होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है
होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है
रंज कम सहता है एलान बहुत करता है
रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग
कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है
आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई
हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है
वो जो इक शर्त थी वहशत की
वो जो इक शर्त थी वहशत की, उठा दी गई क्या
मेरी बस्ती किसी सेहरा में बसा दी गई क्या
वही लहजा है मगर यार तेरे लफ़्ज़ों में
पहले इक आग सी जलती थी, बुझा दी गई क्या
जो बढ़ी थी कि कहीं मुझको बहा कर ले जाए
मैं यहीं हूँ तो वही मौज बहा दी गई क्या
पाँव में ख़ाक की ज़ंजीर भली लगने लगी
फिर मेरी क़ैद की मीआद बढ़ा दी गई क्या
देर से पहुंचे हैं हम दूर से आये हुए लोग
शहर खामोश है, सब ख़ाक उड़ा दी गई क्या
चराग़ देने लगेगा धुआँ न छू लेना
चराग़ देने लगेगा धुआँ न छू लेना
तू मेरा जिस्म कहीं मेरी जाँ न छु लेना
ज़मीं छुटी तो भटक जाओगे ख़लाओं में
तुम उड़ते उड़ते कहीं आसमाँ न छू लेना
नहीं तो बर्फ सा पानी तुम्हें जला देगा
गिलास लेते हुए उँगलियाँ न छू लेना
हमारे लहजे की शाइस्तगी के धोके में
हमारी बातों की गहराइयाँ न छू लेना
उड़े तो फिर न मिलेंगे रिफ़ाक़तों के परिन्द
शिकायतों से भरी टहनियाँ न छू लेना
मुरव्वतों को मुहब्बत न जानना ‘इरफ़ान’
तुम अपने सीने से नोके-सिनाँ न छू लेना
उठो ये मंज़रे-शब ताब देखने के लिए
उठो ये मंज़रे-शब ताब देखने के लिए
कि नींद शर्त नहीं ख्वाब देखने के लिए
अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया
मेरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए
वो मर्हला है कि अब सैले-खूं पे राज़ी हैं
हम इस ज़मीन को शादाब देखने के लिए
जो हो सके तो ज़रा शह सवार लौट के आएँ
पयादगां को ज़फ़रयाब देखने के लिए
कहाँ है तू कि यहाँ जल रहे हैं सदियों से
चरागे-दीदा-ओ-मेहराब देखने के लिए
ज़वाले-शब में किसी की सदा निकल आये
ज़वाले- शब् में किसी की सदा निकल आये
सितारा डूबे सितारा-नुमा निकल आये
अजब नहीं कि ये दरिया नज़र का धोका हो
अजब नहीं कि कोई रास्ता निकल आये
ये किसने दश्ते-बुरीदा की फसल बोई थी
तमाम शहर में नख़्ल-दुआ निकल आये
बड़ी घुटन है, चराग़ों का क्या ख़याल करूँ
अब इस तरफ कोई मौजे-हवा निकल आये
खुदा करे सफे-सरदारगाँ न हो ख़ाली
जो मैं गिरूँ तो कोई दूसरा निकल आये
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ
तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ
दश्त से दूर भी क्या रंग दिखाता है जुनूँ
देखना है तो किसी शहर में दाखिल हो जाओ
जिस पे होता ही नहीं खूने-दो-आलम साबित
बढ़ के इक दिन उसी गर्दन में हमाइल हो जाओ
वो सितमगर तुम्हे तस्ख़ीर किया चाहता है
ख़ाक बन जाओ और उस शख्स को हासिल हो जाओ
इश्क़ क्या कारे-हवस भी कोई आसान नहीं
खैर से पहले इसी काम के क़ाबिल हो जाओ
मैं हूँ या मौजे-फना, और यहाँ कोई नहीं
तुम अगर हो तो ज़रा राह में हाइल हो जाओ
अभी पैकर ही जला है तो ये आलम है मियाँ
आग ये रूह में लग जाए तो कामिल हो जाओ
खुश्बू की तरह साथ लगा ले गई हमको
खुश्बू की तरह साथ लगा ले गई हमको
कूचे से तेरे बादे-सबा ले गई हमको
पत्थर थे कि गौहर थे अब इस बात का क्या ज़िक्र
इक मौज बहरहाल बहा ले गई हमको
फिर छोड़ दिया रेगे-सरे-राह समझ कर
कुछ दूर तो मौसम की हवा ले गई हमको
तुम कैसे गिरे आंधी में छतनार दरख्तो!
हम लोग तो पत्ते थे उड़ा ले गई हमको
हम कौन शनावर थे कि यूँ पार उतरते
सूखे हुए होंटों की दुआ ले गई हमको
इस शहर में ग़ारत-गरे-ईमाँ तो बहुत थे
कुछ घर की शराफ़त ही बचा ले गई हमको
बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है
चमक रहा है उफ़क़ तक ग़ुबारे-तीरा शबी
कोई चराग़ सफ़र पर रवाना हो गया है
हमें तो खैर बिखरना ही था कभी न कभी
हवा-ए-ताज़ा का झोंका बहाना हो गया है
फ़ज़ा-ए-शौक़ में उसकी बिसात ही क्या थी
परिन्द अपने परों का निशाना हो गया है
इसी ने देखे हैं पतझड़ में फूल खिलते हुए
दिल अपनी खुश नज़री में दिवाना हो गया है
सुखन में रंग तुम्हारे ख़याल ही के तो हैं
सुखन में रंग तुम्हारे ख़याल ही के तो हैं
ये सब करिश्मे हवाए-विसाल ही के तो हैं
कहा था तुमने कि लाता है कौन इश्क़ की ताब
सो हम जवाब तुम्हारे सवाल ही के तो हैं
ज़रा सी बात है दिल में, अगर बयाँ हो जाय
तमाम मसअले इज़हारे-हाल ही के तो हैं
यहाँ भी इसके सिवा और क्या नसीब हमें
खुतन में रह के भी चश्मे-ग़िज़ाल ही के तो हैं
हवा की ज़द पे हमारा सफ़र है कितनी देर
चराग़ हम किसी शामे-ज़वाल ही के तो हैं
कहीं तो लुटना है, फिर नक्दे-जाँ बचाना क्या
कहीं तो लुटना है, फिर नक्दे-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या
इन आँधियों में भला कौन इधर से गुज़रेगा
दरीचे खोलना कैसा, दिये जलाना क्या
जो तीर बूढ़ों की फ़रियाद तक नहीं सुनते
तो उनके सामने बच्चों का मुस्कुराना क्या
मैं गिर गया हूँ तो अब सीने से उतर आओ
दिलेर दुश्मनो! टूटे मकाँ को ढ़ाना क्या
नई ज़मीं की हवाएँ भी जान लेवा हैं
न लौटने के लिए कश्तियाँ जलाना क्या
कनारे-आब कड़ी खेतियाँ ये सोचती हैं
वो नर्म-रू है, नदी का मगर ठिकाना क्या
कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे
कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे
ऐ अँधेरी बस्तियो! तुमको खुदा रौशन करे
नन्हें होंटों पर खिलें मासूम लफ़्ज़ों के गुलाब
और माथे पर कोई हर्फ़े-दुआ रौशन करे
ज़र्द चेहरों पर भी चमके सुर्ख जज़्बों की धनक
साँवले हाथों को भी रंगे-हिना रौशन करे
एक लड़का शहर की रौनक़ में सब कुछ भूल जाए
एक बुढ़िया रोज़ चौखट पर दिया रौशन करे
ख़ैर अगर तुम से न जल पाएँ वफाओं के चराग़
तुम बुझाना मत जो कोई दूसरा रौशन करे