मंगलाचरण
ओ ध्वनि के जीवन धन
तुम ही हो औंकार
अनुभूति के संवाहक हो
अंकनी के सृजनहार
भावों को साकार करो
ओ शब्द करो निर्माण।
हंसवाहिनी
ओ तेरे सान्निध्य में
ऋषिगण
ज्ञानमय दुग्धपान कर
कृतकृत्य हो
सुकृत सरोजमय
जलधार से सिंचित
उस पार बहते हुए चले गये
और, मैं तेरे अभाव में
शुष्क कंटमय वीरान सा
परिमित
अरू जीवन वाहक
बनकर रह गया
ओ रसातलवासिनी अब तो तुम
ऊर्ध्व गामिनी बन कर
पुनः बहो कपाल में
ओ माँ, मैं तेरा अर्चन करता
अपनी वीणा के तार से
वेद की ऋचाओं को
अनावरण कर दो
ओ हंसवाहिनी
अपने श्वेताम्बर से
जग को आवृत कर दो।
प्रातः की बेला में
प्रातः की बेला में
विश्राम कैसा ?
उठ, जाग
सूक्ष्म स्थूल की यात्राएँ कर
स्वयं को देख
अब चिंतन भी कर
क्षण-क्षण का शोधन कर
स्वरमय हो
देख तेरे अंतः में
कैसा संगीत छुपा है
सूरज की लालिमा से
मन वंचित कैसा ?
तेरा तन है साधन
साधना का अराधना का
एकाग्रचित हो स्थिर हो
कपाल का भ्रमण कर
बिन्दु में जा इन्दु को देख
अमृत की वर्षा से
तन वंचित कैसा ?
काल ही बदला सोचो
तुम नहीं बदले
काल ही बीता सोचो
तुम नहीं बीते
एकाकार करो स्वंय को
सर्वाकार करो
पहले बाँधो फिर मुक्त करो
अनुभव की चादर से
तन वंचित कैसा ?
तेरे भाव जहां जाते हैं
वही तुम्हारा आश्रय समझो
भाव तुम्हें देते हैं युक्ति
चाहो तो ले सकते हो मुक्ति
बाहृय क्रिया अंतः क्रिया को समझो
चित्त को स्वयं लीन करो
तू सबमे सब तुझमे
सत्ता तेरी अलग नहीं है
अंतस की भाषा से
मन वंचित कैसा ?
स्वयं हेतु प्रतिकुल कार्य
देता पीड़ा पराड्मुखता
होता दु:ख गहन औरों को भी
सहते कातर जब हो विषमता
सुख चैन सदा धारण कर
त्याग विषाद प्रवरता से
तन,मन अरू विद्या से
उपकार करे तत्परता से
उठ जाग भंवर में भ्रमित क्यों ?
सागरजल से मन वंचित कैसा ?
उल्लास भरे क्षण
बीज है मौन, वृक्ष बनने तक
विकास की यात्राएं
तय हो चुकी
मिट्टी के सान्निध्य को पाकर
उसके ससंर्ग से
प्रस्फुटित होगा ही
स्पंदन की सारी क्रियायें
गति देती है
उल्लास भरे क्षण कण-कण
बीज है मौन वृक्ष बनने तक।
निर्जन वन में भी
सृजन की क्षमता
भूल नहीं, तप है उसका
उत्थान के क्रम में
पा लेगा थाह
जीर्ण नहीं उसकी क्षुधा
उल्लास भरे क्षण कण-कण
बीज है मौन वृक्ष बनने तक।
कल्पना के प्रवाह में
खिलने की चाह में
प्रगति के पथ पर
मिटना चाहता है
मिट्टी की गोद में रहकर
जागना चाहता है
उल्लास भरे क्षण कण-कण
बीज है मौन वृक्ष बनने तक।
सुगम नहीं पथरीले पथ हैं
कोमल स्वयं किन्तु गदगद् हैं
ठांव ले छांव ले पथिक
ऐसा मन है
पुष्पित तन हो तो सुगन्धित बयार
ऐसा मत है
उल्लास भरे क्षण हर कण
बीज है मौन वृक्ष बनने तक।
रत्र जड़ित सी लथपथ डाली
जो देगी पशुआें को चारा
फल परिपक्व सोने सा
मानव को देगा मुदुता
हाथ फैलाये सा अडिग दिखेगा
मानो कहता हो प्रभु दो
जग सारा मेरा
उल्लास भरे क्षण कण-कण
किन्तु अभी है मौन वृक्ष बनने तक।
काट न दे छांग न ले कोई
अश्रुकण भी छुपाया होगा क्या यही सोचकर ?
आशाओं का ज्वार रूकता कहां है ?
मानो कहता हो वह
मर मिटूंगा स्वधर्म में
जीवित रहा तो आश्रय दूंगा
धूप छांव वर्षा तूफान में
खिलता रहूंगा
विकट वीरान में
उल्लास भरे क्षण कण-कण
बीज है मौन वृक्ष बनने तक।
मां (1)
ओ माँ ! तू देती
आकार गर्भ में मास पिण्ड से
मैं तो सूक्ष्म कीट बस
तेरे स्तनों से निकली
दुग्ध-धार जीवन का सार
स्वर्ग को क्यों खोजूं भला
राजे-महाराजे
राम-रावण तक
इस धरती पर
पैर नहीं रख पाये तुझ बिन
ओ जन्म से लेकर
सम्पूर्ण विकास तक की यात्राएं
मेरे अन्तः करण को पवित्र करती
ओ माँ !
तेरे चरण कमल का अर्चन
ओ देहदात्री !
तेरे आंचल में खेलूं
शिशु बन करूं स्तनपान
अहा, वह मोक्ष स्वरूपक्षण
क्षणिक क्यों ?
ओ माँ तेरा सात्रिध्य
बैकुण्ठधाम।
मां (2)
ओ माँ,
जगत्तारिणी माँ
तू तरूवर सी छाया
तेरे आंचल में
विश्व समाया
ओ माँ
तू प्रकृति की आद्या शक्ति
तेरे ही कारण
सम्पूर्ण प्राणी
जीवन पाकर
पृथ्वी के कण-कण में आश्रित
ओ ममतामयी, निजस्वार्थ को भूल
परताप से पीड़ित
परसुख से हर्षित
तुम जीती हो
ओ माँ
मैंने देखे तेरी आंखों मेें
स्नेहिल कण।
मां (3)
ओ माँ, तुम कहां हो
तुम्हारी याद
क्षण-क्षण की स्मृति
तुम तो त्याग कर
चली गयी
जीवन में उत्साह भर
रूदनकणों को
आत्मसात् कर
मुझ कीट को
रक्तमांस से सिन्चित कर
आंचल में छिपा
पालन कर गयी
स्नेह पूरित छाया तेरी
तेरा आचरण
मेरा आवरण बनाकर
प्रस्थान कर गयी
वृद्धाओं में तेरी प्रतिमूर्ति
यौवनाओं में तेरी सुन्दरता
बालिकाओं में कोमलता
तुम्हारी ही पाता हूँ
ओ माँ तुम जहां भी हो
मेरे नजदीक
प्रत्येक नारी में विराजमान
तुम ही हो।
सोने का कण
भारत की मिट्टी में
सोने का कण है
इस कान्तिमयी रज से
कौन अभ्रिप्रेरित नहीं है
कौन बैठा है
आंखे मूंद
अहा स्वर्णिम आभा में
बैठा हूं मैं
मेरी आत्मा को
जागृत करने वाली
तुम वंदनीया हो
मेरे जन्म जन्मातर के
पापों को नष्ट करने वाली
तुम प्रसादमयी हो
तुम्हारे प्रभाव से
अज्ञानता फूहड़ता लुप्त हो जाती है
तुम्हारे ज्ञानमयी संस्कारमयी पुञ से
अन्तस् की कालिख
सुनहले रूप को प्राप्त कर
समस्त ग्रन्थियों को
खोलने मेें समर्थ होती है
हे अमृतमयी
तुम ऋषियों की वाणी हो
तपस्वियों की तपस्या का
फल हो
तुझ में कितने ही महापुरूष
बालक बन खेले है
कितनों को संवारा है तुमने
हे कल्याणी
तुम मोक्षदायिनी हो
अहा, इस धरती में
रत्नों के तन्तु हैं
अये पुण्यमयी माँ
मैं मिटना चाहता हूं तुझमें
खिलना चाहता हूं
अरू रोना बिलखाना भी चाहता हूं
तेरे आंचल में
जिसे खुला रखना सदैव
मेरे लिए।
मैं चेतन रह जाता
तुम उभरते हो कभी-कभी
तब मेरे अन्तस को
स्पर्श कर
एक नया स्वर्ग रचते हो
जब सत्व के अत्यन्त प्रकाश में
मेरा चित्त मेरी आत्मा को
उजागर करता
तब रोग द्वेषादि वृतियों से रहित
केवल मैं अपने में स्थित
परम तत्व का आभास करता
मेरे चारों ओर
कोई भी पार्थिव नहीं होते
किन्तु कुछ ऊर्जा मानो
मुझे उन्मुक्त अनन्त आकाश में
ले जाती प्रतीत होती
मेरे शरीर के कोई भी अड़
मुझे नहीं भासते
मैं केवल चेतन रह जाता
मैं इन्द्रियों से दूर
अलौकिक किसी मन्दिर में स्थित होता
सच पूछो तो
ये शब्द भी कल्पित हैं
उस क्षण के लिए।
परम नेत्र
मेरे परम नेत्र
जिसका प्रकाश
अन्तः की ओर
प्रविष्ट कराता
सुगम दण्डियों के सहारें
पदचाप
राह दिखलाते
चरण की शरण में
मैं सहजता से
अनुगामी बनता
कभी ठहरे जाता
तब एक विशिष्ट
मादक द्रव्य सा झरकर
मुझे उन्मुक्त
गगन की सैर करवाता
मैं विलीन
मुक्त विरत सा
स्वाद विशेष पाता
करता स्नान
अमृत जब झरता
नृत्य करता/उछलता/गद्गद् होता
सर्वत्र फैल जाता
मैं विराट बन जाता।
देव
हे देव
मैने तुम्हारे लिए
मन्दिर का निर्माण कर लिया है
मेरे ह्रदय के अन्तः स्थल को
कंकड़-पत्थर से विहीन कर
समतल कर
शुद्ध आहार विहार से निर्मित
सप्त धातुओं से
शरीर की समस्त कोशिकाओं की
दीवारों पर लेपन कर लिया है
मैने साधना रूपी नाड़िका यन्त्र से
रक्तकणों को
ऊर्ध्वगामी विधि से शोधन कर
समस्त वृत्तियों का परिमार्जन कर लिया है
अतः मेरा यह अंतः
तुम्हें स्वतः ही पुकारता है
मैंने कल्पनारूपी औजार से
एवं भावनारूपी मिट्टी से
मेरे अन्तः करण में
तुम्हारी मूर्ति को आकार दिया है
हे देव !
तुम्हारी उस मूर्ति को
मेरे शरीर में
जलरूपी प्रवाहित रक्त से
अब सिच्चित करूंगा
किन्तु उसे कभी भी
अनावरण नही करूंगा
मेरे प्रभो
अये, मेरे प्रभो
मैं आया था
श्वास चलती देह को छोड़
तुम्हारे मंदिर में
किसी ने देख लिया
मैं अनमना सा
निकल गया तुरन्त
क्योंकि
मेरी देह से सम्बन्ध जो था
गहराई में जाऊंगा
तब आऊंगा पुनः
बतियाऊंगा देर-देर तक
उससे पहले
आत्मा को जगाऊंगा
तभी तो कर पाऊंगा प्रयास
देर सबेर मेरी सारी विधियां
करेगी मेरा स्वागत
आनन्द की सीढ़ी चढ़
पहले पाठशाला जाऊंगा।
मेरा कृत्य
मेरा कृत्य
मेरी जीवात्मा का निर्माता
बंधन का कारण भी
सत्व रज तम में स्थित
मैं सुखःदुखादि कर्मो को भोगता
अनेक तत्वों से युक्त
नाना प्रकार की वृत्तियों में लिप्त
विचारों का पुलिंदा ही मानों
आत्मा का अचल ऊर्जा पाकर
स्वंय की स्वतन्त्र सत्ता समझ बैठा
अतः मोक्ष का द्वार सील बंद है
मेरा कृत्य
नित-नूतन सर्जन कर
क्रियाशील कर
संताप हर धर्म धर
धरती में छूपे दरिद्र कण दूर कर
क्षुद्र स्वार्थ का शमन करें
त्याग निष्ठा समभाव ही सुखसागर
मांज ले अन्तः को
जो आधार स्थल है
मुक्त होगा ही
वह जांच ले पहले मुझ स्वयं को
बतलादे मैं कैसा निर्मित हो रहा हूं !
केवल तुम ही
जहां कहीं भी
पल्लवित पुष्पित हो जीवन
आच्छादित तुम से
हो चाहे
उज्जवल सूरज हो
रश्मि से
नित्य चराचर जग में
दीनहीन के
रिक्त स्वरों में
करूणा वात्सल्य की
प्रतिमूर्ति में
सजग सहज सा
रोपित कुछ, याचक की याचना में
दाता की उदारता में
जल-थल-नभ में
कोटि-कोटि के जन जीवन में
श्वास—प्रतिश्वास में
मैं निश्चित निश्चल
सनातन सत्य
क्योंकि मेरे अन्तः में भी तो
हे देव ! तुम ही हो
केवल तुम ही।
भ्रम से उपज
कल्पनाओं के
प्रांगण में
सुख-दु:खादि
पाटों के मध्य निर्वाह
कहने को छोर
जीवन की डोर
जो मुझ स्वयं के
भ्रम भ्रमर से उपज
किस्ती तो
रूकी हुई है
जलमग्र तो मैं हूं
जो घटित होता है
स्वीकार करता हूं
मानो भोग विलास की राह में
ठगा जाता रहा हूं
बुद्धि के मध्य
कोई विषैला सांप बैठा है
जो पनपने नहीं देता
धीरे-धीरे
केन्द्र बिन्दु ?
अधोमार्ग पर
गति कर रहा है
समय निकल रहा है।
अहित की सोच
अहित की सोच
खरोंच देती
मेरे ह्रदय की धमनियों को
दूषित सा वातावरण
बनाता मेरे अन्तर में खाई
पनपते उद्वेग
कुटिल चेष्टाएं
द्वेषयुक्त चित्त
किसी उघेड़ बुन में
भागता रहता दिन रात
तुच्छ बातें भी
बहुत बड़ी लगतीं
औकात से परे
अस्तित्व समझता
क्योंकि अहम् के रहते
स्वयं को भी नहीं पहचान पाता
उस वक्त।
अये वेदने
अये वेदने
तुम देय हो
तेरे कारण ही पाया
धरती का प्यार
तुझसे ही होता
मानव में विस्तार
अये वेदने
मै ऋणी हूं तुम्हारा
मेरी ह्रदय वाटिका में
तुुम्हारा वास
कितना उपकार
तुम प्रेरणा पूज
मेरे सृजन चिंतन
अरू अभिव्यक्ति की
तुम्हारा अहसास
मुझे पूर्णता देता
स्मृतियों से उबारकर
मुझे में निरन्तरता
भरने वाली
तुम प्रसाद हो जीवन का
तुम प्रसाद।
स्त्रोत भरे
हे मेरे देव !
मुझ से अब प्रेम की रसधार
प्रस्फुटित नहीं होती
क्योंकि मेरे अन्तः में
ढोल नगाड़े एवं घण्टियां
मौन पड़े हैं
जिसकी जगह बंदूक-मिसाइल बम की ध्वनि
विकसित होती रहती है
तेरी प्रतिमा की आभा
धुंधली दिखलाई पड़ती है
मेरे ह्रदय से दया के स्त्रोत
सुख चुके हैं
तेरी मुर्ति पर दुग्ध-धार से
सिच्चित करूं भी तो कैसे ?
हे प्रभो
रसघार धरो, स्त्रोत भरो
पुनः प्रवेश करो
मेरे अंतः की उस मूर्ति में।
स्वयं को परखो
बीज में वृक्ष का
निराकर रूप
प्रस्फुटन के पश्चात्
साकार रूप
अरू फलित होने पर
अनेकानेक होना
कल्पना नहीं
अद्वैत से द्वैत होने का
करामाती खेल
किसने नहीं देखा ?
साकार-निराकार की अवधारणा
कितनी हास्यास्पद है बंधु
परमात्मा के लिए
नियम बनाने वाले
अपनी औकात तो देखें
जानना नहीं जानना
अच्छी तरह जानना
महत्वपूर्ण नहीं
वह है इतना समझो
उससे पहले
स्वयं को परखो।
जीवन का यथार्थ
वायु के संसर्ग से
रेत के आंचल में
कुछ रेखाएं
स्वतः ही उभरती चली गयी
अरू बिखर गये कण
अहा, मैंने देखा जीवन का यथार्थ !
आड़ी-तीरछी/आधी अधूरी सी पटियां
मानो कुछ कहती हो
जिस पर कुछ लिखने का प्रयास
होता रहा होगा
अनुभव की झूठी आड़ में
गंवा दिया जीवन
वायु को कहां डांट पाती
जब स्वयं को भी नही रोक पाती
पहाड़ सा दिखने की कला तो सीख ली
काश पहाड़ बन पाती
उसके सम्पर्क से
अन्तर को मांज पाती
कण-कण में छुपे लौह तत्व को
जब जान पाती/तब चंचलताओं को छोड़
चित्त में ठहर पाती
वायु के संसर्ग…।
सोचो
उभरती हुई
एक सुनहरी कल्पना
अन्तर मन में
हर श्वास के स्वर में
पलता स्वप्न
धड़कन चलती
दृढ़ राह के आधार पर
लौह पथ गामिनी सी
कंकड़ पत्थर के पठार पर
जीवन की गति
तीव्र तराश पर
गांव, राष्ट्र
पलता विभिन्न आकार प्रकार पर
सरसती विकटता के मध्य
ज्ञान गार्गी
नवंरग लिए नर नीरोह सा
दिवाल के पीछे भी
कोई श्वास लेता
गुनगुना रहा
यापन करता
क्षण-क्षण तुम्हारी तरह
सोचो !
निराधार
धूलि तुम्हारा दुःसाहस
निराधार !
पराग तो उड़ेगा
फलेगा जग में
सुगंधित कर देगा
वायु को नभ से
रजनी तुम्हारा सामर्थ्य
केवल है भूल
सूरज तो उगेगा नभ से
कर देगा
पृथ्वी को स्वर्णिम
उसकी आभा से
होगा उजियाला
भोर का उजास
मिटा देगा
अन्तर के कलुष को
अरू भर देगा उत्साह
ग्वाला उठेगा
दुहेगा गौ को
तब बछड़ा उत्कण्ठा से
भर जायेगा
धूलि तुम्हारा दुःसाहस
निराधार।
उस पार
स्वयं चाहकर भी
मुक्त नहीं होे सकोगे
वेगों को
रोक सकोगे तो कैसे ?
जात पात
धर्म-सम्प्रदाय के चलते
वृत्तियों शांत होगी कैसे ?
मै तो हूं ही नहीं
जब से यह मंत्र जाना
मानो जाग गया तब से
अतः रूपान्तरण की क्रिया कैसी ?
अब तो निर्माण की प्रक्रिया
मानो दुग्ध की दरिया
अन्तर्धारा प्रस्फुटित होगी ही
सर्वात्माओं का
आत्मसात् कर
बयार से बतियाऊंगा
सिच्चित कर ले तू भी
तथ्यों को
अन्तर्विकसित
अभ्यन्तर तर
तरू तिक्त तार-तार सा मधुर
तब मंथन कैसा ?
सभी ग्रन्थों का
अनुसरण कर लें
तू जायेगा उस पार
जहां धर्म है केवल
जिसका नाम नहीं
हां केवल वह।
स्वयं को मिटाओ
तुम्हें तिरस्कृत कर
अपना लक्ष्य
पूर्ण नहीं कर पाऊंगा
मेरे शालीनता पूर्वक
व्यवहार को गाली मत दो
परोपकरमयी दृष्टि को
कमजोरी मत मानो
मन की पीड़ा
प्रेम का परिचायक है
जिसे स्वाभिमान कहते हो
वह विकार है
ह्रदय में दीप जल रहा है
शुद्ध ऑक्सीजन का
प्रवेश होने दो
अंतः के कार्बन को
बाहर कर
धैर्य से श्रास को
केन्द्रित कर
कहीं खो जाओ
शून्य बन
सूर्य बन जाओ
प्रकाश में स्वर्ग है
जल जलाकर हो जाओ।
हे मेरे अन्तः
हे मेरे अन्तः
तुम हँसो
आनंद के छोर का स्पर्श कर
जो अनन्त है
उसे पकड़ कर झूलो
झूलते-झूलते बयार भान होगी
तब सारी वासनाएं/क्षीण हो
तुम्हारे लिए राह प्रशस्त करेगी
एक अंधकार
प्रकाश के सात्रिध्य में
धुंधला पड़ता हुआ
तीव्र ज्योति पुञ के रूप मंे
प्रस्फुटित होगा ही
जो तुम्हें दिखलायेगा
तुम्हारी ही अंतर देह को
हे मेरे
ह्र्रदय एवं मस्तिष्क के मध्य
नासिका के अग्रभाग पर
त्रिकोण बना लिया है तुमने तो
इसी अथक प्रयास से
मधुर चाँदनी में बहकर
निकल जाओगे पार्थिव देह से
तब देख सकोगे तुम सर्वत्र।
मेरी संगिनियों
अये, मेरी संगिनियों
मैं तुम्हारे स्वरूप को जानता हूं
मेरी यह देह
तुम्हारी आश्रय दाता जो है
तुम मेरे भोग का साधन भी हो
मेरा यह मन
तुम्हारा सहायक जो है
मैंने तुम्हारे पाशों में पड़कर
स्वयं को भूला दिया है
मै तुम्हारे कृत्यों से
अनभिज्ञ नहीं हूं
तुम मेरे शरीर का क्षरण कर
समस्त वृत्तियों को जागृत कर
मेरे अन्तस् का भक्षण कर
मुझे रौंदती हो
हे इन्द्रियों तुम देखना
जब पूजन होगा मेरे अन्तर में
तब दूर चले जाने को मजबूर
ढोल शंख-नगाड़े घण्टियों की ध्वनि
असहनीय होगी तुम्हारे लिए।
उस ओर
असंख्य
शुक्राणुओं के मध्य
भागते-भागते
मां के गर्भ में
स्थान पा लिया था
जीवन मिला
धन्य हुआ
क्रमशः सांसरिक गतिविधियों में
प्रवाहित सा
असमंजस की स्थिति में
चिंतन करता
चोटें खाता
कभी मध्य मझधार में
सून सा
टकटकी लगाये
अर्थविहीन
एक जैसा प्रतिदिन
आदत से लाचार
प्रवृत्ति भागने की अब भी
पा न सका पार
वही किस्ती
जो भ्रमण करती है केवल
झेलता हूं निरन्तर उष्णधार
भोगवृति में रत
जीवन यापन
उदरपूर्ति हेतु
काश खोजबीन की
नवीनता में
होता उत्कण्डित
अंतस् को तापता
मस्तिष्क परोपकरमय हो
ठहर जाता
स्वयं में स्थित हो
वृत्तियों से मुक्त
निकल जाता
भंवर से उस ओर।
जंग खाया लौह
जंगखाया लौह
कितनों की जिंदगी
संवार देगा
वायु के संसर्ग से
जल के स्पर्श से
वह उदारीण मात्र ही सही
कठोरता की अभिव्यंजना को
भले ही त्याग दिया हो
जो लगा था
उतार दिया हो
अपने कार्य के प्रति
उदासीन नहीं
किसी भी तरह
शर्मसार नहीं
समय के वेग ने
कर दिया जर्जर
किन्तु अब निर्झर
समय गंवाता नहीं
तभी तो वनज
कम होता नहीं
सूरत पर मत जाओ
अनुभव की चादर में लिपटा वह
भले ही शरीर से
असमर्थ सा
दवा के रूप में
पेट में जाकर ज्वार देगा।
स्वयं का अस्तित्व खो
परोपकारमय हो
एक दिशा देगा
जंग खाया लौह
कितनों को तार देगा।
कलम के नाम
एक प्रेम भरी पाती
कलम के नाम
जो लिखता हूं
सहर्ष स्वीकार करती है
जो चिंतन देता हूं
सहती है चुप-चाप
ना विरोधाभास
ना छुपाव
मेरे कथ्यों को
कैनवास पर उकेरती है
मेरे विचारों को
शब्दों के माध्यम से
संवारती है
मेरी संवेदनाओं को
समझती है
देती है शकून
मेरी शर्ट की जेब में
देखने वालों को
लटकती प्रतीत होती है
मै तो रखता हूं उसे
ह्रदय के समीप में
मेरी तो
वही तलवार
वही ढाल
वीणा, सुर,ताल
मन झंकृत तो
बज उठती है
प्रतिकार हो तो
खनक उठती है
मेरे सामने
तुला बनकर
तोलती रहती है
मेरी भावनाओं को हर क्षण।
पुस्तक
पुस्तक तुम
जीवन की गहराइयों को
शब्दों के माध्यम से
आत्मसात् कर्
संजोये रखती हो
सजने संवरने के लिए
कवि की लेखनी के माध्यम से
तराशी जाती रही हो
छंद अलंकारादि से
सुसज्जित हो
एक दुल्हन की तरह
स्वीकारी जाती रही हो
जब तुम बोलती हो
परकाया प्रवेश कर
तब नये विचार को
नये अनुभव के साथ
जन्म देती रही हो
कहने को कागज के पृष्ठ हो
पारखी जानता है
कितनी पुष्ट हो
पन्ने पलटते हैं जब
कुछ नया घटता है
समाज बदलता हो या नहीं
किन्तु पाठक संभलता है
भीड़ में भटके कुछ लोग
लिख देते हैं काला अध्याय,
अहम् के पूजारी
मिटा देना चाहते हैं
सत् को
किन्तु वह मरता नहीं
मौका पाकर
अमर बेल की तरह
सूख कर भी
वर्षाती मौसम में फूटता है
और तुम्हारे अस्तित्व को
बनाये रखता है।
धाराएं
वो धाराएं
ऊपर से सीधी
ह्रदय की ओर
बहती हुई
मेरे मध्य में आकर
ठहर जाती
अरू परिशोधित होकर
पुनः ऊर्ध्वगामी बन
मस्तिष्क से
प्रस्फुटित हो
बाहर प्रवाहित होती
मेरी कलम के माध्यम से
कैनवास पर आकर
ठहर जाती।
अश्रु कणिका
अश्रु कणिका
तुम हर्षित मन से
भाव सुनहले
स्वर्णिम कण से
अनगिनत गहरे
बिम्ब लिये चरसे
गिरती हो !
तापित ह्रदय से
मानो बूंद-बूंद घट से
चेतना के चिर शिखर पर
संवेदना की संवाहिका बन
बहती हो
तुम कब पाहन से निकसी
गरलराज संग राची
हो मेघों का गर्जन जब
तब पृथ्वी के तृण-तृण का सृजन।
हरियाली मंडाराती
मूक नहीं कोयल रह पाती
मयूरा नित्य राग आलपे
नूत्य नूतन कर पाते
सुख गागर भी तब सागर बन जाते
अश्रुकणिका पाया तुम से स्नेह अपार।
मेरा अस्तित्व
तुम्हारे नकारने से
मेरे अस्तित्व में
कमी नहीं आयेगी
कमी नहीं आयेगी
मेरा सूक्ष्म भी तो
परमात्मा के सान्ध्यि में
पल रहा है
छोटे-छोटे अणुओं से
निर्माण हुआ मेरे स्थूल का
तुमने गौर से कब देखा
मुझ शुद्र को
तुम्हारी नजरों में
अये घृणा की बेला
सूक्ष्म स्थूल कारण से परे
अस्तित्व को देखो
मेरे और तुम्हारे मध्य
अंतराल को महसूस करो
अवलोकन तो करो
सत्य का।
प्रयास
प्रयास
स्वयं के वजूद का
कयास
कार्यक्रम के माध्यम से
ना मजिंल
ना ढोर
ना रात्री
ना भोर
स्वयं को प्रदर्शित करना ही
केवल मेरे लिए…..
चाह फैलने की
कुहनी मारकर भी
सद्ग्रन्थों के प्रकाश से
सुदूर-प्र्रदेश में
कहीं-अंधेरी कुटिया में
निवास स्थान है मेरा
समीक्षा करता हूं
मचं पर सदैव
आगे रहता हूं
स्वयं को
विदुर की भांति
रचनाओं के माध्यम से
प्रस्तुत करता हूं
वहीं बोलता हूं
जो जनता चाहती है
शास्त्री की बातों से अनभिज्ञ
प्रगति की बात करता हूं
जो मेरे विवेक से परे है
उन विचारों की
काटता हूं
अपने अस्तित्व को
बनाये रखता हूं।
कैसे प्रगतिशील ?
काल के गाल में
जा रहे हैं हम
एक बड़ा सा दानव-
समय का
भुजा फैलाये, मुख बाये
सर्वभक्षी खींच रहा
अपनी ओर
हम दीन-हीन असहाय
कैसे प्रगतिशील ?
पा न सके पार
कितने आये
चूर्ण हो, चले गये-
समय के साथ
महानायक-खलनायक
कहां है ?
कितनी सरलता से
बतला देता है कोई औकात
कौन है नियामक
जो करता गर्व का मर्दन
अनन्त के आगे
हम रजकण भी नहीं ।
कविता को मरने दो
कविता को मरने दो
मर-मर कर पुनः
अवतरित होने दो
युग बदल गया बंधु
सृजनता में
नवीनता की तलाश है
तुम छन्द ताल की खाल
मज निकालों
अन्तर मन को खुला छोड़ दो
स्वच्छन्द बहाव में देखो,
क्या-क्या निकलता है
सच कहूं तो
पत्थर भी पिघलता है
कविता को मरने दो
नव पल्लव नव लालिमा
नव सरोज, सरिता नव
जीवन जब नव होगा
प्रस्फुटित होगी तरूणाई
बूढ़ी आंखों से मत देखो
युग-युगान्तर को महसूस करो
झरने फटने दो
कविता को मरने दो।
मौलिकता को परखो
तुम्हारी चिंतन परक
बुद्धि को
थोपा गया मत सर्प की भांति
निगल रहा है बंधु
तुम सौदागार हो
अथवा विवेकहीन
बड़ी चतुरताई पूर्वक तुम जैसों को
बगुला भी धर पकड़ता
चाहकर भी तो मुक्त कहां हो पाते
मतवाले अहं को कब छोड़ते
ये स्वयं भू सत्यवादी
दिशा है मौन
मत मतांतरों की बैसाखियां
कही तुम्हें गति तो नहीं दे रही
अपनी चाल में
मौलिकता का अभाव परखो
साथ ही सिद्धान्तों को समझो
स्वयं के अस्तित्व के लिए ही सही
जरा सोचो।
बीज मिट्टी में जा मिला
बीज मिट्टी में जा मिला
श्रद्धा का पात्र बन गया
तुमने जाना
बलिदान दिया उसने
सत्य ही तो है
किन्तु मैं तो यही कहूंगा
मिट्टी को पहचान लिया
उसके सानिध्य को पाकर
वह वृक्ष बन गया
मंगल करता सर्वत्र
फल देता मधुर
रसास्वादन लेता जन-जन
तप्त धूप में
पथिक लेता विश्राम
सूक्ष्म कीट पतंग
कितने ही पलते
पंछी बनाते नीड़
वन वाटिका विकसती
बीज मिट्टी में जा मिला
तुम्हारे लिए।
प्रवचन
वह बोला नहीं
मैनें भी मौन साधा
वह शून्यवत्
किन्तु चेतन
मैं जाग्रत
सम्पूर्ण इन्द्रियों को बाधा
केवल आंखों से
आखों में
बहा दिया
उसने ग्रहण किया
समर्पण से
और प्रवचन हो गया।
फैलाओ
उसका अन्तर्मन
आंखों के माध्यम से
अपनी भावनाओं को
प्रकट करता
अरू, मै उसकी आत्मा का
साक्षात्कार करता
रहन-सहन/भाषा-बोली
आचार विचार-व्यवहार
गुण-अवगुण
उन्नत अवगत
वह व्यक्त करता
विचार संस्कारिद के
आदान-प्रदान का मार्ग
यही श्रेष्ठ है
पहले अपनी विशिष्ट चेतना से युक्त
सुषुमा को जगाओ
ध्यान के मार्ग से गुजकर
सहस्त्रों सूर्य के प्रकाश की भांति
श्रेततंतुओ से ऊर्ध्वगमन कर
कपाल में ले जाओ
धीरे-धीरे सिच्चत कर
चक्षु के मध्य में रोककर
ह्रदय तल तक फैलाओ।
हे मेरे प्रभो !
हे मेरे प्रभो !
उस वक्त तो
मेरा पार्थिव भी नहीं होता
जब तेरा अर्चन होता
मेरा अन्तर
अर्पित होता
तेरे चरण कमलों में
ह्रदय की कोशिकाएं
स्पंदित होतीं
झंकृत होती शिराएं
भौतिक वस्तु की
आवश्यकता कहां ?
आधार ही मानों बस
जिसके भाव बने जैसे भी……
हे मेरे तुम साक्षी
क्या माला
क्या गडिया
क्या दण्ड
अरू कमण्डल रे।
महाराज
तेरे महाराज
मेरे महाराज
उनके इनके अपने देखों
छोटे-बड़े कितने महाराज
उपाधि होती
सिंहासन भी होता
आय व्यय
लेखा-जोखा
संग्रह की व्यवस्था
तेरा पंथ-मेरा पंथ
सबके अपन-अपने वंश
गुरू चेले
अहं में पलते
दुनिया जैसी
वैसे महाराज।
जीर्णोद्धार करो
जीर्णोद्धार करो प्रभु मेरे
जीर्णोद्धार करो मन मंदिर का
जहां जन्म हुआ तेरा
वह भू-भाग
कहीं और नहीं है
जब से जाना मैने तुझको
मेरा यह तन्त्र
जन्म स्थली तुम्हारी
ओ मुगल परम्परा का निर्वाह
अब नहीं
हम सभ्य युग के शिष्ट लोग
अतीत की काली छाया से दूर
कैसा मनोरोग लिए हम….
अन्तर में विकसित हो
सुन्दर र्मिस्जद एवं मन्दिर
ना गुम्बद ढहे
ना
प्रातः सायं पूजा अजान
चुपचाप चुपचाप
जीर्णोद्धार करो प्रभु मेरे
जीर्णोद्धार करो मन मन्दिर का
पूजा-अजान
मंदिर की आरती
टन-टनाटन टन-टन-टन
मस्जिद की अजान
रक्तपात सम्प्रदाय भेदभाव के मध्य !
पूजन की थाली में
कंकड़ पत्थर ना डालकर
अन्तर की विकसित करते
नमाज की चादर को
मैली ना होने देते
ह्रदय के गर्भ गृह में
बजती घण्टियां
नमाज भी अदा होती
मानो जन्त उतर आता
काश खुदा को जान पाते
भगवान् को पहचान पाते
सच कहूं तो
इंसान बन पाते
वही आरती वही अजान
क्रमशः चलती रहती सोचो
एक दिन जीवन का अवसान
काश होती आरती
बन पाती अजान
तब तो टन-टनाटन टन-टन-टन-टन।
एक रोटी
एक हिन्दू के घर
राम के नाम पर
दे-दे बाबा
एक मुस्लिम के घर
अल्लाह के नाम पर
दे-दे बाबा
ईसाई के घर
यहूदी के घर
ना जाने कहां-कहां
किस-किस पंथ की
चौखट पर
वहीं आदमी
ना समप्रदाय
ना धर्म विशेष
ना जाति भेद का फंदा
वह कहता है
मैं अपना धर्म निभाता हूं
उदर पूर्ति का साधन
अपनाता हूं
जिस किसी भी नाम पर दे दे
एक रोटी दे-दे बाबा।
चमेली की बेल
मेरे घर की दीवाल से सटी
गमले में लगी
चमेली की बेल
उभरती चली जा रही है
देखते ही देखते
पड़ोसी के आंगन में
खूशबू उड़ेलती है
अरू लगा रही है
दीवाल के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह
किन्तु उधर से काले नाग
फुंकारते हैं
उठता है जहर
मेरे आंगन में किसी भी दिन
कोई न कोई होता उपद्रव
मेरे सुख से
होती है उन्हें ईर्ष्या
उत्थान से
होता है उन्हें उन्माद
स्वयं को पाक बताने वाले
नापाक इरादों से
साजिश पे साजिश रचते हैं
जला डालते है बेल
किन्तु बरसाती मौसम में
आशाओं के आंचल में
वह पुनः पल्लवित पुष्पित होकर
उड़ेलती है सुगंध
क्रम जारी है
दीवाल से सटी
गमले में लगी
वह ढीठ
चमेली की बेल
यात्राएं सहकर भी
कुछ कहना
अरू करना चाहती है।
झंकृत हो
जीवन का हर क्षण
झंकृत हो
हो तब तन-मन अरू
अंतः प्रकृति भी तार-तार
तब जीवन की
प्रत्येक खुशियां लुटा देना
स्वप्र संजोना तब बारम्बार
तुम देखना उठेगी बयार
खिलेंगे पुष्प, चहुं ओर
भंवर के आंचल में
मचलेगा तन
उद्वेलित होगा तब कण-कण ।
चाह की पीड़
हल्की-हल्की सी
चाह की पीड़ा
मानों नीड़ हो
जीवन का
जिसमें सुन्दर स्वप्न
अरू मौन सृजन
कल्पनाओं का
ना स्वार्थ
ना गरिमा
एक पागलपन सा कह दो
कहदो जीवन का सार सा
लुट जाने को
आतुर अन्तर
सम्पूर्ण वासनाएं
क्षीण सी
केवल वही वह
संगीत देती
मेरे अन्तः स्थल को।
प्रेम के नाम पर
ना पल्लवित
ना पुष्पित
ये रजः कण
अपना कुछ भी नहीं होता
केवल बहाव में
बहते हैं
जो स्वयं को
प्रेयस् हो
वही करते हैं
धूप से पायी
स्वयं की चमक
रंगों के आकर्षण को
महज प्रेम के नाम पर
अर्पित कर देते हैं
स्वयं को सार्थक कर।
मर्यादित प्रेम
मैने देखा है चुपके से
नीड़ से निकलते हुए
एक चातकी को
गहरे झुरमुट से
झंका है मैंने
धुंधलाई सी आभा में
दूर से भी निकटता का
आभास किया है
किन्तु छू लेने की चेष्टाएं
नहीं की।
वह केवल देह मात्र नहीं
वह भाव है
सुखद दृष्टि है
आशा तेज अरू प्राण है
करूणा वात्सल्य की
प्रतिमूर्ति है वह
वह पारितोषिक
वह शरद् पूर्णिमा
अरू प्रेम की
बहती हुई अनवरत धारा
जो उसके सुन्दर होने का प्रमाण देते हैं
सच पूछो तो
मैने उससे कभी बतियाने की
चेष्टाएं भी नहीं की
क्योंकि उसकी दृष्टि
बहुत कुछ कह देती थी मुझे
हे दाता,
तेरे प्रसाद से वंचित ना रह जाऊं
जन्मजन्मान्तर देना
केवल ऐसा ही
मर्यादित ऐसा ही
मर्यादित प्यार।
अये मेरे प्रिये
अये मेरे प्रिये
तुम्हारे प्रति जब
मेरा प्रेम उमड़ता है
तो मेरे शरीर की
समस्त ऊर्जा
ह्रदय तल में
समाहित हो जाती है
तुम मेरे समक्ष होती हो तो
मस्तिष्क शून्यवत/दीन- हीन सा याचक
मानो पा लेना चाहता हो थाह !
उद्वेग रहित/कल्पना विहीन
आंखे चुधियाई सी
मानो तुम में ही
सारा संसार बसा है
मेरे मुख से निःशब्द
कर्ण बिम्ब स्तब्ध/मेरा उपस्थ जड़वत
मेरी आंखों में बसी आत्मा
तुम्हारी आंखों में /परमात्मा को खोजती
शायद मिल जाना चाहती नदी
समुद्र के अथाह जल में
और मुक्त हो जाना चाहती
सूक्ष्म सत्ता से।