बदली-बदली-सी है सारी तस्वीर आज
बदली-बदली-सी है सारी तस्वीर आज
ख़ुद ही तोड़ी है औरत ने ज़ंजीर आज
दर्दे दिल में उठी ऐसी है पीर आज
पलकों में कैसे सम्भले भला नीर आज
हर दुआ मेरी तो हो रही है क़बूल
ख़ुश है पहली दफ़ा मुझसे तक़्दीर आज
उनसे मिलने की हसरत बहुत है मुझे
सूझती लेकिन नहीं कोई तद्बीर आज
तुझको ख़ैरात में दूँ ज़मीं आस्मां
पाँव की तू जो पिघला दे ज़ंजीर आज
धूप भी मुझको गुलमोहरी-सी लगे
धूप भी मुझको गुलमोहरी-सी लगे
प्यार में ज़िन्दगी कुछ भली-सी लगे
मन की पीड़ाएँ ग़ज़लों में कितनी ढलीं
बात फिर भी कई अनकही-सी लगे
दिल में सन्नाटों का यूँ बसन्त आया है
दिल के बाहर भी इक ख़ामुशी-सी लगे
दर्द सारे जहॉं का समेटे हुए
ग़ज़लों की आँखों में कुछ नमी-सी लगे
इस तरह अश्कों से आँखें लबरेज़ हैं
जैसे आषाढ़ की इक नदी-सी लगे
इस क़दर दिल में बेताब है इन्तज़ार
आती आहट उषा हर घड़ी-सी लगे
दिल की बस्ती में शोर आँख वीरान है
दिल की बस्ती में शोर आँख वीरान है
ज़िन्दगी हर क़दम पर पशेमान है
दिल फ़िगारों के दिल में बयाबान है
बस्ती एहसास की अब तो बेजा़न है
क्या सबब है कि वो अजनबी-सा मिला
जिससे बरसों की मेरी तो पहचान है
दिल में सदा जलती है दर्द की इक मशाल
यह तुम्हारे ग़मों का ही एहसान है
यूूूॅं न मायूस हो और ना हो उदास
मन्ज़िलें ज़िन्दगी की भी इमकान है
इसके पहले ख़ला में क्या था उषा
अब तो हर सिम्त ही एक तूफ़ान है
हरिक पल हमें कौन छलता है जानाँ
हरिक पल हमें कौन छलता है जानाँ
ये जीवन तो तूफ़ाँ का मेला है जानाँ
कि साँसों का बस ताना-बाना है जानाँ
दुखों से लबालब ये दुनिया है जानाँ
है बज़्मे जहाँ का अजब ही ये दस्तूर
हरिक शख़्स यहाँ होता अकेला है जानाँ
हरिक सिम्त उल्फ़त की ख़ुशबू है बिख़री
तुम्हारी ही यादों का जलसा है जानाँ
करूँ बन्द पलकें दिखे उसकी सूरत
अन्धेरे में कितना उजाला है जानाँ
भरी दोपहर में क्यों रफ़्ता-रफ़्ता
मुसलसल ही सावन बरसता है जानाँ
कि ऐसा भी एहसास होता है मुझको
हैं लाखों ग़म पर दिल ये तन्हा है जानाँ
जुदाई की शब जैसे सहरा में चलना
जुदाई की शब जैसे सहरा में चलना
शबे ग़म की आग़ोश में अब है रहना
खि़जाओं के मौसम में फूलों का खिलना
कि मुफ़लिस के घर में चिराग़ों का जलना
बशर के लिए देखो मुश्किल बहुत है
यहाँ ग़म के खा़रों से बचना संभलना
कठिन है डगर औ’ कठिन है ये जीवन
सदा फिर भी मुझको अकेले है चलना
ये जीवन तो है आग का एक दरिया
कि हर हाल में इसको है पार करना
सरे तन्हा जब-जब भी ईमान रोए
सरे-तन्हा[1] जब जब भी ईमान रोए
कहीं मुझमें फिर गीता क़ुरआन रोए
तड़पकर मिरे सारे अरमान रोए
मिरे साथ जीवन के मधुगान रोए
जुदाई की शब दिल-ए-नादान रोए
मुहब्बत के सारे ही सामान रोए
निगाहों के आँसू परेशान रोए
उमीदों के सारे ही इमकान रोए
फ़लक से न उतरे न दुख ही सुने वो
यहाँ चाहे जितना भी इन्सान रोए
जो फ़ितरत ही यूँ ढाए ज़ुल्मों सितम तो
क्यों न सबेरे उषा गान रोए
न लौटे किसी तौर अब वो मुसाफ़िर
रहे मुन्तज़िर-ए-तन्हा सुनसान रोए
- ऊपर जायें↑ नितान्त अकेलापन
शहरे दिल का हर इक अब मकाँ बन्द है
शहरे-दिल का हरिक अब मकाँ बन्द है
सुख परिन्दा भी आख़िर कहाँ बन्द है
गूँगे आतुर हुए बोलने के लिए
पर ज़बाँ वालों की तो ज़बाँ बन्द है
एक आँधी उठे हुक़्मराँ के ख़िलाफ़
दिल मे कब से घुटन ये धुआँ बन्द है
मसअला तो अना का है इतना बढ़ा
गुुुफ़्तगू दोनों के दरमियाँ बन्द है
वो हैं आज़ादी के आज रहबर बने
जिनकी मुठठी में तो कहकशाँ बन्द है
अय उषा हम करें ग़म बयाँ किस तरह
ख़ामुशी शोर के दरमियाँ बन्द है
उदासी में डूबा क़मर कुछ न पूछो
उदासी में डूबा क़मर[1] कुछ न पूछो
लहू से ज़मीं क्यों है तर कुछ न पूछो
हुआ हिज्र कैसे बसर कुछ न पूछो
तग़ाफुल उमीदे सहर कुछ न पूछो
कि बिछड़न का अब तो असर कुछ न पूछो
उठे दर्द आठों पहर कुछ न पूछो
वो उतरे ख़यालों में जब धीरे-धीरे
सितम यादें ढाती हैं फिर कुछ न पूछो
दुखी करती है रंजो-ग़म की ये दुनिया
अज़ल से है क्यों अश्के तर कुछ न पूछो
कहाँ जाए दिल छोड़कर उनका दर भी
उमीदी-सी अश्के नज़र कुछ न पूछो
परिन्दे न पत्ते न थका कोई राही
उदास अब हैं ठूँठे शजर कुछ न पूछो
- ऊपर जायें↑ चाँद