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Kalpanaa-manorma-kavitakosh.jpg

चिन्मय भोर

ढूंढ लायें क्यारियों से
एक चिन्मय भोर
फिर बाँटें उजाले।

चिमनियों ने छितिज से
शबनम चुराई रात रोई
बुलबुलों ने कंठ मे सरगम
छिपाई,बात खोई
माँग लें व्यापारियों से
एक विनिमय भोर
फिर बाँटें उजाले।

सीपियों के पेट खारा जल
बने मोती कहाँ से
ज्ञान की जलती अँगीठी,
पर सिंकें रोती कहाँ से
विहग कलरव में मचलती
एक तन्मय भोर लें,
बाँटे उजाले।

कैसी है ये जग की रीति

बूंद-बूंद से भर जाता घट
बूंद –बूंद कर जाता रीत
कैसी है ये जग की रीति?

धक्का देकर अंधियारे को
सूरज रोज निकलता
अभिनन्दन पाता शबनम से
फिर रहता जलता

बढ़ता दिखता घड़ी-घड़ी दिन
घड़ी-घड़ी जाता है रीत
कैसी है ये जग की रीति?

हिम गोदी से उतर चली जब
सरिता काल काल करती
धूसर-ऊसर या हरियाली
सब के मन को भरती

अंजाने पथ चले अनवरत
फिर भी लुटा रही है प्रीत
कैसी है ये जग की रीति?

खोज रहे हो जीवन तो अब
साँसों को पहचानों
खुद से अपनापा रक्खो तो
औरों को भी जानों

रहे साधते स्वांस स्वांस सुर
फिर भी नहीं साधा संगीत
कैसी है ये जग की रीति?

ओ गौरैया

भोर चली जल भरने को
हाथों में ले मटके।

ओ गौरैया जागो झटपट
बोला कागा
आधा सोया –जागा,आँगन
सरपट भागा
बस्ती भर के डिब्बे खाली
हैं कतार में अटके।

रेतीली आँखों में सपने
खोये जल के
आघे पौने जागे पनघट
हैं निर्बल के
मानसरोवर ओझल हैं सब
पंथी पथ भटके।

बाल दुधमुहें छोड़े घर,मन
अवसाद घनेरा
झूल रहा होगा झूले में
निबल सवेरा
ममता अधिक अधीर हुई
तो आँसू टपके।

चलकर बोलो,छोड़ो मत
अब हक़ का पानी
सही बात कहने में
क्या राजा क्या रानी
राज घरानों के कूपों में
चलना तड़के।

राजधानी की नदी हूँ 

राजधानी की नदी हूँ।

साँवला था तन मगर, मन मोहिनी थी
कल्पनाओं की तरह ही, सोहिनी थी
अब न जाने कौन सा रँग, हो गया है
बाँकपन जाने कहाँ पर, खो गया है
देह से अंत:करण तक
आधुनिकता से लदी हूँ ।

पांडु रोगी हो गए, संकल्प सारे
सोच में डूबे दिखें, भीषम किनारे
काल सीपी ने चुराए, श्वेत मोती
दर्द की उठती हिलोरें, मन भिगोती
कौरवों के हाथ जकड़ी
बेसहारा द्रोपदी हूँ ।

दौड़ती रुकती न दिल्ली,बात करती
रोग पीड़ित धार जल की, साँस भरती
उर्मियों पर नाव अब, दिखती न चलती
कुमुदनी कोई नहीं, खिलती मचलती
न्याय मंदिर भटकती
अनसुनी सी त्रासदी हूँ।

कालिया था एक जो, मारा गया था
दुष्टता के बाद भी, तारा गया था
कौन आयेगा यहाँ, बंसी बजाने
कालिया कुल को पुनः, जड़ से मिटाने
आस का दीपक सम्हाले
टिमटिमाती सी सदी हूँ ।

बाँसुरी यदि हो सके तो

बाँसुरी यदि हो सके तो
मत बजाना।

आग चूल्हे में सिमिट कर
खो गई है
भूख आँचल से लिपट कर
सो गई है
सो गया है ऊब कर दिन
मत जगाना।

हाथ ले टूटे सितारे
रात रोती
आँसुओं से स्वयं का
आँचल भिगोती
हो सके तो दीप की लौ
मत बुझाना।

साँस लेती साँस तो
बजता है पिंजर
पीर रखती है हमेशा
साथ खंजर
मौन मन को हो सके तो
मत बुलाना।

जुगिनी रानी

क्रुद्ध निहाई से चिंगारी,
छूट रही है
जुगिनी रानी जीवन लोहा
कूट रही है।

नेह छिपा कर रख लेती, गाड़ी के नीचे
दुलराती किलकारी अपनी, आँखें मींचे
करती घन से वार बनाती, मुदरी छल्ला
गठी –गठी काया तर, चिपका गीला पल्ला
खिले–खिले मुखड़े से
लाली फूट रही है।

संकल्पों को बाँध गाँठ में, आग जलाती
सपने कूट –कूटकर फिर, तलवार बनाती
घास काटती दुक्खों की, धीरे मुस्काती
पूरे कुनवे का बोझा वह, स्वयं उठाती
चपल निगाहों से वह
खुशियाँ लूट रही है।

दृष्टिकोण दिन से ले-लेकर, साँझ सजाती
निष्ठाओं की पायल से, झंकार लगाती
चाम धौकनी धौंक, उगाती विरल उजाले
और उगाती जीने के ,औजार निराले
अकड़ मुश्किलों की
किरचों में टूट रही है।

ओ पिता 

ओ पिता तुम वेदपाठी हो
मगर लय हीन हो।

नापतीं आकाश को, बातें तुम्हारी
क्यों तरसती न्याय को, साँसें बिचारी
जा चुकी है हाशिये पर, आस प्यासी
ढूंढती रहती थी मिली, कावा न काशी
ओ पिता तुम कूप साठी हो
मगर जल हीन हो।

सींचते हो खेत हर, जोखिम उठाकर
शीत –कोहरे में सदा, नजदीक जाकर
हर निवाले ने लिखी, कीमत तुम्हारी
नेह के व्यापार में फिर, क्यों उधारी ?
ओ पिता तुम धान साठी हो
मगर कण हीन हो।

था उजालों का नगर जो, लुट चुका है
जुगनुओं के हाथ, सूरज बिक चुका है
हर तरफ दिखने लगे हैं, अब अखाड़े
रात –दिन बजते जहाँ, द्वंदी नगाड़े
ओ पिता तुम सुघड़ काठी हो
मगर बल हीन हो।

अम्मा

राई के दाने पर सरसों
चली चढ़ाने अम्मा
सदी पुरानी फटी ढोलकी
लगी बजाने अम्मा।

भावुक धड़कन कोरे सपने
भरकर लाई मन में
किरच –किरच बंट गई सभी में
देखा न दर्पण में
भोली मुस्कानों को किस्से
लगी सुनाने अम्मा।

झुकी भित्तियों को अपनाकर
अल्हड़पन बिसराया
लिखी इबारत सबके मन की
खुद को खूब भुलाया
इच्छाओं के महल दुमहले
लगी बनाने अम्मा।

चूल्हे में रोटी –सी सिकती
जलती चौरे तुलसी
तुलसी दास बने हर पलछिन
बन जाती वह हुलसी
गरम रेत में निर्मल सरिता
लगी बहाने अम्मा।

रेशम बदले मारकीन में
तनिक नहीं घबराती
अवसादों में घिरने पर भी
गीत प्रेम के गाती
कीचड़ देखा फूल कमल के
लगी खिलाने अम्मा।

दीप बहारों के

इतराते हैं कहीँ महल मॆं
दीप बहारों के
अन्धकार मॆं कहीँ खो रहे
सदन हज़ारों के

थके-थके दिन भटक रहे हैं
कुहरे मॆं पागे
दाँव खेलती नियति कलमुँही
रात-रात जागे

झिझक रहा सूरज भी आते
घर लाचारों के

तोड़ रहीं दम यहाँ हवाएँ
चुप आते-आते
व्यतिक्रम के मारे-से बीतें
दिन रोते-गाते

हृदय कँपा जाती है पछुआ
इन बेचारों के

सौदागर ने क़ैद रखी है
ख़ुशबू झोली मॆं
अर्थ ढूँढती फिरे वेदना
गूँगी बोली मॆं

कैसे पहुँचे नाव किनारे बिन
पतवारों के

आज सबको ख़बर हो गई 

आज सबको ख़बर हो गई।
रोशनी बेअसर हो गई।

हम रदीफ़ों में उल्झे रहे,
काफ़िये में कसर हो गई।

खो गए इस कदर भीड़ में,
जिन्दगी दर-ब-दर हो गई।

दर्द को ज्यों लगाया गले
रात काली सहर हो गई।

फूल बोते रहे उम्र भर,
क्यों कंटीली डगर हो गई।

साथ माझी का जैसे मिला
साहिलों को ख़बर हो गई।

‘कल्प’ से यूँ ही चलते हुए
हर किसी की गुजर हो गई।

जब खिली रातरानी ये क्या हो गया 

जब खिली रातरानी ये क्या हो गया।
आ गया क्रूर माली , ये क्या हो गया।

मंजिलों का पता पूछने की सजा,
मिल रही मुझको गाली,ये क्या हो गया|

जिंदगी सिलवटों में उलझती हुई ,
बन गई इक कहानी,ये क्या हो गया।

रोटियों से कोई खेलता, है कोई-
सो रहा पेट ख़ाली,ये क्या हो गया।

पहले रोका नहीं, सोचा मासूम हैं
बन गए अब मवाली,ये क्या हो गया।

ढोल में पोल सबकी दिखे कल्प से
सारी दुनियाँ सवाली,ये क्या हो गया।

चाँदनी गुनगुनाती रही रातभर

चाँदनी गुनगुनाती रही रातभर।
यामिनी कसमसाती रही रातभर।

तारकों से झगड़ती रही कालिमा,
भोर का डर दिखाती रही रातभर।

दीप गिनता रहा तंग परछाइयाँ
वर्तिका टिमटिमाती रही रातभर।

करवटें साँस लेती रहीं दर्द में ,
जिन्दगी थरथराती रही रातभर।

भूख करती रही बेरहम रतजगा ,
अस्थियाँ चरमारातीं रहीं रातभर|

कर्म के फ़लसफ़े की इबारत तने,
‘कल्प’ मन को मनाती रही रातभर।

साँझ की देहरी पे जलाया दिया

साँझ की देहरी पे जलाया दिया।
क्या हुआ,आँधियों को न भाया दिया।

था अँधेरा बहुत नेह घटता गया
बेबसी पर बहुत कसमसाया दिया।

दर्द में हम पिरोते रहे जिन्दगी ‘
देखकर ये शगल मुस्कुराया दिया।

आइना जब छिपाने लगा झूठ को ,
भर गया क्रोध से,तमतमाया दिया।

ख़्वाब थे अनगिनत टूटने के लिए,
मूंद कर आँख कुछ बुदबुदाया दिया।

फैलते हाथ जब रोशिनी के लिए,
लाज से भींगकर फड़फड़ाया दिया।

कैद से रोशनी को छुड़ाने की जिद,
‘कल्प’ की बात सुन जगमगाया दिया।

रास्ते कब मुश्किलों से भागते हैं 

रास्ते कब मुश्किलों से भागते हैं।
रास्ते ही रास्तों को काटते हैं।

मंजिलों की टोह में कब कौन निकले,
रास्ते दिन-रात अक्सर जागते हैं।

क्या हुआ माँ-बाप ने, कुछ कह दिया तो
गैर कब आकर किसी को डाँटते हैं।

भूख बच्चों की नहीं,जब देख पाते ,
सौ दफ़ा मरते हैं,तब कुछ माँगते हैं।

सात कोठों में छुपालो जुर्म ख़ुद का,
जानने वाले तो सब कुछ जानते हैं।

जीत लेते है जहाँ की हर लड़ाई ,
सिर्फ़ बच्चों से ही हम,क्यों हारते हैं।

छूट जाते कल्प पीछे इस जहाँ में,
वक्त के संकेत को, जो टालते हैं।

कभी तेल बाती मिला कुछ नहीं है 

कभी तेल बाती मिला कुछ नहीं है।
दिया ने किसी ने दिया कुछ नहीं है|

कभी ख्वाहिशों की कमी तो नहीं थीं,
रहे हाथ खाली मिला कुछ नहीं है।

घरौंदे परिंदों के यूँ न उजाड़ो ,
शजर काटने में भला कुछ नहीं है|

पसीने को बोया लहू में समोकर
किये सौ जतन पर खिला कुछ नहीं है।

ये कैसा सफ़र जिंदगी का अनोखा
थमा पीर का,सिलसिला कुछ नहीं है।

भरा था समंदर निगाहों के आगे,
रहे होंठ सूखे पिया कुछ नहीं है।

चलाता रहा नाव को रेत में वह,
न पाया किनारा गिला कुछ नहीं है।

कहो कल्प कैसे निभाएँ जहां में,
मिली ढूंढने से वफ़ा कुछ नहीं है।

बात हमने किसी को बताई नहीं 

बात हमने किसी को बताई नहीं।
पर हमें रात भर नींद आई नहीं।

आँख झपकी नहीं एक पल के लिए,
चाह की लौ किसी से लगाई नहीं।

चाँदनी आ गई ले कलश ओस के
क्या हुआ फिर, धरा क्यों नहाई नहीं।

ले गया लूटकर मन के सुख चैन वो
जबकि साँसों ने की थी सगाई नहीं।

जब सुबह दौड़ती साँझ के नेह में
प्रीति की रीत जग को सुहाई नहीं।

डूब जाता है मन क्यों, यूँ अनुराग में,
सेज सपनों की दिल ने सजाई नहीं।

कल्प बीते चकाचौध में इस कदर
आईना ने भी सूरत दिखाई नहीं।

क्या कहें क्या से क्या हो गया

क्या कहें क्या से क्या हो गया।
आसमा बेबफ़ा हो गया।

हाथ सिर से पिता का उठा
वो अचानक बड़ा हो गया।

माँगने से मिला कुछ नहीं
बाँटने से भला हो गया।

पत्थरों से रहा खेलता ,
चोट खाई,ख़फ़ा हो गया।

दीप जब-जब जलाए गए
रुख़ हवा का कड़ा हो गया।

सूखने को था बूढा शज़र
प्यार से फिर हरा हो गया।

जब दवाएं हुईं बेअसर
दर्द,उसकी दवा हो गया।

पुकारा है किसने नहीं जान पाए 

पुकारा है किसने नहीं जान पाए।
सुने बोल लेकिन न पहचान पाए।

तपाते रहे योग की धूनियाँ ही
कभी दर्शनों का न वरदान पाए|

ये मेले,ये त्यौहार बाहर सजे थे
मगर घर के भीतर,तो सुनसान पाए।

शिला नींव में, ठोकरों में रही जो
तराशी गई तो,वही मान पाए।

पसीना वदन का,है देता गवाही ,
नहीं हम किसी का भी एहसान पाए।

गुजारे कई कल्प उलझन में ऐसे
न आँसू बहाए न मुस्कान पाए।

पतझड़ तो एक बहाना है

पतझड़ तो एक बहाना है।
मकसद वसंत का आना है।

क्यों मोल लगाते गैरों का ,
खुद को ही कब पहचाना है।

तितली पर पहरे हो कितने
उसको मकरंद चुराना है।

काँटे तो पोर-पोर होंगे
पर फूलों को मुसकाना है।

रातें कितनी हों अँधियारी ,
दीपक को धर्म निभाना है।

चिंगारी को रखना जीवित
यदि खरपतवार जलाना है।

बीते हैं कल्प यत्न करते
‘पर ये रहस्य अन्जाना है।

छेड़ जाती बयार गर्मी की 

छेड़ जाती बयार गर्मी की।
रात लाती करार गर्मी की।

ताल महके कमल के फूलों से,
छाँव देती दुलार गर्मी की।

दिन झुलसता रहा दुपहरी में,
चाँद सुनता पुकार गर्मी की।

साँझ आती है रोज धीरे से,
बात सुनती हजार गर्मी की।

राह भूली हवा लगी चिढ़ने,
देह सहती है मार गर्मी की।

तल्ख तेवर हैं ‘कल्प’ मौसम के,
कौन लिखता बहार गर्मी की।

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