मेरा बचपन
जहाँ खेतो में उगते है गीत
साँझा चूल्हे में पकते है गीत
वही कहीं किसी गीत के साथ
देखना पेड़ पर
पहन कर दुशाला पहने चढ़ा होगा बचपन मेरा
उसे तह कर ले आना पास मेरे
की ज़िन्दगी बेताब है उससे मिलने को
००
तुम्हें उस देश में
एक ख़ुशनुमा टुकड़ा मिलेगा
वक़्त का
जो छूटा बचपन में
यक़ीनन पता देगा वो तुम्हें
ख़ुशी का ।
००
मेरा बचपन खो गया है
मालवा के वन में
उस को ले आना नहीं तो
मर जाएँगी मेरी अठखेलियाँ ।
००
पलाश से लदे हुए
जंगल को देखा तुम ने
वैसे ही हज़ारो प्रश्नों से लदा मेरा बचपन था
तुम जा रहे हो ढूँढ़ने उसे
सुनो वो करंज, कुसुम या महुआ पर झूल रहा होगा
या बैठा होगा किसी खपरैल की छत पर
पतंग की डोर थामे
उस डोर को खीच ही लाना
अबकी बार अन्तस की गहराई से बाँधूगी उसे फिर से ज़िन्दगी जीनी जो है
००
जहाँ हो धूप के रंग
छाँव के रंग
उदासी के रंग
तो पल में आनन्द के रंग
धरती के रंग
आसमान के रंग
वो और कुछ नहीं
बचपन ही तो है
ख़्वाब
गहराती रातों में वो ज़ेहन में मेरे
रेशमी ख़याल-सा तैरता आता है
रूह के जिस्म में मोहब्बत की चादर ओढ़े
बाँहें लिहाफ़ में मुझे भी छिपा लेता है
इस तरह हर रात ढले ख़याल करता है वो मेरा ।
जब शब धीरे-धीरे अलसाई-सी उठती है
मैं चलती हूँ
ख़ुशियों के लगा कर पंख
मेरी साड़ी का दामन थामे
तब मेरा हमराह होता है ।
फिर में देखती हूँ उसे सवाली आँखों से
वो जवाब में अनकहा इजहार करता है
मैं बहुत कुछ कहती हूँ मन ही मन
शाइस्तगी से वो सब सुनता है
इन्द्रधनुषी बाँहों में समेट कर मुझे
पकड़ा कर ख़ुशियों के पल
खुद नीलकण्ठ हो जाता है ।
देखती हूँ चकित आँखों से
पाती नहीं उसको आस-पास कही
समझ जाती हूँ
मेरी आँखों में इक ख़्वाब था ।
मैं अवतार नहीं
मुझे अवतार नहीं बनना देव
मैं तो कर्म सौन्दर्य
करती हूँ संघटित ।
उसी से मेरा स्वरूप
भिन्न है मनु तुम से
मेरे जीवन में उसी से माधुर्य आता है ।
माधुर्य मुझे देता है
ज्ञानी उद्धव-सी चुप्पी
जो सह लेती है
वाचा का अन्तिम तीर
जो तुम से मुझ तक आता है ।
मनु तुम मुझे माप नहीं सकते
मैं हूँ अनन्त अविनाशी
उलझती सुलझती औरतें
बीते समय में
छत पर जुट आती थीं औरते
झाड़ती थीं छत को, मन को
बनाती थी पापड़, बड़ियाँ अचार
साथ में बनाती थी ख़्वाब
रंगीन ऊन के गोले
सुलझाते-सुलझाते
उलझती थी बारम्बार ।
पर आज की औरते
जाती नहीं छत पर ।
उनके पाँव के नीचे छत नहीं पुरी दुनिया है
उनके पास है जेनेटिक इंजीनियरिंग, एंटी-एजिंग, क्लोनिंग , आटोमेंटेंशन
जिनके एप्लीकेशन में उलझी
सुलझाती है पूरी दुनिया की उलझने ।
मेरा भारत
तुम एक देश नहीं, भारत !
तुम सृष्टि हो
तुम हिमालय हो
सम्पूर्ण पुरुष हो
या सम्पूर्ण स्त्री के अवतार ।
तुम ब्रह्मविद्या हो
शिव हो
आदिशक्ति हो
तुम नारियों के स्रोत हो
सन्दर्भ हो ।
तुम अज्ञात हो
तुम ओम हो
तुम मौन हो
तुम शून्य हो
इसलिए ही तुम सम्पूर्ण हो ।
हिन्द हमें गर्व है
हम तुम में हैं
और तुम हम में ।
कुछ क्षणिकाएँ
1.
मैं बैठी हूँ आज भी
खिजा की बहारों के लिए
तू शायद फिक्रमन्द है रोटी के लिए ।
2.
जब ख़ामोशी में तुम सुनने लगो
पतझर में जब बहार बुनने लगो
नजर आए चाँद आईने जैसा
तब समझना अध्याय पाक मोहब्बत है ये ।
3.
एक शरारा-सा भड़का है दिल में मेरे
कि उसकी तपिश का एहसास हुआ
मैं कहाँ, न मुझे पता
वो कहाँ, न उसे पता ।
4.
समन्दर से यारी बहुत की हमने
पर कही किनारा नज़र नहीं आया
आज इस शहर में हर ग़रीब
मोहब्बत में हारा नज़र आया ।
5.
बाँसुरी के धुन की तरह
हौले-हौले तुम मुझ में समा गए
मुझे लगा जैसे सहरा में एक टुकड़ा मिला हो छाँव का
तुमने एक मीठा-सा सवाल किया
तो नन्हा-सा जवाब बन महक गया मन ।
6.
वो आज भी मेरे ज़ेहन में है
एक किताब की तरह
कि हर बार पलटती हूँ उसके पन्ने
खींचती हूँ लाईन अपनी पसन्द के पैराग्राफ़ पर
पर उसमे कुछ नया नहीं जोड़ पाती ।
7.
जब किसी रस्ते पर चलते-चलते
तुम थक जाओ
और किसी राह पर रुक जाओ
तो देख लेना कोई वहाँ तो नहीं
यक़ीनन वो तेरा साया ही होगा ।
मौसम और तुम
बरसात की रात है
या तुम्हारी मुहब्बत में भीगी ग़ज़ल
बदली में छिपता-निकलता चाँद
या उठती-गिरती तेरी नज़र
हवाओं के आँचल में सिमटी बून्दें
या तुम्हारी यादों को समेटे मेरी धड़कन
आ जाओ कि ये बताने
ये मौसम नही
तुम हो ।
सह-अस्तित्त्व
मेरी प्रकृति और तुम्हारी प्रकृति से
हमारा सह-अस्तित्व बना है ।
तुमने मेरे अन्दर प्रेम के बीज बोए है
और मैने प्रेम पूर्ण उत्पादन किया है ।
तुम्हे दी है प्रसन्नता की फ़सल
तुम्हारा प्रेम मेरी रचना मे हमेशा प्रवाहमान रहा है
कभी वृक्ष, वन, सागर,
कभी परबत, हवा, बादल मे
बस इतना करना
अपने अन्तर्मन के सत्य से
मेरे मन को बाँध कर
बदल देना मेरे भौतिक मन को
प्राकृतिक मन मे ।
क्यों ?
क्यों कोई कोई दिन
इतना बोझिल होता है
कि खिड़की से गुज़रती हवा
खुले कपाट बन्द कर देती है,
और दिन अन्धेरों में सहम कर छिप जाता है ?
क्यों सूरज खिड़की के कपाट नहीं खोलता
ठिठक कर आँगन में खड़ा रहता है
और हर ख़ुशी किनारे के पार नज़र आती है ?
क्यों ये बोझिल दिन
सिद्धार्थ की सीमाओं से निकल कर बुद्ध नहीं बन जाता ?
शब्दार्थ
सभी शब्दों के अर्थ सामने थे
अनर्थ से दूर भी
शब्द ख़ुश थे अपने -अपने अर्थो के साथ
जैसे ही मैंने प्रेम का अर्थ जानना चाहा
कुछ फ़रेब के जाल मुझ पर गिरे
कुछ छींटे तोहमत के
फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी
उन्हें बताई मैंने अपनी मीरा-सी लगन
मैंने कहा शब्द तो भावना है आत्मा की
अर्थ हँसा उसने की देह की बात
मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी
क्योकि मुझे थी प्रेम के सही अर्थ की तलाश
अबकी बार उसने मेरे वजूद को भिगोया
एसिड के साथ
तब आग की लपटों के साथ
शब्द भी जलाने लगा
प्रेम भी मरने लगा
अब गठरी बना प्रेम पडा है
हर चौराहे हर नुक्कड़ हर द्वार
हो रही है उसकी चीड़–फाड़
नदी और मैं
मैंने कहा नदी से
तू और मैं एक जैसे
मैं प्रीत का तूफ़ान यादों की कश्ती से खेती
तू भी कितने तो तूफ़ान सहती
तू मिटती-बनाती लहरों के खेल में
मैं भँवर में रहती गिरस्ती की जेल में
तू ख़ामोश बहती लहरों के साथ
मैं भी बहती ज़िन्दगी के बहाव के साथ
तू नि:शब्द हो समेट लेती है सब कुछ अन्दर
मैं समेट लेती हूँ सबके दुःख अन्तस
तू बँधी है किनारो की बाधा से
मैं बँधी हूँ समाज की मर्यादा से
नदी तेरा मेरा सुख दुःख एक है
किनारों के पार विध्वंस है
आ धर्म निभाएँ
किनारों के भीतर ही रहा जाए
सृजन धरा पर करा जाए
पूरब के कन्धे पर
तुम्हारे साथ को
मैं ने अपने भीतर बून्द-बून्द समेटा है
ये एक जादुई एहसास है
जो मेरे अन्दर सिहरन छोड़ जाता है
ये तो वसन्त का आगाज़ है
अरे ओ अनमने दिन बाँध लो अपनी गठरी
एकान्त की चादर मैं ने समेट जो दी है
अरे ओ दरिया की लहरों मुझे किनारा मिल गया है
मेरा ये अनायास दुखी और बेचैन होना
और एक ही पल में बेवजह मुस्कुराहटों का पिटारा खोल देना
असल में अनजाने से आगत की गन्ध है
जो पूरब से आ रही है
अरे मेरी रूह आज तुम मिलोगी
ख़ुद से और मिलोगी पूरी कायनात से
आओ चलें टिका दें
अपनी उम्र और अकेलापन पूरब के कन्धों पर
हथेलियों की छाप
तुमने जो फूल मेरे बालों में टाँका था
वो कल रात न जाने कैसे
उस डायरी से गिर गया
जिसपे तुमने,
मेरी तुम्हारी हथेलियों की छाप ली थी
मेरी हथेली की छाप तो तुम ले गए
लेकिन अपनी महक उस हरसिंगार पर छोड़ गए
जहाँ मैंने बदली से निकलते चाँद देख कर,
तुम्हारे पहलू में अपना चेहरा छिपा लिया था
और तुमने हौले से मेरा माथा चूम लिया था
उस एहसास को मैं अपने साथ ले आई
लेकिन दिल उसी हरसिंगार पर छोड़ आई
जो आज भी वहीं टंगा है ।
आभासी दुनिया की औरतें
आभासी दुनिया की औरतें !
उम्र की ढलान को पीछे छोड़ बन जाती हैं सोलह साला
रहती है परियों की दुनिया में जहाँ आते हैं उन्हें
खुली आँखों से देखे जाने वाले सपने
जिसमे होती हैं वो शहजादियों से भी कमसिन
लगाती है सजा के अपने बीते लम्हें
और कॉलेज आइडेण्टिटी कार्ड के पिक
फेसबुक ट्विटर व्हाट्स-अप प्रोफ़ाइल पर
आने लगते है लाइक और कमेण्ट
खो जाती हैं आभासी परी-कथा में
इस तरह ख़ुद को जोड़ती हैं आज के समय में
ख़ालीपन की जमी हुई काई
खुरचती हैं, बनाती हैं हवामहल
झूलती रहती हैं कल्पनाओं के हिण्डोले में
आभासी दुनिया की औरतें
जैसे सावन में लौटी हों बाबुल के घर
हो जाती हैं अल्हड़ और शोख
खोखले राजाओं और राजकुमारों से घिरी
जो उसके एक हाय पर लाइन लगा देते है
हज़ारों पसन्द के चटके
वाह, बहुत खूब, उम्दा, दिल को छू गई !
वह मुस्कराती इतराती खेलती है,पर अचानक
एक दिन ऊब कर बदल देती हैं पात्र
और फिर निकल पढ़ती हैं नई खोज में
आभासी दुनिया की औरतें ।
तुम्हारे प्यार की ख़ुशबू
रात भर बारिश में,
ऐसे भीगा मोगरा
जैसे भीगता है मन मेरा
तुम्हारे प्यार में
और खिल-खिल-सा जाता है ।
मैंने उस मोगरे की
बना ली है वेणी
और टाँक लिया है जूड़े में
इस तरह महकती रहती हूँ
तुम्हारे प्यार की ख़ुशबू में ।
वसन्त के अग्रदूत
वसन्त देखा था तुम्हें
निराला की रचना में
कवि की कल्पना में
उस घाट पर बाँधी थी नाव
जहाँ कवि ने
अब तुम क्यों नज़र नहीं आते
प्रेम गीत अब क्यों नहीं गाते
क्यों रूक गए पतझड़ पड़ाव पर
सुस्ताना था वहाँ तुम्हे पल भर
अभी भी शाखों में फूल खिलते हैं
प्रेमी अब भी यहाँ मिलते है
व्यथा से मेरी बौराया वसन्त
फिर बोला कुछ सकपकाया वसन्त
रोज़ मिलते तो है प्रेम की सौगात लिए
फिर धुँधले हो जाते है उनकी आँखों के दिये
अब प्रेम में वो रंग नहीं मिलते
अब ख़्वाबों के कँवल नहीं खिलते
इसलिए पतझड़ की तरह आता हूँ
रस्म अदायगी कर चला जाता हूँ
अब न रहूँगा इस ठाँव, बन्धु !
पूछे चाहे सारा गाँव, बन्धु !
आनन्दोत्सव वसन्तोत्सव
जीवन पति-पत्नी का
नहीं चलता ये एक सीधी रेखा में
हमारे और तुम्हारे बीच
वाचा के उग्रबाण होते है
जो रूपान्तरित होते है
यह रूपान्तरण हमेशा धनात्मक होता है
भरता है हमें
एकात्मकता व आनन्दोत्सव में
प्रेम को प्रखर करता है
तरंग-आवृत में स्पन्दन
बदल देता है आनन्दोत्सव वसन्तोत्सव में
आनन्दोत्सव वसन्तोत्सव में
बदलते समय की औरतें
पुराने समय की औरते
अपने में खोई हुई
गर्दन झुकी हुई
ख़्वाबों का लबादा ओढ़े हुए
ब्रेक लगी गाड़ी की तरह
अपने ठीए पर हिलती-डुलती
पर अन्दर से स्टार्ट
आज की औरते
विशिष्ट ,सुन्दर
उछाल मारती
तेज रफ़्तार गाड़ी
मन-मुताबिक स्टेशन पाती
गन्तव्य पर पहुँचकर
ख़ाली-ख़ाली
झुलसा देने वाली
मन की धूप के साथ अकेली
स्व
अभी अभी लौटाए हैं मैंने साँसों के आमन्त्रण
तोड़ा है प्रेम के घेरे को
कोई इन्तज़ार नहीं
नहीं चाहिए मुझे कोई देवदूत
मैं अपनी ज्योति और साथी स्वयं हूँ
मैं खीचूँगी एक समान्तर रेखा
जो इतनी गहरी हो जितनी मैं
पर हों हम अकेले अकेले
क्योंकि ये अकेलापन मुझे ले जाएगा मेरे ही अन्दर
और तभी भेद सकूँगी सच और सपने के अन्तर को
ये यात्रा तब तक होगी जब तक शून्य न आ जाए
अहम् ब्रह्मास्मि
जैसे आत्माएँ दबी हो आकाँक्षाओं में
और कामनाएँ अपने नुकीले नाख़ूनों से
फाड़ रही हों बुद्ध के साधन चातुष्टय को
माया डोर ले हाथों में
बना कर कठपुतली
दिग्भ्रमित करती है दुनिया के पथिक को
भ्रमित पथिक कहाँ सुन पाता है
आत्मा की वेदना और कहाँ देख पाता है
माया के खेल को
वो मगन रहता है अहम् ब्रह्मास्मि में
कस्तूरी
आज की औरतों ने
खीसे से गिरा दी है
थकान अवसाद मसरूफ़ियत
और डाल ली है अपने वालेट में
अनुभव की कस्तूरी
जिसे खर्च कर रही हैं वो
नई इबारते लिखने में
कुछ कस्तूरी बचा ली है
इसलिए कि उन्हें
अपनी गुज़रती हुई पीढ़ी के खाते में उन्हें जमा करना है
और कुछ अपनी पुश्तों के कर्ज़ उतारने में
कितना अच्छा हो !
कितना अच्छा हो
मन के रेगिस्तान को
कोई फूलों के गीत सुनाए
थके हुए
इन पग को
कोई शीतल जल
धो जाए
पतझर वसन्त में
अटकी दुनिया की
कोई गाँठ खोल जाए
कितना अच्छा हो
कोई निराला मिल जाए
और वो फिर से
वसन्त अग्रदूत बन जाए