हाइकु
जिओगे कैसे
यदि मर ही गया
तुम्हारा मन ।
पुकारा तुम्हें
तो आवाज़ ही लौटी
तुम न आये ।
सरसों खिली
बही पीली नदी-सी
वसन्त आया ।
सुन री बेल
बढ़ना है तो रख
जड़ों से मेल ।
ओस के मोती
लील ही गई धूप
भोर होते ही ।
जलना है तो
ईर्ष्या में मत जल
दीये-सा जल ।
अकेले कहाँ
कारवाँ होगा पीछे
चलो तो सही ।
लिख रहा है
वो पसीने में नहा
कर्म की गीता ।
है चाहता बस मन तुम्हें
शीतल पवन, गंधित भुवन
आनन्द का वातावरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें
शतदल खिले भौंरे जगे
मकरन्द फूलों से भरे
हर फूल पर तितली झुकी
बौछार चुम्बन की करे
सब ओर मादक अस्फुरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें
संझा हुई सपने जगे
बाती जगी दीपक जला
टूटे बदन घेरे मदन
है चक्र रतिरथ का चला
कितने गिनाऊँ उद्धरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें
नीलाभ जल की झील में
राका नहाती निर्वसन
सब देख कर मदहोश हैं
उन्मत्त चाँदी का बदन
रसरंग का है निर्झरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें
किरन पंखिया भोर
फिर आ बैठी आज तुम्हीं-सी
किरण पंखिया भोर बगल में ।
चाय लिए गुनगुनी धूप की
बैठी मेरे पास पी रही
बीते हुए समय की बातें
एक-एक कर संग जी रही
वो भी सब कुछ याद दिलाया
जो बीता था ताजमहल में ।
तुम सुगन्ध का झरना हो यह
मैंने कहा, बड़ी शरमाई
फिर फूलों की बात चली तो
कह कर उठी, अभी मैं आई
और लपक कर ले आई, कुछ
फूल मोगरे के आँचल में ।
छीन लिया अख़बार हाथ से
बोली — इसे बाद में पढ़ना
झटपट ज़रा नहा लो देखो
है बाज़ार आज तो चलना
बर्तन ढेर पड़े हैं, पानी
अभी-अभी आया है नल में ।
सूरज जी
सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो
लगता तुमको नींद न आती
और न कोई काम तुम्हें
ज़रा नहीं भाता क्या मेरा
बिस्तर पर आराम तुम्हें
ख़ुद तो जल्दी उठते ही हो‚ मुझे उठाते हो
सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो!!
कब सोते हो‚ कब उठ जाते
कहाँ नहाते-धोते हो
तुम तैयार बताओ हमको
कैसे झटपट होते हो
लाते नहीं टिफ़िन‚
क्या खाना खा कर आते हो !
सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो!!
रविवार आफ़िस बन्द रहता
मंगल को बाज़ार भी
कभी-कभी छुट्टी कर लेता
पापा का अख़बार भी
ये क्या बात‚ तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो !
सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो !!
ओ री चिड़िया
जहाँ कहूँ मैं बोल बता दे
क्या जाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
चन्दा मामा के घर जाना
वहाँ पूछ कर इतना आना
आ करके सच-सच बतलाना
कब होगा धरती पर आना
कब जाएगी, बोल लौट कर
कब आएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
पास देख सूरज के जाना
जा कर कुछ थोड़ा सुस्ताना
दुबकी रहती धूप रात-भर
कहाँ? पूछना, मत घबराना
सूरज से किरणों का बटुआ
कब लाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
चुन-चुन-चुन-चुन गाते गाना
पास बादलों के हो आना
हाँ, इतना पानी ले आना
उग जाए खेतों में दाना
उगा न दाना, बोल बता फिर
क्या खाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
अमर कहानी
पड़ी चवन्नी तेल में रे, गाँधी बाबा जेल में
चले देश की ख़ातिर बापू
ले कर लाठी हाथ में
सारा भारत खड़ा हो गया
गांधी जी के साथ में
दिखा दिया कितनी ताक़त है सचमुच सबके मेल में
काट गुलामी की जंजीरें
रच दी अमर कहानी
अंग्रेज़ों के छक्के छूटे
याद आ गई नानी
हारी मलका रानी भैया मजा, आ गया खेल में
छोड़ विदेशी बाना, पहनी
सूत कात कर खादी
तकली नाची ठुम्मक ठुम्मक
बोल-बोल आज़ादी
आधी रात चढ़ गया, भारत आज़ादी की रेल में।
एक किरन
एक किरन सूरज की देती
है सारे जग को उजियारा
एक दीप माटी का जल कर
पी लेता सारा अँधियारा
एक बूँद सीपी में ढल कर
बन जाती है सच्चा मोती
एक सत्य में बड़े झूठ से
लड़ जाने की ताक़त होती
एक धरा है एक गगन है
एक सुनो ईश्वर कहलाता
मिल-जुल सबसे करो प्यार तुम
बड़ा एकता का है नाता
किरन परी
चम-चम, चम-चम, चाँदी जैसे
पंख खोल इक किरन परी
रात मुझे सपने में जाने
कहाँ-कहाँ ले उड़ी फिरी
चटपट आसमान तक जा कर
झट नीचे आ जाती थी
जहाँ घूमती वहाँ-वहाँ का
सारा हाल बताती थी
नदियाँ, नाले, पर्वत, झरने
घूमे धरती हरी भरी
चंदा मामा जी-भर देखे
लेकिन सूरज नहीं मिला,
अगर कहीं मिलता, उससे भी
बढ़ कर लेते हाथ मिला
खिल-खिल करती मिली चाँदनी
थी तारों से घिरी-घिरी
धऱती, अंबर, सात समंदर
उड़ते-उड़ते कहती थी
देखो-देखो, वहाँ दूर इक
जादूगरनी रहती थी
जो आलू से शेर बनाती थी
मिर्ची से सोन चिरी
टेसू माँगे
टेसू माँगे चना-चबेना
माँगे दूध-मलाई जी
गर्मी माँगे हवा सुहानी
सर्दी गरम रजाई जी
टेसू माँगे दीपक बाती
बाँटे ढेर उजाला जी
सूरज बाँटे ढेरों सोना
खोल धूप का ताला जी
टेसू गाये गीत रसीले
करता हल्ला-गुल्ला जी
जाने क्या-क्या गटक गया है
अब माँगे रसगुल्ला जी
मिट्ठू माँगे हरी मिर्च तो,
चिड़िया दाना-पानी जी
बाबा जी से बिल्लू माँगे
किस्से और कहानी जी
धूप
बिखरी क्या चटकीली धूप
लगती बड़ी रुपहली धूप
कहो कहाँ पर रहती बाबा
कैसे आती जाती है
इतनी बड़ी धूप का कैसा
घर है, कहाँ समाती है
बिना कहे ही चल देती, है
क्यों इतनी शरमीली धूप?
क्या इसको टहलाने लाते
सूरज बाबा दूर से
देर रात तक ठहर न पाते
दिखते क्यों मजबूर से
जब देखो तब सूखी, होती
कभी नहीं क्या गीली धूप
कभी पेड़ से चुपके-चुपके
आती है दालान में
और कभी खिड़की से दाखिल
होती लगे मकान में
आग लगाती आती, है क्या
यह माचिस की तीली धूप!
हम भारत माता के बेटे
हम भारत माता के बेटे, अपना देश महान।
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।
पहरा देता अडिग हिमालय, पावन नदियॉं यमुना-गंगा।
लालकिले पर, फर-फर फहरे, देखो अपना अरे तिरंगा।
विजयी विश्वे तिरंगा प्याहरा, अपना पावन गान।
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।
प्रेम-प्यार से गूँजें इसमें, वाणी ईश्व र अल्ला की।
काशी विश्वनाथ हर गंगे, शहनाई बिसमिल्ला की।
नानक, सूर, कबीर, जायसी की अपनी पहचान।
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।
हम सब इसके फूल महकते, यह है हम सबकी फुलवारी।
इस पर ऑंच न आने देंगे, देखो यह है कसम हमारी।
जग में उँचा नाम रहे, बस है इतना अरमान।
इसकी धूल हमारी रोली, यह अपना अभिमान।
नाना जी के साथ चलेंगे
नाना जी के साथ चलेंगे , चलो आज तो मेले में
नाना जी के साथ आज सब
बच्चे मेले जायेंगे .
मेले में जी , सारे बच्चे
चाट- पकौड़ी खायेंगे .
तुम भी चलना साथ करोगे क्या तुम बैठ अकेले में ?
हाँ, हर साल खिलौने वाला
आता शम्भू गेट पर .
वहां खिलौने मिल जाते हैं ,
भैया सस्ते रेट पर .
इक-दो लेंगे , हमें कौन से भर कर लाने ठेले में
छुट्टी नहीं मनाते
सूरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो!
लगता तुमको नींद न आती
और न कोई काम तुम्हें,
ज़रा नहीं भाता क्या मेरा
बिस्तर पर आराम तुम्हें।
खुद तो जल्दी उठते ही हो, मुझे उठाते हो!
कब सोते हो, कब उठते हो
कहाँ नहाते-धोते हो,
तुम तैयार बताओ हमको
कैसे झटपट होते हो।
लाते नहीं टिफिन, क्या खाना खाकर आते हो?
रविवार ऑफिस बंद रहता
मंगल को बाज़ार भी,
कभी-कभी छुट्टी कर लेता
पापा का अखबार भी!
ये क्या बात, तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो!
बोल समंदर
बोल समंदर सच्ची-सच्ची, तेरे अंदर क्या,
जैसा पानी बाहर, वैसा ही है अंदर क्या?
रहती जो मछलियाँ बता तो
कैसा उनका घर है?
उन्हें रात में आते-जाते
लगे नहीं क्या डर है?
तुम सूरज को बुलवाते हो, भेज कलंदर क्या?
बाबा जो कहते क्या सच है
तुझमें होते मोती,
मोती वाली खेती तुझमें
बोलो कैसे होती!
मुझको भी कुछ मोती देगा, बोल समंदर क्या?
जो मोती देगा, गुड़िया का
हार बनाऊँगी मैं,
डाल गले में उसके, झटपट
ब्याह रचाऊँगी मैं!
दे जवाब ऐसे चुप क्यों है, ऐसा भी डर क्या?
इस पानी के नीचे बोलो
लगा हुआ क्या मेला,
चिड़ियाघर या सर्कस वाला
कोई तंबू फैला-
जिसमें रह-रह नाच दिखाते, भालू-बंदर क्या?
मूँगफली
हमको खानी मूँगफली, पापा लाना मूँगफली,
भूल न जाना जब घर आना, लेकर आना मूँगफली!
देखो आज बड़ी सर्दी है, मुझको हुआ ज़ुकाम है,
मूँगफली को बाबा कहते जाड़े का बादाम है।
बिल्कुल महँगी चीज़ नहीं है, इसका सस्ता दाम है,
सर्दी को छूमंतर करती गरमी का गोदाम है।
बड़ा मजा आएगा पापा, तुम भी खाना मूँगफली!
बड़ी जेब के कोट-पैंट अब मैं पहनूँगा शाम को,
अपना हिस्सा खुद मैं लूँगा, तुम देना घनश्याम को।
एक बड़ा-सा झोला मम्मी, दे दो पापा राम को,
पापा जल्दी निपटा लेना दफ्तर के सब काम को।
करना नहीं बहाना कोई, भूल न जाना मूँगफली!
खत्म हो गए सारे पैसे
लल्लूमल का भागा घोड़ा,
घोड़ा सरपट दौड़ा-दौड़ा!
खड़ी रेल में हुआ सवार,
घोड़ा जा पहुँचा हरिद्वार।
हरिद्वार में मिला ना खाना,
घोड़ा जा पहुँचा लुधियाना।
लुधियाना में लग गई सर्दी,
पड़ी पहननी ऊनी वर्दी।
जैसे ठीक हुआ कुछ हाल,
घोड़ा जा पहुँचा भोपाल।
देखे वहाँ अनोखे ताल,
खाने लगा खूब तर माल।
घूमे था इक दिन बुधवारा,
घोड़े को बिल्ली ने मारा।
घोड़े का मुँह लटक रहा है,
घोड़ा तब से भटक रहा है।
खत्म हो गए सारे पैसे,
सोच रहा घर लौटे कैसे!
इतनी बात
मुन्ना बोला-ओ री अम्माँ,
मेरी गुल्लक में कुछ पैसे,
जिनको मैंने जोड़-जोड़ कर
रख छोड़े हैं, जैसे-तैसे।
इन पैसों से पहले सोचा
जाकर खेल-खिलौने लाऊँ,
फिर यह सोचा, इन पैसों से
डट कर चाट-पकौड़ी खाऊँ।
लेकिन फिर यह मन में आया
अम्माँ अपना रामलुभाया,
लगता है वह दुखी बड़ा है
कल कक्षा में खाली आया।
उसके पास किताब नहीं है,
तब यह सोचा, यही सही है,
उसको चलूँ, किताबें ले दूँ
इतनी बात आपसे कह दूँ!
बोलो शादी हो कैसे
दादी जी ओ दादी जी,
है गुड़िया की शादी जी!
कल गुड्डा एक आएगा,
गुड़िया को ले जाएगा।
संग बराती आएँगे,
खाना भी तो खाएँगे!
दादी दो कपड़े गहने,
जो मेरी गुड़िया पहने।
मेरे पास नहीं पैसे,
बोलो शादी हो कैसे?
अगर सूरत बदलनी है
अगर सूरत बदलनी है तो फिर ये सोचना कैसा
चलो आगे बढ़ो, पीछे को मुड़कर देखना कैसा
हवा आने दो ताज़ा, खोल दो सब खिड़कियाँ घर की
हवा पे सबका हक है, यों हवा को रोकना कैसा
ये बच्चे नासमझ हैं, बद्दुआ देना नहीं अच्छा
अरे छोड़ो मियाँ, इस उम्र में ये बचपना कैसा
ये दुनिया प्यार के बिन तो बड़ी बेकार लगती है
‘शलभ’ उट्ठो, यहाँ अब और ज़्यादा बैठना कैसा!
उसकी बातों पे
उसकी बातों पे ध्यान मत देना
हाथ उसके कमान मत देना
पंख जल जाएँ आ के सूरज तक
इतनी ऊँची उड़ान मत देना
जिसपे नादिम हों अपनी संतानें
ऐसा झूठा बयान मत देना
अपनी औक़ात भूल जाऊँ मैं
कोई ऐसा गुमान मत देना
बोल मीठे न बोल पाए दो
या खुदा वो जुबान मत देना!
कहीं से बीज इमली के
कहीं से बीज इमली के, कहीं से पर उठा लाई
ये बच्ची है बहुत खुश, एक दुनिया घर उठा लाई
दिसंबर छह से पहले प्यार से मिलती थी सलमा से
शहर को क्या गई, बूढ़ी बुआ तो डर उठा लाई
अमीरे शहर गाफ़िल ही रहा जिनकी ज़रूरत से
उन्हीं को रात में फुटपाथ के बिस्तर उठा लाई
किया क्या रात ने, हम पूस की सर्दी के मारे हैं
भला हो सुबह का, जो धूप की चादर उठा लाई
बड़ी मुद्दत से तनहा हूँ, पलट जिसने नहीं देखा
उसी की चीख अंदर से मुझे बाहर उठा लाई!
चेहरे पर चेहरा
चेहरे पर चेहरा मत रख
तू खुद को ऐसा मत रख
सब तेरी मुट्ठी में है
ऐसा तो दावा मत रख
तुझको मंज़िल पानी तो
कभी कदम आधा मत रख
काम चले, बस इतना रख
दौलत को ज़्यादा मत रख
बातें चाहे जैसी कर
लहज़े को तीखा मत रख!
जाने हैं हम
जाने हैं हम, तुम कैसे थे, क्या हो गए, बताना क्या
रस्मन आओ बोल-चाल लें, ऐसा भी घबराना क्या
तुम मुझसे पूछो हो, सब कुछ ठीक-ठाक है, बोलूँ क्या
क्या कुछ कितना टूट गया है, समझो हो, समझाना क्या
मिल जाएँ तो अपने दीखें, बिछड़ें तो बेगाने-से
हाथ मिला जो हाथ झटक लें, उनसे हाथ मिलाना क्या
मुद्दत हुई, किया था वादा आने का, पर नहीं आए
तुमने अपने जी की कर ली, छोड़ो भी शरमाना क्या
रिश्ता तो रिश्ता है, रिश्तेदारी दिल का सौदा है
दिल ही न माने तो फिर प्यारे, खाली आना-जाना क्या
उठो शलभ जी डेरा छोड़ो, क्यों मन भारी करते हो
अपनी साँस नहीं जब अपनी, फिर अपना-बेगाना क्या!
हर तरफ़ घुप्प सा
हर तरफ़ घुप्प-सा अंधेरा है
क्यों है, क्या ये भी तूने सोचा है
सबको अपना कहो, मिलो सबसे
ज़िंदगी चार दिन का मेला है
तू मिला, दिल गया, सकून गया
ये करिश्मा भी, यार, तेरा है
गुफ़्तगू कर मियाँ सलीके से
बदज़ुबानी कोई सलीका है!
मेढक की खाज
मेढक बोला- ‘टर्रम-टूँ
जरा इधर तो आना तू,
खाज़ लगी मेरे सिर में
जरा देखना कितनी जूँ!’
कहा मेढकी ने इतरा-
‘चश्मा जाने कहाँ धरा,
बिन चश्मे के क्या देखूँ
कहाँ कहाँ है कितनी जूँ!’
चले हवा
मेरी सुनती नहीं हवा, अपनी धुन में चले हवा
बाबा इससे बात करो, ऐसे कैसे चले हवा
जाड़े में हो जाती ठंडी
लाती कोट रजाई
साँझ सवेरे मिले, बजाती
दाँतों की शहनाई
सूरज के आकर जाने तक ही बस थोड़ा टले हवा
अफ़लातून बनी आती है
अरे बाप रे जून में
ताव बड़ा खाती, ले आती
नाहक गर्मी खून में
सबको फिरे जलाती, होकर पागल, खुद भी जले हवा
जब जब हौले-हौले चलती
लगती मुझे सहेली
और कभी आँधी होकर, आ
धमके बनी पहेली
मन मर्ज़ी ना कर अगर तो, नहीं किसी को खले हवा