फूल और कली
फूल से बोली कली क्यों व्यस्त मुरझाने में है
फ़ायदा क्या गंध औ मकरंद बिखराने में है
तूने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी
अपनी मनमोहक पंखुरियों की छटा क्यों खोल दी
तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से तू खिला
किन्तु इस उपकार के बदले में तुझको क्या मिला
मुझको देखो मेरी सब ख़ुशबू मुझ ही में बंद है
मेरी सुन्दरता है अक्षय अनछुआ मकरंद है
मैं किसी लोलुप भ्रमर के जाल में फँसती नहीं
मैं किसी को देख कर रोती नहीं हँसती नहीं
मेरी छवि संचित जलाशय है सहज झरना नहीं
मुझको जीवित रहना है तेरी तरह मरना नहीं
मैं पली काँटो में जब थी दुनिया तब सोती रही
मेरी ही क्या ये किसी की भी कभी होती नहीं
ऐसी दुनिया के लिए सौरभ लुटाऊँ किसलिए
स्वार्थी समुदाय का मेला लगाऊँ किसलिए
फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा
फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा
ज़िंदगी सिद्धांत की सीमाओं में बँटती नहीं
ये वो पूंजी है जो व्यय से बढ़ती है घटती नहीं
चार दिन की ज़िन्दगी ख़ुद को जीए तो क्या जिए
बात तो तब है कि जब मर जाएँ औरों के लिए
प्यार के व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं
वह कभी पता नहीं है जो कभी खोता नहीं
आराम की पूछो अगर तो मृत्यु में आराम है
ज़िन्दगी कठिनाइयों से जूझने का नाम है
स्वयं की उपयोगिता ही व्यक्ति का सम्मान है
व्यक्ति की अंतर्मुखी गति दम्भमय अज्ञान है
ये तुम्हारी आत्म केन्द्रित गंध भी क्या गंध है
ज़िन्दगी तो दान का और प्राप्ति का अनुबंध है
जितना तुम दोगे समय उतना संजोयेगा
तुम्हें पूरे उपवन में पवन कंधो पे ढोएगा तुम्हें
चाँदनी अपने दुशाले में सुलायेगी तुम्हें
ओस मुक्ता हार में अपने पिन्हायेगी तुम्हें
धूप अपनी अँगुलियों से गुदगुदाएगी तुम्हें
तितलियों की रेशमी सिहरन जगाएगी तुम्हें
टूटे मन वाले कलेजे से लगायेंगे तुम्हें
मंदिरों के देवता सिर पर चढ़ाएँगे तुम्हें
गंध उपवन की विरासत है इसे संचित न कर
बाँटने के सुख से अपने आप को वंचित न कर
यदि संजोने का मज़ा कुछ है तो बिखराने में है
ज़िन्दगी की सार्थकता बीज बन जाने में है
दूसरे दिन मैंने देखा वो कली खिलने लगी
शक्ल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
वैसे भी ये बड़े लोग हैं अक्सर धूप चढ़े जगते हैं,
व्यवहारों से कहीं अधिक तस्वीरों में अच्छे लगते हैं,
इनका है इतिहास गवाही जैसे सोए वैसे जागे,
इनके स्वार्थ सचिव चलते हैं नयी सुबह के रथ के आगे,
माना कल तक तुम सोये थे लेकिन ये तो जाग रहे थे,
फिर भी कहाँ चले जाते थे जाने सब उपहार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
इनके हित औ अहित अलग हैं इन्हें चमन से क्या मतलब है,
राम कृपा से इनके घर में जो कुछ होता है वह सब है,
संघर्षों में नहीं जूझते साथ समय के बहते भर हैं,
वैसे ये हैं नहीं चमन के सिर्फ चमन में रहते भर हैं,
इनका धर्म स्वयं अपने आडम्बर से हल्का पड़ता हैं,
शुभचिंतक बनने को आतुर बैठे हैं ग़द्दार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
सूरज को क्या पड़ी भला जो दस्तक देकर तुम्हें पुकारे,
गर्ज़ पड़े सौ बार तुम्हारी खोलो अपने बंद किवाड़े,
नयी रोशनी गले लगाओ आदर सहित कहीं बैठाओ,
ठिठुरी उदासीनता ओढ़े सोया वातावरण जगाओ,
हो चैतन्य ऊंघती आँखें फिर कुछ बातें करो काम की,
कैसे कौन चुका सकता है कितने कब उपकार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
धरे हाथ पर हाथ न बैठो कोई नया विकल्प निकालो,
ज़ंग लगे हौंसले माँज लो बुझा हुआ पुरुषार्थ जगा लो,
उपवन के पत्ते पत्ते पर लिख दो युग की नयी ऋचाएँ,
वे ही माली कहलाएँगे जो हाथों में ज़ख्म दिखाएँ,
जिनका ख़ुशबूदार पसीना रूमालों को हुआ समर्पित,
उनको क्या अधिकार कि पाएं वे महंगे सत्कार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
जिनको आदत है सोने की उपवन की अनुकूल हवा में,
उनका अस्थि शेष भी उड़ जाता है बनकर धूल हवा में,
लेकिन जो संघर्षों का सुख सिरहाने रखकर सोते हैं,
युग के अंगड़ाई लेने पर वे ही पैग़म्बर होते हैं,
जो अपने को बीज बनाकर मिटटी में मिलना सीखे हैं,
सदियों तक उनके साँचे में ढलते हैं व्यवहार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
शारदे!
संपदा त्रिलोक की न अब चाहिये मुझे,
सपूत कह के प्यार से पुकार दे ओ शारदे ।
रोम-रोम मातृ-ऋण भार से विनत-नत,
शुभ्र उत्तरीय से दुलार दे ओ शारदे ।
चेतना सदा ही रहे तेरी साधना की मातु
भावना दे, ज्ञान दे, विचार दे ओ शारदे ।
मोरपंख वाली लेखनी का कर शीश धर,
तार-तार वीणा झनकार दे ओ शारदे ।
चाँदनी
जब से सँभाला होश मेरी काव्य चेतना ने
मेरी कल्पना में आती-जाती रही चाँदनी ।
आधी-आधी रात मेरी आँख से चुरा के नींद
खेत खलिहान में बुलाती रही चाँदनी ।
सुख में तो सभी मीत होते किन्तु दुख में भी
मेरे साथ साथ गीत गाती रही चाँदनी ।
जाने किस बात पे मैं चाँदनी को भाता रहा
और बिना बात मुझे भाती रही चाँदनी ।
याहया खान के नाम खत
ये प्रमाणों की सचाई है निरी शेखी नहीं है
कि तुमने हिंद की नारी अभी देखी नहीं है
चलो माना कि नारी फूल-सी सुकुमार होती है
पयोधर है, सलिल है, अश्रु है, रसधार होती है ।
सुकोमल भावनाओं का सफल व्यापार होती है
सभी सुन्दर गुणों का वह अतुल भंडार होती है
मगर इस देश में वह शक्ति का अवतार होती है
गले में मुंड उसके हाथ में तलवार होती है ।
भवानी है चतुर्भुज सिंह पर असवार होती है
सुशोभित दाहिने उसके विजय साकार होती है
हमें इस रूप की गरिमा तभी स्वीकार होती है
कि जब दुष्टों के सीने से वह बर्छी पार होती है ।
हमारे देश में नारी का ये आदर्श है प्यारे !
ये तुम क्यों भूल जाते हो, ये भारतवर्ष है प्यारे !
कि जिसके नाम पे ये नाम भारतवर्ष रखा है
उसी ने जिंदगी का नाम भी संघर्ष रखा है ।
निर्जन बीहड़ों की कन्दराओं से गुजरता था
जबड़े खोलकर शेरों के वह खिलवाड़ करता था
उसके सामने यमराज आकर क्रम ठहरता था
ऐसा शेर जिसका दूध पीकर पेट भरता था ।
भले औरत रही हो शेरनी से कम नहीं होगी
तुम्हारे ख्वाब की नाज़ुक गुलो-शबनम नहीं होगी
अगर ये बात कोई और कहता तो गनीमत थी
तुम्हारी माँ भी हिंदुस्तान की ही एक औरत थी ।
अगर तुम पूछते उससे तो वो शायद बता देती
हमारे देश की अबलाओं के बल का पता देती
कि हिंदुस्तान की नारी भी हिंदुस्तान होती है
तुम्हारे जैसे मर्दों से कहीं बलवान होती है ।
चुनौती शत्रु की ललकार कर यदि उसको दी जाए
चबा के हड्डियां दुश्मन की उसका खून पी जाए
गवाही तुमको मिल जाए हमारी इस कहानी की
अगर तुम देख लो तस्वीर भी झाँसी की रानी की ।
समर में हींसते दो पैर घोड़े पर तनी बैठी
कि जैसे हाथ में तलवार लेकर शेरनी बैठी
प्रभंजन देहधारी पर प्रलय साकार लगती है
प्रबल भूडोल को दाबे भयंकर ज्वार लगती है ।
कि अपने प्राण देने के लिए तैयार लगती है
घमंडी शत्रु की गरदन पे खाए खार लगती है
अभी इस श्रंखला में और भी कड़ियाँ गिनानी हैं
वो पन्ना, चाँदबीबी, पद्मिनी, हाड़ा की रानी हैं ।
वो मरते मर गईं लेकिन अमर इतिहास है उनका
है पौरुष उनका आभारी, पराक्रम दास है उनका
इसी स्वर्णिम कड़ी में इंदिरा का नाम आता है
अगर चाहो तो कर लो याद, अक्सर काम आता है ।
जिसे समझे हो साधारण असाधारण न बन जाए
यही औरत तुम्हारी मौत का कारण न बन जाए ।
यह वह भारतवर्ष नहीं है
कभी कभी सोचा करता हूँ, मैं ये मन ही मन में,
क्यों फूलों की कमी हो गयी आखिर नंदन वन में?
हरे भरे धन धान्य पूर्ण खेतों की ये धरती थी,
सुंदरता में इन्द्रसभा इसका पानी भरती थी
शश्य श्यामला धरती इसको देती थी सौगातें,
सोने जैसे दिन थे इसके चांदी जैसी रातें
सुप्रभात लेकर आते थे सत्यम शिवम सुन्दरम,
अनायास ही हो जाते थे, जन जन को ह्रदयंगम
यहाँ वंदना आडम्बर का बोझ नहीं ढोती थी,
उच्चारण से नहीं, आचरण से पूजा होती थी
बचपन में ये वाक्य लगा करता था कितना प्यारा,
सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश हमारा,
इसी देश के बारे में कहती आई थीं सदियाँ,
बही बही फिरती थीं इसमें दूध दही की नदियाँ
पर अब कहीं देखने को भी वह उत्कर्ष नहीं हैं,
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है.
फूल आज भी खिलते हैं पर उनमें गंध नहीं है
जाने क्यों उपवन में उपवन सा आनंद नहीं है
कहाँ गयीं वे शश्य श्यामला धरती की सौगातें
कौन चुराता है सोने के दिन चांदी की रातें !
किसने जन जन के जीवन को यों काला कर डाला,
कौन हड़प जाता है सबके हिस्से का उजियाला
अब तो मुस्कानों के चेहरे पर भी हर्ष नहीं है
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है.
और अगर ये वही देश है, तो कितना है अचरज
चूस रहे हैं मानव कि हड्डी दधिचि के वंशज
जिनके पूर्वजनो ने जीवन सदा धरोहर माना
औरों की खातिर मरना था जीने का पैमाना.
उनकी संतानों ने पाया कैसा रूप घिनोना,
लाशों की मजबूरी से भी कमा रहे हैं सोना,
महावीर के संदेशों का ये निष्कर्ष निकला,
गौतम के शब्दों के अर्थों का अनर्थ कर डाला.
घर घर उनके चित्र टंगे हैं, पर आदर्श नहीं हैं
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है.
खींच रहा है द्रुपद सुता का अब भी चीर दुशासन
और पूर्ववत देख रहा है अंधा राज सिंहासन
पर तब से अब की स्थिति में एक बड़ा अंतर है
इस युग के कान्हा को दुर्योधन के धन का डर है
भीष्म, विदुर की तरह शक्ति वो चीर बढ़ाने वाली,
इस युग में करती है, दुर्योधन की नमक हलाली
इसी तरह खींची जायेगी, द्रोपदियों की साड़ी
यदि दुर्योधन धनी रहे और निर्धन कृष्ण मुरारी
एक दार्शनिक का है ये कवि का निष्कर्ष नहीं है
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है
उस पर ये अजदहे प्रभु का ध्यान किया करते हैं
सच पूछो तो ये उसका अपमान किया करते हैं
इश्वर कभी नहीं चाहेगा यह उसकी संताने
महलों की जूठन से खाएं बीन बीन कर दाने
और अगर चाहे तो ऐसा इश्वर मान्य नहीं है
खास खेत के बेटों के घर में धन धान्य नहीं है
भ्रष्टाचारी, चोर, रिश्वती, बेईमान, जुआरी
अपने पुण्यों के प्रताप से महलों के अधिकारी
सोच रहे हैं सत्य अहिंसा मेहनत के अनुयायी
जीवन और मरण दोनों में कौन अधिक सुखदायी
बुनकर जीवन भर में अपना कफ़न नहीं बुन पाते
जैसे नंगे पैदा होते , वैसे ही मर जाते
रग रग दुखती है समाज की कब तक कहें कहानी,
लगता है अब नहीं रहा है किसी आँख में पानी,
किसी देश में जब ऎसी बेशर्मी घर कर जाए,
जब उसके जन जन की आँखों का पानी मर जाए
पहले तो वो देश अधिक दिन जीवित नहीं रहेगा
और रहे भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा
इसीलिये कहता हूँ साथी अपने होश संभालो,
बुद्धजीवियो, कवियों कोई ऐसी युक्ति निकालो
हरा-भरा दिखने लग जाए, फिर से यह नंदनवन
वनवासी श्रम को मिल जाए फिर से राज सिंहासन
शश्य श्यामला धरती उगले फिर से वो सौगातें,
सोने जैसे दिन हो जाएँ चांदी जैसी रातें
सुप्रभात लेकर फिर आयें सत्यम शिवम सुन्दरम
अनायास ही हो जाएँ फिर जन जन के ह्रदयंगम
जिससे कोई ये न कहे हममें उत्कर्ष नहीं है
जिससे कोई ये न कहे यह भारतवर्ष नहीं है
अयोध्या विवाद
सारी धरा राम जन्म से हुई है धन्य
निर्विवाद सत्य को विवाद से निकालिए ।
रोम-रोम में बसे हुए हैं विश्वव्यापी राम
राम का महत्व एक वृत्त में न ढालिए
वसुधा कुटुंब के समान देखते रहे जो
ये घृणा के सर्प आस्तीन में न पालिए ।
राम-जन्मभूमि को तो राम ही सँभाल लेंगे
हो सके तो आप मातृभूमि को सँभालिए ।
गलती हुई होगी
हमारे घर की दीवारों में अनगिनत दरारें हैं
सुनिश्चित है कहीं बुनियाद में ग़लती हुई होगी ।
क़ुराने पाक, गीता, ग्रन्थ साहिब शीश धुनते हैं
हमारे भाव के अनुवाद में गलती हुई होगी ।
जो सब कुछ जल गया फिर राख से सीखें तो क्या सीखें,
हवा और आग के संवाद में ग़लती हुई होगी ।
हमारे पास सब कुछ है मगर दुर्भाग्य से हारे
कहीं अंदर से चिनगारी कहीं बाहर से अंगारे ।
गगन से बिजलियाँ कडकी धरा से ज़लज़ले आए
यही क्या कम हैं हम इतिहास से जीवित चले आए ।
हमारे अधबने इस नीड़ का नक्शा बताता है
कि कुछ प्रारंभ में कुछ बाद में ग़लती हुई होगी ।
एक मुट्ठी धान में
ये रोज कोई पूछता है मेरे कान में
हिंदोस्ताँ कहाँ है अब हिंदोस्तान में।
इन बादलों की आँख में पानी नहीं रहा
तन बेचती है भूख एक मुट्ठी धान में।
तस्वीर के लिये भी कोई रूप चाहिये
ये आईना अभिशाप है सूने मकान में।
जनतंत्र में जोंकों की कोई आस्था नहीं
क्या फ़ायदा संशोधनों से संविधान में।
मानो न मानो तुम ’उदय’ लक्षण सुबह के हैं
चमकीला तारा कोई नहीं आसमान में।
भ्रूण हत्या
उनको भी है जीने का अधिकार उन्हें भी जीने दो
देना या मत देना अपना प्यार उन्हें भी जीने दो ।
पुत्र रत्न की अभिलाषा का करने कष्ट-निवारण
सब प्रसन्न थे जिस दिन माँ ने गर्भ किया था धारण
किन्तु गर्भ में कन्या है जब इसका हुआ प्रसारण
सबकी भौंहे तनी कि कैसे इससे हो निस्तारण
आत्मघात से ज्यादा घातक है ये मनोविकार ।
उन्हें भी जीने दो ।
उनको भी है जीने का अधिकार उन्हें भी जीने दो
देना या मत देना अपना प्यार उन्हें भी जीने दो ।
नारी की ताकत को नर ने कम करके पहचाना
रचा महाभारत देती वो जब-जब उसने ठाना
वो दुर्गा है, वो लक्ष्मी, वो सरस्वती वो सीता
जब सीता का प्यार मिला हर युद्ध राम ने जीता
सीता विमुख हुईं तो खाई लव-कुश से भी हार ।
उन्हें भी जीने दो ।
उनको भी है जीने का अधिकार उन्हें भी जीने दो
देना या मत देना अपना प्यार उन्हें भी जीने दो ।
नर और नारी जीवन की गाड़ी के हैं दो पहिए
ह्रदय सभी का कहता मुँह से कहिए या मत कहिए
भाई बिना बहिन की खुशियाँ होती आधी-आधी
राखी बिना कलाई सूनी लगती है अपराधी
बिना बहन के सूना होगा राखी का त्यौहार ।
उन्हें भी जीने दो ।
उनको भी है जीने का अधिकार उन्हें भी जीने दो
देना या मत देना अपना प्यार उन्हें भी जीने दो ।
त्याग तपस्या में नर पर वो भारी होती है,
सफल पुरुष के पीछे कोई नारी होती है
चाँद-सितारे छूकर घर में दासी जैसी है,
वो कबीर की मछली जल में प्यासी जैसी है
कर सकता है इस सच्चाई से कोई इंकार ?
उन्हें भी जीने दो ।
उनको भी है जीने का अधिकार उन्हें भी जीने दो
देना या मत देना अपना प्यार उन्हें भी जीने दो ।
लक्ष्मीबाई भी नारी थी, बात पुरानी याद करो
आज़ादी को अर्पित कर दी भरी जवानी याद करो
पन्नाबाई भी नारी थी, करुण कहानी याद करो
स्वामिभक्ति में सुत की कैसे दी क़ुरबानी याद करो
गिनो तो अनगिनिती निकलेंगे नारी के उपकार ।
उन्हें भी जीने दो ।
उनको भी है जीने का अधिकार उन्हें भी जीने दो
देना या मत देना अपना प्यार उन्हें भी जीने दो ।
बिना देवकी, बिना कृपा के जसुमत मैय्या की,
कभी कल्पना कर सकते हो कृष्ण कन्हैय्या की ?
बिन राधा के वृन्दावन में श्याम अधूरे हैं,
बिना शक्ति के शिव के सारे काम अधूरे हैं
नारी से ही शोभित होता हर युग में अवतार ।
उन्हें भी जीने दो ।
उनको भी है जीने का अधिकार उन्हें भी जीने दो
देना या मत देना अपना प्यार उन्हें भी जीने दो ।
प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मैं धन से निर्धन हूँ पर मन का राजा हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मन तो मेरा भी चाहा करता है अक्सर
बिखरा दूँ सारी ख़ुशी तुम्हारे आंगन में
यदि एक रात मैं नभ का राजा हो जाऊँ
रवि, चांद, सितारे भरूँ तुम्हारे दामन में
जिसने मुझको नभ तक जाने में साथ दिया
वह माटी की दीवार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मुझको गोकुल का कृष्ण बना रहने दो प्रिये!
मैं चीर चुराता रहूँ और शर्माओ तुम
वैभव की वह द्वारका अगर मिल गई मुझे
सन्देश पठाती ही न कहीं रह जाओ तुम
तुमको मेरा विश्वास संजोना ही होगा
अंतर तक हृदय उधार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मैं धन के चन्दन वन में एक दिवस पहुँचा
मदभरी सुरभि में डूबे सांझ-सकारे थे
पर भूमि प्यार की जहाँ ज़हर से काली थी
हर ओर पाप के नाग कुंडली मारे थे
मेरा भी विषधर बनना यदि स्वीकार करो
वह सौरभ युक्त बयार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
काँटों के भाव बिके मेरे सब प्रीती-सुमन
फिर भी मैंने हँस-हँसकर है वेदना सही
वह प्यार नहीं कर सकता है, व्यापार करे
है जिसे प्यार में भी अपनी चेतना रही
तुम अपना होश डूबा दो मेरी बाँहों में
मैं अपने जन्म हज़ार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
द्रौपदी दाँव पर जहाँ लगा दी जाती है
सौगंध प्यार की, वहाँ स्वर्ण भी माटी है
कंचन के मृग के पीछे जब-जब राम गए
सीता ने सारी उम्र बिलखकर काटी है
उस स्वर्ण-सप्त लंका में कोई सुखी न था
श्रम-स्वेद जड़ित गलहार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
मैं अपराधी ही सही जगत् के पनघट पर
आया ही क्यों मैं सोने की ज़ंजीर बिना
लेकिन तुम ही कुछ और न लौटा ले जाना
यह रूप गगरिया कहीं प्यार के नीर बिना
इस पनघट पर तो धन-दौलत का पहरा है
निर्मल गंगा की धार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ
महादेव के लिये
स्वर्ग से पतित सुर-सरिता को शीश धर
भाल पे बिठा लिया मयंक ये प्रमाण है ।
लोकहित में समस्त जगती का विष पिया
खल-बल को तृ्तीय नेत्र विद्यमान है ।
प्रेम वशीभूत भूतनाथ के भुजंग संग
नदिया तो गिरिजा गनेश के समान हैं ।
भोलानाथ महादेव औघड़ प्रसन्न हों तो
भूल जाते कौन भक्त, कौन भगवान हैं ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए
चाहे जो हो धर्म तुम्हारा चाहे जो वादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके अन्न और पानी का इस काया पर ऋण है
जिस समीर का अतिथि बना यह आवारा जीवन है
जिसकी माटी में खेले, तन दर्पण-सा झलका है
उसी देश के लिए तुम्हारा रक्त नहीं छलका है
तवारीख के न्यायालय में तो तुम प्रतिवादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके पर्वत खेत घाटियों में अक्षय क्षमता है
जिसकी नदियों की भी हम पर माँ जैसी ममता है
जिसकी गोद भरी रहती है, माटी सदा सुहागिन
ऐसी स्वर्ग सरीखी धरती पीड़ित या हतभागिन ?
तो चाहे तुम रेशम धारो या पहने खादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके लहराते खेतों की मनहर हरियाली से
रंग-बिरंगे फूल सुसज्जित डाली-डाली से
इस भौतिक दुनिया का भार ह्रदय से उतरा है
उसी धरा को अगर किसी मनहूस नज़र से खतरा है
तो दौलत ने चाहे तुमको हर सुविधा लादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
अगर देश मर गया तो बोलो जीवित कौन रहेगा?
और रहा भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा?
माँग रही है क़र्ज़ जवानी सौ-सौ सर कट जाएँ
पर दुश्मन के हाथ न माँ के आँचल तक आ पाएँ
जीवन का है अर्थ तभी तक जब तक आज़ादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
चाहे हो दक्षिण के प्रहरी या हिमगिरी वासी हो
चाहे राजा रंगमहल के हो या सन्यासी हो
चाहे शीश तुम्हारा झुकता हो मस्जिद के आगे
चाहे मंदिर गुरूद्वारे में भक्ति तुम्हारी जागे
भले विचारों में कितना ही अंतर बुनियादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
भगत सिंह
भक्त मात्रभूमि के थे भूमिका स्वतंत्रता की
नाम के भगत सिंह काम आग-पानी के ।
बहरे विधायकों के कान में धमाका किया
उग्र अग्रदूत बने क्राँति की कहानी के ।
दासता के दायकों को काल विकराल हुए
देश को सिखाए उपयोग यों जवानी के ।
फाँसी चूमते समय भी मात् र जयघोष किया
सारा देश कुर्बान तेरी कुर्बानी के ।
माली तुम्हीं फैसला कर दो
अगर बहारें पतझड़ जैसा रूप बना उपवन में आएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?
वातावरण आज उपवन का अजब घुटन से भरा हुआ है
कलियाँ हैं भयभीत फूल से, फूल शूल से डरा हुआ है
सोचो तो तुम, क्या कारण है दिल दिल के नज़दीक नहीं है
जीवन की सुविधाओं का बँटवारा शायद ठीक नहीं है
उपवन में यदि बिना खिले ही कलियाँ मुरझाने लग जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?
यह अपनी-अपनी किस्मत है कुछ कलियाँ खिलती हैं ऊपर
और दूसरी मुरझा जातीं झुके-झुके जीवन भर भू पर
माना बदकिस्मत हैं लेकिन, क्या वे महक नहीं सकती हैं
अगर मिले अवसर अंगारे सी क्या दहक नहीं सकती हैं ?
धूप रोशनी अगर चमन में ऊपर ऊपर ही बँट जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?
काँटे उपवन के रखवाले अब से नहीं ज़माने से हैं
लेकिन उनके मुँह पर ताले अब से नहीं ज़माने से हैं
ये मुँह बंद उपेक्षित काँटे अपनी कथा कहें तो किससे?
माली उलझे हैं फूलों से अपनी व्यथा कहें तो किससे?
इसी प्रश्न को लेकर काँटे यदि फूलों को ही चुभ जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?
सुनते हैं पहले उपवन में हर ऋतु में बहार गाती थी
कलियों का तो कहना ही क्या, मिटटी से ख़ुशबू आती थी
यह भी ज्ञात हमें उपवन में कुछ ऐसे भौंरे आए थे
सारा चमन कर दिया मरघट, अपने साथ ज़हर लाए थे
लेकिन अगर चमन वाले ही भौंरों के रंग-ढंग अपनाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?
बुलबुल की क्या है बुलबुल तो जो देखेगी सो गाएगी
उसकी वाणी तो दर्पण है असली सूरत दिखलाएगी
क्योंकि आज बुलबुल पर गाने को रस डूबा गीत नहीं है
सारा चमन बना है दुश्मन कोई उसका मीत नहीं है
गाते-गाते यदि बुलबुल के गीत आँसुओं से भर जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?
नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ इतनी कि बस
नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ इतनी कि बस।
सेक्युलर खेमे में हैं सरदारियाँ इतनी कि बस।
पीठ के पीछे छुपाए हैं कटोरा भीख का
और होठों से बयाँ खुद्दारियाँ इतनी कि बस।
पनघटों की रौनकें इतिहास में दाख़िल हुई
ख़ूबसूरत आज भी पनिहारियाँ इतनी कि बस।
जान जनता और जनार्दन दोनों की मुश्किल में है
इन सियासतदानों की अय्यारियाँ इतनी कि बस।
तन रंगा फिर मन रंगा फिर आत्मा तक रंग गई
आँखों-आँखों में चली पिचकारियाँ इतनी कि बस।
ऊपर-ऊपर प्यार की बातें दिखावे के लिए
अन्दर-अन्दर युद्ध की तैयारियाँ इतनी कि बस।
दो गुलाबी होठों के बाहर हँसी निकली ही थी
खिल गईं चारों तरफ़ फुलवारियाँ इतनी कि बस।
हरगिज़ वो शख्स साहिब किरदार नहीं है
हरगिज़ वो शख्स साहिब किरदार नहीं है
जो दिल से मोहब्बत का तरफदार नहीं है
सैलानियों से दरिया इशारों में कह गया
जो मौज तुम्हे चाहिए उस पार नहीं है
मंगल पे पहुंचने का ख्वाब देख रहे हैं
साँसों के आने जाने पे अधिकार नहीं है
शायर को ये तुर्रए इमत्याज़ किस लिए
कलंदर हैं वैरागी है तलबगार नहीं है
किसी दूसरी दुनियाँ में भी शायद कोई मिले
जो ग़र्दिश ए दौराँ में गिरफ्तार नहीं है
करना है अगर प्यार करो प्यार की तरह
अहसान तो किस्मत का भी स्वीकार नहीं है
हर पल चुरा रहा है कोई ज़िन्दगी के दिन
ये कैसा मुसाफिर है खबरदार नहीं है
दामन न गीला कीजिये ना चीज़ के लिए
आँसू हैं महज़ मोतियों का हार नहीं है
बाहर खेती-बारी रख
बाहर खेती-बारी रख
आँगन में फुलवारी रख
थोड़ी दुनिया दारी रख
प्यार मुहब्बत जारी रख
यादें मधुर संजोने को
मन में एक अलमारी रख
ठहर मुसाफिरखाने में
चलने की तैयारी रख
भूत, भविष्यत जाने दे
वर्तमान से यारी रख
डंडी देख तराज़ू की
मन का पलड़ा भारी रख
चमक देखनी हीरे की
पृष्ठ भूमि अंधियारी रख
उदय ह्रदय के अनुभव सुन
ये बातें अखबारी रख
फूलों का काँटों-सा होना
काँटे तो काँटे होते हैं उनके चुभने का क्या रोना ।
मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।
युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की ख़ुशबू आती है
जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।
बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है
मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।
दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है
जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसना बन कर रोना ।
वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है
अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में क़लम डुबोना ।
न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है
न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है
नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है
हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के
मगर पहुँचे हुए ये कह गए भगवान सबका है
जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं
महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है
अनेकों रंग, ख़ुशबू, नस्ल के फल-फूल पौधे हैं
मगर उपवन की इज्जत-आबरू ईमान सबका है
हक़ीक़त आदमी की और झटका एक धरती का
जो लावारिस पड़ी है धूल में सामान सबका है
ज़रा से प्यार को खुशियों की हर झोली तरसती है
मुकद्दर अपना-अपना है, मगर अरमान सबका है
उदय झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की
जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है
एक वक़्त की रोटी खाते आधे हिन्दुस्तानी लोग
एक वक़्त की रोटी खाते आधे हिन्दुस्तानी लोग
काले धन पर फिर कैसे इतराते हैं अभिमानी लोग
लागत से कम दाम पर करते खेती और किसानी लोग
इसे भाग्य का खेल बता कर करते हैं शैतानी लोग
ऊंची कुर्सी पर बैठे जो करते बेईमानी लोग
काश सोचते सरहद पर क्यों देते है क़ुर्बानी लोग
देशप्रेम के छद्म भेष में करते है मन मानी लोग
स्वर्गलोक में रोते होंगे स्वतन्त्रता सैनानी लोग
दिखारहे है संस्कृति की हमको तस्वीर पुरानी लोग
घुमा फिरा कर छिपा रहे हैअपनी कारिश्तानी लोग
संसद में दिखलावे को दिखलाते हैं हैरानी लोग
ऐसे कैसे महलाओं से करते हैं हैवानी लोग
सुबह कई टीवी पर सुनवाते हैं अमृत वाणी लोग
आँखे बंद किये रहते हैं सारे ज्ञानी ध्यानी लोग
मिड डे मील योजना का सुख भोग रहे वरदानी लोग
बच्चे ऐसे जाते जैसे खाते है मेहमानी लोग
बंजारे बंजारों में
ख़ुशबू नहीं प्यार की महकी जिनके सोच-विचारों में ।
नागफनी की चुभन मिली उनके दैनिक व्यवहारों में ।
तू पतझर के पीले पत्तों पर पग धरते डरता है
लोग सफलता खोज चुके हैं लाशों के अंबारों में ।
महलों के रहने वाले कुछ दूरी रखकर मिलते हैं
पल-भर में घुल-मिल जाते हैं बंजारे बंजारों में ।
औरत ही माँ, बहन, आत्मजा, पत्नी और प्रेमिका है
बदली नज़रों से पड़ता है, कितना फ़र्क नज़ारों में ।
अगर उजाला दे न सका तू ‘उदय’ अंधेरी बस्ती को
क्या होगा यदि लिख भी गया कल नाम तेरा फ़नकारों में ।
ये रोज़ कोई पूछता है मेरे कान में
ये रोज़ कोई पूछता है मेरे कान में
हिन्दोस्तान है कहाँ हिन्दोस्तान में
इन बादलों की आँख में पानी नहीं रहा
तन बेचती है भूख एक मुट्ठी धान में
प्रतिबिम्ब के लिए भी कोई बिम्ब चाहिए
ये आइने अभिशाप हैं सूने मकान में
जनतन्त्र में जोंकों की कोई आस्था नहीं
क्या फ़ायदा संशोधनों से संविधान में
मानो न मानो तुम ‘उदय’ लक्षण सुबह के हैं
चमकीला तारा कोई नहीं आसमान में
एक मेरा दोस्त मुझसे फ़ासला रखने लगा
एक मेरा दोस्त मुझसे फ़ासला रखने लगा
रुतबा पाकर कोई रिश्ता क्यों भला रखने लगा
जब से पतवारों ने मेरी नाव को धोखा दिया
मैं भँवर में तैरने का हौसला रखने लगा
मौत का अंदेशा उसके दिल से क्या जाता रहा
वह परिन्दा बिजलियों में घोसला रखने लगा
जिसकी ख़ातिर मैंने सारी दीन-दुनिया छोड़ दी
वह मेरा दिल मुझसे ही शिकवा-गिला रखने लगा
मेरी इन नाकामियों की कामयाबी देखिए
मेरा बेटा दुनियादारी की कला रखने लगा