गंगा-1 (हमें आप्लावित कर दो!)
सैकड़ों वृक्ष : जलती दोपहर : ठहरी नदी
हरियाली के धब्बे समेटे धूसर-सा दिखाई देता वन!
टहनियाँ बने हज़ारों हाथ प्रार्थनारत
आकाश की ओर अथक उठे, पुकारते :
कि बरसो
मेघ बरसो और हमें आप्लावित कर दो!
बरसो कि
बरसों हम इसी तरह प्रार्थनारत रह सकें
मौसम के घात-प्रतिघात सह सकें
कि मेघ बरसेंगे
कि यह वन और
यह जीवन-वन आप्लावित होगा
रस सरसेंगे
बरसो कि हम भी बरसें
गंगा-2 (रात में)
रात में नदी चढ़ी
पाट फैला –
फैलता हुआ
दोनों किनारों को जोड़ गया.
नदी मुझ तक पहुँची
मैं कहीं छूट गया!
नदी
तुमको मिला मैं ?
गंगा-3 (विराट परछाईं)
अथाह जलराशि
बून्दों में समाई है!
क्षण भर के इस अस्तित्व में
कैसा विराट
वामन बना डूबता उतराता है.
वह सब जो विराट है
क्षण-पल-बून्द-बिन्दु का ही तो अभिलाषी है
क्योंकि अस्तित्व तो बीज में है
विराटता तो उसकी परछाईं है
गंगा-4 (कपड़े)
सभी ने कपड़े उतार दिए हैं
सभी नदी में डुबकी लगाएँगे
सभी पाप की गठरी ढो कर लाए हैं
सभी अपनी गठरी यहीं छोड़ जाएँगे
बस इतना ही :
बहती नदी रुकती नहीं है
बहती नदी थकती नहीं है
बहती नदी पूछती नहीं है
कहाँ से आए, क्या लाए, क्यों लाए और छोड़े किसके लिए जाते हो
नदी ने सबको कपड़े पहना दिए हैं
पानी की मटमैली चादर के नीचे
न आदमी है, न पाप, न पुण्य, न हैसियत
सिर्फ़ नदी है
जो सबके भीतर बह रही है.
गंगा-5 (दूसरी नदी में)
सुबह :
दोपहर :
तीसरे पहर :
शाम :
आधी रात :
नदी को इन सारे प्रहरों में देखो
आँख भर
मन भर और
इसकी गहराइयों को तोलो
हर पहर की नदी अलग ही होती है
तुम एक ही नदी को
अलग-अलग प्रहरों में देख नहीं सकते
वह हमेशा दूसरी हो जाती है
गंगा-6 (अज्ञेय)
सागर और पर्वत
पर्वत और सागर
अज्ञेय को इनकी चाहना थी
लेकिन उन्हें बेहद परेशानी थी
कि दोनों ये एक जगह
कभी, कहीं क्यों नहीं मिलते?
अज्ञेय साहब,
सारा पेंच तो इसी में छिपा है
कि प्रकृति-चाहक आप जैसा भी
थोड़ा कुछ और क्यों देख नहीं सका
मैं तो दोनों को एक ही जगह पा रहा हूँ
कि सागर नहीं तो न सही
नदियाँ तो हैं
पर्वत नहीं तो न सही
पहाड़ियाँ तो हैं
पहाड़ियों को छू कर बहती यह नदी
नदी को अपने घेरे में समेटे ये पहाड़ियाँ
उन सब जगहों पर तो हैं
जहाँ यायावर की तरह फिरते रहे आप!
इसलिए थोड़ा नीचे देखना ज़रूरी है –
सागर से नीचे
और पर्वत से नीचे
और ख़ुद से नीचे
नीचे यानी छोटा नहीं
ऊपर यानी बड़ा नहीं
प्रकृति यानी गोद :
बस, समेट लो, सिमट लो, पा लो!
गंगा-7 (तब तुम… )
नदी है
पानी है
पानी में डूबता मेरा पाँव है :
नदी पखारती है, सहलाती है
डुबाती है और फिर छोड़ जाती है
मेरा पाँव
नहीं जानता कि मेरे पाँवों से
नदी को क्या मिल रहा है
लेकिन नदी से मेरे पाँवों को जो मिल रहा है
वह क्या मुझसे छिपा है!
कल नदी नहीं रहेगी
(कितनी नदियाँ तो नामशेष हो चुकी हैं! )
फिर…
फिर… मैं भी नहीं रहूँगा
लेकिन तुम…
तुम तो रहोगी
क्योंकि तुम स्वंय ही तो नदी हो
जिसमें पाँव डाले मैं बैठा हूँ