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Ekant-shrivastava.jpg

सेल्युलर जेल

सेल्युलर जेल के गलियारों में घूमते हुए, तेरह बाइ सात की काल कोठरियों में साँस लेते हुए मैं वही नहीं रह गया था; जैसा गया था। मेरी साँसों में कितनी उखड़ी हुई साँसों की गर्म महक घुलने लगी। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान काला पानी बना पोर्टब्लेयर और इसमें बनाई गई सेल्युलर जेल की कहानी ऐतिहासिक और रक्तरंजित है। गुलामियाँ ख़त्म होती हैं और पुन: आरम्भ भी होती हैं। कितनी आज़ादियाँ गुलामी की अदृश्य बेड़ियों में आज भी जकड़ी हुई हैं। इक्कीसवीं सदी में पहुँची हुई इस उत्तर आधुनिक सभ्यता में, उत्तर पूँजीवाद में देखते-देखते सेल्युलर जेल एक प्रतीक में बदलने लगती है। इतिहास का रक्त वर्तमान की चौखट तक बहता चला आता है।
–एकान्त श्रीवास्तव

मैं जेल की नींव का
पत्थर बोल रहा हूँ
मैं — जो समुद्र-तट का पत्थर था

तब लहरें मुझे नहलाती थीं
और बुलबुल मुझ पर बैठकर
ऋतु का गीत गाती थी
तब मैं प्यासा पत्थर नहीं था

जेल का पत्थर और समुद्र-तट का पत्थर
दो बिछुड़े हुए भाई हैं
एक पानी में भीगता है
दूसरा ख़ून में

मैं पत्थर हूँ फिर भी
किसी चीज़ के लिए ललकता हूँ
और वह चीज़
जो भादों की भीगी-काली रात में
जुगनू की तरह
चमकती है; आज़ादी है
मैं पत्थर हूँ लेकिन लहरों ने
मुझे भी एक दिल बख़्शा है
जो धड़कता है समुद्र के लिए
आज़ाद हवा के लिए
और बुलबुल के गीत के लिए

मैं गुज़रे कल का रक्त हूँ
वर्तमान की धमनियों में
उछाल मारता हुआ
मुझे तोड़ो
ताकि हीरे की तरह चमकदार
मेरा कोई टुकड़ा
भविष्य के मुकुट में सज सके

झेंपते हुए मैं इस जेल की
कोठरी को ताकता हूँ
तेरह बाइ सात की कोठरी

जहाँ मात्र एक खिड़की छोटी-सी
सलाख़ों वाला दरवाजा
स्वतन्त्रता सेनानियों के घावों
और दर्द का मैं गवाह हूँ
‘इंकलाब ज़िन्दाबाद’ के नारे
जो मुझे हिला देते थे
उनके हौसले जो मुझसे भी
मजबूत थे
पत्थर टूट जाते थे मगर उनके
हौसले टूटते न थे
घोड़ों की टापों
ज़ंजीरों की आवाज़ों
और कोड़ों की मार के बीच
भूख और घाव और रक्त और दर्द के
बीच उनके हौसले
जो कभी टूटते न थे

इन हौसलों के पंखों पर
आज़ादी सवार थी
तो यह सपना था
सपना आज़ादी का
और यह कैसे अँट सकता था
तेरह बाइ सात की काल कोठरी में
जिसकी जड़ें
मैंग्रोव और केवड़ा की जड़ों की तरह
हज़ार-हज़ार थीं

और क्या थी यह आज़ादी
क्या यह समुद्र में उड़ने वाली
मछली थी नीले रंग की
या तट का मूंगा लाल?
क्या थी ये आज़ादी
जिसके लिए ये लोग
अपना सब कुछ छोड़कर
कूद पड़े थे आग में
आग जो बस जलती थी एक बार
कभी न बुझने के लिए

यातनाओं के कई प्रकार हैं
यातनाओं के कई प्रकार थे
यहाँ कोई भी मर सकता है यातना से
फाँसी पर लटकाया जा सकता है
पागल हो सकता है कोई भी
शेर अली तुम कैसे फटकार कर
गरज़ती आवाज़ में हाज़िरी
देते थे — ‘हाज़िर
वीर सावरकर की पचास साल क़ैद की सज़ा
मियाद के पूरी होने के पहले
पूरी हुई गुलामी की लम्बी उम्र
जेलर! तुम भी तो स्ट्रेचर पर ले जाए गए
अपने अन्तिम दिनों में
तुम भी तो मरे कलकत्ता में
अपने भी स्वदेश से
बहुत-बहुत दूर
जो दूसरों का देश छीनता है
चाँद की तरह असम्भव हो जाता है
उसका भी स्वदेश

ओ सच्चे साथी भगत सिंह के
मेरे सिंह! मेरे महावीर
तुम भी तो झुके नहीं अन्त तक
तोड़ने तुम्हारी भूख हड़ताल
आतताई जेलर ने डाली
ज़बर्दस्ती नली तुम्हारे मुँह में
पिलाने दूध
जो पेट की जगह
चला गया फेफड़ों में
जो कारण बना तुम्हारी मृत्यु का
उखड़ गया दम
लेकिन वे तोड़ न पाए तुम्हारी
हड़ताल भूख की
विजयी रहे तुम
तुम्हारी उखड़ी हुई साँसों के रास्ते ही
आई आज़ादी
कितने सुनसान और भयावह से रास्ते
कितनी उखड़ी हुई साँसों से बने हुए

जेल की हवा
ऊपर उठती है तो आकाश का आईना
चटख़ जाता है
आज़ादी तारे की तरह टूटकर
गिरती है नीचे धरती पर
एक चमकीली लकीर खींचती हुई

मंज़र हर रोज़ एक जैसा
गर्मी और पसीना
घुटन और प्यास
ये वो धरती है जहाँ हम मरते हैं
और बार-बार पैदा होते हैं
जी हाँ !
और हमारी गिनती करने का
कोई अर्थ नहीं
हमने बस अपने हाथ उठाए
किसी के आगे फैलाए नहीं

और ये आवाज़ें
चोट खाई हुई आवाज़ें
क्या तुम इन्हें सुन सकते हो
यहाँ के पहाड़ों में
अब भी जिनकी प्रतिध्वनियाँ
भटक रही हैं
क्या तुमने कभी सोचा है —
कैसे बनी अन्दमान में
समुद्र की आवाज़ !

और क्या कभी बन सकती है
आदमी की आवाज़ के बिना
समुद्र की आवाज़?

हमें घर लौटना चाहिए
हर कोई सोचता था यहाँ
परदेश में
देश भी घर हो जाता है

तुम जो अपने पीछे छोड़ गए
अपने गमज़दा माँ-बाप
भाई-बहन, दोस्त-प्रियजन
और एक डगमगाती हुई खाली नाव
समुद्र में
नाव जो तट का स्वप्न देखती है

और देखो; अभी भी
कितनी गीली है रेत
और समुद्र वापस लौट चुका है

लेबनान को जलते देखो
या इराक को
वियतनाम को जलते देखो
या फ़िलिस्तीन को
देश क्या वन की तरह होते हैं
जिनका जलना एक जैसा होता है!
लेकिन तसल्ली बस इतनी
कि इस आग में
रोटी की तरह सिंकती है आज़ादी

बनफ़शे बाहर मैदान में फूलते थे
और भीतर जेल में
आती थी उनकी ख़ुशबू
कि ख़ुशबुओं की कोई जेल नहीं होती
वे लाती हैं अपने साथ
धरती की महक भी

‘कैसे तोड़ेंगे हम दीवार सेल्युलर की
कैसे लाघेंगे समन्दर
हम परिन्दे तो नहीं’

‘तब हम गाएँगे ज़ोर-ज़ोर
हम गाएँगे
और हमारे गाने की आवाज़
परिन्दों की तरह उड़कर
पार करेगी समन्दर..’

‘कल तुम्हारी फाँसी है
क्या करोगे तुम दिनभर आज?’

‘मैं घड़ी नहीं देखूँगा भाई
मैं पेड़ों को देखूँगा
परिन्दों को दिन भर
और रातभर चाँद को
अगर जीने को मिले
एक मुकम्मल दिन…
मैं समुद्र में उड़ने वाली
नीली मछली के गीत गाऊँगा…
और दो समुन्दरों के बीच
एक नन्हें द्वीप जितनी
नींद लूँगा
मेरे सपनों की ख़ुशबू फैल जाएगी
पूरे महाद्वीप में
जैसे वन तुलसी की गन्ध
कोई रोक नहीं पाएगा उसे
नहीं; कोई सलाख नहीं
कोई सेल्युलर जेल नहीं…’

बाहर घरों में कैलेण्डर फडफ़ड़ाते हैं
मगर जेल में
तारीख़ें कोई नहीं गिनता
तारीख़ें रक्त में सनी हुईं
लिखी हुईं यातना की स्याही से
घायल परिन्दों-सी
फडफ़ड़ाती तारीख़ें
पछाड़ खाते समन्दर-सी
साहूकार रुपए गिनता है
दुकान बढ़ाने से पहले
गड़ेरिया भेड़ों को
गोधूलि बेला में
मगर तारीख़ें कोई नहीं गिनता
जेल में

जैसे नरगिस और सूरजमुखी में फ़र्क है
फ़र्क है ‘हाँ’ और ‘ना’ में
जब तुम कहते हो — हाँ
तब केंचुए में बदल जाते हो
वह केवल ‘ना’ है
जो तुम्हें आदमी बनाए रखता है
कोई दीवार पर लिखता है — ना
कोई पत्थर पर
कोई चीख़ता है भरी सभा में
हुकूमत के आगे — ना
और लहू लाल से सुर्ख हो जाता है

संसार से जो चीज़ ग़ायब हो रही है
वह ‘ना’ है
जो आदमी की आत्मा है

तुम जब प्रतिरोध करते हो
तो कई पगडण्डियाँ
फूटती हैं सफ़र के लिए
और घास में फूल आने लगते हैं
वसन्त की पहली चिट्ठियों की तरह

प्रतिरोध भी एक आईना है
जिसमें आदमी
अपना चेहरा देखता है

लेकिन ’47 तो बीत गया
बीत गया ’47 कभी का
अगस्त का सूर्य था लाल
हमारे ख़ून की तरह
और वह बँधा नहीं था
बेड़ियों में
ओ मेरे देश ! मेरे भारत !
लेकिन देखो तो
अब भी
हाँ; अब भी
हवा में ये कैसी गन्ध है
गरज़ता है अब भी समुद्र
पछाड़ खाता है तट के पत्थरों पर
और यह बहुत अज़ीब है
कि हवा में
अब भी सेल्युलर जेल की गन्ध है
तेरह बाइ सात की
काल-कोठरी की फिंटी हुई गन्ध
और उड़ते हुए
सफ़ेद कबूतरों के पंखों पर रक्त के धब्बे

बस दीवार ख़त्म होती है यहाँ
सेल्युलर जेल की
सेल्युलर जेल ख़त्म नहीं होती।

करेले बेचने आई बच्चियाँ 

पुराने उजाड़ मकानों में
खेतों-मैदानों में
ट्रेन की पटरियों के किनारे
सड़क किनारे घूरों में उगी हैं जो लताएँ
जंगली करेले की
वहीं से तोड़कर लाती हैं तीन बच्चियाँ
छोटे-छोटे करेले गहरे हरे
कुछ काई जैसे रंग के
और मोल-भाव के बाद तीन रुपए में
बेच जाती हैं
उन तीन रुपयों को वे बांट लेती हैं आपस में
तो उन्हें एक-एक रुपया मिलता है
करेले की लताओं को ढूंढने में
और उन्हें तोड़कर बेचने में
उन्हें लगा है आधा दिन
तो यह एक रुपया
उनके आधे दिन का पारिश्रमिक है
मेरे आधे दिन के वेतन से
कितना कम
और उनके आधे दिन का श्रम
कितना ज़्यादा मेरे आधे दिन के श्रम से
करेले बिक जाते हैं
मगर उनकी कड़वाहट लौट जाती है वापस
उन्हीं बच्चियों के साथ
उनके जीवन में।

नमक बेचने वाले 

(विशाखापट्टनम की सड़कों पर नमक बेचने वालों को देखकर)

ऋतु की आँच में
समुद्र का पानी सुखाकर
नमक के खेतों से
बटोरकर सफ़ेद ढेले
वे आते हैं दूर गाँवों से
शहर की सड़कों पर नमक बेचने वाले
काठ की दो पहियों वाली हाथगाड़ी को
कमर में फँसाकर खींचते हुए
ऐसे समय में
जब लगातार कम होता जा रहा है नमक
हमारे रक्त का
हमारे आँसुओं और पसीने का नमक
वे आते हैं नमक बेचने
चिल्लाते हुए… नमक… नमक
सफेद धोती घुटनों तक मोड़कर पहने हुए
फटी क़मीज़ या बनियान
सिर पर गमछा बाँधे नंगे पाँव
कान में बीड़ियाँ खोंसकर वे आते हैं
और स्त्रियाँ अधीर हो जाती हैं
उनकी आवाज़ सुनकर
वे आती हैं ड्योढ़ियों और झरोखों तक
कि कहीं ख़त्म तो नहीं हो गया
रसोई का नमक
वे बेचते हैं नमक
अपनी आवाज़
और हृदय के शहद को बचाते हुए
वे बेचते हैं नमक
अपने दुख-तकलीफों को
नमक के खेतों में गलाते हुए
वे बेचते हैं नमक
खारे और मीठे के समीकरण को बचाते हुए
एल्यूमिनियम के डिब्बों में
पानी में डूबा भात
सिर्फ़ नमक के साथ खाते हुए
वे बेचते हैं नमक
उनकी आँखें मुँदती जाती हैं
पाँव थकते जाते हैं
बाजू दुखते जाते हैं
आवाज़ डूबती जाती है नींद और थकान की
अंधेरी कंदराओं में
नमक बेचते हुए
यह दुनिया
उन्हें नमक की तरह लगती है
अपने प्रखर खारेपन में
हर मिठास के विरुद्ध
नमक जैसी दुनिया में रहते हुए
बेचते हुए नमक
वे बचाते हैं कि उन्हें बचाना ही है
अपनी आवाज़ और हृदय का शहद।

बिजली 

बिजली गिरती है
और एक हरा पेड़ काला पड़ जाता है
फिर उस पर न पक्षी उतरते हैं
न वसन्त
एक दिन एक बढ़ई उसे काटता है
और बैलगाड़ी के पहिये में
बदल देता है
दुख जब बिजली की तरह गिरता है
तब राख कर देता है
या देता है नया एक जन्म।

दुःख 

दु:ख जब तक हृदय में था
था बर्फ़ की तरह
पिघला तो उमड़ा आँसू बनकर
गिरा तो जल की तरह मिट्टी में
रिस गया भीतर बीज तक
बीज से फूल तक
यह जो फूल खिला है टहनी पर
इसे देखकर क्या तुम कह सकते हो
कि इसके जन्म का कारण
एक दु:ख था?

पत्तों के हिलने की आवाज़

तुम एक फूल को सूँघते हो
तो यह उस फूल की महक है

शब्दों की महक से
गमकता है काग़ज़ का हृदय

कस्तूरी की महक से जंगल

और मनुष्य की महक से धरती

धरती की महक मनुष्य की महक से बड़ी है
मगर धरती स्वयं
मनुष्य की महक और आवाज़ और स्वप्न
से बनी है

दिन-ब-दिन राख हो रही इस दुनिया में
जो चीज़ हमे बचाये रखती है
वह केवल मनुष्य की महक है

और केवल पत्तों के हिलने की आवाज़

ताजमहल

तुम प्रेम करो
मगर ताजमहल के बारे में मत सोचो

यों भी यह साधारण प्रेमियों की हैसियत से
बाहर की वस्तु है

अगर तुम उस स्त्री को- जिससे तुम
प्रेम करते हो- कुछ देना चाहते हो
तो बेहतर है कि जीवन रहते दो

मसलन कातिक की क्यारी से
कोई बड़ा पीला गेंदे का फूल
यह अधिक जीवंत उपहार होगा

यों भी इतिहास गवाह है
कि जो ताजमहल बनाता है
उसके दोनों हाथ काट दिए जाते हैं ।

रास्ता काटना

भाई जब काम पर निकलते हैं
तब उनका रास्ता काटती हैं बहनें
बेटियाँ रास्ता काटती हैं
काम पर जाते पिताओं का
शुभ होता है स्त्रियों का यों रास्ता काटना
सूर्य जब पूरब से निकलता होगा
तो नीहारिकाएँ काटती होंगी उसका रास्ता
ऋतुएँ बार-बार काटती हैं
इस धरती का रास्ता
कि वह सदाबहार रहे
पानी गिरता है मूसलाधार
अगर घटाएँ काट लें सूखे प्रदेश का रास्ता
जिनका कोई नहीं है
इस दुनिया में
हवाएँ उनका रास्ता काटती हैं
शुभ हो उन सबकी यात्राएँ भी
जिनका रास्ता किसी ने नहीं काटा।

लोहा

जंग लगा लोहा पांव में चुभता है
तो मैं टिटनेस का इंजेक्शन लगवाता हूँ
लोहे से बचने के लिए नहीं
उसके जंग के संक्रमण से बचने के लिए
मैं तो बचाकर रखना चाहता हूँ
उस लोहे को जो मेरे खून में है
जीने के लिए इस संसार में
रोज़ लोहा लेना पड़ता है
एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है
दूसरा इज़्ज़त के साथ
उसे खाने के लिए
एक लोहा पुरखों के बीज को
बचाने के लिए लेना पड़ता है
दूसरा उसे उगाने के लिए
मिट्टी में, हवा में, पानी में
पालक में और खून में जो लोहा है
यही सारा लोहा काम आता है एक दिन
फूल जैसी धरती को बचाने में

बांग्ला देश 

हमारे घर समुद्र में बह गए

हमारी नावें समुद्र में डूब गईं

हर जगह

हर जगह

हर जगह उफन रहा है समुद्र

हमारे आँगन में समुद्र की झाग

हमारे सपनों में समुद्र की रेत

अभागे वृक्ष हैं हम

बह गई

जिनके जड़ों की मिट्टी

कभी महामारी कभी तूफ़ान में

कभी युद्ध कभी दंगे में

कभी सूखा कभी बाढ़ में

हमीं मरे हमीं

और हमीं रहे जीवित

विध्वंस के बाद पृथ्वी पर

घर बनाते हुए |

नहीं आने के लिए कहकर 

नहीं आने के लिए कह कर जाऊंगा

और फिर आ जाऊंगा

पवन से, पानी से, पहाड़ से

कहूंगा– नहीं आऊंगा

दोस्तों से कहूंगा और ऎसे हाथ मिलाऊंगा

जैसे आख़िरी बार

कविता से कहूंगा– विदा

और उसका शब्द बन जाऊंगा

आकाश से कहूंगा और मेघ बन जाऊंगा

तारा टूटकर नहीं जुड़ता

मैं जुड़ जाऊंगा

फूल मुरझा कर नहीं खिलता

मैं खिल जाऊंगा

हर समय ‘दुखता रहता है यह जो जीवन’

हर समय टूटता रहता है यह जो मन

अपने ही मन से

जीवन से

संसार से

रूठ कर दूर चला जाऊंगा

नहीं आने के लिए कहकर

और फिर आ जाऊंगा ।

नोट गिनने वाली मशीन

ऎसी कोई मशीन नहीं जो सपने गिन सके

सपने जो धरती पर फैल जाते हैं

जैसे बीज हों फूलों के

ऎसी कोई मशीन नहीं

जो गिन सके इच्छाओं को

उस प्रत्येक कम्पन को

जो अन्याय और यातना के विरोध में

पैदा होता है

दहशत पैदा करती है नोटॊं की फड़फड़ाहट

कोई पीता है चांदी के कटोरे में

आदमी का लहू

हमारी मेहनत का मधु कोई पीता है

एक जाल जो रोज़ गिरता है हम पर

पर दिखता नहीं

इस जाल के एक-एक ताँत को जो गिन सके

ऎसी कोई मशीन नहीं

जैसे जंगल हो बिन्द्रानवागढ़ का

और पेड़ों को गिनना हो कठिन

कठिन है गिनना

प्रेम और स्वप्न और इच्छाओं को

आदमी का गुस्सा लावा बनता है

और उसके प्रेम से फैलता है आलोक

फूलते हैं गुलाब

ऎसी कोई मशीन नहीं

जो तारे गिन सके और गुलाब

जो फूलते हैं आदमी के प्रेम में

रात्रि के अरण्य में

और दिन की टहनियों पर असंख्य ।

ख़ून की कमी

टीकाटीक दोपहर में

भरी सड़क

चक्कर खा कर गिरती है रुकमनी

ख़ून की कमी है

कहते हैं डाक्टर

क्या करे रुकमनी

ख़ुद को देखे कि तीन बच्चों को

पति ख़ुद मरीज़

खाँसता हुआ खींचता रिक्शा

आठ-आठ घरॊं में झाड़ू-बरतन करती रुकमनी

चक्करघिन्नी-सी काटती चक्कर

बच्चों का मुँह देखती है

तो सूख जाता है उसका ख़ून

पति की पसलियाँ देखती है

तो सूख जाता है

काम से निकाल देने की

मालकिनों की धमकियों से

तो रोज़ छनकता रहता है

बूंद-बूंद ख़ून

बाज़ार में चीज़ों की कीमतों ने

कितना तो औटा दिया है

उसके ख़ून को

शिमला सेब और देशी टमाटर से

तुम्हारे गालों की लाली

कितनी बढ़ गई है

और देखो तो

कितना कम हो गया है यहाँ

प्रतिशत हीमोग्लोबिन का

शरीर-रचना विज्ञानी जानते हैं

कि किस जटिल प्रक्रिया से गुज़र कर

बनता है बूंद भर ख़ून शरीर में

कि जिसकी कमी से

चक्कर खाकर गिरती है रुकमनी

और कितना ख़ून

तुम बहा देते हो यूँ ही

इस देश में

जाति का ख़ून

धर्म का

भाषा का ख़ून ।

विरुद्ध कथा

पहले भाव पैदा हुए

फिर शब्द

फिर उन शब्दों को गानेवाले कंठ

फिर उन कंठों को दबानेवाले हाथ

पहले सूर्य पैदा हुआ

फिर धरती

फिर उस धरती को बसानेवाले जन

फिर उन जनों को सतानेवाला तंत्र

पहले पत्थर पैदा हुए

फिर आग

फिर उस आग को बचानेवाले अलाव

फिर उन अलावों को बुझानेवाला इंद्र

जो पैदा हुए, मरे नहीं

मारनेवालों के विरुद्ध खड़े हुए

हम फूल थे

पत्थर बने

कड़े हुए

इस तरह इस धरती पर बड़े हुए ।

अनाम चिड़िया के नाम 

गंगा इमली की पत्तियों में छुपकर
एक चिड़िया मुँह अँधेरे
बोलती है बहुत मीठी आवाज़ में
न जाने क्या
न जाने किससे
और बरसता है पानी

आधी नींद में खाट-बिस्तर समेटकर
घरों के भीतर भागते हैं लोग
कुछ झुँझलाए, कुछ प्रसन्न

घटाटोप अंधकार में चमकती है बिजली
मूसलधार बरसता है पानी
सजल हो जाती हैं खेत
तृप्त हो जाती हैं पुरखों की आत्माएँ
टूटने से बच जाता है मन का मेरुदंड

कहती है मंगतिन
इसी चिड़िया का आवाज़ से
आते हैं मेघ
सुदूर समुद्रों से उठकर

ओ चिड़िया
तुम बोले बारम्बार गाँव में
घर में, घाट में, वन में
पत्थर हो चुके आदमी के मन में ।

ओ मेरे पिता (समर्पण)

मायावी सरोवर की तरह
अदृश्‍य हो गए पिता
रह गए हम
पानी की खोज में भटकते पक्षी

ओ मेरे आकाश पिता
टूट गए हम
तुम्‍हारी नीलिमा में टँके
झिलमिल तारे

ओ मेरे जंगल पिता
सूख गए हम
तुम्‍हारी हरियाली में बहते
कलकल झरने

ओ मेरे काल पिता
बीत गए तुम
रह गए हम
तुम्‍हारे कैलेण्‍डर की
उदास तारीखें

हम झेलेंगे दुःख
पोंछेंगे आँसू
और तुम्‍हारे रास्‍ते पर चलकर
बनेंगे सरोवर, आकाश, जंगल और काल
ताकि हरी हो घर की एक-एक डाल।

लौटती बैलगाड़ी का गीत

जब नींद में डूब चुकी है धरती
और केवल बबूल के फूलों की
महक जाग रही है
तब दूधिया चाँदनी में
धान से लदी वह लौट रही है
लौट रहे हैं अन्‍न
बचपन बीत जाने के बाद
बचपन को याद करते
घंटियों की टुनुन-टुनुन
गाँव की नींद तक पहुँच रही है
और सारा गाँव
अगुवानी के लिए तैयार हो रहा है
हिल रही हैं
अलगनी में टँगी हुई कन्‍दीलें
और चमक रहा है गाँव का कन्‍धा
एक माँ के कण्‍ठ से उठ रही है लोरी
कि चाँदी के कटोरे में भरा है दूध
और घुल रहा है बताशा
बैलगाड़ी पहुँच जाना चाहती है गाँव
दूध में बताशे के घुलने से पहले।

कार्तिक-स्नान करने वाली लड़कियाँ

घर-घर
माँगती हैं फूल
साँझ गहराने से पहले
कार्तिक-स्‍नान करने वाली लड़कियाँ……

फूल अगर केसरिया हो
खिल उठती हैं लड़कियाँ
एक केसरिया फूल से कार्तिक में
मिलता है एक मासे सोने का पुण्‍य
कहती हैं लड़कियाँ

एक-एक फूल के लिए
दौड़ती हैं, झपटती हैं
लड़ती हैं लड़कियाँ
और कॉंटों के चुभने की
परवाह नहीं करतीं

लौटती हुई लड़कियाँ गिनती हैं
अपने-अपने हिस्‍से के फूल
और हिसाबती हैं
कि कल उन्‍हें मिल जाएगा
कितने मासे सोने का पुण्‍य?

कितनी भोली हैं
मेरे गॉंव की लड़कियाँ
जो अलस्‍सुबह उठती हैं
और रात के दुर्गम जंगल को पहली बार
अपनी हँसी के फूलों से भर देती हैं

तालाब के गुनगुने जल में
नहाती हुई लड़कियाँ हॅंसती हैं
छेड़ती हैं एक-दूसरे को
मारती हैं छींटे
और लेती हैं सबके मन की थाह

इतना-इतना सोना चढ़ाकर मुँह अँधेरे
अपने भोले बाबा से
क्‍या माँगती हैं?

गाँव की आँख

भूखे-प्‍यासे
धूल-मिट्टी में सने
हम फुटपाथी बच्‍चे
हुजूर, माई-बाप, सरकार
हाथ जोड़ते हैं आपसे
दस-पॉंच पैसे के लिए
हों तो दे दीजिए
न हों तो एक प्‍यार भरी नजर

हम माँ की आँख के सूखे हुए आँसू
हम पिता के सपनों के उड़े हुए रंग
हम बहन की राखी के टूटे हुए धागे

कई महीने बीत गए
ट्रेन में लटककर यहाँ आए
बिछुड़े अपने गाँव से

लेकिन आज भी
जब सड़क के कंधे से टिककर
भूखे-प्‍यासे सो जाते हैं हम
घुटनों को पेट में मोड़े

तब हज़ारों मील दूर से
हमें देखती है
गाँव की आँख।

पानी की नींद 

दो आदमी
पार करते हैं सोन
सॉंझ के झुटपुटे में
तोड़कर पानी की नींद

इस पार जंगल
उस पार गाँव
और बीच में सोन
पार करते हैं दो आदमी
गमछों में बॉंधकर करौंदे और जामुन
कंधों पर कुल्‍हाडियॉं
और सिरों पर लकडियॉं लिये

लकडियॉं जो जलेंगी उनके घर
और खुशी से फूलकर
कुप्‍पा हो जाएँगी रोटियाँ
कुप्‍पा हो जाएँगे दो घरों के मन

हरहराता है जंगल

उन्‍हें विदा देने
सोने के किनारे तक आती है
मकोई के फूलों की गंध
और वापस लौट जाती है

उनके जाने के बाद भी
देर रात तक
जागता रहता है पानी।

नाचा 

नचकार आए हैं, नचकार
आन गाँव के
नाचा है आज गाँव में

उमंग है तन-मन में सबके
जल्‍दी राँध-खाकर भात-साग
दौड़ी आती हैं लड़कियाँ
औरतें, बच्‍चे और लोग इकट्ठे हैं
धारण चौरा के पास

आज खूब चलेगी दुकान बाबूलाल की
खूब रचेंगे होंठ सबके पान से
खूब फबेगी पान से रचे होंठों पर मदरस-सी बात

लड़कों के फिर मजे हैं, खड़े रहेंगे किनारे
एक-दूसरे के कंधों पर हाथ रखे
हँसते-छेड़ते एक-दूसरे को
कि अभी आएगी नचकारिन
उनके हाथों से लेने को रूपैया

और थिरकेगी जैसे दूध मोंगरा की पत्‍ती
लहराएगी जैसे बरखा की फुहार
डोलेगी जैसे पीपल का पत्‍ता
लहसेगी जैसे करन की डगाल
महकेगी जैसे मगरमस्‍त का फूल
चमकेगी जैसे बिजली
और गाज बनकर गिरेगी सबके मन पर

जब तक उग न जाए सुकवा
फूट न जाए पूरब में रक्तिम आलोक
तब तक गैसबत्‍ती और बिजली का
मिला-जुला उजाला रहेगा
मिले-जुले मन

उत्‍सव-सी बीतेगी रात
नाचा है आज गाँव में।

गेंदे के फूल

इतनी रात गये
जाग रहे हैं गेंदे के फूल
मुंह किये आकाश की ओर

अंधकार
एक कमीज की तरह टंगा है
रात की खूंटी पर

एक बूढ़े आदमी की तरह
खांसता है थका हुआ गांव
और करवट बदलकर
हो जाता है चुप

चुप खड़े हैं
नींद में डूबे से
आम नीम बरगद

और जाग रहे हैं गेंदे के फूल
धरती की सजल आंखों की तरह
सपनों की खुशबू से लबालब

कल
इन्‍हें पुकारेंगे
पक्षियों के व्‍याकुल कंठ

कल
इन्‍हें छुएंगे
भोर के गुलाबी होंठ.

प्यार का शोक-गीत

इतने सारे तारे हैं
और आकाश के रंग में घुली है
एक तारे के टूट जाने की उदासी

इतने सारे फूल हैं
और पौधे की जड़ों में बसा है
एक फूल के झड़ जाने का दर्द

जिस तरह
रंग और ख़ुशबू को जुदा करके
हम फूल को नहीं कह सकते फूल
मैं कैसे कह सकूंगा तुम्हारे बिना
इस सड़क को सड़क
नदी को नदी
और पुल को पुल

इस शहर को शहर
अब मैं कैसे कह सकूंगा ।

अन्तर्देशीय 

धूप में नहाया
एक नीला आकाश
तुमने मुझे भेजा

अब इन झिलमिलाते तारों का
क्या करूँ मैं
जो तैरने लगे हैं
चुपके से मेरे अंधेरों में

क्या करूँ इन परिन्दों का
तुम्हारे अन्तर्देशीय से निकलकर
जो उड़ने लगे हैं मेरे चारों तरफ़

तुम्हारे न चाहने के बावजूद
तारों और परिन्दों के साथ
चुपचाप चले आए हैं
न जाने कितने सजल मेघ
जो चू पड़ना चाहते हैं
मेरे निर्जन में ।

दंगे के बाद

एक नुचा हुआ फूल है यह शहर
जिसे रौंद गये हैं आततायी

एक तड़का हुआ आईना
जिसमें कोई चेहरा
साफ-साफ दिखायी नहीं देता

यह शहर
लाखों-लाख कंठों में
एक रूकी हुई रूलाई है

एक सूखा हुआ आंसू
एक उड़ा हुआ रंग
एक रौंदा हुआ जंगल है यह शहर
दंगे के बाद

आग और धुएं के बीच
क्‍या सिर्फ जलेगा यह शहर
और राख में बदल जायेगा?

या धीरे-धीरे पकेगा
कुम्‍हार के चाक पर रचे
घड़े की तरह

दरअसल दंगे के बाद भी
कहीं न कहीं बचा रहता है शहर.
एक उजड़ चुके पेड़ के
अदद फल की तरह
पकता और धूल झोंकता
मौसम की आंख में

बचा रहता है
गर्भ में वीर्य की तरह
आकार लेता,
बची रहती है
एक रोते हुए बच्‍चे की लार में
दूध की जिंदा महक
जो उठती है
और सारी धरती बेकाबू हो जाती है.

एक बेरोज़गार प्रेमी का आत्मालाप

जो भूखा होगा
प्‍यार कैसे करेगा श्रीमान्?
पार्क की हरियाली खत्‍म कैसे करेगी
जीवन का सूखा?

जब मैं झुकता हूं
प्रेमिका के चेहरे पर
चुम्‍बन नहीं, नौकरी मांगते हैं उसके होंठ

प्रेम-पार्क की बेगन बेलिया
रोजगार की समस्‍या में
क्‍या कोई सार्थक भूमिका निभा पायेगी महोदय?
मोतिया, जूही और चम्‍पा के सामने
कैसे सिर उठा पायेंगे
हमारी रफू वाली कमीजों पर
छोटी बहन के हाथों कढ़े हुए फूल?

आप बिछा दें हरी घास का गलीचा
फिर भी बची रहेगी एक जली हुई जमीन
प्रेमिकाओं की नींद और हमारे भविष्‍य में
उड़ेगी जिसकी राख

वे आंसू
जो अभी बहे नहीं हैं प्रेमिकाओं के गालों पर
रात भर बुदबुदाते हैं- यहां कुछ नहीं उगता
यहां शायद कुछ नहीं उगेगा

एक दिन जब हमें मिलेंगी
प्रेमिकाओं की चिट्ठियां
जिनमें चिन्हित होगा उनका मंगल परिणय
और सब कुछ भूल जाने का अनुरोध
हमें सड़क और उसकी धूल ही
अच्‍छी लगेगी श्रीमान्

तब आपके पार्क में जहां
स्‍मृतियां होंगी ति‍तलियों-सी उड़ती हुई
हम चुपचाप रो भी तो नहीं सकेंगे श्रीमान्!

दुनिया में रहकर भी

शरद आया तो मैं कपास हुआ
मां के दिये की बाती के लिए
धूप में जलते पांवों के लिए जंगल हुआ
घनी छाया, मीठे फलों और झरनों से भरा
लोककथाओं के रोमांच में सिहरता हुआ

मोर पंख हुआ छोटी बहन की उम्र की किताब में दबा
छोटे भाई के कुर्ते की जेब के सन्‍नाटे में
पांच का एक नया कड़कड़ाता नोट हुआ

किसी की बूढ़ी आंखों का चश्‍मा हुआ
उनकी एक सुबह के समाचारों के लायक
किसी के इंतजार के सूने पेड़ पर
कौआ हुआ बोलता हुआ और उड़ गया

सबकी इच्‍छाओं और सपनों के अनुसार
मैं सब हुआ
पर हाय! दुनिया में रहकर भी
दुनियादार न हुआ.

सूरजमुखी का फूल 

फिर आ गए है फूल सूरजमुखी के
भोर के गुलाबी आईने में झाँकते
चीन्‍हते
जानी-पहचानी धरती

जैसे द्वार पर पहुँचे हुए पाहुन
वे आ गये हैं
इस बार भी
अपने समय पर

जब सिर्फ सूचनाएँ आ रही हैं हत्‍या की
बाढ़, अकाल और
महामारी में मरने वाले लोगों की
देखते-देखते एक बसे बसाए शहर के
धुएँ और राख में बदलने की

ऐसे दुर्गम समय में
आ गए हैं
फूल सूरजमुखी के।

एक बीज की आवाज़ पर

बीज में पेड़
पेड़ में जंगल
जंगल में सारी वनस्‍पति पृथ्‍वी की
और सारी वनस्‍पति एक बीज में

सैकड़ों चिडियों के संगीत से भरा भविष्‍य
और हमारे हरे भरे दिन लिए
चीख़ता है बीज
पृथ्‍वी के गर्भ के नीम अँधेरे में-
इस बार पानी में सबसे पहले मैं भीगूँ

बारिश की पहली फुहार की उँगली पकड़कर
मैं बाहर जाऊँ
तुम्‍हारी दुनिया में

दुनिया एक बीज की आवाज़ पर टिकी है।

नागरिक व्यथा

किस ऋतु का फूल सूँघूँ
किस हवा में साँस लूँ
किस डाली का सेब खाऊँ
किस सोते का जल पियूँ
पर्यावरण वैज्ञानिकों! कि बच जाऊँ

किस नगर में रहने जाऊँ
कि अकाल न मारा जाऊँ
किस कोख से जनम लूँ
कि हिन्‍दू न मुस्लिम कहलाऊँ
समाज शास्ञियों! कि बच जाऊँ

किस बात पर हँसूँ
किस बात पर रोऊँ
किस बात पर समर्थन
किस पर विरोध जताऊँ
हे राजन! कि बच जाऊँ

गेंदे के नाजुक पौधे-सा
कब तक प्राण बचाऊँ
किस मिट्टी में उगूँ
कि नागफनी बन जाऊँ
प्‍यारे दोस्‍तों! कि बच जाऊँ

पाणिग्रहण 

जिसे थामा है
अग्नि को साक्षी मानकर
साक्षी मानकर तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को
एक अधूरी कथा है यह
जिसे पूरा करना है

इसे छोड़ूंगा तो धरती डोल जाएगी ।

यात्रा

नदियां थीं हमारे रास्ते में

जिन्हें बार-बार पार करना था

एक सूर्य था

जो डूबता नहीं था

जैसे सोचता हो कि उसके बाद

हमारा क्या होगा

एक जंगल था

नवम्बर की धूप में नहाया हुआ

कुछ फूल थे

हमें जिनके नाम नहीं मालूम थे

एक खेत था

धान का

पका

जो धारदार हंसिया के स्पर्श से

होता था प्रसन्न

एक नीली चिड़िया थी

आंवले की झुकी हुई टहनी से

अब उड़ने को तैयार

हम थे

बातों की पुरानी पोटलियां खोलते

अपनी भूख और थकान और नींद से लड़ते

धूल थी लगातार उड़ती हुई

जो हमारी मुस्कान को ढंक नहीं पाई थी

मगर हमारे बाल ज़रूर

पटसन जैसे दिखते थे

ठंड थी पहाड़ों की

हमारी हड्डियों में उतरती हुई

दिया-बाती का समय था

जैसे पहाड़ों पर कहीं-कहीं

टंके हों ज्योति-पुष्प

एक कच्ची सड़क थी

लगातार हमारे साथ

दिलासा देती हुई

कि तुम ठीक-ठीक पहुंच जाओगे घर ।

बीज से फूल तक

आ गया भादों का पानी
काँस के फूलों को दुलारता

और चैत की सुलगती दुपहरी में
पड़ी है मन की चट्टान
एक दूब की हरियाली तक मयस्सर नहीं

तपो
इतना तपो ओ सूर्य
कि फट जाए
दरक जाए यह चट्टान
कि रास्ता बन जाए अंकुर फूटने का
जीवन
बीज से फूल तक
यात्रा बन जाए ।

जन्मदिन 

आकाश के थाल में
तारों के झिलमिलाते दीप रखकर
उतारो मेरी आरती

दूध मोंगरा का सफ़ेद फूल
धरो मेरे सिर पर
गुलाल से रंगे सोनामासुरी से
लगाओ मेरे माथ पर टीका
सरई के दोने में भरे
कामधेनु के दूध से जुटःआरो मेरा मुँह

कि नहीं आई
कोई सनसनाती गोली मेरे सीने में
कि नहीं भोंका गया मुझे छुरा
कि नहीं जलाया गया मेरा घर
कि वर्ष भर जीवित रहा मैं ।

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