तुमने छुआ था मेरा जब हाथ चुपके-चुपके
तुमने छुआ था मेरा जब हाथ चुपके-चुपके
कितने मचल उठे थे जज्बात चुपके-चुपके।
बिखरे हुए हैं ख़्वाबों के फूल सहने दिल में
आया था दिल के घर में कोई रात चुपके-चुपके।
बस्ती में ख़्वाहिशों की हलचल मचा गए हैं
वो इक झलक की देके सौग़ात चुपके-चुपके।
क्या जाने खौफ़ क्या है उनके जहन में यारो?
करते हैं आजकल वो हर बात चुपके-चुपके।
वो भी नहीं बताते अब दर्द अपने दिल का
और हम भी सह रहें हैं सदमात चुपके-चुपके।
आँखों का पानी देखा, देखी नहीं है तुमने
अन्दर जो हो रही है बरसात चुपके-चुपके।
यूँ कहने को तो मुझसे ही मिलने आए हैं वो
पर देखते हैं मेरी औक़ात चुपके-चुपके।।
क्यों फासिले-से आ गए हैं अब दिलों के बीच
क्यों फासिले-से आ गए हैं अब दिलों के बीच
भरनी हैं कुछ मुहब्बतें इन फासिलों के बीच।
बेकारियाँ हैं मुफलिसी लाचारियाँ बहुत
ज़िन्दा हैं अपने लोग इन्हीं कातिलों के बीच।
तूफाँ से क्या गिला करें मौजों से क्या गिला
जिसका सफ़ीना डूब गया साहिलों के बीच।
जलसे, जुलूस, रैलियों में खो गया जहाँ
तन्हाइयों का ज़िक्र है अब महफ़िलों के बीच।
काँधे पे उसके हाथ रखा तो वो रो पड़ा
हँसता रहा हमेशा ही जो मुश्किलों के बीच।
समझेगा कोई कैसे असरार ज़िंदगी के
समझेगा कोई कैसे असरार ज़िंदगी के
होते नहीं हैं रस्ते हमवार ज़िंदगी के।
ये कौन-सी है बस्ती ये कौन-सा जहाँ है
ख़तरे में दीखते हैं आसार ज़िंदगी के।
जब इक ख़ुशी मिली तो सौ गम़ भी साथ आए
ऐसे रहे हैं अब तक उपकार ज़िंदगी के।
अपना ही हाथ जैसे अपने लहू में तर है
देखें हैं रंग ऐसे सौ बार ज़िंदगी के।
सारी उमर हैं तरसे ख़ुद ही से मिलने को हम
कुछ इस तरह निभाए किरदार ज़िंदगी के।
इक भूख से बिलखते बच्चे ने माँ से पूछा
‘क्या सच में हम नहीं हैं हक़दार ज़िंदगी के।’
‘ऋषि’ जिसने ज़िंदगी के सब फऱ्ज थे निभाए
क्यों उसको मिल न पाए अधिकार ज़िंदगी के।
खुले ही रहते थे जब दिल के द्वार आँगन में
खुले ही रहते थे जब दिल के द्वार आँगन में
तो ख़ुशियाँ आती थीं बाँधे कतार आँगन में।
मकान ख़ाली है कोई यहाँ नहीं रहता
बता रहे हैं मुझे बिखरे खार आँगन में।
हैं भाई-भाई भी दुश्मन ज़मीनों ज़र के लिए
न प्यार मिलता है ना एतबार आँगन में।
लगा यों बाप को दिल उसका टुकड़े-टुकड़े हुआ
जब उसके बेटों ने खींची दिवार आँगन में।
नगर जो फैले तो आँगन सिकुड़ गए ऐसे
कि छज्जे होने लगे हैं शुमार आँगन में।
चुगेंगीं आके इन्हें अम्नो चैन की चिड़ियाँ
बिखेर प्यार के दाने तू यार आँगन में।
‘ऋषी’ मकानों में आँगन ही अब नहीं मिलते
बिखेरूँ कैसे भला अब मैं प्यार आँगन में।
मुझको रोके थी अना और यार कुछ मगऱूर था
मुझको रोके थी अना और यार कुछ मगऱूर था
जिस्म से था सामने लेकिन वो दिल से दूर था।
मैं मदद के वास्ते नाहक वहाँ चीखा किया
घर पड़ौसी के न जाने का जहाँ दस्तूर था।
हाथ मेरे दोस्तो इस जुर्म में काटे गए
ताज के कारीगरों में मैं भी इक मजदूर था।
हाथ में सैयाद के मैं क्यों नहीं आता भला
पंख थे ज़ख्मी मेरे और मैं थकन से चूर था।
क्यों मुझे मिलती तरक्की आज के माहौल में
सर झुकाना दुम हिलाना कुछ नहीं मंजूर था।
घूंघट में अब न मुंह को छुपाना मेरी ग़ज़ल
घूंघट में अब न मुंह को छुपाना मेरी ग़ज़ल
पर्दा उठा के सामने आना मेरी ग़ज़ल।
नाज़ुक हसीन-सी है तू तीख़ी भी है बहुत
तेवर ज़रा तू अपना दिखाना मेरी ग़ज़ल।
जो लोग प्यार और वफ़ा को कहें फ़िज़ूल
इक बार उनको यार सुनना मेरी ग़ज़ल।
मज़लूम हैं गरीब हैं रोते हैं जो यहां
सुर अपना उनके साथ मिलना मेरी ग़ज़ल।
जो लोग चाहते हैं महब्बत की दौलतें
उनके लिए हैं एक ख़ज़ाना मेरी ग़ज़ल।
जज़्बात इश्क़ के कभी हालाते-ज़िन्दगी
इज़हार का है एक बहाना मेरी ग़ज़ल।
जीवन की उलझनों से परेशान हैं जो लोग
जामे-सुकून उनको पिलाना मेरी ग़ज़ल।
मेयार से न गिरना तू ऐ जाने-शायरी
बस दिन-ब-दिन निखरते ही जाना मेरी ग़ज़ल।
मुझको छुए बिना ही ये तूफां गुज़र गया
मुझको छुए बिना ही ये तूफां गुज़र गया
लौटे न फिर, ये सोच के दिल मेरा डर गया।
ले कर मैं खाली जेब जब इस बार घर गया
हर शख्स का खुलूस न जाने किधर गया।
बरबस किसी ने फूल समझकर मसल दिया
मैं ख़ुशबू बन के बाग में सर सू बिख़र गया।
मुद्दत के बाद दोस्तों खुद को संवार कर
देखा जो आइना, मेरा चेहरा उतर गया।
तोड़ा खमोश रह के सितम सहने का चलन
पानी जो आज दोस्तों सर से गुज़र गया।
जब दोस्त को दिलानी पड़ी दोस्ती की याद
ऐसा लगा ‘ऋषि’ कि मैं जीते जी मर गया।
प्यार का बदला हमेशा प्यार क्यों होता नहीं
प्यार का बदला हमेशा प्यार क्यों होता नहीं?
जिसपे जां दूँ वो भी मेरा प्यार क्यों होता नहीं?
जिनकी मेहनत से बना करते हैं महल-ओ-कोठियां
उनकी ही तक़दीर में घरबार क्यों होता नहीं?
राम तूने तो शिला को भी जिलाया था कभी
आज मानव का भगत उद्धार क्यों होता नहीं?
जानता हूँ मुझ से बेजा ख़्वाहिशें करते हैं लोग
चाहता हूँ लाख पर, इंकार क्यों होता नहीं।
उसका दिल है साफ तो फिर हम से मिलने के समय
वो मिलाने को नज़र तैयार क्यों होता नहीं?
बाहरी दुनिया से यदि मिलता नहीं सम्मान तो
व्यक्ति का निज गृह में बि सत्कार क्यों होता नहीं?
यों मेरे उसके बीच कोई फ़ासिला नहीं
यों मेरे उसके बीच कोई फ़ासिला नहीं
लेकिन कभी भी मुझसे वो खुलकर मिला नहीं।
तन्हाइयों से प्यार मुझे है बहुत, मगर
लोगों के आने जाने से भी कुछ गिला नहीं।
मैं उम्र भर न प्यार का फिर नाम ले सकूँ
देना मुझे तू प्यार का ऐसा सिला नहीं।
जिनकी शरारतों से बनी ज़िन्दगी अज़ाब
वे कह रहे हैं गुल अभी असली खिला नहीं।
मेरे विरोधियों में मेरे अपने लोग हैं
लेकिन मुझे किसी से ‘ऋषि’ कुछ गिला नहीं।
छोड़ दूँ कैसे भला मैं ये निशानी प्यार की
छोड़ दूँ कैसे भला मैं ये निशानी प्यार की?
इन दरो-दीवार से आती है ख़ुशबू यार की।
दूर तक हमको किनारा जब नज़र आया नहीं
तब विवश हो सो गये हम गोद में मझधार की।
मौत आनी है तो आ जाये हमें कुछ डर नहीं
खत्म होगी इक कहानी दर्द के संसार की।
आपकी यादें दहक उठती हैं जब अंगार सी
आग में जलते हैं हम फिर आपके रुख़सार की।
उसकी कश्ती को डुबोकर मौज भी रोने लगी
हाथ ही से जिसने पूरी की कभी पतवार की।
मुस्कुराये जा रहे हैं वो हमारी हार पर
उनको शायद पहले ही से थी खबर इस हार की।
दाग़ दामन में लगा कर रख दिया
दाग़ दामन में लगा कर रख दिया
दिल ने मेरे सब मिटाकर रख दिया।
उम्र जिसकी तेरी यादों मर कटी
तूने उसको ही भुला कर रख दिया।
दर्द का किस्सा किसी से कब कहा?
आंसुओं ने सब बता कर रख दिया।
भोर का सपना दिखाकर चुपके से
उसने सूरज को छिपाकर रख दिया।
ख़्वाब रहते थे कभी जिस आंख में
वक़्त ने पानी सजाकर रख दिया।
मेरे ग़म के शबनमी अहसास ने
फूल-पत्तों को रुला कर रख दिया।
यूँ ही रात भर कोई बात कर
यूँ ही रात भर कोई बात कर
मेरे हम सफ़र कोई बात कर।
मेरी आंखों में ज़रा प्यार से
कभी झांक कर कोई बात कर।
मेरे दिल की राह से हमनवा
कभी तो गुज़र कोई बात कर।
मेरे यार चुप है तू शाम से
हुई अब सहर कोई बात कर।
मेरा दिल बहुत ही उदास है
ज़रा चहक कर कोई बात कर।
मेरे हाल से मेरे प्यार से
न हो बेख़बर कोई बात कर।
तुन्हें कब का मैंने किया मुआफ़
न चुरा नज़र कोई बात कर।
जो हुई थी पहले मिलन के वक़्त
उसी बात पर कोई बात कर।
वो बुरा सही कि भला सही
‘ऋषि’ की मगर कोई बात कर।
सबको सावन का महीना भा गया
सबको सावन का महीना भा गया
सूखते पेड़ों को जीना आ गया।
फ़स्ल गेहूँ की पकी जब खेत में
सब किसानों ओर नशा सा छा गया।
रंग मस्ती के उसे भी भा गये
जिसको अब तक पारसा समझा गया।
मयकशी का जो विरोधी था बहुत
मैकदे में आज वो देखा गया।
ले उड़ी चुनरी पवन मदमस्त, तो
लाज का आंसू नयन छलका गया।
एक गोरी का नशीला तन-बदन
संयमी मन को मेरे बहका गया।
यह जवां फूलों का मंज़र खुशनुमा
बस्तिए-दिल को मर्ज महका गया।
चाहती हज वो भिगोऊँ मैं उसे
मौन उसका कान में बतला गया।
रंग होली के तो रक्खे रह गये
और कोई प्यार से नहला गया।
क्यों आसमां ये खुदखुशी करता नहीं
क्यों आसमां ये खुदखुशी करता नहीं
ज़ुल्मो-सितम को देख गिर पड़ता नहीं?
कुछ और कलियाँ आक तोड़ीं जाएंगी
यों बाग़ में माली क़दम रखता नहीं।
गर आदमी खोता नहीं किरदार को
तो कोड़ियों के भाव यों बिकता नहीं।
बाज़ार में भीखू परेशां है खड़ा
सत्तू चने का भी यहां सस्ता नहीं।
ऐ दिल न हो खुश आ गये मेहमान जो
मतलब बिना कोई यहां मिलता नहीं।
समझेगा कोई कैसे, असरार ज़िन्दगी के?
समझेगा कोई कैसे, असरार ज़िन्दगी के?
होते नहीं है रस्ते हमवार ज़िन्दगी के।
ये कौन सी है बस्ती ये कौन सा जहां है
ख़तरे में दीखते हैं आसार ज़िन्दगी के।
जब इक खुशी मिली तो सौ ग़म भी साथ आये
ऐसे रहे हैं अब तक उपकार ज़िन्दगी के।
अपना ही हाथ जैसे, अपने लहू में तर है
देखें है रंग ऐसे सौ बार ज़िन्दगी के।
सारी उमर है तरसे खुद ही से मिलने को हम
कुछ इस तरह निभाये किरदार ज़िन्दगी के।
इक भूख से बिलखते बच्चे ने मां से पूछा
‘क्या सच में हम नहीं हैं, हक़दार ज़िन्दगी के’।
‘ऋषि’ जिसने ज़िन्दगी के , सब फ़र्ज़ थे निभाये
क्यों उसको मिल न पाए अधिकार ज़िन्दगी के।
देख कर दिल की कहानी आज कल
देख कर दिल की कहानी आज कल
रो रही है ज़िन्दगानी आज कल।
क्यों दया, ममता, वफ़ा और प्यार की
बात लगती है पुरानी आज कल।
रात भर कोई यहां सोता नहीं
इस तरह है हुक्मरानी आज कल।
बात अपने दिल की सबके सामने
है बहुत मुश्किल सुनानी आज कल।
हंस रही हैं नागफनियां मस्त हो
कुढ़ रही है रातरानी आज कल।
जो अभी तुतला रहे थे उनको भी
आ गई बातें बनानी आजकल।
घर में संयम से रहा करिये जनाब
हो चली बेटी सयानी आज कल।
देख मेरे यार अब न हम सफ़र की बात कर
देख मेरे यार अब न हम सफ़र की बात कर
जो पड़ी वीरान है उस रहगुज़र की बात कर।
शहरों की ऊँची बड़ी बातें नहीं सुननी मुझे
गांव की बातें सुना तू और घर की बात कर।
इस जहां की धोखेबाज़ी से मुझे क्या वास्ता
उस हसीं मासूम की प्यारी नज़र की बात कर।
बात शब की और अंधेरों का फ़साना छोड़ कर
रौशनी का ना तराना और सहर की बात कर।
पांव हैं तेरे सलामत, कर ख़ुदा का शुक्र तू
देख अब मत आसमां और बालो-पर की बात कर।
बे-वजह लिक्खे गये शेरों की बातें छोड़ दे
दर्दो-ग़म में डूबे नग़मों के असर की बात कर।
इक गांव है ख़याल में मेरे बना हुआ
इक गांव है ख़याल में मेरे बना हुआ
अपनी ज़मीन से ही में जबसे जुदा हुआ।
ख़ामोश पल सुकून के मिलते नहीं कहीं
माहौल आज कल का है बस चीख़ता हुआ।
जब मेरा घर लुटा तो सभी चुप खड़े रहे
अब खुद पे आ पड़ी तो कहें ये बुरा हुआ।
अपने ही कत्ल का मैं गुनहगार हो गया।
कहते हैं लोग हक़ में मेरे फैसला हुआ।
बाहर न आने देगा मेरे आंसुओं को ‘ऋषि’
इक बांध ज़ब्त का है अभी तक बना हुआ।
उससे था जो फासला वो कम लगा
उससे था जो फासला वो कम लगा
इस दफा हमसे खफ़ा वो कम लगा।
आज देखा आपको नज़दीक से
जो अभी तक था सुना एओ कम लगा।
यों तो मालिक ने दिया हमको बहुत
पर हमें जो कुछ मिला वो कम लगा।
मुस्कुरा कर बात जब मेरी सुनी
उनसे जो भी था गिला वो कम लगा।
जान देना ही रहा बाक़ी मगर
हमने उनको जो दिया वो कम लगा।
हमसफ़र प्यारा मिला तो दोस्तों
था जो लम्बा रास्ता वो कम लगा।
कुछ नया जब-जब लिखा तो ये लगा
पहले जो कुछ भी लिखा वो कम लगा।
हो फलीभूत तब प्रार्थना
हो फलीभूत तब प्रार्थना
शुद्ध हो जब तेरी भावना।
संग तेरा मिला जो मुझे मूर्त होने लगी कल्पना।
क्यों वही प्राप्त होता नहीं जिसकी होती है संभावना।
तू स्वयं को कसौटी पे रख छोड़ संसार को आंकना।
ढल न पाए प्रयासों में जो व्यर्थ होती है वह कामना।
भाव कितना सरल क्यों न हो है कठिन शब्दों में ढालना।
बालपन का यही है स्वभाव और उकसायेगी वर्जना।
प्राय हमको मिली है ‘ऋषि’ वेदना की दवा वेदना।
पत्थर को लिए हाथ में वो तोल रहे हैं
पत्थर को लिए हाथ में वो तोल रहे हैं
गुस्से से मुझे देख के कुछ बोल रहे हैं।
शायद मेरा भी नाम सुनाई दे तुम्हें आज
सरकार मेरे आज ज़ुबाँ खोल रहे हैं।
उन गांवों में नफ़रत का जुनूँ छाने लगा है
कल तक कि जहां प्यार के माहौल रहे हैं।
किरदार को अपने वो सँवारे तो है बेहतर
जिस्मों को सँवारे हुए जो डोल रहे हैं।
खुद से भी सदा बात यहां जिनकी छिपाई
महफ़िल मव वही राज़ मेरा खोल रहे हैं।
अब सांस भी लेना है यहां पर ‘ऋषि’ मुश्किल
कुछ लोग हवाओं में ज़हर घोल रहे हैं।