपनी साँस
रोक कर तुमने
कई बार उन्हें
आक्सीजन प्रदान किया था..
एक कछुआ अपनी पीठ पर लालटेन
जलाया करता था…
रात इंन्द्रधनुष बनने
लगी थी धीरे-धीरे…
सुनो,
खिड़कियाँ खोल कर झाँको
आसमान में दूर तलक…
चाँद चभर-चभर करके
जुगाली करता है आज भी….
पर तुम्हारी अनुपस्थिति में
देखो यह तन्हाई
अब बकरी बन कर
चरने लगी है रात को…
सम्मिलन हैं हम व सर्वनिष्ठ हो तुम
मैं और तुम के सम्मिलन हैं हम
मैं और तुम के सर्वनिष्ठ हो तुम
हाँ सिर्फ तुम।
जहाँ मेरे मैं में
पौने चार चौथाई हो तुम
और तुम्हारे तुम में
शत प्रतिशत हूँ मैं।
या इसे ऐसे समझो कि
जहाँ तुम्हारे मैं में
शत प्रतिशत हो तुम!
जहाँ मेरे तुम में
पोने चार चौथाई हो तुम।
चलो इसे ऐसे भी समझो
कि मेरे मैं में तुम्हारी उपस्थिति
मेरी निजता के
उल्लंघन का उल्लंघन है।
जैसे एक अंडे के
थोक विक्रेता की दुकान पर उपस्थित
जितने भी उजले रंग के
फार्म वाले अंडे हैं वो हो तुम।
हाँ है वहाँ नाम मात्र कुछ देशी अंडे
( लगभग 0.903% देशी अंडे) भी
जिसका रंग है ललछाहा
जो तुम्हारी यानि
मेरे मैं में उपस्थित तुम की
मेजबानी करते हुए
मेरे मैं में मैं की
उपस्थिती दर्ज करवाता है।
और हाँ तुम्हारे मैं में
मेरी अनुपस्थिति
तुम्हारी निजता की फरमाइश है।
हाँ है तो
मगर क्यूँ ?
क्या खुश नहीं हो तुम
मेरी मेहमान नवाज़ी से।
या कहीं प्रेम का मतलब
ये तो नही
कि हम अपने अपने खेत में
कौएँ उड़ाते रहें।
जाओ उजर गया है
मेरा फसल।
पर उपस्थित हूँ मैं
तुम्हारे खेत में
चुगला बन कर
कौएँ को डराने हेतु।
मैं अनुपस्थित हूँ
तुम्हारे ख्याल से !
मगर मैं उपस्थित हूँ
अप्रत्यक्ष रूप से ही सही।
स्वतंत्र हो तुम चैन से मरने के लिए
सुनो,
आजादी का मतलब यह है
कि मारो अपने ही
गाल पर तमाचा
बाल नोंच कर
स्वेटर बुन लो!
देखो ठंड से ठिठुर रही है
तुम्हारी स्वतंत्रता…
बादल को मोड़ कर
अनगिनत टुकड़े में काटो….
और बाँट दो उसे गाँव के
स्कूली बच्चों में
लेमनचूस के बदले में…
रूमाल पर स्वतंत्रता लिख कर
थमा दो उन बदनसीबों के
हाथ में…
उन्हें कहो कि वो
तिरंगा लहराने के बजाय रूमाल
को लहराए…
उन्हें बधाई दो!
और कहो कि तुम स्वतंत्र हो
अपने आर्थिक हालात और उच्च
शिक्षा की विडंबना पर
रोने के लिए…
खेतीहार बाप के छाती पर
हल जोत कर
रोप दो पश्चाताप का बीया…
माँ को कहो कि पंखे झेल कर
अपने प्राण नाथ को
गुलामी का शाब्दिक अर्थ
समझाती रहें…
संविधान की पिपनी में
लालटेन टाँग कर,
अपने गले में टाई बाँधो
और खोलो…
ख्याल रहे कि
दम घुटने से पहले ही
तुम इशारे में
जज साहेब को समझा सको
आजादी का मतलब…
हाँ पर याद रखो!
कि सब र्व्यथ है यह
जानने के बावज़ूद
तुम्हे अंतिम कोशिश के
बाद भी
एक अंतिम कोशिश करने
के लिए
रहना होगा तत्पर…
जूते से आक्रोश की
पगडंडियों को घिस कर
बेरोजगारी लिख दो…
फूँक कर हटा दो अपने
चेहरे से सन्नाटे को…
खिलखिलाओ
अपनी किस्मत को
कोसने के बजाए…
सुनो!
स्वतंत्र हो तुम
चैन से मरने के लिए।
और हाँ,
यह भी याद रखना कि
स्वतंत्रता का एक मात्र मतलब
आत्महत्या होता है
इस देश में…
उम्मीद
चाहे प्रत्येक “किसी और”
कोई खास ही क्यूँ ना हो
चाहे वह “कोई खास”
उम्मीद के लायक ही क्यूँ ना हो।
पर स्वयं के सिवा
“किसी और” से उम्मीद करना
उबले हुए अंडे का आमलेट
बनाने की ज़िद के बराबर है।
कई मर्तबा यह ज़िद बचपना है
मासूमियत के लिहाज से।
पर अत्यधिक मासूम होना भी
आत्महत्या करने की
असफल कोशिश है दोस्त।
कोशिश चाहे सफल हो या असफल
पर इसके प्रभाव को
नकारा नही जा सकता।
अधिकतम कोशिश करना
सफलता का पर्याय है दोस्त।
और हाँ
कोशिश एक घटना है।
किसी भी घटना के
घटित होने के पश्चात
वर्तमान भूत में हो जाता है तब्दील।
मेरा, तुम्हारा, हमारा प्रेम
नदी में बंसी पटा कर
तरेला डूबने तक के
अंतराल में
उत्पन्न ऊब है
तुम्हारा प्रेम।
और तरेला डूबने से
बंसी को अपनी ओर
खींचने की फूर्ती था
मेरा प्रेम।
मैं रोहू, कतला, बूआरी को
नदी से निकाल कर
धत्ता पर
पटकता रहा।
और तुम प्रेम को
आटे में सान कर
नदी में बहाती रही।
हाँ हाँ
कितना अजीब है ना !
कि गरई मछली को
सौराठी माछ समझने का
वहम था
तुम्हारा प्रेम।
सच तो यह है कि
जाड़े में
मूसलधार बारिश होने के जैसा
इत्तफाक था
हमारा प्रेम।
और
इस बेवक्त बरसात को
मानसून समझने का
जो भूल किया हमने
उस भूल के गर्भ में
छुपी हुई
मासूमियत था
मेरा प्रेम।
तमसो मा ज्योतिर्गमय
तुम्हारे अल्लाह
तुम्हारा ईश्वर
एक रबड़ के
दो परत हैं बस।
जब तलक तुम पेंसिल से
लिख रहे होते हो
तो तुम्हारी अशुद्धियों को
नादानी का नाम देकर
मिटा दिया जाता है बस !
पर कलम से लिखना
छाती पर
गोदना गोदवाने के समान है दोस्त।
तुम्हारे आराध्य की क्या मजाल
कि वो तुम्हें माफ करें…
न!
हरगिज़ नही।
हाँ मैं आस्तिक हूँ।
और बचपन से जिस खुदा को
मानता आया हूँ
वो किसी मंदिर मस्जिद में नही
बल्कि हमारे तुम्हारे हम सब के
हृदय में वज्रासन लगा कर
ध्यानमग्न हैं।
विद्यमान हैं वो हम सब के मन में
जो हमें सही और गलत में
फर्क पहचानना सिखलाते हैं।
अगर तुम बार बार गलतियां दुहराते हो
तो समझो कि मर गया है तुम्हारा खुदा!
या तुमसे तंग आजिज होकर
तुम्हारे खुदा ने
मुँह मोड लिया है तुमसे।
कहाँ व्यर्थ में भटक रहे हो तुम
हाय तौबा हाय तौबा
रिरीयाते हुए।
अपने हृदय की धडकन को
महसूस करो
अपने खुदा को मनाओ
अरे नही मानने वाले वो
और माने भी तो क्यों?
कहो क्या किया अब तलक
तुमने उसे मनाने के लिए।
सिर्फ और सिर्फ गलतियां
दिन में पचास हजार गलतियां।
न !
न कहो कि क्या तुम स्वयं को
माफ कर पाओगे कभी?
गर तुम मरना चाहते हो
तो सुनो!
आत्महत्या से निघृष्ट अपराध
कुछ भी नही
तुम्हारी सज़ा यह है कि
तुम्हें सीखना होगा
अपने ख़ुदा को मनाने का हुनर।
तुम्हें विकसीत करना होगा
साग और घास में फर्क
महसूसने की कला।
जानते हो दोस्त
मृत्यु से भी बदतर
मौत होती है घुट घुट कर जीना।
मैं नही देख सकता यूं तुम्हें
घुट घुट कर मरते हुए।
प्रायश्चित यह है कि
तुम आईने में झाँक कर
इंसानियत का फर्ज
अदा करो।
कहो!
तमसो मा ज्योतिर्गमय!!
उपवास रखने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतें
अविवाहित लड़की से
संपूर्ण स्त्री बनने का सफर
सात कदमों का होता है
लेकिन प्रत्येक कदम पर
त्याग सर्मपण और
समझौता के पाठ को
वो रटती है बार-बार…
मायके से सीख कर आती है
वो हरेक संस्कार पाठ जो
माँ की परनानी ने
सिखलाया था
उनकी नानी की माँ को कभी…
ससुराल की ड्योढी पर
प्रथम कदम रखते ही
नींव डालती है वो
घूंघट प्रथा की जब
अपनी अल्हडपन को
जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज
लेती है वो
अपने आवारा ख्यालों को
घूंघट में छिपा कर…
अपनी ख्वाहिशों को
आँचल की खूँट में
बाँध कर वो
जब भी बुहारती है आँगन
एक मुट्ठी उम्मीदें
छिड़क आती है
वो कबूतरों के झुंड में….
मूंडेर पर बैठा काला कलूटा
कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम
करता है तब जब
कौआ की साँसे
परावर्तित होती है
स्त्री की पारर्दशी पीठ से
टकरा कर…
ज़िद रखने वाली
अनब्याही लड़कियां
होती है जिद्दी
विवाह के बाद भी बस
ज़िद के नाम को बदल कर
मौनव्रत या उपवास
रख दिया जाता है
अन्यथा
पुरूष तो शौक से माँसाहार होते हैं
स्त्रियों के निराहार
होने पर भी…
सप्ताह के सातो दिन सूर्य देव
से शनि महाराज तक का
उपवास, पूजा-अर्चना
सब के सब
बेटे/पति के ख़ातिर….
जबकि बेटी बचपन से ही
पढ़ने लगती है
नियम और शर्तें
स्त्री बनने की!
और पूर्णतः बन ही तो
जाती है एक संपूर्ण स्त्री
वो ससुराल में जाकर….
आखिर बेटे/पति के लिए ही क्यूँ?
हाँ हाँ बोलो ना
चुप क्यूँ हो?
बेटियों के चिरंजीवी होने की
क्यूं नही की जाती है कामना…
अगर उपवास रखने से ही
होता है
सब कुशल मंगल!
तो अखंड सौभाग्यवती भवः का
आर्शीवाद देने वाला
पिता/मंगल सूत्र पहनाने
वाला पति
आखिर क्यूँ नही रह पाता है
एक साँझ भी भूखा…
सुनो,
मेरी हरेक स्त्री विमर्श
कविता की नायिका
कहलाने का
हक अदा करने वाली
जिद्दी तुनकमिजाज औरतों!
देखो!
हाँ देखो,
तुम ना स्त्री-स्त्री
संस्कार-संस्कार
खेल कर
अब देह गलाना बंद करो…
मर्यादा की नोंक पर टाँक कर
जो अपनी ख्वाहिशों के पंख
कतर लिए थे तुमने
अरी बाँझ तो नही हो ना!
तो सुनो!
इसे जनमने दो फिर से…
स्त्री होने के नियम शर्तों को
संशोधित करके
बचा लो तुम
स्त्रीत्व की कोख को
झुलसने से पहले ही…
शिकारी और शिकार
पश्चिमी तट आशंका से
पूर्वी तट संभावना तक
बहने वाली नदी में
परिस्थितियों के
असंख्य मगरमच्छ।
संभावना यह है कि
नदी के दूसरे किनारे पर
जो बंदरगाह है
वहाँ से धुँधली दिखाई देती है
एक चाकलेटी पहाड़ की चोटी!
वो दूर उसी चोटी पर
जो एक सुनसान मंदिर है ना!
उस मंदिर में प्रसाद के बदले में
बाँटी जाती है चिट्ठियाँ!
चिट्ठियों में दर्ज है
तुम्हारी बदनसीबी का फलसफा
कि तुम्हारा जन्म ही हुआ है
आशंका और संभावना के मध्य
बहने वाली इस नदी में
डूबते-उतरते हुए
मगरमच्छ का आहार
बनने के लिए।
हा हा हा हा
ताज्जुब है ना!
मगर हकीकत यही है मेरे दोस्त।
परजीवी है यह दुनिया!
और तुम्हें भेजा ही गया है
किसी शिकारी का
शिकार बनने के लिए।
संतोष बस यह कर लो
कि हरेक शिकार
खुद शिकारी हुआ करता है पहले!
और नियति यह है कि
एक ना एक दिन
हरेक शिकारी का
शिकार किया जाता है
ठोक बजा कर।
दिलचस्प तो यह है कि
कभी कभी शिकारी
जंगल में भटकते हुए
स्वयं ही कर बैठता है
अपना शिकार।
और हाँ सच तो यह है कि
जन्म जन्मांतर से
घटित होने वाली
इस श्रृंखलाबद्ध
जैविक प्रक्रिया से
उबरने के बजाए
कुछ डरपोक/आलसी
शासकों ने
शुसोभित किया है इसे
किस्मत के नाम से…
बेचारी जनता
और भेड़-बकरियों में
फर्क ही कहाँ है कुछ ज्यादा!
जो तथ्य को महसूस कर
उसे जाँचने परखने के बजाए
गर जानती है
तो सिर्फ और सिर्फ
अनुसरण करना।
हम बस वही सुनते हैं
जो सुनाया गया हो!
हम बस वही देखते हैं
जो दिखाया गया हो!
और स्वयं को होशियार
समझने की गलतफहमी में
माखते रहते हैं
पग पग पर विष्टा…
दरअसल
यह हमें इंसान से
भेड बकरियों में
तब्दील करने की
एक साजिश है दोस्त!
जबकी हाँक रहा है
कोई चरवाहा हमें
विपरीत दिशा की ओर…
सुनो!
मैं अभी
इस समस्या के निराकरण पर
नही लिखूंगा कोई कविता!
क्योंकि मैं बात कर रहा हूँ
नियति को फुसला कर
किस्मत बदलने के बारे में
जो कि बिना किसी हस्तक्षेप के
स्वयं करना होगा तुम्हें…
मैं एक ऐसी दुनिया की
कल्पना कर रहा हूँ!
जहाँ भोजन वस्त्र और
आवास के लिए
जद्दोजहद करने वाले
लोगों के हाथ में
एक आईना हो।
कि वो अपनी आँखों में
झाँक कर
इनसान होने का
फर्ज अदा कर सके…
हाँ सच तो यह है कि
मैं शिकारी के हाथ में
उजला गुलाब रख कर
बचाना चाहता हूँ उन्हें
शिकार होने से…