आओ पहल करें
(ज्ञानरंजन को सम्बोधित)
जब से तुम्हारी दाढ़ी में
सफ़ेद बाल आने लगे हैं
तुम्हारे दोस्त
कुछ ऎसे संकेत पाने लगे हैं
कि तुम
ज़िन्दगी की शाम से डर खाने लगे हो
औ’ दोस्तों से गाहे-बगाहे नाराज़ रहने लगे हो
लेकिन, सुनो ज्ञान!
हमारे पास ज़िन्दगी की तपती दोपहर के धूप-बैंक की
इतनी आग बाक़ी है
जो एक सघन फ़ेंस को जला देगी
ताकि दुनिया ऎसा आंगन बन जाए
जहाँ प्यार ही प्यार हो
और ज्ञान!
तुम एक ऎसे आदमी हो
जिसके साथ या प्यार हो सकता है या दुश्मनी
तुमसे कोई नाराज़ नहीं हो सकता
तुम्हारे दोस्त, पडौ़सी, सुनयना भाभी, तुम्हारे बच्चे
या अपने आपको हिन्दी का सबसे बड़ा कवि
समझने वाला कुमार विकल
कुमार विकल
जिसकी जीवन-संध्या में अब भी
धूप पूरे सम्मान से रहती है
क्योंकि वह अब भी धूप का पक्षधर है
प्रिय ज्ञान
आओ हम
अपनी दाढ़ियों के सफ़ेद बालों को भूल जाएँ
और एक ऎसी पहल करें
कि जीवन-संध्याएँ
दोपहर बन जाएँ ।
बायस्कोप
एक रोज़ मैने बचपन में ज़िद की थी
बायस्कोप देखूँगा.
माँ ने मुझको सहज भाव से फुसलाया
‘बिस्तर में, तकिये के नीचे मुँह रख
आँखें बन्द करके
चन्दा मामा के घर में
चरखा कात रही बुढ़िया के बारे में सोचो,
तब जो देखोगे उसको बायस्कोप कहते हैं.’
मैं अबोध था
समझा यही बायस्कोप है.
और रात सोने से पहले
बिस्तर में तकिये के नीचे मुँह रख
आँखें बन्द करके मैंने
चंदा मामा के घर में
चरखा कात रही बुढ़िया के बारे में सोचा.
तब मैंने देखे—
बादल भैया के घोड़े
आइसक्रीम खाते हुए परियों के बच्चे
चाकलेट और टाफ़ी के डिब्बों से भरा पड़ा बौनों का देश.
मेरा बायस्कोप कितना अच्छा था
रोज़ रात सोने से पहले देखा करता.
तब बचपन था,
किन्तु आज जब बचपन अँधेरे कमरे में खोई सूई के समान है
अक्सर अधसोई रातों को
बिस्तर में अर्थहीन सोचा करता हूँ.
लेकिन अब—
चंदा मामा के घर में
चरखा कात रही बुढ़िया
और बादल भैया के घोड़े नज़र नहीं आते.
अब तो घर के ईंधन,
दफ़्तर की फ़ाइलों के नीचे
दबे पड़े
कटे हुए पंख नज़र आते हैं
जो पीड़ा देते हैं,
पलकें गीली कर जाते हैं,
अधसोई रातें इसी सोच में कट जाती हैं—
मैंने बचपन में ज़िद क्यों की थी
माँ ने क्यों मुझको झूठा बायस्कोप देखना सिखलाया था ?
चम्बा की धूप
ठहरो भाई,
धूप अभी आयेगी
इतने आतुर क्यों हो
आख़िर यह चम्बा की धूप है—
एक पहाड़ी गाय—
आराम से आयेगी.
यहीं कहीं चौग़ान में घास चरेगी
गद्दी महिलाओं के संग सुस्तायेगी
किलकारी भरते बच्चों के संग खेलेगी
रावी के पानी में तिर जायेगी.
और खेल कूद के बाद
यह सूरज की भूखी बिटिया
आटे के पेड़े लेने को
हर घर का चूल्हा —चौखट चूमेगी.
और अचानक थककर
दूध बेचकर लौट रहे
गुज्जर— परिवारों के संग,
अपनी छोटी —सी पीठ पर
अँधेरे का बोझ उठाये,
उधर—
जिधर से उतरी थी—
चढ़ जायेगी—
यह चम्बा की धूप—
पहाड़ी गाय.
एक पहाड़ी यात्रा
बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
अपने शरीर से घटिया शराब की दुर्गंध
जिससे उड़ गये हैं मेरे डर
तुच्छताएँ, कमीनापन.
चट्टान से फूटा है झरना
बह गया मेरा अकेलापन.
सुरमई आकाश के नीचे
कौन है अकेला
कौन है निस्संग.
जब तक बहता है झरना
और मँडराती है
मेरे जिस्म के आसपास
एक पहाड़ी क़स्बे की गंध
मैं नहीं अकेला
मैं नहीं निस्संग.
शहर को लौटूँगा तो
ले जाऊँगा
पलको के बटुओं में सुरमई आकाश
थर्मस में झरनों का जल
और जिस्म में एक पहाड़ी क़स्बे की गंध.
शहर का नाम
दुनिया का सबसे सुखी आदमी—
सुअर.
और दुखी जानवर
आदमी.
प्रार्थनागृहों में
दुखी जानवर प्रार्थनाएँ करते हैं
सुखी आदमी बनने के लिए—
—कि शहर का नाम जंगल हो
आदमी के बस मुखौटे हों
सुविधाएँ सभी सुअर की हों
जिससे जंगल में खूब मंगल हो.
इसी मंगल —व्यवस्था के लिए
राजसत्ता से कारख़ानों तक
पूजा गृहों से शराबख़ानों तक
एक सुखी आदमी दनदनाता है
योजनाएँ बनाता है
शहर में जंगल की सुविधाएँ जुटाता है.
जंगल बनाम जंगल
मैं इस इमारत के नीचे से नहीं गुज़रूँगा
इस इमारत में एक काला गैंडा रहता है
जो मेरे शरीर की गंध पा कर बाहर निकल आएगा.
मैं उससे बचने के लिए भागूँगा
बेतहाशा दौड़ूँगा
एक इमारत से दूसरी इमारत तक
एक नगर से दूसरे नगर तक.
सच लितना अजीब लगता है
जब आदमी
शहरी इमारतों से भाग कर जंगल की ओर जाता है.
किंतु यह भी सच है
कि सरकारी इमारतों में जो जंगल उग रहे हैं
उनमें पुराने जंगलों से कहीं अधिक दहशत है.
और यह भी सच है
कि इन जंगलों में काले गैंडों की एक नस्ल पैदा हो रही है
और नई तरह के नरभक्षी वृक्ष उग रहे हैं
जो आदमी को अपनी लपेट में नहीं लेते
बल्कि जिनकी दहशत से रक्तचाप बढ़ जाती है
‘ब्रेन—हेम्रेज’ होते हैं
और हृदयगति रुक जाती है.
एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल की ओर
सरकती हुई लिफ़्ट अचानक रुक जाती है.
मुझे हर हाल में इस लिफ़्ट से बाहर रहना है
और अपनी देह को उस हत्या से बचाना है
जिसके बाद आदमी फ़ाइलों के धर्म तो निभाता
किंतु उसकी देह का हर धर्म छूट जाता है
बहुत कुछ याद रहता है
सिर्फ़ अपना नाम भूल जाता है
नहीं मैं इमारत के निकट से नहीं गुज़रुँगा.
ध्रुवांतर
मैं खुले विस्तार की हर चीज़ को निहारता
विमुग्ध,आत्म—विभोर
जीने के कर्म से अभिभूत
सारी दिशाओं में फैल कर
किसी एक बिंदु पर सिमती हुई गंध
परिवेश के हर पेड़—पौधे को को समर्पित.
किंतु तुम
संत्रस्त— अपनेआप से भयभीत,
आतंकित
अपने नर्क में अभिशप्त
टोकरी में बंद साँप
ज़हर की अभिव्यक्ति को आतुर.
कौन कहता है कि हम जुड़वाँ सहोदर
और केवल भ्रम यह ध्रुवांतर?
मसखरा
मैं सरकस में एक मसखरा हूँ
रंग—बिरंगे कपड़े ,बेढंगी —सी लंबी टोपी.
रोज़ दरशकों के सामने आता हूँ
सिर के बल चलता
टाँगों से ढोल बजाता हूँ
एक पहिये वाली साइकल हाथ छोड़कर
रोज़ चलाता हूँ
दो पहियों वाली साइकल से अक्सर गिर जाता हूँ.
हाथी के पेट में घुसने का दावा करता हूँ
हाथी के आने पर केवल उसकी पूँछ हिला पाता हूँ.
सरकस के हर करतब में अपनी टाँग अड़ाता हूँ.
अरबी घोड़े की दुलत्ती से दूर भागता हूँ
और यही हरकतें
पिछले कई बरस से दुहराता आया हूँ.
एक समय था, लोग हँसी से लोट —पोट हो जाते थे
तालियाँ पीटते ,धूम मचाते थे
लेकिन अब लोग नहीं हँसते
(शायद यह मेरा भ्रम हो
या हँसी की मुद्राएँ बदल गई हों)
लोग नहीं हँसते
सीटियाँ बजाते हैं
आपस में बातें करते हैं
मेरे वापस जाने की राह देखते हैं.
लेकिन मैं फिर भी—सीटियों, अर्थहीन आवाज़ों के शोर मेम—
अपनी फूहड़ हरकतें
बिना खेद के बार—बार दुहराता हूँ.
शायद किसी दिन,
कोई एक दर्शक
मेरी किसी एक हरकत पर
सहसा निमिष मात्र मुस्कुरा दे
और मैं अपने फूहड़ कार्य को अर्थ दे सकूँ.
एक आदिम ईश्वर की हत्या
मैने सोचा था एक छोटे— से घर में
साधारण आकांक्षाओं के बीच
ज़िन्दगी गुज़ार दूँगा.
और उस आदमी की हत्या के बारे में भूल जाऊँगा
जो मैंने की तो नहीं
किंतु एक अपराध भावना से पीड़ित हूँ—
कि शायद उस हत्या में मेरा भी कहीं हाथ था.
वह आदमी कौन था, मैं नहीं जानता
किंतु उसकी प्रेतात्मा ने
मेरे विरुद्ध एक षडयंत्र रचा हुआ है
मेरे घर को भुतैला खंडहर बना दिया है
मेरी आकांक्षाओं पर प्रेतों के चेहरे लगा दिये हैं.
और जब कभी सोते में
एक खुरदरी हथेली के दबाव से जाग ऊठता हूँ
तो एक क्षण के लिए महसूस होता है
कि वेगवती काली नदी के अभाव में
मेरा शरीर डूबता जा रहा है.
मैं— जैसे कोई अशरीरी अस्तित्व
अंधे जल की गहराई से बुदबुदाता हूँ
और अपनी समूची जिजिविषा को
साक्षी मान कर कहता हूँ
कि अपनी चेतन अवस्था में
मैने कोई हत्या नहीं की
हाँ ,कभी मेरे किसी पूर्वज ने
एक आदिम ईश्वर की हत्या ज़रूर की थी.
दुखी दिनों में
दुखी दिनों में आदमी कविता नहीं लिखता
दुखी दिनों में आदमी बहुत कुछ करता है
लतीफ़े सुनाने से ज़हर खाने तक
लेकिन वह कविता नहीं लिखता.
दुखी दिनों में आदमी
दिन की रौशनी में रोने के लिये अँधेरा ढूँढता है
और चालीस की उम्र में भी
माँ की गोद जैसी
कोई सुरक्षित जगह खोजता है.
दुखी दिनों में आदमी बहुत कुछ सोचता है
मसलन झील के पानी की गहराई
और शहर की सबसे बड़ी इमारत की मंज़िलें
और साथ ही साथ
एक ख़ामोश भाषा में चीखता है
कि उसके सारे प्रियजन
झील पर एक मज़बूत बाँध बना कर खड़े हो जाएँ
और इमारत में चलती लिफ़्ट को रोक लें
लेकिन प्रियजन तो पेड़ होते हैं.
छाया देते है
हवा से दुलरा सकते हैं
बाँध नहीं बना सकते.
बाँध तो आदमी ख़ुद ही बनता है.
दुखी दिनों में आदमी
एक मज़बूत या कमज़ोर बाँध तो बनता है
लेकिन कविता नहीं लिखता.
मिथक
मैं बाहर आता हूँ.
भीतर लड़ते—लड़ते थक गया हूँ
अब मैं बाहर आता हूँ.
मेरे नंगे अरक्षित शरीर को
एक सुरक्षित जगह की ज़रूरत है.
अकेला आदमी जब
एक तंत्र के खिलाफ़ लड़ता है
तो अपने सारे हथियारों के बावजूद
एक काले पहाड़ से
निहत्थी ही लड़ाई लड़ता है
और अंत में एक दिन
अपने ही लहूलुहान चेहरे से डरता है.
इस तरह छोटी—छोटी अकेली लड़ाइयाँ लड़ते हुए
कितने ही हाथों से हथियार छूट जाते हैं
और एक फ़ैसलाकुन लड़ाई से पहले ही
कितने बुलंद हौसले टूट जाते हैं.
इन्हीं टूटे हुए हौसलों से
अरक्षित आदमी का जन्म होता है
और जब एक अरक्षित आदमी
एक इमारत से दूसरी इमारत
एक शहर से दूसरे शहर
एक शिविर से दूसरे शिविर तक
भटक रहा होता है
तो दुश्मन आराम से सोता है.
वह अरक्षित आदमी की नियति को जानता है
उसकी सारी संभावनाओं को पहचानता है.
वह सिर्फ़ एक संभावना से डरता है
और उसे टालने के लिए
कई मिथकों की रचना करता है
जैसे जनता एक अंधी भीड़ है
जैसे भीड़ में आदमी अकेला है
जैसे भीड़ में मरे हुए आदमी की गंध आती है
जैसे भीड़ पशुओं का एक मेला है.
मैं इन सभी मिथकों को तोड़ूँगा
और अपने नंगे अरक्षित शरीर को
हज़ारों लाखॊं करोड़ों से जोड़ूँगा.
अब मेरे सामने—हज़ारों लाखों हम्दर्द चेहरे हैं
जो मेरे नंगे श्रीर की हिफ़ाज़त कर रहे हैं
और दुश्मन ख़िलाफ़—
एक सामूहिक लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं.
जनता एक बरगद है
जिसकी घनी छाँह में
सुरक्षा—बोध होता है
जनता एक जंगल है
जिसमें कोई ‘प्रथम—पुरुष’
क्राँति—बीज बोता है.
जनता एक बहुमुखी तेज़ हथियार है
जो अकेली लड़ाइयों को आपस में जोड़ता है
दुश्मन के व्यूहचक्रों को तोड़ता है.
जनता एक आग है
जो राजमहल जलाती है
ठंडे घरों में कच्ची रोटी पकाती है.
जनता एक दरिया है
जो काले पहाड़ को
तोड़—तोड़ आता है
गुरिल्ला नदियों के संग
क्रांति— गीत गाता है.
जनता असंख्य आँखों
वाली अदम्य शक्ति है
‘मिथकों’ की रचना—
हताश मन की अभिव्यक्ति है.
एक छोटी-सी लड़ाई (कविता)
मुझे लड़नी है एक छोटी-सी लड़ाई
एक झूठी लड़ाई में मैं इतना थक गया हूँ
कि किसी बड़ी लड़ाई के क़ाबिल नहीं रहा ।
मुझे लड़ना नहीं अब—
किसी छोटे क़द वाले आदमी के इशारे पर—
जो अपना क़द लंबा करने के लिए मुझे युद्ध में झोंक देता है ।
मुझे लड़ना नहीं —
किसी प्रतीक के लिए
किसी नाम के लिए
किसी बड़े प्रोग्राम के लिए
मुझे लड़नी है एक छोटी-सी लड़ाई
छोटे लोगों के लिए
छोटी बातों के लिए.
मुझे लड़ना है एक मामूली क्लर्क के लिए
जो बिना चार्जशीट मुअत्तिल हो जाता है
जो पेट में अल्सर का दर्द लिए
जेबों में न्याय की अर्ज़ी की प्रतिलिपियाँ भर कर
नौकरशाही के फ़ौलादी दरवाज़े
अपनी कमज़ोर मुठ्ठियों से खटखटाता है ।
मुझे लड़ना है—
जनतंत्र में उग रहे वनतंत्र के ख़िलाफ़
जिसमें एक गैंडानुमा आदमी दनदनाता है
मुझे लड़ना है—
अपनी ही कविताओं के बिंबों के ख़िलाफ़
जिनके अँधेरे में मुझसे—
ज़िंदगी का उजाला छूट जाता है ।
मुक्ति के दस्तावेज़
मैं एक ऐसी व्यवस्था में जीता हूँ
जहाँ मुक्त ज़िन्दगी की तमाम संभावनाएँ
सफ़ेद आतंक से भरी इमारतों के कोनों में
नन्हें ख़रगोशों की तरह दुबकी पड़ी हैं.
और मुक्ति के लिए छटपटाता मेरा मन—
वामपंथी राजनीति के तीन शिविरों में भटकता है
और हर शिविर से—
मुक्ति का एक दस्तावेज़ लेकर लौटता है.
और अब—
शिविर—दर—शिविर भटकने के बाद
कुछ ऐसा हो गया है
कि मुझ से मेरा बहुत कुछ खो गया है
मसलन कई प्रिय शब्दों के अर्थ
चीज़ों के नाम
संबंधों का बोध
और कुछ—कुछ अपनी पहचान.
अब तो हर आस्था गहरे संशय को जन्म देती है
और नया विश्वास अनेकों डर जगाता है.
संशय और छोटे—छोटे डरों के बीच जूझता मैं—
जब कभी हताश हो जाता हूँ
तो न किसी शिविर की ओर दौड़ सकता हूँ
न ही किसी दस्तावेज़ में अर्थ भर पाता हूँ.
अब तो अपने स्नायुतंत्र में छटपटाहट ले
इस व्यवस्था पर—
केवल एक क्रूर अट्टहास कर सकता हूँ.
अगली ग़लती की शुरुआत
ग़लती की शुरुआत यहीं से होती है
जब तुम उनके नज़दीक जाते हो
और कबाड़ी से ख़रीदे अपने कोट को
किसी विदेशी दोस्त का भेजा हुआ तोहफ़ा बतलाते हो.
लेकिन वे बहुत शातिर हैं
तुम्हारे कोट की असलियत को पहचानते हैं
वे सिर्फ़ चाहते हैं
कि तुम उसी तरह अपनी असलियत को छिपाते जाओ
और कभी कपड़े उतार कर नंगे न हो जाओ.
वे नंगे आदमी से बहुत डरते हैं
क्योंकि नंगा आदमी बहुत ख़तरनाक होता है.
इसलिए वे तुम्हारी ओर—
दोस्ती के दस्तानों वाले अपने पंजे बढ़ाते है
और तुम—
दोस्ती के लालच में उनके पंजों के नाखूनों को नज़रअंदाज़ कर देते हो
क्योंकि उस वक़्त तुम्हारी नज़रें
डाक्टर लाल के बंगले के आमों पर होती हैं
और त्रिपाठी जी के नाश्ते के बादामों पर होती हैं
और वे कुटिलता से मुस्कुरा रहे होते हैं
कि तुम्हारी आँखों में लालच है
और मुँह में पानी है
वे जानते है,कमज़ोर आदमी की यही निशानी है.
वे जानते हैं तुम्हारी क़ीमत थोड़ी —सी शराब है
और एक टुकड़ा क़बाब है;
कि तुम्हें उनकी गाड़ियाँ अच्छी लगती हैं
कि उनकी बीवियों की साड़ियाँ अच्छी लगती हैं
कि तुम अपना ग़ुस्सा कविता में उतार कर ठंडे हो जाओगे
लेकिन ज़िंदगी में कभी नंगे नहीं हो पाओगे
यहाँ तक कि अपने जिस्म की खरोंचें भी छिपाओगे.
इसी लिए मौक़ा लगते ही वे
अपने पंजों से दोस्ती के दस्ताने उतार कर
तेज़ नाखून तुम्हारे जिस्म में गाड़ देते हैं.
और उस रात
जब तुम हताश होकर
अपने बिस्तर में छटपटाते हो
तो बूढ़े पिता की याद कर के बहुत रोते हो
तुमें अपने मज़दूर भाई की बहुत याद आती है
और गाँव —घर की बातें बहुत सताती हैं.
उस घड़ी तुम
आँसुओं की कमज़ोर भाषा में
कुछ मज़बूत फ़ैसले करते हो
और अपनी कायरता के नर्म तकिए में
मुँह रख कर सो जाते हो.
अगली ग़लती की शुरुआत
यहीं से होती है.
दीवार के इस पार, दीवार के उस पार
सुरक्षा की एक छोटी—सी चाहत में
नींद और जागरण के बीच भटकते हुए
हर रात मैंने की हैं अनेक यात्राएँ
हर यात्रा के अंत पर मिलती है मुझे
धरती से आसमान तक उठी हुइ
एक अभेद्य काली दीवार,
जिससे टकरा कर हताश
मैं लौटा हूँ बार—बार.
किंतु अचानक मिल गया है मुझे एक जादुई मंत्र
जिससे खुल गया है मेरे लिए
दीवार के उस पार का तंत्र
जबसे पहुँचा हूँ दीवार् इस पार
मेरे शरीर में रच गया है समझौतों का ज़हर
मेरी शिराओं मॆं बहने लगा है चापलूसी का रक्त
मैं महसूस करता हूँ—
निकट आ गया है मेरी कुत्ता—फजीहत का वक़्त
मुझे अच्छी लगने लगी हैं
देश भक्त कवियों की कविताएँ
गुदाज जिस्म संभ्रांत महिलाएँ
अफ़सरनुमा लोगों के फूहड़ लतीफ़े
और ज़िंदगी में तरक्की करने के तरीक़े.
मेरे परिचितों की सूची में हो रही है
तरक़्क़ीपसंद लोगों की भरमार,
जिनकी एक जेब में अमेरिका का वीज़ा
दूसरी में माओ की लाल किताब.
इस रहस्यतंत्र में
जब मैं मरूँगा एक कुत्ते की मौत
तो दीवार के इस पार
कोई नहीं करेगा मेरी लाश को स्वीकार.
हाँ , दीवार के उस पार
तराई के जंगलों में
ठिठुरती रातों में भटकते हुए
गुरिल्ला नौजवानों का एक दस्ता
मेरी मौत पर रखेगा एक छोटा —सा प्रस्ताव,
कि आदमी ने जाने हैं अब तक जितने ज़हर
उनमें सबसे अधिक घातक है
सुरक्षा की एक छोटी—सी चाहत का ज़हर.
विपथगामी
वापसी असंभव तो नहीं
मुश्किल ज़रूर है
तुम—
जो नर्म लोगों के गर्म कमरों की सुविधाओं में फंस रहे हो
नहीं जानते कि धीरे—धीरे एक दलदल में धंस रहे हो
जिसके नीचीक मृत्यु-क्षण तुम्हारे इंतज़ार में है.
उस मृत्यु-क्षण तक पहुँचने के बाद
तुम दलदली अँधेरे में
एक प्रेत-पुरुष की तरह मँडराओगे
और तब—
तुम कुमार विकल के नाम से नहीं जाने जाओगे
तुम्हारा नाम एक भद्दी गाली में बदल जाएगा
और तुम्हारे प्रियजन तुम्हें स्वीकार करने से इन्कार कर देंगे.
तुम्हारे वे नौजवान साथी
जिनसे तुम पानी की मशकें ले कर जल्दी लौट आने का
वादा करके आए थे
अपने होंठों में भद्दी गाली को बुदबुदाकर
उस रेगिस्तान को लौट जाएँगे
जहाँ तुम लोग
एक महापुल बना रहे थे.
पुल तो तुम्हारे बिना भी बन जाएगा
लेकिन तुम्हारे नाम से जुड़ी गाली को
कौन मिटा पाएगा.
समय है कि तुम
इन कमरों से बाहर आओ
और अपने नये ख़रीदे जूतों को
दलदल में छोड़कर
उस रेगिस्तान को लौट जाओ
जहाँ तुम्हारे साथी
पानी की मशकों के इंतज़ार में होंगे.
एक गली का अँधेरा
(दिवंगत पिता के प्रति)
पिता ! मैं तुमसे बहुत दूर चला आया था
तुम्हारे घर मेम एक निम्न वर्ग के परिवार का पूरा अँधेरा था
जिसमें माँ—
एक ख़ामोश दिये की तरह जलती थी
और घर के अँधेरे को दूर करने का यत्न करती थी.
फिर भी हमारी किताबों के ज़्यादा हिस्से
अक्सर अँधेरे में रहते थे
और ज़िंदगी की तख़्ती पर लिखाई करते हुए
बहुत से अक्षर हमसे छूट जाते थे.
हर रात तुम्हारा घर
एक शराबी के क़दमों की तरह
लड़खड़ाता था
और रामायण पर झुका माँ का चेहरा
अचानक काँप जाता था.
उस समय सारे घर में
उस पावन किताब से केवल—
यही शब्द गूँजते थे
‘ढोल ,गँवार शूद्र ,पशु ,नारी…”
और बिस्तर में दुबके हुए बच्चों को महसूस होता था
कि घर की दीवारें गिर रही है
एक भूकंप आ रहा है.
उसी किसी भूकंप के दौरान मैंने
ज़िंदगी की सब से पहली गाली
और सबसे पहली प्रार्थना
एक साथ सीखी.
गाली तुम्हारे लिए
प्रार्थना माँ के लिए
गालियाँ और प्रार्थनाएँ
एक साथ बुदबुदाते हुए
मेरे लिए
दुनिया का सबसे आत्मीय चेहरा
धीरे—धीरे अजनबी बनता गया
और मेरे छोटे—छोटे प्रश्नों के साथ
एक बहुत बड़ा प्रश्न जुड़ता गया—
क्या आदमी के लिए घर ज़रूरी है?
मैंने सोचा मैं यायावर बन जाऊँगा
लेकिन ज़िंदगी—
जो अँधेरे से अँधेरे तक यात्रा है,
तुम्हारे घर के अँधेरे में नहीं बिताऊँगा.
पिता ! मैं तुमसे बहुत दू चला आया
और यायावरी करता हुआ
शहर -दर-शहर भटकता रहा
नियोन बत्तियों की रौशनी में
बचपन में छूटे अक्षरों कॊ
ठीक ढँग से पढने की कोशिश करता रहा,
लेकिन तुम्हारे घर का चिर-परिचित अँधेरा
मेरी आँखों के कोनों में कहीं अटका रहा.
नियोन बत्तियों की रौशनी में भी
मुझसे बहुत से अक्षर छूट जाते रहे,
और लिखते समय—
अक्सर उनके रूप टूट जाते रहे.
टूटे हुए अक्षरों में, पिता !
घर के अँधेरे के ख़िलाफ़
तुम्हें एक शिकायत भरा ख़त तो लिखा जा सकता था
किंतु कोई अग्नि-शब्द नहीं रचा जा सकता
जो मेरी आत्मा में एक लैंप—पोस्ट की तरह जले.
नहीं ,यह लैंप—पोस्ट
मेरी आंखों में नहीं,
मेरे घर की गली में जले.
जहाँ किसी एक सीलन भरे कमरे में
मेरी हमउम्र कम्मो
सिल्ली मशीन से लड़ते—लड़ते
वक़्त से पहले ही
अपनी आँखों की आधी रौशनी खो चुकी होगी
और मेरी माँ की तरह
एक दिये सी जल रही होगी
घर के अँधेरे को दूर करने का
यत्न कर रही होगी.
शहर—दर—शहर भटकने के बाद
गली के लिए इस प्रार्थना से
मैं इतना अभिभूत हो उठा
कि मैंने सोचा—
क्या आदमी लैंप—पोस्ट नहीं बन सकता?
और पिता! मैं तुम्हारे प्रति
सारी शिकायतों को भूलकर
गली के अँधेरे में लौट आया,
लेकिन जब—
मैं गली में प्रवेश-द्वार से दाख़िल हो रहा था
तो तुम—
गली के दूसरे छोर से बाहर जा रहे थे.
दिल्ली–दरवाज़ा
जंगल में आग लगने की ख़बर आई है
और सरकारी आदेश से
दिल्ली-दरवाज़ा बंद कर दिया गया है,
क्योंकि यह ख़बर भी आई है
कि आग जंगल से शहर की ओर बढ़ रही है.
वैसे तो इस तरह की आग जंगल में अक्सर
लगा करती है
और राजमहल ख़ामोश रहता है
सिर्फ़ दरवाज़ा बंद कर दिया जाता हौ
लेकिन इस बार
राहमहल से घोषणा हुई है
कि यह आग शहर से भागे कुछ ख़तरनाक
लोगों ने लगाई है
इसलिए यह आग ब्शहर की ओर बढ़ रही है
और शहर सुरक्षित नहीं है.
दरवाज़ा खोलो!
शहर के एक हिस्से से शोर दिल्ली दरवाज़े की
ओर बढ़ रहा है
दरवाज़ा खोलो!
हमें आग की ज़रूरत है
हमारे हिस्से के शहर में कभी आग नहीं जलती
सिर्फ़ राजमहल की आग की आँच पँहुचती है
इसलिए हमारी रोटियाँ कच्ची रह जाती हैं
हमारे कपड़े देर से सूखते हैं
हमारी नसों में दौड़ता ख़ून जम जाता है
हमारे ख़ून के ख़िलाफ़
यह राजमहल की एक साज़िश है
कि हमें आग नहीं आग का भ्रम दिया जाता है
और जब कभी आग जंगल में लगती है
तो शहर की सुरक्षा के नाम पर
शहर का दरवाज़ा बंद कर दिया जाता है.
और हम आग की प्रतीक्शामें
प्रार्थना की मुद्रा में
अपने ठंडे घरों में दुबके हुए
बुदबुदाते रहते हैं—
सिमसिम खुल जा सिमसिम खुल जा
लेकिन हमारी कच्ची रोटियाँ
अधसूखे कपड़े
और रीढ़ की हड्डियों में ठिठुरते डर—
साक्षी है:
किसी मंत्र से राजतंत्र दरवाज़ा नहीं खुलता.
अगर आग को शहर में लाना है
तो सिमसिम की मुद्रा को छोड़ना होगा
इस बंद दरवाज़े को तो़ड़ना होगा.
जन्म शताब्दियों वाला वर्ष
आज जब मेरे देश के संभ्रांत लोग—
गुरुओं महात्माओं की जन्म शताब्दियाँ मनाने के
धंधे में लग रहे हैं
मैं एक अदना आदमी की भूख का पर्व मनाने के लिए
अपने वक़्त की सबसे भद्दी गाली ईजाद करने में
व्यस्त हूँ.
वे लोग कितने ख़ुश हैं
जो अभी भी
ख़ूबसूरत लिपियों में
अपनी प्रेमिकाओं को पत्र लिखते हैं
या प्रियजनों को
नए वर्ष की शुभकामनाएँ भेजते हैं.
मेरे लिए भाषा का इस्तेमाल केवल
गालियाँ ईजाद करने के लिए
रह गया है.
गालियाँ उन संभ्रांत लोगों के लिए
जो ठीक दिशा में दौड़ते हुए
अदना आदमी का रास्ता रोकने के लिए
गुरुओं महात्माओं की अश्लील मूर्तियाँ गढ़ रहे हैं
किंतु भूख के पाँव इतने सशक्त होते हैं
मूर्तियाँ तोड़कर निकल जाते हैं
संभ्रांत लोगों के लिए गालियाँ छोड़ जाते हैं.
ज़ाहिर है गालियाँ गोलियाँ नहीं होतीं
फिर भी संभ्रांत लोग
इन गालियों से इतने पीड़ित हैं
कि अपनी सुरक्षा के लिए गोलियाँ जुटा रहे हैं.
पुल पर आदमी
आदमी की अरक्षा की भावना का
मूल स्रोत कहाँ है?
इसके बारे में आपको कोई मनोवैज्ञानिक
या समाजशास्त्री बेहतर बता सकता है.
कवि तो केवल
एक अरक्षित आदमी का बिंब पेश कर करता है.
लेकिन जब उसकी कविताओं का मूल्यांकन
पुलिस करने लगती है
और वह महसूस करता है
कि उसकी कविताएँ
किताबें
और प्रियजनों के ख़त तक सुरक्षित नहीं.
और वह अपनी ताज़ा कविता या दिनचर्या में
किसी फूल का नाम नहीं ले सकता
किसी नदी में तैर नहीं सकता
किसी शराबी की आँखों में झाँक नहीं सकता.
क्योंकि फूल बारूदी दुर्गंध फैला सकते हैं
नदी गुरिल्ला बन सकती है
लैंप-पोस्ट के नीचे खड़ा शराबी
शहर का सबसे ख़तरनाक आदमी हो सकता है
तब
वह ज़रूर एक समाजशास्त्री के पास जाता है
और एक विश्वास लाता है
कि कविता आदमी का निजी मामला नहीं
एक-दूसरे तक पहुँचने के लिए एक पुल है.
अगर पुल पर चलता हुआ आदमी ही सुरक्षित नहीं
तो पुल बनाने की क्या ज़रूरत है
वक़्त आ गया है
कि वही आदमी पुल बनाएगा
जो पुल पर चलते आदमी की हिफ़ाज़त कर सकेगा.
कविता निजी मामला नहीं है
कविता आदमी का
निजी मामला नहीं है
एक दूसरे तक पहुंचने का पुल है
अब वही आदमी पुल बनाएगा
जो पुल पर चलते आदमी की
सुरक्षा कर सकेगा.
सहयात्री
तुम्हारी दिशा उधर
मेरी दिशा इधर
इसी लिए तुम सोचते हो हम
दो अलग दिशाओं के सहयात्री हैं,
पर मेरा विश्वास है कि हम—
दो अलग दिशाओं की ओर
चलते हुए भी सहयात्री हैं
क्योंकि हम शब्दबद्ध है.
….शब्द जो,निरर्थ से
अर्थ तक की यात्रा में
दिशा का बोध देता है
दिशा को बदल सकता है
अब तो केवल देखना है
किसका शब्द
किसकी दिशा बदलता है
ओ मेरे सहयात्री
शब्दबद्ध !
इल्ज़ाम
सबसे पहले जो उँगली उठी
वह उस आदमी की थी
जिसने मुझे जंगल में लगी आग को दिखाया था.
और यह भी बताया था
कि यह आग किसने लगाई है
और एक जंगल से दूसरे जंगल तक
कितने ख़तरनाक रास्तों से हो कर आई है.
मैं जब रात के अँधेरे में
आग की ख़बरें शहर की दीवारों पर लिखता था
तो उसकी कविताएँ कंदीलों की तरह
अँधेरे रास्तों में जलती थीं.
मैं समझता था कि कविता लिखना
ख़बरें लिखने से बड़ा काम है
और वह आदमी सचमुच महान है
जो अपनी कविताओं में ख़तरनाक ख़बरें सुनाता है
और ‘अभिव्यक्ति के ख़तरे’ उठाता है.
हाँ, वह आदमी सचमुच महान है
जिसने मुझपर इल्ज़ाम की उँगली उठाई है
कि मैं डरपोक और कायर हूँ
कि मैं आग को शहर में
चोर दरवाज़े से लाया था
और किसान मज़दूर बस्तियों में पहुँचने से पहले
बड़े बाज़ार के ख़तरनाक रास्तों से हो कर नहीं आया था
मैं इतिहास के कठघरे में एक अपराधी हूँ
कि मैंने अपने आपको ख़तरनामक रास्तों से बचाया है
और एक बहुत बड़ी आग को
एक वर्ग के तंग घेरे में जलाकर बुझाया है
वरना यह आग—
बीच शहर में पहुँच सकती थी
और पूरे शहर का नक्शा बदल सकती थी.
उठी हुई उँगली का इल्ज़ाम मुझे मंज़ूर है
लेकिन जनाब!
आप जानते ही थे
मैं आग को इस वर्ग के लिए ही लाया था
और आपने भी तो इसका बहुत हिस्सा
कविता के चोर दरवाज़े से
अपने वर्ग के किए ही चुराया था.
मैंतो अब भी यह आग
अपने वर्ग के लिए ही लाऊँगा
लेकिन अब—
चोर दरवाज़ों से नहीं
ख़तरनाक रास्तों से हो कर आऊँगा.
मुक्ति
ऐ देश!
मैं अपनी मुक्ति की कविता
तुम्हें समर्पित करता हूँ.
तुमने ही मुझे दी थी—
मुक्ति की एक जादुई छड़ी
जो वक़्त के साथ—
एक दिन मेरी पैंट में अड़ी!
घर गया तो फटी पैंट देख
बिगड़ उठी लुगाई
(उस वक़्त,फटी पैंट के बारे में
एक कहावत की याद आई)
उपर से आफ़त यह हुई
कि रात भर बारिश आई
और सारा घर ढूँढने पर भी मिली न कोई रज़ाई.
ठिठुरती रात में—
बिना रज़ाई के,रामधुन ही काम आई
और उस रात—
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की बहुत—बहुत याद आई.
तब से मैंने छोड़ दिया घर-बार
छोड़ दी लुगाई,
नहीं, मुझे नहीं चाहिए कोई रज़ाइ.
अब रोटी कपड़ा मकान की मेरी कोई समस्या नहीं
मुझे तो मिल गई है एक नई ख़ुदाई.
अब देश की एक शानदार इमारत—
नाम योजना -भवन में रहता हूँ
न पीता हूँ ,न खाता हूँ
मज़े से आँकड़ों के चने चबाता हूँ.
मैं अपनी आँखें राष्ट्रीय नेत्र-कोष को दे आया हूँ
अब रामधुन गाता हूँ
और अंतर्दृष्टि से—
योजनाएँ चरने वाली, अपनी प्रिय बकरी का भविष्य देखता हूँ
जिसका दूध मुझे साठ करोड़ लोगों को पिलाना है.
जनतंत्र और मैं
मैं भी कितना भोला हूँ कि हर पाँचवें साल
एक परची देकर बहला लिया जाता हूँ
और वह परची मेरे पाँव से दिल्ली पहुँच जाती है
जो कालान्तर में मुझसे बहुत दूर चली जाती है
और मैं पीछे—
मतदाताओं की सूची में केवल एक क्रम संख्या रह जाता हूँ
एक क्रम संख्या जो
तीस वर्ष बूढ़ी मंगल व्यवस्था की प्रतीक है
और मेरे उज्ज्वल भविष्य की सूचक
नहीं, मेरा किसी भविष्य में विश्वास नहीं
मैं आज जीना चाहता हूँ
एक ताज़ा डबल रोटी—
और अच्छी शराब पीना चाहता हूँ
शराब!
नशाबंदी के दौर में शराब की बातें
मेरी परची मेरे ख़िलाफ़ घोषणा करती है
मैं अनैतिक हूँ,देश-द्रोही हूँ.
मोहतरमा आप ठीक कहती हैं
आपकी घोषणा बड़ी वाजिब है
किंतु मेरी मजबूरी—
मैं आदमी बनकर जीना चाहता हूँ
न कि एक क्रम संख्या
और जो कुछ भी चाहता हूँ कल नहीं
आज पीना चाहता हूँ.
शताब्दी का सबसे बड़ा जादूगर
नाम तो शायद उसका कुछ और होगा
लेकिन दोस्त प्यार से
या शायद ईर्ष्या से
उसे ‘तरक्की राम ‘कहते हैं
वैसे तो इस तरह के हर नाम का एक इतिहास होता है
लेकिन ‘तरक्की राम’ ने यह नाम
कुछ इन्हीं दिनों कमाया है
और इतिहास की जगह
एक ऐसा अँधेरा जुटाया है
कि हर आदमी को लगता है कि यह नाम असली है.
ख़ैर छोड़िए,नाम में क्या रक्खा है
‘तरक्की राम’ आदमी तो पक्का है.
उसके पास रुतबा है
बंगला है गाड़ी है
गो उसका कहना है
यह सब पापी पेट की लाचारी है.
वह तो बुद्धिजीवी है,सर्वहारा है
गौ—हत्या से लेकर वियतनाम तक के दुखों का मारा है.
क्या हुआ जो उसके पास हर दुनियावी सुविधा है
लेकिन ज़िंदगी तो उसके लिए एक दार्शनिक दुविधा है.
सुख-सुविधाओं और दु:ख-दुविधाओं के बीच—
भटकता ‘तरक्की राम’
सुखी और उदास रहता है.
उदास रहना उसका दर्शन नहीं
सिर्फ़ समकालीन साहित्य-बोध का तकाज़ा है.
इसलिए समकालीन बनने के लिए
पहले वह भीड़ इकठ्ठी करता है
फिर भीड़ में अकेला हो जाता है.
अकेलेपन के संत्रास से बचने के लिए
वह प्रधानमंत्री के पौत्र-जन्म पर कविताएँ लिखता है—
और उसे संत्रास की एक अचूक दवाई मिलती है—
पु र स्का र
जिसके सेवन से वह सिद्ध—पुरुष हो जाता है.
इधर कुछ दिनों से ‘तरक्की राम’ नक्सलपंथी हो गया है
और अख़बारों के दफ़्तरों में खो गया है.
उसने एक बयान में पत्रकारों को बताया है—
‘ मैं चैयरमैन माओ का सच्चा वर्कर हूँ
मेरी ज़िन्दगी हथियार बंद क्रांति को समर्पित है
हालाँकि मेरी अपनी कई ज़िम्मेदारियाँ है
मुझे कई रोग हैं बीमारियाँ है
मुझे लड़के—लड़कियों की शादियाँ करनी हैं
शादियों में गाड़ियाँ देनी हैं
गाड़ियों मेम पेट्रोल भरना है
आप तो जानते हैं आजकल—
पेट्रोल में कितनी मिलावट हो रही है
कामरेड !
मैम ज़िंदगी की लड़ाई में थक गय हूँ
घटिया पेट्रोल से गाड़ी चला कर
मुझे थकावट हो रही है.”
जिस तरह वक़्त के साथ
हर नक्सलपंथी अंडर ग्राऊंड हो जाता है
‘तरक्की राम’ भी अख़बारॊ में बयान देने के बाद
अंडर ग्राउंड हो गया है
शायद अपने बंगले के किसी तहख़ाने में खो गया है
अब तक आप समझ गए होंगे
‘तरक्की राम’
इस शय्ताब्दी का सबसे बड़ा जादूगर है
जो अपने जादू से
बड़े—बड़े करतब दिखा सकता है
मसलन, बवक़्ते ज़रूरत
गधे को बाप
और बाप को गधा बना सकता है.
दरया और नदी का खेल
देवेन्द्र सत्यार्थी के लिए
हर यात्रा से लौटने के बाद
देवेन्द्र सत्यार्थी कहता है—
कि इस बार भी इसका कोई सुराग नहीं मिला
यह तो एक शरारती नदी है जो रास्ता बदलती रहती है.
सत्यार्थी—
जो ख़ुद एक चालाक दरया है
नदियों के रास्ते ख़ूब जानता है
कई नदियाँ उसके कोट की जेब से हो कर गुज़रती हैं
जिन पर वह शब्दों के पुल बनाता है
लेकिन वह तो एक शरारती नदी है
चालाक दरया की पकड़ में नहीं आती
दरया दिशाएँ बदल—बदल कर भटकता रहता है
और जहाँ—जहाँ भी जाता है
रात—रात भर उसे
एक नदी के गुनगुनाने की आवाज़ आती है
कि जिस नदी को तुमने कभी नहीं देखा
क्यों उसका रास्ता ढूँढते रहते हो?
बदबू
युद्ध
एक शब्द—
भयावह बिंबों का स्रोत
जो मैंने—
अपने शब्द—कोश से काट दिया था
आज हवा में
सायरन की आवाज़ों ने लुढ़का दिया है.
युद्ध… .
अख़बार बेचने वाला लड़का चिल्लाता है—
—पिकासो नई गुएर्निका बनाएँगे
पाल राब्सन सैनिक—शिविरों में
शोक—गीत गाएँगे—
लाशों के अम्बार पर बिस्मिलाह ख़ाँ—
फौजी धुनें बजाएँगे.
और धीरे—धीरे—
चीज़ों के संदर्भ बदल जाएँगे.
अर्थात—
खेतों में बीज डालने वाले हाथ
नरभक्षी गिद्ध उड़ाएँगे.
अब खेतों से पकी हुई फ़स्लों की गंध नहीं आएगी
बल्कि एक बदबू —सी उठकर
नगरों—ग्रामों
गली—मुहल्लों
घर—आँगन
देहरी—दरवाज़ों तक फैल जाएगी.
बदबू…
मेरे तुतलाते बच्चे ने पहला शब्द सीखा है—
और उसके होंठों से
दूध की बोतल फिसल गई है.
युद्ध —
एक शब्द…
जो मैने—
अपने शब्द-कोश से काट दिया था
मेरे बच्चे के शब्द-कोश के—
प्रथम शब्द का मूल स्रोत है.
एक लड़ाई समानांतर
मैं कृष्ण की तरह झूठ नहीं बोलूंगा
कि हर मोर्चे पर मैं लड़ रहा हूँ
हर सिपाही के साथ मैं मर रहा हूँ
हर घायल का घाव मेरा है
किंतु यह सच है—
कि इस समय, सायरन बजने के बाद
जब चारों तरफ़ घुप्प अंधेरा है
मैं एक ऐसी लड़ाई लड़ रहा हूँ
जो हर युद्ध के समानांतर लड़ी जाती है।
इस बार कौरव—पांडव का युद्ध चार दिन पहले ही ख़त्म हो गया
बी.बी.सी. का एनाउंसर रत्नाकर भारती घोषणा करता है
और जी.बी. रोड के एक मकान की सीढ़ियाँ उतरते हुए
नरेन्द्र धीर कहता है:
‘हर युद्ध अपने साथ एक आदिम अंधेरा लाता है
दरअसल ब्लैकआउट—
आदमी की आदिम अंधेरों की ओर लौटने की
आकांक्षा का एक उपकरण है।
“…तुम मुझ से पूछोगे
वह औरत हिंदू थी या मुसलमान।
इस आदिम अंधेरे में
कोई औरत नहीं
कोई मर्द नहीं
सब जानवर हैं—
मादा या नर
चाहे वह जी.बी. रोड की रानी है
या राजमहल की
रज़िया सुलतान
या मोर्चे पर लड़ रहा कोई फौजी जवान।
“इस आदिम अंधेरे में
अगर कुछ मानवीय है
तो इन सीढ़ियों पर खड़े हुए
तुम और मैं
भय के एक सूत्र में बंधे हुए
अंधेरे के माध्यम से एक दूसरे को पहचानते हुए।
इस पहचान के लिए
इस अंधेरे का मैं एक मुद्दत से इंतज़ार कर रहा था
और इस पहचान के बाद मेरे लिए कहीं कुछ नहीं
कोई आकांक्षा नहीं
कि लौट आऊँ उज्जैन के विलास होटल में
जहाँ मैंने पहली बार अपने भीतर के
पशु—लोक का एक बिंब देखा था
और लौट जाऊँ शैली के पास
और उसके शरीर के खंडहरों में अपना नाम ढूँढूँ
जो अब किसी बूढ़ी शाख़ से लटका होगा
या किसी ज्योतिहीन आँख में अटका होगा
या किसी सूख गए झरने के मुहाने पर बैठा
पानी का इंतज़ार कर रहा होगा।
मेरे लिए अब पीछे लौटना
या आगे बढ़ना
दोनों निरर्थक हैं
मेरे पीछे भी अंधेरा है
मेरे आगे भी अंधेरा है
और सिर्फ़ इसी समय
इन सीढ़ियों पर
मेरे चारों तरफ़ रोशनी का एक छोटा—सा घेरा है।
मैं इस रोशनी में और गहरा उतरूंगा
और इस पशु—लोक के अंधेरे से छूट जाऊंगा
छूट जाऊंगा—
अश्वत्थामा की अर्ध—पाश्विक
और अर्द्ध—मानवीय चीख़ों से।
अश्वत्थामा—
जो इस बार सत्य के पक्ष में
पाण्डवों की ओर से लड़े हैं
और इस समय
चौदह दिन की लड़ाई के बाद
जब पाण्डव विजय—पर्व मना रहे हैं
तो वे शहर के सबसे बड़े हस्पताल के सामने खड़े हैं।
उन्हें बताया गया है
कि उनके घावों का उपचार
देश के किसी हस्पताल के पास नहीं।
… और उनकी मणि
जिसको पाने की ख़ातिर
वह इस बार पाण्डवों की ओर से लड़े हैं
सरकारी ख़ज़ाने में बंद हैं।
अश्वत्थामा लड़ाई जीतने के बाद भी हारा है
पाण्डवों ने एक बार फिर
उसे अर्ध—सत्य से मारा है।
“…तुम मुझ से पूछोगे
वह अर्द्ध—सत्य क्या है?
जबकि तुम विजयी पक्ष का पूर्ण सत्य भी जानते हो
लेकिन तुम इतने कमज़ोर और कायर हो
और आंतरिक सुरक्षा के कानून से इतना डर गए हो
कि अब तुम यहाँ से भागना चाहोगे।
तुम जाओ
तुम्हारे पास एक ख़ूबसूरत दुनिया का नक्शा है
एक टार्च है
एक विश्वास है
कि किसी दिन तुम उस दुनिया में पहुँच जाओगे
जहाँ रोशनी के बिंब तुम्हारा इंतज़ार कर रहे होंगे।
हाँ,
रास्ते में अगर तुम्हें कहीं अश्वत्थामा मिलें
तो उनसे कहना
कि शहर के एक नाजायज़ वेश्यालय की सीढ़ियों पर खड़ा
इस शताब्दी का एक संत
उसका इंतज़ार कर रहा है।
मेरे पास अश्वत्थामा के घावों का उपचार है,”
अश्वत्थामा—
अश्वत्थामा मुझे शहर के सबसे बड़े हस्पताल की सड़क पर मिलते हैं
और हस्पताल से आ रही घायल जवानों की चीख़ों के दरम्यान
वे मुझसे रज़िया सुलतान के महल का पता पूछते हैं
मैं उनसे कहता हूँ
कि उनका मति—भ्रम हो गया है
और इतिहास—बोध गड़बड़ा गया है
यह तो बीसवीं शताब्दी का आठवाँ दशक
और सुलतान रज़िया…?
वे अपनी अर्द्ध—पाश्विक हँसी हँसते हैं
और कहते हैं
कहते हैं
कि आंतरिक सुरक्षा के कानून के अंतर्गत
लोगों और चीज़ों के नाम बदल जाते हैं।
अर्ध—सत्य से जीती हुई लड़ाई का यह तकाज़ा है
कि अपनी मणि को सुरक्षित रखने के लिए
आदमी लोगों और चीज़ों के नाम बदल डाले
या गुरिल्ला-दस्तों के साथ जंगलों और पहाड़ों में भाग जाए।
सड़क
मैंने जब बाहर आने का फ़ैसला किया
तो अपने-आपको उसी परिचित सड़क पर खड़ा पाया
जिसके दोनों ओर—
पापलर के पेड़ों की कतारें थीं
एक छोर पर ‘नियोन’ बत्तियों से चमकती इमारत थी
जिसके एक कमरे में बैठे वे शराब पी रहे थे
और मेरी कविताओं की ज़िन्दगी जी रहे थे।
मैं जानता था—
वे ‘रम’ के तीन पेग ले चुके होंगे
और अब—
राजनीतिक बन्दियों की चर्चा से द्रवित हो
भारती तरफ़दारों* को बचाने की योजना बना रहे होंगे
साथ में फ़ैज़ की ग़ज़लें गुनगुना रहे होंगे।
मैं जानता था—
रम के पाँचवे पेग के बाद
भारती त्तरफ़दार का बीमार चेहरा
किसी गुदाज़—जिस्म औरत के चेहरे में बदल जाएगा
और उस कमरे का हर आदमी
उस जिस्म का क़िस्सा—दर—क़िस्सा दोहराएगा।
सड़क के दूसरे छोर पर
भारती तरफ़दार के चेहरे-सी बुझी हुई एक बस्ती थी
जिधर से हर सुबह
कुछ मद्रासी बच्चे
भिखमंगी के लिए आते थे
और अपने अधजगे चेहरों पर
ख़ौफ़नाक ख़बरें लाते थे
मसलन, बस्ती ज़िले के रामधन पर
कर्ज़ इतना चढ़ गया था
कि सूद मूलधन से दस दुना बढ़ गया था
और वह सूदख़ोरों के गुंडों से इतना डर गया था
कि कल रात शीत-लहर के बावजूद घर नहीं लौटा।
वैसे इस बस्ती में घर लौटना कोई ज़रूरी नहीं
सिर्फ़ बच्चे—
दिन भर की भिखमंगी के बाद
माँ—बाप की पिटाई के डर के बावजूद
घरों को इसलिए लौट जाते हैं
कि पापलर के पेड़ों के लम्बे साये
उन्हें जिन्न—भूतों की तरह डराते हैं।
मैं—
इन्हीं भुतैले सायों में चलता हुआ
एक जगमगाती इमारत के आकर्षण से
मुक्त होने की लड़ाई लड़ रहा था
और धीरे—धीरे
उस छोर की ओर बढ़ रहा था जहाँ मेरी कविता
और भारती तरफ़दार का चेहरा
गाली नहीं बनते।
…मेरे पीछे जगमगाती हुई बत्तियाँ थीं
और सामने कुछ टिमटिमाती हुई लालटेनें
लालटेनों की रौशनी के तले गहरा अंधेरा
एक ऐसा अंधेरा—
जिससे भागकर मैं सड़क पर आया था
और एक जगमगाती इमारत के सामने खड़ा हो कर चिल्लाया था
‘मुझे रोशनी की ज़रूरत है।’
इमारत से कई आवाज़ें एक साथ आईं
‘अंदर आ जाओ
यहाँ बहुत रोशनी है
तुम हमें कविताएँ दो
हम तुमें रोशनी देंगे.’
मेरे पास बहुत—सी कविताएँ थीं
उनके पास बहुत—सी सुविधाएँ थीं
मैं रम को रोशनी समझकर पीता था
और उस कमरे का हर आदमी
रम के तीसरे पैग तक
मेरी कविताओं के अंधेरे को जीता था
लेकिन रम का पाँचवाँ पेग…
मैं रम के पाँचवें पेग से बहुत डरता था
जब मेरी आँखों का अंधेरा
मेरी रीढ़ की हड्डी में ठिठुरने लगता था।
…जगमगाती बत्तियाँ बहुत पीछे रह गई हैं
मैं एक टिमटिमाती लालटेन के सामने आ खड़ा हो गया हूँ
और अपनी रीढ़ की हड्डी में
हरारत महसूस कर रहा हूँ।
भारती तरफ़दार= १९७५ में बहरामपुर की सेंट्रल जेल में कारावास भुगत रही एक क्रान्तिकारी महिला, जिसकी बीमारी की ख़बरें उन दिनों पत्र—पत्रिकाओं में छपी थीं।
एक सामरिक चुप्पी
जब मैं अपनी कविताओं के बारे में सोचता हूँ
तो मुझे कई हथियारों के नाम याद आते हैं
और जब मेरे सामने कोई ताज़ा संगतरे छीलता है
तो मैं अपने बचपन में लौट जाता हूँ
…बचपन में हमारे पड़ोस में
वीराँ नाम की एक लड़की रहती थी जो मुझे अक्सर कहा करती थी
कि मैं दुनिया का सबसे शरारती बच्चा हूँ
और ज़रूर किसी दिन
चांद पर रहने वाली बुढ़िया का चरखा छीन कर ले आऊंगा
और उसके काते हुए सूत से अपने धनुष की डोरी बनाऊंगा।
वीराँ संगतरे नहीं खाती थी
लेकिन उसके शरीर से ताज़े संगतरों की
ख़ुश्बू आती थी
और जेहलम नदी तैरकर पार कर जाती थी।
नदी के पार संगतरों के बहुत पेड़ थे
मैंने कहा न वीराँ संगतरे नहीं खाती थी
(या शायद खा नहीं पाती थी)
लेकिन वह उनकी मदद से मुझे गिनती सिखाती थी…।
…एक पेड़ पर दस संगतरे हों
तो दो पर बीस
तीन पर तीस
चार पर चालीस…
और चालीस की संख्या आते ही
वह खिलंडरी लड़की—
मुझे अलीबाबा के नाम से चिढ़ाती
और चालीस चोरों की कहानी सुनाती।
कहानियाँ माँ भी सुनाया करती थी
और जेहलम के बारे में एक गीत गुनगुनाया करती थी
जिसमें ताज़े संगतरों की ख़ुशबू
और चालीस चोरों का ज़िक्र साथ होता था।
माँ अब बूढ़ी हो चुकी है
और कहती है कि जेहलम नदी सूखती जा रही है।
माँ का विश्वास है
कि जेहलम को वीराँ का शाप है—
जिसके शरीर से ताज़े संगतरों की ख़ुशबू आती थी—
और जो एक रात इस नदी में डूब कर मर गई थी।
कहते हैं कि नदी में डूबकर मरने वालों की—
-
-
- आत्माएँ भटकती रहती हैं…
-
… नैनं छिन्दति शस्त्राणि,नैनं दहति पावक:
-
-
- आत्मा कभी मरती नहीं।
-
आत्मा मरती नहीं,शायद इसीलिए भटकती है।
और जब भटकती आत्मा की बात चलती है
तो सहसा मुझे—
नागार्जुन की एक कविता की याद आती है।
नागार्जुन…
जो आजकल कलकत्ता में रहते हैं
और लोगों से कहते हैं
कि कलकत्ता आओ—
मैं तुम्हें भटकती आत्माएँ दिखाऊंगा
—भय और आतंक की ऐसी कविता सुनाऊंगा
कि जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाएंगे
आँखों में दहशत के जंगल उग आएंगे।
कलकत्ता अब सिर्फ़ एक शहर का नाम नहीं
एक व्यवस्था का प्रतीक है
जिसे वनतंत्र कहते हैं
और जिसकी हिफ़ाजत के लिए
आदमीनुमा दरिंदे दनदनाते हैं!
नहीं मैं कलकत्ता नहीं जाऊंगा
नहीं देखूंगा किस तरह आदमी—
एक आतंक से दूसरे आतंक तक जीता है
पीठ पर लाठियाँ खाता है
आँखों से अश्रुगैस पीता है।
नहीं देखूंगा किस तरह—
झूठी मुठभेड़ों के नाम पर
नौजवानों की हत्याएँ होती हैं
और घरों में इंतज़ार कर रही माँएँ
आँसू सूख जाने के बावजूद रोती हैं…।
… मुझे फिर अपनी माँ की याद आती है
जो अक्सर मुझे—
नागार्जुन की कविता से मिलती-जुलती
एक सच्ची कहानी सुनाती है
जिसमें दो नौजवान बहनों को
एक कारख़ाने की भट्टी में
ज़िंदा जला दिया जाता।
माँ का कहना है—
कि दोनों बहनों के जिस्मों से
ताज़े संगतरे की ख़ुशबू आती थी।
मैं जब भी माँ से
उस कारख़ाने का नाम पूछता हूँ
तो हर बार वह यह कह कर टाल जाती है
कि इस तरह के कारख़ाने शहर में होते हैं।
मैं गिनती करने लगता हूँ—
… एक शहर में दो कारख़ाने हों
तो दो में चार
पाँच में दस
दस में बीस
बीस में चालीस, और
…स्मृतियों के दालानों में
भटकती हुई एक आवाज़ आती है
अलीबाबा…अलीबाबा।
चोर मटकों में बंद हैं
इन्हें गर्म तेल से ज़िन्दा जला डालो।
न…हीं…
मैं चीख़ना चाहता हूँ
चोर मटकों में बंद नहीं
तैयार दुश्मन की तरह सामने खड़े है
मैं और मेरे साथी इनसे कई बार लड़े हैं
लेकिन इनके हथियार
हमारे हथियारों से बहुत बड़े हैं।
मैं चीख़ता नहीं, चुप रहता हूँ
वीराँ ,तुम भी चुप रहो
और स्मृतियों की दालानों में लौट जाओ।
लेकिन नागार्जुन, तुम—
मेरी इस चुप्पी को ग़लत मत समझना
मैं तो अपने आपको
एक और लड़ाई के लिए तैयार कर रहा हूँ
और अपनी कविता से बाहर
एक सामरिक चुप्पी में
कविता से कोई बड़ा हथियार गढ़ रहा हूँ।