कभी लिखता नहीं दरिया, फ़क़त कहता ज़बानी है
कभी लिखता नहीं दरिया, फ़क़त कहता ज़बानी है
कि दूजा नाम जीवन का रवानी है, रवानी है
बड़ी हैरत में डूबी आजकल बच्चों की नानी है
कहानी की किताबों में न राजा है, न रानी है
कहीं जब आस्माँ से रात चुपके से उतर आये
परिंदा घर को चल देता, समझ लेता निशानी है
कहाँ जायें, किधर जायें, समझ में कुछ नहीं आता
कि ऐसे मोड़ पर लाती हमें क्यों जिंदगानी है
बहुत सुंदर से इस एक्वेरियम को गौर से देखो
जो इसमें कैद है मछली,क्या वो भी जल की रानी है
घनेरे बाल, मूँछें और चेहरे पर चमक थोड़ी
यक़ीं कीजे, ये मैं ही हूँ, जरा फोटो पुरानी है
लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
लाख चलिये सर बचाकर, फ़ायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं
उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
मौल* मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं (*shopping mall)
काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
एक ख़ुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
वक़्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
तेज-रफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं
सब कुछ होते हुए भी थोडी बेचैनी है
सब कुछ होते हुए भी थोडी बेचैनी है
शायद मुझमे इच्छाओं की एक नदी है
कहीं पे भी जब कोई बच्चा मुस्काया है
फूलों के संग तितली भी तो खूब हंसी है
गर्माहट काफूर हो गयी है रिश्तों से
रगों मे जैसे शायद कोई बर्फ जमी है
सतरंगी सपनो की दुनिया मे तुम आकर
जब भी मुझको छू लेती हो ग़ज़ल हुयी है
धुंध में लिपटा हुआ साया कोई
धुंध में लिपटा हुआ साया कोई
आज़माने फिर हमें आया कोई
दिन किसी अंधे कुएँ में जा गिरा
चाँद को घर से बुला लाया कोई
चिलचिलाती धूप में तनहा शजर
बुन रहा किसके लिए छाया कोई
दुश्मनी भी एक दिन कहने लगी
दोस्ती-जैसा न सरमाया कोई
पेड़ जंगल के हरे सब हो गए
ख़्वाब आँखों में उतर आया कोई
आज की ताज़ा ख़बर इतनी-सी है
गीत चिड़िया ने नया गाया कोई
दूसरों से हो गिला क्यों कर भला
कब, कहाँ ख़ुद को समझ पाया कोई
जीवन है इक दौड़ सभी हम भाग रहे हैं
जीवन है इक दौड़ सभी हम भाग रहे हैं
बिस्तर पे काँटों के हम सब जाग रहे हैं
कागज़ की धरती पर जो बन फूल खिलेंगे
वही शब्द सीनों मे बन कर आग रहे हैं
हर कोई पा ले अपने हिस्से का सूरज
कहाँ सभी के इतने अच्छे भाग रहे हैं
वो जीवन मे सुख पा लेते भी तो कैसे
जिनको डसते इच्छाओं के नाग रहे हैं
रंगों से नाता ही मानो टूट गया हो
अपने जीवन मे ऐसे भी फाग रहे हैं
सब सिंहासन डोलेंगे
सब सिंहासन डोलेंगे
गूंगे जब सच बोलेंगे
सूरज को भी छू लेंगे
पंछी जब पर तोलेंगे
अब के माँ से मिलते ही
आँचल मे छिप रो लेंगे
कल छुट्टी है, अच्छा है
बच्चे जी भर सो लेंगे
हमने उड़ना सीख लिया
नये आसमां खोलेंगे
सब आंखों का तारा बच्चा
सब आंखों का तारा बच्चा
सूरज चाँद सितारा बच्चा
सूरदास की लकुटि-कमरिया
मीरा का इकतारा बच्चा
कल-कल करता हर पल बहता
दरिया की जलधारा बच्चा
जग से जीत भले न पाए
खुद से कब है हारा बच्चा
जब भी मुश्किल वक्त पड़ेगा
देगा हमे सहारा बच्चा
बच्चा सच्ची बात लिखेगा
बच्चा सच्ची बात लिखेगा
जीवन है सौगात, लिखेगा
जब वो अपनी पर आएगा
मरुथल मे बरसात लिखेगा
उसकी आंखों मे जुगनू हैं
सारी-सारी रात लिखेगा
नन्हें हाथों को लिखने दो
बदलेंगे हालात, लिखेगा
उसके सहने की सीमा है
मत भूलो, प्रतिघात लिखेगा
बिना प्यार की खुशबू वाली
रोटी को खैरात लिखेगा
जा उसके सीने से लग जा
वो तेरे जज्बात लिखेगा
एक सम्मोहन लिए हर बात में
एक सम्मोहन लिए हर बात में
हर तरफ़ बैठे शिकारी घात में
आने वाली नस्ल को हम दे चुके
दो जहाँ की मुश्किलें सौग़ात में
बादलों का स्वाद चखने हम चले
तानकर छाता भरी बरसात में
आप जिंदा हैं, ग़नीमत जानिए
कम नहीं ये आज के हालात में
जगमगाते इस शहर को क्या पता
फ़र्क़ भी होता है कुछ दिन-रात में
मोम की क़ीमत नहीं कुछ इन दिनों
छोड़िये, रक्खा है क्या जज़्बात में
राग मज़हब का सुनाना आ गया
राग मज़हब का सुनाना आ गया
हुक्मराँ को गुल खिलाना आ गया
देखकर बाज़ार की क़ातिल अदा
ख़्वाहिशों को सर उठाना आ गया
सच को मिमियाता हुआ-सा देखकर
झूठ को आँखें दिखाना आ गया
ताश के पत्तों का है तो क्या हुआ
बेघरों को घर बनाना आ गया
कुछ भी कह देता मैं कल उस शोख़ से
बीच में रिश्ता पुराना आ गया
दूर खेतों में धुआँ था उठ रहा
और हम समझे ठिकाना आ गया
बर्फ़ हो जाना किसी तपते हुए अहसास का
बर्फ़ हो जाना किसी तपते हुए अहसास का
क्या करूँ मैं ख़ुद से ही उठते हुए विश्वास का
आँधियों से लड़ के गिरते पेड़ को मेरा सलाम
मैं कहाँ क़ायल हुआ हूँ सर झुकाती घास का
नाउम्मीदी है बड़ी शातिर कि आ ही जाएगी
हम रोशन किए बैठे हैं दीपक आस का
देखकर ये आसमाँ को भी बड़ी हैरत हुई
पढ़ कहाँ पाया समंदर ज़र्द चेहरा प्यास का
घर मेरे अक्सर लगा रहता है चिड़ियों का हुजूम
है मेरा उनसे कोई रिश्ता बहुत ही पास का
मौज दरिया की मेरे हक़ में नहीं तो क्या हुआ
मौज दरिया की मेरे हक़ में नहीं तो क्या हुआ
कश्तियाँ भी पाँव उल्टे चल पड़ी तो क्या हुआ
आसमाँ गिरने में लगता है कि थोड़ी देर है
पाँवों के नीचे से खिसकी है ज़मीं तो क्या हुआ
राजधानी को तुम्हारी फ़िक्र है, यह मान लो
राहतें तुम तक अगर पहुँची नहीं तो क्या हुआ
देखिए उस पेड़ को तनकर खड़ा है आज भी
आँधियों का काम चलना है, चलीं तो क्या हुआ
कम से कम तुम तो करो ख़ुद पर यक़ीं, ऐ दोस्तो!
गर ज़माने को नहीं तुम पर यक़ीं तो क्या हुआ