नई शुरुआत
यह कविता मई 1974 की रेल हड़ताल के दौरान लिखी गई थी
दादी
सुना नहीं तुमने
बाबूजी हड़ताल पर हैं
कन्धे पर यूनियन का लाल झण्डा लिए
गढहरा की रेल-कालोनियों में
घूमते होंगे आजकल
क्वार्टरों से बेदख़ल करने हेतु
भेजी गई पुलिस-लारियों में
कालोनी की औरतों के साथ
अम्मा को भी क़ैद करके भेजा गया होगा
बहन पूनम और छुटकी भी
जुलूस में शामिल हो नारे लगाती होंगी
दादी
सुना नहीं तुमने
बाबूजी हड़ताल पर हैं
दादी
गाँव के डाकख़ाने में
बेमतलब क्यों भेजा करती हो मुझे हर दिन
अब मनिआर्डर या बीमा या रुपये की आशा छोड़ दो
इस कदर क्यों घबड़ा जाया करती हो
घर के चूल्हे की आग ठंडी हो रही है
तो क्या हुआ
शरीर के अन्दर की आग का जलना
अभी ही तो शुरु हुआ है
शायद तुम्हें नहीं मालूम
जिस गाँधी-जवाहर की
अक्सरहाँ बात किया करती हो
उसी गांधी-जवाहर के देश में
मशीन या कल-कारखाना या खेत में
तेल या मोबिल या श्रम नहीं
इन्सानी लहू जलता है
दादी
तुम इस हकीकत से भी अनभिज्ञ हो कि
अंगीठी पर चढ़े बरतन में
खौलते अदहन की तरह
अपने गाँव की झोपड़ियों का अन्तर्मन उबल रहा है
कि हर हल और जुआठ
नाधा और पगहा
भूख की आग में जल रहा है
वह आग
जो नक्सलबाड़ी में चिंगारी बन कर उभरी थी
वह आग
जो श्रीकाकुलम के पहाड़ों से
ज्वालामुखी की तरह फूटी थी
जिसके अग्निपुंज
तेलंगाना की पटरियों पर सरपट दौड़े थे
देखो … देखो
ठीक वही आग अपने गाँव के सिवान तक पहुँच आई है
इसीलिए दादी
मैं बेहद ख़ुश हूँ
कि अपने गाँव में
एक अच्छी और सही बात हो रही है
कि हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में
एक नई शुरुआत हो रही है ।
चिड़िया और आदमी-1
चिड़ियों को मारा गया
इसलिए कि
उनके पंखों के पास था विस्तृत आसमान
नीचे घूमती हुई पृथ्वी
और वे
इन सबको लांघ जाना चाहती थीं
आदमियों को मारा गया
इसलिए कि
वे चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते थे उन्मुक्त
हवा की तरह बहना चाहते थे स्वछन्द
जल स्रोतों की तरह अपना तल
स्वयं तलाश रहे थे
चिड़ियों के लिए
मौसम ने आँसू बहाए
आदमियों के लिए
आँसू बहाने वाले
गिरफ़्तार कर लिए गए ।
चिड़िया और आदमी-2
चिड़िया
आदमी के बिस्तर पर
बीट फैला देती थी
आदमी
चिड़िया के घोंसले
उजाड़ देता था
यह उन दिनों की बात है
जब चिड़िया और आदमी
दोनों एक दूसरे के दुश्मन थे
आदमी दिन भर बीट साफ़ करता
चिड़िया तिनका-तिनका जोड़ कर लाती
घोंसले बनाती
एक दिन आदमी ने
चिड़िया के खिलाफ़ मोर्चा बाँधा
चिड़िया चीं-चीं करती रही
आदमी के खिलाफ़
दोनों की आँखों में ख़ून था
एक बार आदमी ने
चिड़िया की आँखों में देखा
दूसरी बार चिड़िया ने
आदमी की आँखों में झाँका
फिर क्या था ?
दोनों एक दूसरे की आँखों में
देखते-झाँकते रहे
झाँकते और देखते रहे
और देखते-देखते
दोनों की आँखों का रंग बदलने लगा
दोनों की मुद्रा बदलने लगी
दोनों की भाषा बदलने लगी
चिड़िया ने पूछा –
वह कौन है जो मेरे पीछे
जाल और पिंजड़ा लिए घूमता है
आदमी ने सवाल किया –
वह कौन है
जो हमें पहनाता है हथकड़ियाँ
भेजता है जेल
चिड़िया ने कहा – नहीं
तुम मेरे दुश्मन नहीं हो
आदमी ने कहा – प्यार
मुझे तुमसे प्यार है
गौरैया
गौरैये की चहल
उसकी उछल-कूद और फुदकना
मालिक-मकान की सुविधाओं में खलल है
मालिक-मकान पिंजड़ों में बन्द
चिड़ियों की तड़प देखने के शौक़ीन हैं
वे नहीं चाहते
उनके ख़ूबसूरत कमरों में गौरैयों का जाल बिछे
वे नहीं चाहते
गौरैया उनकी स्वतंत्र ज़िन्दगी में दखल दे
और यह गौरैया है
उनकी इच्छाओं के विरुद्ध
तिनकों की राजनीति खेलती
मालिक-मकान की आँखों में नींद नहीं
मलिका परेशान हैं
राजकुमार गुलेल संभाल रहे हैं
उनके ड्राईंग रुम के शीशों पर
गौरैयों का हमला हो रहा है
उनके गद्देदार बिस्तरों पर
गौरैया बीट फैला रही है
वे कोशिश में हैं
वे गौरैये को आमूल नष्ट कर देने की
कोशिश में हैं
और यह गौरैया है
उनकी कोशिशों के विरुद्ध घोसले बनाती
अण्डे सेती
अपने चूजों को चलना सिखाती
उछलना सिखाती
उछल-उछल उड़ना सिखाती
यह गौरैया है ।
चिड़िया
चिड़िया उड़ती है
अपने कोमल-कोमल पंखो के सहारे
आकाश को प्यार से चूम लेती है
वह सोचती नहीं है
कि उड़ जाती है
अपने सुदूर ठिकानों की तरफ़
यह नन्हीं-सी जान
कहीं भी पहुँच सकती है
धरती के इस पार
या आकाश के उस पार
हमारी छत की मुड़ेरों पर
देखते-देखते घर के झरोखे पर
आँख-मिचौली खेलती हुई
कभी हमारे बहुत क़रीब
फिर उतनी ही दूर
अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर
यह नन्हीं-सी जान
कहीं भी पहुँच सकती है
वह झुण्डों में उड़ते हुए
रात के घिरने की ख़बर देती है
अपनी चहचहाहट से
सोए आदमी को जगाती रहती है
इसीलिए बहेलिए
इसका पीछा करते हैं दिन-रात
पिंजड़ा और जाल लिए
उन्हें पसन्द नहीं है
सोया आदमी जागे
उसे रात के घिरने की ख़बर हो ।
कैसे कह दूँ?
मैं कैसे कह दूँ
हरे-भरे पेड़ों के तनों पर
कहीं नहीं मौजूद गोलियों के घाव?
मैं कैसे कह दूँ
चाँद-तारे आज भी बिखेर रहे हैं रोशनी
आकाश में अंधेरा कहीं नहीं है
और वक्त के नक्शे पर से
खून के छींटें गायब हैं पूरी तरह?
यह सब कुछ
आखिर मैं कैसे कह दूँ?
इस मौसम में
कौन सा गीत लिखूँ
कौन सा नया साज-आवाज गढ़ूँ?
आज जब कभी
मैं लिखने बैठता हूँ
बार-बार क्यों गूंजती है वहां
मेरे भाई की चीख
जो नहीं लौटी आज तक
जेलों से वापस
क्यों उभरती है वहाँ
शक्लें भयानक
अंगुलियां रक्त टपकाती
क्यों तैरता है वहाँ
कभी हमारा सहमना
कभी तनना?
कहते हो
संपूर्ण हुई है अधूरी क्रान्ति
बदल गया है राज
बदल रहा सारा समाज
और मैं देख रहा हूं
पहले की तरह अब भी
मेरे पड़ोस के बच्चे
पेट दबाए सो जाते हैं
और गृहस्थी का मालिक
यंत्रों की कातिलाना नीयत के बीच
दिन काटने के बाद लौटता है
पहले की तरह ही
अपनी घरऊँ वकत को
बड़े बड़े नारों
वक्त के रंगीन नक्शों में
रह जाता है टटोलता-पटोलता।
मैं हर सुबह तड़के
जिन्दगी के कुछ ऐसे ही
वाकयातों से गुजरता हूँ
और मेरी पूरी-की पूरी दिनचर्या
बीत जाती है जवाब तलाशते-तलाशते
मेरा हर सच्चा अहसास
बेरहम चार-दीवारियों से घिरा हुआ
क्यों पाता है हर दिन
संकट और खतरों के बीच?
संकट और खतरों के बीच
जब कभी मैं डूबते सूरज को
ललकारने की मुद्रा में होता हूँ
वे लम्बी साजिशों की
गहरी झील में डूबे होते हैं।
कारखाने से लौटने पर
झुलसा देने वाली सूरज की ताप से
कहीं ज्यादा गरम होती है मशीन की गरमी
और इसके बीच दिन काटने के बाद
कहां बचती है सुबह की ताजगी।
कितनी मनहूस है यह दिनचर्या
जिसे बिताकर लौटते हैं हम सभी
घर की चारपाई पर टूटे वृक्ष की तरह
धम्म से गिरने का इलाज कहाँ होता है…?
सड़क की पटरी छोड़ गली में उतरते ही
मेरा पांव कीचड़ में धंस जाता है
किसी मरे जानवर की गंध
नाक में समाती चली जाती है।
बच्चों की जिद्द
और घर के तरह तरह के उलाहने में
हमारी दिन भर की थकान
झुँझलाहट में बदलने लगती हैै
मैं महसूस करता हूं
खाली ड्रमों की तरह
ढनमना रही यह जिन्दगी
जिन्दा लाश बनी है
या डोल रही है
पेन्डुलम की तरह
हर सबेरा स्याह होता है
और शाम उदासी की एक और परत
दोपहर एक दल दल है
जहां डूब गया है हमारा सब कुछ
मसलन आजादी।
एक अफसोस
मेरे घर के नक्शे के संग संग
चेहरे पर भी उभरता है
पूरे रंग के साथ
इन दिनों यहां सब कुछ ढ़ल रहा है
दिन की तरह
ढि़बरी की धुंध भरी रोशनी में पिघल रहा है
मोह और मौन…मेरा सब कुछ।
कारखाने से लौटने पर
सबसे पहले बगावत कर रहे चेहरों से
गुजरना पड़ता है मुझे
झूठे वायदों व आश्वासनों के नीचे
उछलते हुए हाथों के बीच फैलने लगता है
भीतर ही भीतर ज्वालामुखी
मेरे घर की चार-दीवारियाँ
तब्दील होने लगती हैं काले पहाड़ में।
खाली बरतनों और डिब्बों की झन झन
पत्नी की खीस उतरती है
चिरौरी करते मासूम बच्चों की पीठ
उनके गालों पर
मैं हर ऐसे क्षण
अपने चारो तरफ फैली कंटीली झाडि़यों को
काट कर फंेक देने के लिए
कमरे से बाहर आ जाना चाहता हूँ
हाँ ! हाँ !… बाहर…
जहां तपिश है
हवा में आद्रता है
चिप चिपी गरमी है
उमस है
पर यहांँ मुट्ठी भर खुली हवा भी है
जो पूरे शहर में फैल जाने को युद्धरत है।
अंधेरे से प्रतिबद्ध ये लोग
दिन के उजाले में
वे अपने हाथों की हथेलियां
रगड़.रगड़
उन पर लगे खून के धब्बे
छुड़ाने में व्यस्त हैं
और मस्त हैं कि
उन्होंने एक बहुत बड़ी जंग जीत ली है
वे मस्त हैं कि
उन्होंने हत्यारों को उनके किये की
माकूल सजा दी है
इस तरह वे गर्म हैं
कहीं कालापन नहीं रहा
रोशनी है हर जगह
बड़े इत्मीनान से वे जम्हाई लेते हैं
हर सुबह गुनगुनी धूप का मजा
अन्धेरे से प्रतिबद्ध ये लोग
दुहाइयों के नाम पर
अपने ताज की असलियत
छिपा रखना चाहते हैं
नयी.नयी परिभाषाएं गढ़कर
नकाबें बदल कर
नये.नये अन्दाज से
अन्धेरे को पहली या
दूसरी आजादी नाम देते हुए
अपने फन में इस कदर माहिर हैं कि
धोखा और धूर्तता
सारे देश में राज करती है।
इन्तजार: चार कविताएँ
एक
सबको है इन्तजार
तानाशाह को है युद्ध का इन्तजार
जनता को है मुक्ति का इन्तजार
सवाल एक सा है दोनो तरफ
कि कैसे खत्म हो
यह इन्तजार ?
दो
हम इतिहास के कैसे लोग हैं
जिनका खत्म नहीं होता इन्तजार
जब कि हमारी ही बच्ची
दवा के इन्तजार में
खत्म हो जाती है
सिर्फ चौबीस घंटे के भीतर ।
तीन
हमारा ही रंग
उतर रहा है
और हम ही हैं
जो कर रहे हैं इन्तजार
कि कोई तो आयेगा उद्धारक
कोई तो करेगा शुरुआत
कोई तो बांझ धरती को
बनायेगा रजस्वला
किसी से तो होगा वह सब कुछ
जिसका हम कर रहे हैं इन्तजार
अपनी सुविधाओं की चादर के भीतर से झांकते
बच्चों को पढाते
मन को गुदगुदाते
इन्द्रधनुषी सपने बुनते
पत्नी को प्यार करते
फिर इन सब पर गरम होते
झुंझलाते
दूसरों को कोसते
सारी दुनिया की
ऐसी.तैसी करने के बारे में सोचते
हम कर रहे हैं
इन्तजार…
चार
कहती हो तुम
मैं प्रेम नहीं करता
जिंदगी हो तुम
कैसे जा सकता हूं दूर
अपनी जिंदगी से
यह दिल जो धड़कता है
उसकी प्राणवायु हो तुम
मेरे अंदर भी जल तरंगें उठती हैं
हवाएं लहराती हैं
पेड़ पौधे झूला झूलते हैं
उनके आलिंगन में
अपना ही अक्स मौजूद होता है
चाहता हूँ
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले
घंटों बैठूं
बातें करूँ
बाँट लूँ हँसी खुशी
सारा दुख दर्द
मैं तुम्हारे बालों को
हौले हौले सहलाऊँ
तुम्हारे हाथों का प्यारा स्पंदन
अपने रोएदार सीने पर
महसूस करूँ
बस इंतजार है इस दिन का
कैसा है यह इंतजार
कि खत्म ही नहीं होता
कैसे खत्म हो यह इंतजार
बस इसी का है इंतजार…
तानाशाह: कुछ कविताएँ
एक
वे कहते हैं
चुनो
ये हैं खुशियाँ
ये हैं गीत
ये हैं जिन्दगी
इनमें से तुम अपने लिये
कुछ भी चुन सकते हो
चुनने के लिये
जब भी मैं आगे बढता हूँ
मेरे हाथ क्यों लगती हैं
अपनी ही मजबूरियाँ
अपना ही डर
और उनका आतंक?
दो
चुनो, अपने लिए चुनो
ये हैं इस देश के तानाशाह
नहीं, तो इन्हें चुनो
ये हैं तानाशाहों के तानाशाह
इन्हें भी नहीं,
फिर तो देखो, परखो
और अपने लिए चुनो
ये है तानाशाहों की कतार
जो जितना बड़ा तानाशाह
वह उतना बड़ा धूर्त
जो जितना बड़ा धूर्त
वह उतना बड़ा तुम्हारा हितैषी
इस लोकतंत्र में इन्हें चुनने की
तुम्हें आजादी है
चुनो, अपने लिए चुनो।
तीन
हंसो
इसलिए कि
रो नहीं सकते इस देश में
हंसो
खिलखिला कर
अपनी पूरी शक्ति के साथ
इसलिए कि
तुम्हारे उदास होने से
उदास हो जाती हैं प्रधानमंत्री जी
हंसो
तुम्हें हंसना चाहिए
अपना नहीं ंतो
कम से कम
प्रधानमंत्री जी का खयाल कर
हंसो
इसलिए कि
तुम्हें इस मुल्क में रहना है।
चार
जिन सीढियों पर चढ़कर
वे बनते हैं तानाशाह
इतिहास में दर्ज होता है उनका नाम
वे ही सीढियाँ
ले जाती हैं उन्हें मौत तक
वे उतरते हैं
उस अतल गहराई में
जहाँ अंधेरे के सिवा
कोई साथ नहीं होता
कोई सुनने वाला नहीं होता उनका विलाप
वे करते हैं आत्म हत्या
या वहीं हो जाते हैं जमीन्दोज।
पाच
हड्डी
और लहू
और मांस
चिचोड़ती मादा
उतर रही है
सीढियाँ
आहिस्ता।आहिस्ता
कभी जनरल फ्रैंको
अपनी जवानी में
इन्हीं सीढियों से उतरा करते थे
पूरे शान के साथ
इसी तहखाने में
हिटलर
अपनी नयी।नयी योजनाओं मे
मशगूल हुआ करता था
कभी।
छ
जिसने भी
जनरल डायर की आँखों से
देखा है इस शहर को
लगा है यह शहर
एक उजड़ा हुआ रेगिस्तान
सहारा की मरुभूमि
फिर भी कुछ लोग हैं
जो इस जमीन में भी
पानी की बात करते हैं
दरअसल, ये लोग
उनके वंशज हैं
जो जलियाँवाल बाग में
भून दिये गये थे।
सात
वह जब देखता है
समूची दुनिया को
तोप की नली से देखता है
वह हरे भरे खेतों को देखता है
और खेत
युद्ध के मैदान में बदल जाते हैं
वह दिन को देखता है
वहाँ अंधेरे का सैलाब फैल जाता है
वह शहर को देखता है
वहाँ कर्फ्यू का सन्नाटा
या मौत का नगर बस जाता है
वह जीवन को देखता है
और देखते । देखते
लाशों का ढेर लग जाता है
वह जब देखता है
बच्चे अनाथ हो जाते हैं
औरतें विधवा हो जाती हैं
पीढियाँ गुम होने लगती हैं
आदमी से लेकर
मुल्क तक की आजादी
खतरे में पड़ती है
जबान जॉब पहनाये बैल की तरह
हाथ किसी ठूंठे पेड़ की तरह
दिमाग हजारों मन बर्फ की सिल्लियों में दबा
महसूस होता है
यह महसूस करना भी जुर्म है
वह चाहता है
लोग महसूस करें भी तो
हर जगह और अपने भीतर
सिर्फ उसके विराट अस्तित्व को
लेकिन वह जब देखता है
दिमाग की गरमी से
बर्फ पिघलता है
औरों का देखना भी शुरू होता है।
एक दिन आयेगा
(बेंजामिन मोलायस को फाँसी दिये जाने पर)
मैं नहीं जानता तुम्हारे बारे में बहुत
नहीं पढ़ी तुम्हारी कोई कविता
जेल के भीतर
तुम्हारे गले पर कसते हुए फंदे के बीच से
सिर्फ सुनता हूँ तुम्हारी आवाज-
एक दिन आयेगा जब अश्वेत राज करेंगे
तुम्हारे ये शब्द
शब्द नहीं हैं
नई ज़िन्दगी के संदेश हैं
जहाँ पीटर बोथा की मौत लिखी है
और मोलायस की मुक्ति
इन्हीं शब्दों के लिए
कल उन्होंने सालोमन महलांगू को फाँसी दी थी
आज मोलायस को
कल किसी और मोलायस को
जनरल फ्रैंको और पीनोशेत की औलादें
यही तो सलूक कर सकती हैं
शब्दों के साथ
फिर भी तुम्हारे शब्द हैं कि
घन पर हथौड़े की तरह बजते हैं
मेरी संवेदना में उतरते हैं
और कविता की शक्ल लेते हैं
गर्म लोहे को मन माफिक बनाते हाथों को
मन माफिक दुनिया गढ़ने की ऊर्जा देते हैं
तुम्हारी उम्र वही थी
जिसकी दहलीज को अभी-अभी मैंने पार किया है
तुम्हारे सपने वही थे
जिसे किस्टा गौड़ व भुमैया की आँखों में
मैंने देखा है
गोरी चमड़ी में आदमी को पहचानने वाले
कभी नहीं समझ सकते
तुम्हारे और मेरे बीच के इस रिश्ते को
कि जब तुम कहते हो
आजादी बहुत करीब है
तो वह मेरी आँखों में चमकती है
खून में उबाल मारती है
नसों में फड़कती है
कि जब तुम कहते हो
मैं खून बहाऊँगा
तो मेरे सामने
नई दुनिया की परतें खुलने लगती हैं
गूंजने लगती है
मेरे इर्द-गिर्द बच्चों की किलकारी
उनकी निश्छल हँसी
हँसी
जो एक नये संकल्प का आकार लेती जाती है
कि एक दिन आयेगा
जब…
पंजाब और बिहारी भाई
एक-सी बोली
एक-सा चेहरा
एक-सा पहनावा
नेपाल की तराई
बिहार की मिट्टी की गंध
दूर-दूर तक पहुँच रही है
इसी गंध के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई
ट्रेन की छत पर सवार
डिब्बों के हुक पर बैठे
पावदान पर लटके
सबकी घृणा-दुत्कार सहते
भोजपुरी या मगही में गाते
ठेकुए पर दांत अजमाते
भूजा-चबैना फांकते
चिउड़े और आम की मिली-जुली गंध के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई
बोरों में भरे आलू की तरह टकराते
आपस में पिसते
न सामान का होश
न शरीर की सुधि
जितनी मिल गई जगह
उसी में खुश
अपने हिस्से की इस खुशी के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई
पंजाब में हैं उग्रवादी
बड़े खूंखार आतंकवादी
हत्याएँ करते
बैंक में डाला डालते
गाजर-मूली की तरह
आदमी को काटते
क्या इनका नहीं है तुम्हें डर?
मुसाफिर कई-कई सवाल करते
और सवालों के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई
पहले सुनता है
सोचता है
फिर सवाल पर
मन्द मन्द मुस्कुराता है बिहारी भाई
कहता है-
बाबूजी, कहाँ नहीं है डर
गाँव में भूख का डर
टास्क फोर्स का डर
निजी सेनाओं का डर
और यहाँ
पावदान से पाँव फिसल जाने का डर
ट्रेन की छत से गिर जाने का डर
डिब्बे की हुक से नीचे आ जाने का डर
बाबूजी, कहाँ नहीं है डर
और डर से आँख मिचौली खेलता
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई
रेल चल रही है
अम्बाला से आगे निकल रही है
बिहारी भाई भी चल रहा है
देश से निकल रहा है
वह जहाँ से आ रहा है
वह जहाँ जा रहा है
इसके बीच
देश में परदेश क्यों गढ़ा जा रहा है?
वह सवालांे से जूझ रहा है
और जूझते-जूझते
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई
घर बनाते
यह मोहल्ले का कोई पार्क नहीं
बच्चों के खेल का मैदान भी नहीं
मेरा घर है
मैं बन्द रखना चाहता हूँ
बाहर की ओर खुलने वाली
इसकी सारी खिड़कियाँ
दरवाजे
हर झरोखे
सब कुछ सुरक्षित है यहाँ
परदे के अन्दर
मैं रखना चाहता हूँ इन्हें
ढ़क कर
छिपा कर
दुनिया की नजरों से बचाकर
ये कीमती बनी रहेंगी ऐसे ही
हमारी इज्जत का सम्मोहन कायम रहेगा
आपके बीच
हम बने रहेंगे पानीदार
मेरी पत्नी है
इन्हें पसन्द नहीं
बन्द बन्द
उसका जी घुटता है बन्द घर में
मन घबड़ाता है
वह खुला रखना चाहती हैं
खिड़कियाँ और दरवाजे
बेरोक टोक हवा आ जा सके
घर में हो पर्याप्त रोशनी
कहती है
हमारे पास है ही क्या
जिसे छिपाकर रखा जाय जतन से
जीवन से अमूल्य है क्या कुछ
मैं चाहती हूँ खुली हवा में साँस लेना
लहराना चाहती हूँ अपने लम्बे खुले बाल
चिडि़या होने का अहसास जीना चाहती हूँ
महसूस करना चाहती हूँ
अपना होना
ऐसा ही कुछ
इस दुनिया में
मैं बनाना चाहता हूँ अपना घर
पत्नी को भी बेहद प्यार है घर से
पर ऐसा होता है कि
घर बनाते बनाते
हम नदी के दो विपरीत छोरों पर
अपनी अपनी पीठ किये
हो जाते हैं खड़े।
प्यार
उसने पूछा-
कैसा होता है प्यार?
क्या आकाश से ऊँचा
पताल से गहरा
शीशे-सा परदर्शी
जल।कल-सा साफ व स्वच्छ
क्या ऐसा होता है प्यार?
मैंने कहा-
पूष की रात में
खेत अगोरते मचान पर बैठे
गुदड़ी में लिपटे
सिकुड़े सिमटे
बालक की भुचभुचाई आँखों में
भोर का इन्तजार
कुछ कुछ ऐसा ही होता है प्यार
बडी.बड़ी नदियाँ
उसके चौड़े।चौड़े पाट
ऊँचे।ऊँचे पठार
पेड़ पौधे बाग फूल पŸाी
देश धरती आसमान
इस फैलाव के साथ
अपने को जोड़ता
खोलता फैलाता
यह प्यार
हमारे जैसे आदमी
की आंखों में मोदमयी भविष्य की
सतरंगी उड़ान है
मत बांधो
चन्द रिश्तों का नाम नहीं है
हर बन्धन में कसमसाता
छटपटाता
मुक्ति की तमन्ना लिए
बेखौफ आजादी की नव।नव तरंग
जीवन का सार
प्यार…प्यार…प्यार…
माँ का रोना
जब से देखा है
मैंने माँ को रोते हुए देखा है
मेरी यादों में बसा है
मां का रोना
बहुत दूर से आती
उतनी ही दूर तक जाती
घुटी-घुटी आवाज
अन्तर्मन के किसी कोने में
टूटे बरतन की तरह
आज भी बजती है
बचपन के दिन थे
वह बच्ची थी
बेटी थी
बहन थी
घरोंदे बनाती थी
तीज-त्योहार और सोहर के गीत
वह झूम-झूम कर गाती
लहर-लहर लहराकर ऐसे नाचती
कि उसे नहीं रहता अपनी सुध
वह डांट सुनती
बात-बात पर झाड़-मार खाती
और इतने जोर से रोती
कि उसका रोना मशहूर हो गया
वह बड़ी हुई
रसीली जवान
शादी हुई
बच्चे हुए
घर-आंगन गुलजार हुआ
बाबूजी की तरक्की हुई
खुशहाली आई
पर घुट-घुट कर उसका रोना जारी रहा
वह बैठ जाती किसी कोने में
मुंह ढक कर रोती रहती
इसे रोने की कला की प्रौढता कहिए
कि अब आवाज नहीं होती
आंसुओं से भरा होता उसका चेहरा
मै नहीं देख पाता माँ का यह हाल
आंसुओं से सने बाल
भींगा आंचल
उससे लिपट जाता
जाकर चिपट जाता
वह सीने से लगा लेती
अपनी नन्हीं-नन्हीं अंगुलियों से
उसके आंसू पोछता
खुद भी रोने लगता
वह कहती-
क्यों नहीं जल्दी बड़ा हो जाता
तू ही मेरा दुख हरेगा
दलिद्दर मिटायेगा
और मैं बड़ा हुआ
घर में बहू आ गई
वह माँ के पांव छूती थी
उसकी तरह और भी थे
जो उसके पांव छूते थे
उसका ओहदा ऊंचा हुआ
वह दादी बनी
घर-आंगन किलकारियों से भर गया
फिर भी माँ का रोना नहीं रुका
वह रोती
छिप छिप कर रोती
घर के पिछवाड़े
किसी कोने में
दीवार की ओर मुँह किए
चेहरा ढक कर रोती
घुट-घुट कर ऐसे सुबकती
कि रोते हुए पकड़ी न जाय
और पकड़ी गई तो
सबसे सुनती झाड़
मुझसे भी-
‘ अम्मा क्या लगा रखा है
जब देखो तब…’
वह कुछ झण मेरी ओर देखती
फिर अपना चेहरा ढक लेती
कर लेती पीठ मेरी ओर
शीशे की तरह दरक गई थी
वह उम्मीद
जो उसने पाली थी
पुस्तक मेले से
(मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद के लिए)
वह लौटी थी
पुस्तक मेले से
बहुत खुश थी
जैसे भर लाई है सारी दुनिया को
अपने थैले में
ये किताबें नहीं थीं
उसके सपने थे
ऐसी दुनिया के सपने
जहाँ सब हो बराबर
लब हो आजाद
वह आई थी दिल्ली से अपने शहर
और स्टेशन पर ही घेर ली गई
ए टी एस ने कब्जे में कर लिया सारा सामान
उसका थैला
और किताबे भी
वे उलटते पुलटते रहे
तलाशते रहे किताबों में कुछ खतरनाक
शब्दों और अक्षरों में विस्फोटक
बम और पिस्तौल
गोला और बारूद आर डी एक्स…
वह समझाती रही उन्हें लोकतंत्र के मायने
विचारों की आजादी
वह बताती रही उन्हें पुस्तक मेले
और किताबों की दुनिया के बारे में
सब व्यर्थ था उनके लिए
वे लोकतंत्र के रक्षक थे
पर उन्होंने नहीं पढ़ा था
लोकतंत्र का ककहरा
उनकी नजर में वह खतरनाक थी
कोई फिदायन या आतंकवादी
और जप्त कर ली गई किताबें
अश्रुपूरित नेत्रों से वह देखती रही उन्हें
जिन्हें पुस्तक मेले से खरीदा था
जिसके लिए कई जून भूखे रहकर
उसने जुटाए थे पैसे
वह भेज दी गई बड़े घर में
दिन बीते, महीने और साल भी बीत गये
यह अनुभव की आंच थी
जिन विचारों को उसने पढ़ा था किताबों में
अब वे सींझ रहे थे
सपने जिलाए थे उसे
उसके सामने
नग्न होता जा रहा था यह तंत्र
वह हंसती इस भोदू कालिदास पर
वह देखती क्षितिज की ओर
और आसमान में उड़ते परिंदों के साथ
वह चली जाती इस चहारदीवारी के बाहर
विश्वविजय की ओर
उसके विचारों की कोई सीमा नहीं थी
उसके सपने फूलों की खुशबू की तरह आजाद थे।
उसकी जिन्दगी में लोकतंत्र
उसने जो किया, भरपूर किया
प्यार किया, वह भी दिल लगाकर किया
यह ज़रूरत से कहीं ज्यादा
उसकी सामाजिक बाध्यता थी
या
नैतिकता, मर्यादा, लोक संस्कार के
रटाये गये पाठ थे
जो उसके साथ गठरी की तरह बंधे थे
मैके पीहर नइहर
बहुत पीछे छूट गया था उसका घर
जीवन का ककहरा सीखा था जहाँ
बनी थीं बहुत-सी सखियाँ-सहेलियाँ
दोस्त भी बहुत से
कई कई सम्बन्धों को जीते हुए
वह बड़ी हुई थी
दूर दूर तक फैली थी
उसकी नन्हीं-नन्हीं जड़ें
यहीं से उखाड़ी गई
अपनी जड़ों के साथ
अपरिचित से घर के आँगन में रोपी गई
अब उसे पेड़ बनना था
भरपूर फल और फूल देना था
शीतल छाया भी
हमेशा झुके रहना था
बच्चे हुए
और समय के साथ
वे बड़े हुए
वक्त गुजरा
उसका ओहदा भी बढता गया
पहले वह बहू थी
सास हुई
बच्चों ने मेडल जीते
घर की सारी आल्मारियाँ भर गई
ट्राफियों से
जग में खूब नाम कमाये
पर वह भी बेनाम कहाँ रही?
फल फूल न दे पाई
तो एक नया नाम मिल गया उसे
अपना वजूद तलाशती
वह तन कर खड़ी हुई तो दूसरा
उड़ने की चाह लिए घर से बाहर निकली
तो कुछ और
ऐसे ही कई-कई नाम उपनाम के साथ
वह जीती रही
जैसे, ऐसे ही उसे जीना था
इस लोकतंत्र में
यहाँ उसके पास सब कुछ था
पर उसकी ज़िन्दगी में लोकतंत्र नहीं था।
दुनिया की सबसे सुन्दर कविता
कैसी है वह
कितनी सुन्दर?
इसे किसी प्रमेय की तरह
मुझे नहीं सिद्ध करना है
वह देखने में कितनी दुबली-पुतली
क्षीण काया
पर इसके अन्तर में है
विशाल हृदय
मैं क्या, सारी दुनिया समा सकती है
जब भी गिरता हूँ
वह संभालती है
जब भी बिखरता हूँ
वह बटोरती है
तिनका तिनका जोड़
चिडि़या बनाती है अपना घोसला
वैसे ही वह बुनती है घोसला
शीत-घाम से बचाती है
मैं कहता हूँ
उसके सौन्दर्य के सामने
मेरी नजर में
सब फीके हैं
उसका सौन्दर्य मेरे लिए
गहन अनुभूति है
लिखी जा सकती है उससे
दुनिया की सबसे सुन्दर कविता।
अनुपम मारा गया, क्यों?
वह अनुपम था
सुन्दर, सुशील व सुदर्शन
हम सबकी गोद में खेला
पइया पइया घुसकते ठुसकते
हमारी अंगुली पकड़
कंधे पर चढ़
हमारे सामने बड़ा हुआ
उसके लिए सब अंकल थे
और वह हमारे लिए अनुपम
‘न उधो से लेना, न माधो को देना’
बस, अपने काम से काम
फिर, क्यों कर दी गई
उसकी ज़िन्दगी तमाम?
उसने बी टेक किया
पर संतोष कहाँ
नजरें तो किसी बड़ी ऊँंचाई पर थीं
और इस चाहत में
सब छोड़ छाड़
वह आ गया इलाहाबाद
अभी और पढ़ना चाहता था
आगे बढ़ना चाहता था
यह कोई सीरियल बलास्ट नहीं था
पर उससे कम भी नहीं था
कभी महाप्राण निराला ने इसी इलाहाबाद के पथ पर
पत्थर तोड़ती स्त्री को देख कविता लिखी थी
ऐसे ही किसी पथ पर वह पड़ा था निर्जीव
जाड़े की भयानक रात थी
चारो तरफ फैला था उसका गरम खून
पेट फाड़ बाहर आ गई थीं अतडि़याँ
माँ बेहोश
पिता किंकर्तव्यविमूढ
़उनके सपनों के परखचे उड़ गये थे
बहन, दोस्त, सब छटपटाते
वहाँ कुछ भी नहीं बचा था
चिडि़या उड़ चुकी थी
महीना भर पहले घर में शहनाई बजी थी
वह दुल्हा बन घोड़े पर चढा था
सब नाचे थे
जो नहीं जानते थे
उनने भी हवा में हाथ लहराये थे
पैर और कमर हिलाये थे
बस, महीना भर पहले
घर में खुशियाँ आई थी
वह खूँटे से बँधा था
या उसके खूँटे से बाँध दी गई थी
बताते है
वह दो प्रेमियों की जुबान में
कंकड़ी की तरह जा फँंसा था
चर्चा गर्म थी, इतनी गर्म
कि कुछ भी सेंकी जा सकती थी
इसी बीच एक खबर उछली
कि हत्यारे भोपाल से आये थे
रहस्य, उत्सुकता
एक कान से दूसरे कान
फुसफुसाती, तैरती बातें
मुँह जितने, उतनी बातें
और इन बातों का क्या
जो बिना पैर के चलती हैं
संचार माध्यमों से ज़्यादा द्रुतगति से
अनियंत्रित फैलती हैं
कोई सुराग तो मिले?
पूछ-ताछ के घोड़े दौड़ रहे थे
अपने वृत में हिनहिना रहे थे
‘सावधान इंडिया’ का कैमरा तेजी से घूम रहा था
‘क्राइम पेट्रल’ की पूरी टीम जुटी थी
लूट मची थी
ऐंकर प्रसन्न थे
अगले एपीसोड के लिए
उनके हाथ लगी थी एक नई स्टोरी
टीवी पर ऐंकर कह रहा था
हम… फिर हाजिर होंगे अगले सप्ताह
एक नई ताजातरीन कहानी के साथ
बस, हफ्ता भर इंतजार कीजिए
सावधान रहिए
सुरक्षित और सतर्क
पर वह नहीं बता पाता
कि कैसे रहा जाय सुरक्षित और सतर्क
जब हत्यारों से घिर गये हैं हम
वे पहुँच गये हैं घरों में
रहते हैं हमारे बीच
बसते हैं हमारे अन्दर…
क्या है आज सबसे दुर्लभ?
क्या है आज सबसे दुर्लभ
हमारे जीवन में?
यह सवाल
बच्चों से पूछा गया था
उनके स्कूूल में
बच्चे भी हार मानने वालों में नहीं थे
हाथ पाँव मारे
खूब माथा भिड़ाया
पर नहीं मिल सका उŸार
खोजते ढूँढ़ते चले गये अपने-अपने घर
बच्चों में मेरा बेटा भी था
गणित का कोई प्रश्न
न हल हो पाने जैसी परेशानी
झलक रही थी उसके चेहरे पर
और उसने किया मुझसे वही सवाल
बताओ पापा
क्या है आज सबसे दुर्लभ
हमारे जीवन में?
सवाल टँगा था मेरे सामने
हवा में उछलता
क्या हो सकता इसका जवाब?
मैं चुप…गंभीर…
छोटा सा
सरल-सा दिखने वाला सवाल
क्या हो सकता है इतना कठिन?
बेटा चाहता था तुरन्त जवाब
उसमें हम जैसा धैर्य कहाँ
फिर पता नहीं क्या सूझी
वह उठा लाया
घर के किसी कोने में पड़ी
बाबूजी की पुरानी लाठी
अपने कद से कहीं ऊँची
बाँध लिया सिर पर मुरैठे की तरह
बाबूजी का गमछा
आँखों पर चढ़ा लिया बाबूजी का मोटा ऐनक
लाठी टेक खड़ा हो गया मेंरे सामने
बाँया पैर आगे
दाँया पीछे
एक हाथ कमर पर
उसने बना ली थी अपनी मुद्रा अति गंभीर
बोलो …बोलो…
क्या है वह…
क्या है वह…?
लगा लाठी पटकने
सारा घर जमा था
सब भौचक देख रहे थे यह दृश्य
बांध टूट गया था
रोके नहीं रुक रही थी अपनी हँसी
मक्के के लावे की तरह वह फूट पड़ी
मेरा हँसना क्या था
सब हँस पड़े
छोटा-सा घर
सबकी खिलखिलाहट से गूँज उठा
उसकी भंगिमा भी न रह सकी स्थिर
वह भी हँस पड़ा
सबके पेट में पड़ गया था बल
आर्कमेडिज की तरह मैं चिल्ला पड़ा
यूरेका…यूरेका…
यही तो…
यही तो… है वह सबसे दुर्लभ
हमारे जीवन में
यही तो…यही तो…
बाघ-बकरी
वे चुस्कियों का आनन्द लेते हैं
पीते हैं चाय-
‘बाघ-बकरी’
इसे पीकर वे क्या बनना चाहते हैं
बाघ?
या
बकरी?
बाघ बने तो होंगे आदमखोर
जाना होगा जंगल में
करना होगा शिकार
वहाँ गूंजेगी बाघ के डुकरने की आवाज
सारा जंगल आ जाएगा दहशत में
वे खलेंगे दबंगई का खेल
भागने और दबोचने का खेल
हड्डी और मज्जा से निचोड़ेंगे मांस
करेंगे रक्तपान
बकरी हुए तो होंगे दास
सारी ज़िन्दगी बंधना होगा दूसरे के खूंटे से
फंसरी की तरह गले में पड़ी होगी रस्सी
में…में…में…में…
मिमियाती, रिरियाती, घुटी-धुटी आवाज
वह देगा थोड़ी-सी घास
रुखे-सूखे पत्ते
और चाहेगा पूरा दूध
और कभी घर जा जाय कोई मेहमान
या आ जाय अपना ही मन
दावत में परोसा जाएगा
हड्डियों से चिचोड़ते हुए मांस
बड़े चाव से खा रहे होंगे सब
स्वादिष्ट व्यंजन
यह कितना खूबसूरत भ्रम है
इस बाज़ार का
जो दे रहा है कई-कई विकल्प
ख्याल किसिम-किसिम के
क्या गजब का अहसास कि
आपको पीनी है चाय
कड़क मसालेदार
पर बनना या होना है
बकरी या बाघ!
टोपी
वह टोपी थी
दम-दम दमकती
भगवा रंग में रंगी
उस पर चमक रहा था
बड़े बड़े हरफों में लिखा
‘अबकी बार, मोदी सरकार’
वह बांटी गई सारे मोहल्ले में
घर घर
मुझे भी दी गई
यह मेरा मध्यवर्गीय संकोच था
या लोकतांत्रिक भलमनसाहत
मैं नहीं कर सका इनकार
अब टोपी घर के अन्दर थी
इसे पहन नहीं सकता था अपने सिर पर
टांग नहीं सकता था किसी खूंटी पर
कोई जगह मिल नहीं रही थी घर में
क्या किया जाय इसका
कहाँ रखी जाय इसे
कहीं किसी मित्र की नजर न पड़ जाय
मैं परेशान
मेरी यह दुविधा नहीं छिपी रही पत्नी से
वह सहज भाव से बोली-
टोपी से काहे की परेशानी
लाओ, हमें दे दो
और उसने ले ली टोपी
उस वक्त अपनी कमर में दुपट्टा बांध
वह जूझ रही थी गन्दगी से
छत पर लगे जालों
फर्श की धूल-धक्कड़
कीड़े-मकोड़ों पर
उसका चल रहा था झाड़ू
हमने देखा
सफाईवाला जब घर से
कूड़े की बाल्टी ले जा रहा था
वहाँ नीचे दबी पड़ी थी टोपी
निस्तेज, बदरंग
मुड़ी-तुड़ी, सिकुड़ी
देर नहीं लगी
टोपी पहुंच गई थी अपने ठिकाने
इस त्वरित कार्यवाही पर कुछ शब्द फूटे
स्वतःस्फूर्त
पत्नी ने पूछा-
कुछ कहा क्या मुझसे
नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं
पर, यह अपना चेहरा था
जहाँ खिल आई थी खिल-खिल हँसी
भेडि़या निकल आया है माँद से
वह आये
ज़रूरी नहीं
वह इतिहास की राह पकड़ कर आये
ज़रूरी नहीं
वह दिव्य रूप धरे अवतरित हो
जन्म से
उसके मुंह में चांदी का चम्मच हो
वह आ सकता है
लोकतंत्र के रास्ते आ सकता है
स्मृतियों को रौंदता
संस्कृति का नया पाठ पढ़ाता
वह आ सकता है
जैसे वह आया है इस बार
ढ़ोल, नगाड़ा, ताशा…
एक ही ध्वनि-प्रतिध्वनि
अबकी बार…बस…बस अपनी सरकार
और इस आगत के स्वागत में
जयकारा करती भीड़ है
नशा उन्माद
इसकी लीद है
इस लीद पर सवार
वह आया है इस बार
कितनी खिली हैं उसकी बांछे
लाला किले के प्राचीर से
वह करता शंखनाद
घूम रहा दुनिया दुनिया
‘युद्ध नहीं, बुद्ध’ का संदेश
गोडसे-मुख में गांधी
गीता का उपदेश
वह बांसुरी बजाता।
स्वर लहरियों पर लहराता
ड्रम की धुन पर थिरकता
झाड़ू चलाता
मदारी की तरह आंखें नचाता
अपना बहुरूप दिखाता
पास उसके बड़ी पोटली है
इसमें किस्से कहानी है
यह तो ट्रेलर है
पूरी फ़िल्म अभी बाकी है
समरसता का अदभुत मेल है
क्रूरता और दरियादिली का
निरंकुशता और लोकतंत्र का
मिलाजुला खेल है
यहाँ रक्तसने हाथ हैं
तो मसीहाई अन्दाज है
मालिक का गुरूर है
तो प्रधान सेवक का नूर है
पहले वह मारता है
फिर मुआवजा बांटता है
‘हुआं हुआं’ तो हुआ
और न हुआ, तो क्या हुआ
बुझो, समझौता एक्सप्रेस हुआ
ऐसा ही मायालोक रचता
वह अवतरित है र्रंगमंच पर
रंगमंच पर अब देश नहीं दृश्य है
विडम्बनाओं, विसंगतियों और भ्रमों से भरा परिदृश्य है
और नेपथ्य में?
नेपथ्य में शोर, कोलाहल, चीखें…
बाथे, बथानी टोला, छत्तीसगढ़…
यहाँ से वहाँ, कहाँ से कहाँ तक
रक्तरंजीत धरती पर बिछी है भारत माता
कि उघाड़ी गईं कोखें
अब नहीं जनेंगी मुक्तिचीते
ये किनकी संगीने हैं
जो विजय उल्लास में तनी हैं
नेपथ्य में कैसा भयावह सन्नाटा?
चारो तरफ फैली है चिरांयध
यह फैय्याज खां साहब का मकबरा है
या मलवे का ढेर
क्यों बेचैन हैं पंडित जसराज
उधर बिखरी लाशों की ढूह पर बैठी
बुढिया क्यों रो रही
किसके लिए
इधर जल रही बस्तियों से
कौन सुलगा रहा अपनी सिगरेट?
अपनी विस्फारित आंखों से
मैं देख रहा हूँ
स्तम्भों को
चटकते, गिरते, ढहते, ध्वस्त होते
और इस ध्वंस पर उदित होता
खिलखिलाता
जन गण मन अधिनायक भारत भाग्य विधाता
क्या आप भी देख पा रहे हैं?
उसकी पीठ पर यह किसका हाथ है
और कहाँ झुका है
छप्पन इंच का चौड़ा सीना
हथेलियों में हथेलियाँ
अंगुलियों में अ्रगुलियाँ फंसाये
कितना गर्म मुलायम स्पर्श
जहाँ से अविरल बह रही है
चेहरें के यौवन को सींचती ऊर्जावान धाराएँ
बड़ी चमकीली हैं सच्चाई की किरणें
छिपाते छिपाते भी नहीं छिपती
बाहर आ ही जाती हैं
दिख ही जाती हैं आखिरकार…
यह वक्त है
जब मेरे अन्दर उतर आया है
मेरा प्रिय कवि सर्वेश्वर
ललकारता-
उठो, तुम मशाल जलाओ
भेडि़या निकल आया है मांद से
तुम मशाल को ऊँचा उठाओ
भेडिये के करीब जाओ
करोड़ों हाथों में मशाल लेकर
एक एक झाड़ी की ओर बढ़ों
भेडि़या भागेगा
सब भेडि़ये भागेंगे
वक्त ऐसा ही है
तुम मशाल जलाओ
उसे ऊँचा उठाओ.
(इस कविता की रचना के समय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘भेडि़या’ मन मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ रही थी, प्रेरक के रूप में। यह कविता लखनऊ में आयोजित ‘कविता: 16 मई के बाद’ में पढ़ी गई.)
कौन जाने…
हम नहीं चाहते
जिन्हें अपने से दूर करना
वे चले जाते हैं
हमसे दूर, बहुत दूर
समन्दर पार
कौन चाहता है
हमारे बच्चे जायें
अलग बसे उनकी दुनिया
घर-बार
हम चाहते हैं
जिस धरती पर उगे हैं
वहीं वे वृक्ष बने
फले-फूले
वहाँ की हवा में फैल जाए
उनकी सुगन्ध
उनकी प्रतिभा, कौशल और श्रम से
बगिया लहलहाये, सुवासित हो
हमसे हो वे
और उनसे हो हमारा अस्तित्व
बने हमारा संसार
पर वे छिटक जाते हैं
पेड़ से टूटे पत्ते की तरह
दूर, बहुत दूर, समन्दर पार
बसती है उनकी दुनिया
हम रह जाते हैं इस पार
पहले साल में एक बार
फिर कभी-कभार
और अब तो बस हालचाल
सम्बंधों की नाजुक डोर को थामे
हमारे दिन कटते हैं टक-टकी बांधे
उनके इंतजार में
सांसें चल रही है इसी आस में
वे आयेंगे जिन्दा रहते नही
तो मरने पर ही सही
बस, जीते हैं इसी अहसास के साथ
अपने अकेलेपन में
कौन जाने, वे जीते हैं कैसे?
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर
8 मार्च 2010, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर लखनऊ में हुई महिलाओं की रैली के बीच
वह जुलूस के पीछे थी
उछलती-फुदकती
दूर से बिल्कुल मेढ़क-सी नज़र आ रही थी
पर वह मेढ़क नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
उसके कंधे से लटक रहा था झोला
जिसमें थीं कुछ मुड़ी-तुड़ी रोटियाँ
एक ग्लास
कंघा और पानी की बोतल
पोलियोग्रस्त उसके पैर धड़ से चिपके थे
दो सियामी जुड़वाँ बहनों की तरह
वे धड़ के साथ उठते
उसी के संग बैठते
दोनों हाथ उसके पैर भी थे
इन्हीं पर अपने पूरे शरीर को उठाती
और आगे हवा में झटक देती
इसी तरह वह आगे बढ़ रही थी जुलूस में
इसी तरह उसने रेलवे स्टेशन के पुल को पार किया था
इसी तरह वह शहीद स्मारक की सीढ़ियाँ चढ़ी थी
इसी तरह वह आई थी गोंडा से
इसी तरह वह कहीं भी आ और जा सकती थी
कठिन ज़िन्दगी को
इसी तरह उसने बना दिया था आसान
प्रदेश की राजधानी में वह आई थी
समानता और सम्मान के
अपने संघर्ष के सौ साल को सलाम करने
वह आई थी
यह इतिहास चक्रव्यूह ही तो रहा है
इसे तोड़ बाहर निकलने की छटपटाहट के साथ
वह आई थी
वह जुलूस में चल रही थी पीछे पीछे
नारे जब हवा में गूँजते
जुलूस के उठते थे हाथ
और उसके उठते थे सिर उर्ध्वाधर दिशा में तने हुए
लहरा उठते बाल
मचलती आवारा लटें
हवा में तरंगित स्वर-लहरी
वह बिखेर रही थी सौन्दर्य
ख़ुशबू ऐसी जिसमें रोमांचित हो रहा था
उसका प्रतिरोध
भाप इंजन का फ़ायरमैन बनी
अपना सारा कोयला वह झोके दे रही थी
सड़क की दोनों पटरी पर खड़े लोगों के लिए
वह लग रही थी अलग-सी
कुछ अजूबा भी
उनके मन में थोड़ी दया
थोड़ा तरस भी था
और हर भाव से संवाद करती
वह बढ़ रही थी आगे आगे… और आगे
यह जुलूस
रोज़-रोज़ की रैली
राजनीतिक खेल और तमाशा
शहरियो के मन में खीझ नफ़रत
हिकारत भरे भाव
कि जुटाई गई भीड़
पैसे के लालच में आई है यह
अपने पाँवो पर चल नहीं सकती
हूँ…खाक लड़ेगी सरकार से !
इस शहरी अभिजात्य व्यंग्य पर वह हँस रही थी
क्या जाने लड़ाइयाँ
कहाँ कहाँ और कैसे कैसे लड़ी गई हैं
कितनी गहरी हैं जड़ें
और कितना विशाल है इतिहास
क्या मालूम
कि पैरों से पहले
वह दिल-दिमाग से लड़ी जाती हैं
और वह सही सलामत है उसके पास
पूरा साबुत
वह जनसभा में सबसे आगे थी
कृष्णा, ताहिरा, विद्या, शोभा, शारदा, विमल, रेणु….
अपनी असंख्य साथियों में वह थी
और सब थीं उसमें समाई हुई
पहाड़ी नदियाँ उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी ।
पुस्तक मेले में
ज्ञान के इस संसार में
बहुत बौना
पढ़ ले चाहे जितना भी
वह होता है थोड़ा ही
कैसा है यह समुद्र ?
पार करना तो दूर
एक अँजुरी पानी भी
नहीं पी पाया अब तक
रह गया प्यासा का प्यासा
कुछ-कुछ ऐसा ही अहसास था
कहीं गहरे अंतर्मन में
घूमती मेरी इंद्रियां थीं
शब्द संवेदनाओं के तन्तुओं को जोड़ती
इधर ज्ञान
उधर विज्ञान
बच्चों के लिए अलग
बड़े-बड़े हरफ़ों में
कुछ कार्टून पुस्तकें
कुछ सचित्र
ऐसी भी सामग्री
जो रोमांच से भर दे
मेरे साथ थी पत्नी
बेटा भी
किसी स्टॉल पर मैं अटकता
तो बेटा छिटक जाता
अपनी मनपसन्द की पुस्तकें खोजता
सी०डी० तलाशता
पत्नी खो जाती प्रेमचंद या शरतचंद में
तभी इस्मत चुगताई अपनेपन से झिंझोड़ती
दूर से देखती मन्नू और मैत्रेयी
बाट जोहती
दर्द बांटती तस्लीमा थी
कहती ज़ोर-ज़ोर से
औरतों के लिए कोई देश नहीं होता
कौन गहरा है
दर्द का सागर
या शब्दों का सागर ?
प्रश्न अनुत्तरित है आज भी ।
उसका हिंदुस्तान
एक औरत सड़क किनारे बैठी
पत्थर तोड़ती है
वह पत्थर नहीं तोड़ती
ज़िन्दगी घसीटती है
एक औरत उन पत्थरों से बनी
सड़क पर सरपट दौड़ती है
कार की तरह
उसमें बैठी हुई
एक औरत के दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं
पहली मंज़िल से दूसरी मंज़िल
दूसरी से तीसरी
बाँस की सीढ़ियों पर चढ़ती हुई
वह मिट्टी की गंध पहुँचाती है
एक औरत रहती है
इस बहुमंज़िली इमारत में
मिट्टी की गंध से बेख़बर
श्रम से बेख़बर
उसकी दुनिया से बेख़बर
एक औरत प्रताड़ना की पीड़ा झेलती है
अपमान के कड़ुए घूँट पीती है
आत्मदाह करती है
या सरेआम जलाई जाती है
एक औरत इस घटना पर आँसू बहाती है
वह फ़र्क नहीं मानती
सभा-सोसाइटी में जाती है
हर मंच की शोभा बढ़ाती है
समानता पर
औरतों के जलाए जाने के विरुद्ध
लम्बा भाषण देती है
ख़ूब तालियाँ बटोरती है
वह ख़ुश है कि
औरतों का बिल
उसने पारित करा लिया है
अब दिखेंगी औरतें हर जगह
हर सदन में
मुख्य-धारा में होंगी औरतें
एक औरत देख रही यह सब
अपलक निगाहों से
अकड़ गई उसकी पीठ
तन गई उसकी गर्दन की नसें
हाशिए पर खड़ी-खड़ी पथरा गई हैं
उसकी आँखें
इन्ही आँखों में है उसका हिन्दुस्तान ।
फटा जूता
यह मेरा जूता है
तले से फटा
बताता है
अपना ही नहीं हमारा भी हाल
ऐसे में इसे पहनना
घसीटना है
हम भी कोई ऐसे लाट नहीं
जो हर बात पर बदल लें जूते
कई मौसम में इसने दिया है साथ
ऊपर तो चल सकता है अभी
महीने, दो महीने
फिर, यह कोई तुक नहीं
कि फेंक दिया जाए इसे
हाँ, एक विचार रह-रह कर उमड़ता-घुमड़ता है
कि फेंकना ही है
तो क्यों न फेंका जाय किसी बुश पर
हम भी हो जाएँ महान
अख़बारों में छपे ख़बर
जूते की बड़ी-सी तस्वीर
जूता फेंकना और बुश का अपने को बचाना
यह दृश्य बार-बार दिखाया जाय टी०वी० पर
जूता हमारा धन्य हो जाय
इतिहास बन जाय
पर अपने अन्दर ऐसी हिम्मत कहाँ ?
फिर तो इसे ज़िन्दगी की तरह
रगड़ना और घसीटना है
और फटा है
तो यह कुछ न कुछ खेल
करतब दिखाएगा ही
इसे पहन जब चलता हूँ
धूल भरी सड़क या रेत पर
साफ उभरता है
इसके भूगोल का अक्स
ज़मीन गीली हो
या फैला हो पानी
पड़ जाय पाँव
फिर क्या पूछना उस ‘पच पच’ संगीत का
जो तलुवे और जूते के घर्षण से सृजित होता है
और कहीं कोई नुकीली चीज़
आ जाये इसके नीचे
तो सिर्फ मातृभाषा ही है जो साथ देती है
दर्द कराह गुस्से व नफ़रत की
अब यही जबान होती है
ऐसे में इच्छा होती कि
फेंक दूँ इसे अपने से इतनी दूर
कि यह लौट ना पाए कभी
पर यह जूता है
न इसे फेंका जा सकता है
न बक्से में रखा जा सकता है
इसे ही पहनना है
और छिप-छिपाकर
ऊँच-खाल सब बचाकर
ऐसे चलना है
जूते से ज़्यादा रखना है इस बात का ख़याल
कि किसी को पता न चले जूते का हाल
कहते हैं प्रीत छिपाए न छिपे
आख़िर एक दिन पत्नी की नज़र
पड़ ही गई इस फटे जूते पर
फिर क्या ?
ख़बर जंगल की आग की तरह फैली
लपटें आस-पड़ोस तक चली गई
पत्नी ने जमकर भला-बुरा सुनाया
आग लगे ऐसी कमाई पर
खूब कोसा
दोस्तों ने भी उड़ाई खिल्ली
इतना मोह और वह भी फटे जूते से
बच्चों के लिए तो यह ख़ुशख़बरी थी
पापा, पापा
चलो चलते हैं बिग-बाज़ार
आपके लिए लाते हैं ब्राँडेड शू
मेरी चप्पल भी हो गई है पुरानी
आपके लिए वुडलैण्ड
हम स्पार्क से काम चला लेंगे
सब बोलते रहे
गुनते रहे
और मैं सुनता रहा
हाथों में ले अपने फटे जूते को
उलट-पुलट देखता रहा
कहाँ-कहाँ से हो सकती है इसकी मरम्मत
यही सोचता रहा
यह ऐसा वक़्त था
जब जूता ही नहीं फटा था
फट गई थी जेब
और मैं था मज़बूर
सब बोल और कह सकते थे
मैं कुछ कर नहीं सकता था ।
टप्पल में…
टप्पल (अलीगढ़) में यमुना एक्सप्रेस वे के लिए खेती की ज़मीन के अधिग्रहण के खिलाफ़ किसानों के महाधरना व संघर्ष के दौरान यह कविता लिखी गई।
टप्पल में
धरने पर जो बैठे हैं
दरअसल
सरकार के विरोध में
वे खड़े हैं
सरकार चाहती है
धरना खत्म हो
किसान जाएँ अपने घर
शान्ति आए
ले और देकर
मामला रफ़ा और दफ़ा हो जाए
पर किसान हैं
बैठ गए तो बैठ गए
पलहत्थी मार ज़मीन पर
टेक दी है लाठी
रख दिया है गमछा
सज गया है चौपाल
नेता हो या मंत्री
अफ़सर हो या संतरी
जिसको आना है यहीं आए
हम नहीं हटेंगे
कहते हैं –
साठ साल से हम हटे हैं
हटते ही रहे हैं
हटना है तो सरकार हटे
हम तो डटे हैं
अब यहीं डटेंगे
आख़िर क्यों दें अपनी उपजाऊ ज़मीन
कंपनियों को
कि वे आएँ
और बनाएँ चमचमाती सड़कें
मॉल और मल्टी पलेक्स
सजें उनके बाज़ार
दौड़ें उनकी गाड़ियाँ
भरें उनकी तिजोरियाँ
और वे खेलें
खेल में खेल
उनके इस खेल के लिए
क्यों छोड़े हम खेत
और लगा दें अपने भविष्य पर ताला
मुआवजा तो तैयार भोजन है
खाया और हजम
फिर तो सब ख़तम
जीवन और सपने सब
इसीलिए
अब लाठी चले या गोली
पानी की तेज़ धार हो
या आँसू गैस
हम नहीं हटने वाले
ऐसी ही जिद्द है इनकी
जिस पर अड़े हैं
टप्पल में
धरने पर जो बैठे हैं
दरअसल
सरकार के विरोध में
वे खड़े हैं
पत्थर और रस्सी
तुम पत्थर
मैं रस्सी
हमारा क्या मुकाबला ?
तुम ठोस, सख़्त और मज़बूत
मैं कोमल, मुलायम और लचकदार
तुम्हारे घनत्व की हमसे क्या बराबरी ?
तुम मन्दिर में स्थापित
मनों दूध से रोज नहाते
तुम्हारे निशाने पर
डाल से लटकता फल
बैठी है जिस पर भूखी चिड़िया
चोंच मारने को तैयार
फल गिरता है धरती पर
और ‘चीं….चीं’ करती चिड़िया
घायल कहीं दूर
यही तुम्हारी खासियत है
चोट देना और प्रहार करना
ज़ख़्म देना और लहूलुहान करना
निष्ठुर हो
कठोर हो
फिर भी पूजे जाते हो
तुम कुएँ की जगत पर चित्त लेटे
अपना चट्टानी सीना फैलाए
और मैं बँधा तुम्हारे सीने से रगड़ खाता
पर जंग तो जंग है
और यह कोई नई नहीं
आदिम काल से चली आ रही
हम दास बनाए गए
और तुम मालिक
हम असभ्य कहलाए
और तुम सभ्य
विभाजन रेखा खींच दी गई हमारे बीच
हम रह गए जहाँ थे
और तुम हड़प चले गए उस पार
जानता हूँ
मैं नहीं बचूँगा
कुछ भी नहीं बचेगा
नष्ट हो जायेगा मेरा रेशा-रेशा
अस्तित्वहीन हो जाऊँगा
पर किसी ख़ुशफ़हमी में नहीं रहना
तुम भी नहीं बचोगे साबुत
मिटते-मिटते भी
मैं छोड़ जाऊँगा
तुम्हारे सीने पर अपना निशान
रक्तबीज हैं हम
फिर-फिर लौटेंगे
स्पार्टकस बन कर
वे धारियाँ जो हमने बनाई हैं
गहराती जाएँगी दिन-दिन ।
एक मुट्ठी रेत
यह कविता इराक पर अमरीका के हमले के दौरान लिखी गई
सारी दुनिया के सीने पर सवार
जल्लादों का जल्लाद
खेलता है
तेल का खेल
पूंजी का खेल
लूट का खेल
तेल कार्टेल
बेफ़िक्र बेपरवाह बेलगाम
लोकतंत्र और शराफ़त का जामा ओढ़े
जंगली पागल हाथी की तरह मदमस्त
रौंदता जाता है
करोड़ो की जीवन-बेल ।
हमने कहा
सबने कहा
जन-जन ने समवेत स्वर में कहा
बंद करो यह नरमेघ
हमारे नुमाइन्दों आगे आओ
यह है हिटलर-मुसोलिनी का 21 वीं सदी का अवतार
कर देगा सारी दुनिया को तार-तार
देखो दजला फरात टिगरिस का हाल
सारा पानी रक्त से लाल-लाल
क्या बच पाएगा वोल्गा से गंगा तक का इलाका
आज इराक की बारी
कल होगा सारी दुनिया पर भारी
यह बेमेल युद्ध है
प्रकृति के विरुद्ध है।
पर
अपने अंतराष्ट्रीय आकाओं को नाख़ुश कौन करे
बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे
सब चुप
जैसे फँसी है उनकी दुम ।
क्या समुद्र क्या धरती क्या आसमान
सब पर पड़ रही है अत्याधुनिक हथियारों की मार
रात के अँधेरे को चीरती मिसाइलों की आग
हज़ारों टन बमों की बारिश मूसलाधार
चारों तरफ़ हाहाकार चीत्कार
भाग रहे लोग जान बचाने को खंदकों की ओर
आश्रय की तलाश में इधर से उधर
न खाने को अन्न न पीने को पानी
न साँस लेने के लिये आक्सीजन
चारों तरफ़ आग ही आग और धुआँ
दूषित हो गया है सारा वातावरण
खंडहरों में तब्दील हो रहा है शहर मलवे मकान
उजड़ रहा जैसे सारा कायनात
समूचा देश
मसोपोटामिया से इराक की
शताब्दियों की सांस्कृतिक विरासत
बच्चों के स्कूल खेल के मैदान
औरतों के श्रृंगार-कक्ष
कारखाने सड़कें दुकान
श्रम निर्मित संसार
सबको कुचलता इठलाता
महाविनाश का दैत्य करता है अट्ठहास
कैसा भयावह है यह दृश्य
मेरा पीछा करता है
सोने नहीं देता रात-रात भर
बेचैन मन
दूर जहाँ तक जाती निगाह
जले-अधजले मरे-अधमरे लोग
बूढ़े बच्चे जवान औरतें
टूटी बिखरी गाड़ियाँ
एक बच्ची रेत पर अचेत
पड़ी है ज़ख़्म और घावों का बोझ लिए
अपनी चेतना की वापसी के लिए जूझ रही है अनवरत
आसमान पर मंडरा रहे हैं बमवर्षक
अपाची हेलिकाप्टर
गुजर रहे हैं टैंकों के काफ़िले
तोड़े जा रहे हैं बुत
मिटाए जा रहे हैं
हर चिन्ह हर निशान हर कुछ
जिससे बनता है देश
यह नन्ही-सी बच्ची
हरकत लौट आई है
दर्द-कराह को पीते हुए खड़ी हो रही है
अपने पाँवों पर
सारी शक्ति को संजोते हुए
वह उठाती है अपनी धरती से एक मुट्ठी रेत
निशाना साधती है टैंकों के काफिले पर
आसमान पर चील की तरह मंडरा रहे अपाची पर
जैसे हाथ नहीं रॉकेट लाँचर हो
रेत नहीं मिसाइल हो
फिर उठाती है एक मुट्ठी रेत
निशाना साधती है
बार-बार दोहराती है
और हर बार नई ताज़गी, नए जोश से भर जाती है
लगता है इस नन्ही सी छोटी-सी बच्ची में
समा गया है सारा देश ।
लहरें
लहरें जब उठती हैं
लहरें जब बनती हैं
लहरें जब अपनी निर्माण-प्रक्रिया से गुजरती हैं
लहरें जब कगारों से टकराती हैं
पछाड़ खाती हैं
और बिखर जाती हैं
उनका आरम्भ अमूमन यही होता है
स्वतः स्फूर्त
लहरें फिर बनती हैं
इतिहास के पटल पर
लहरों के बनने की
एक सूत्र में बंधने की
कोशिशें लगातार जारी हैं
यह अकारण नहीं है
यह महज एक घटना नहीं है
हमने देखा है
धुएँ और धुँध की गिरफ़्त में
कगारों के इतिहास को
मुक्ति के लिए छटपटाते हुए
जहाँ हर चीज़
खण्डों और सारणियों में विभाजित हो जाती है
यहाँ का गणित
पट्टे-पटवारी के सहारे
कई तरह के गणितों में टूट जाता है
लहरें एक सिलसिले की तरह
नये सिरे से बनती हैं
बूँद-बूँद को जोड़ती हुई
अपनी हिलोरों को गोलबन्द करती हुई
झूमती और मचलती हुई
वायु-वेग के साथ आवेगशील हो
बढ़ती हैं कगारों की तरफ़
लहरें इस बार धरती के लिए बहुत कुछ लाती हैं
लहरें इस बार धरती के लिए नई मिट्टी लाती हैं ।
सुबह की धूप
हम पड़े रहते हैं
नींद की चादर के नीचे
सुविधाओं को तह किए
और बाहर
सुबह की धूप हमारा इंतज़ार करती है
खिड़की-रोशनदानों पर दस्तक देती हुई
सब कुछ जानते-समझते हुए भी
हम बेख़बर रहते हैं
सुबह की इस धूप से
जो हर सुराख से पहुँच रही
अपनी चमकीली किरणों के साथ
अंधकार को भेदती हुई
यह उतरती है
पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर
फिसलती हुई
घास पर पड़ी ओस की बूँदों में
मेतियों की तरह चमकती है
पेड़ की फुनगियों से झूला झूलती है
नहाती है समुद्र की लहरों में
चिड़ियों की तरह चहचहाती है
स्कूल के बच्चों की तरह
घर से बाहर निकलती है
कितनी नटखट है यह धूप
सुबह-ही-सुबह
हमारी नींद
हमारी दुनिया में हस्तक्षेप करती है
डायरी की तरह खोल देती है
एक पूरा सफ़ेद दिन
इसी तरह जगाती है
हम-जैसे सोये आदमी को
उसे ज़िन्दगी की मुहिम में
शामिल करती है हर रोज़ ।
पत्नी और घर
यह औरत
जो पड़ोसिन से बचत का गुर
सीखने गई है
यह औरत
जो चूल्हे में हरकत बो रही है
मेरी पत्नी है
यह चलती है
तो घर चलता है
चूल्हा जलता है
इसके चेहरे पर है
मध्यवर्गीय चिन्ताओं की नदी
जिसमें हाथ-पैर पटकती है
डुबकी लगाती है
इसके अन्दर विलुप्त हो रहे अपने घर के लिए
कोशिश में है कि
इस घर को नदी से बाहर लाकर रख दे
और कहे
यह है मेरा घर
इस देश में मेरा भी है एक घर
गुर सिखाने वाली पड़ोसिनें कहती हैं
भले ही बच्चों को दूध न मिले
पर रहें अच्छे कपड़ों में
दिखे टिप-टॉप
कौन देखता है
आपके अन्दर के इतिहास के पन्नों पर फैले रेगिस्तान को
हाँ, आवरण पर कुछ हलचलें
कुछ रंगीनियाँ हों ज़रूर
कि लोग कह उठे
कितने सुखी हैं दम्पत्ति
कितने हँसदिल हैं बच्चे
कितना भरा-पूरा है घर
और आप लोगों के बीच उठ जाएँ
धरती से कुछ इंच ऊपर
लोग आपका उदाहरण दें
और आप कहें
अपने खून-पसीने से बनाया है यह घर
जैसे टाटा-बिड़ला ने मेहनत से
उगाही है अपनी सम्पत्ति
अपने सपने में बसे घर के लिए
यह औरत उठती है हर सुबह
कपड़ों को ठीक करते
कमरे को ठीक करते
घर को ठीक करते
बैठकखाना सुसज्जित हो पूरी तरह
कहीं सलवटें न हों चादर पर
हर चीज़ हो यथास्थान
गड़बड़ी के लिए बच्चों को फटकारती है
साहब को डाँटती है
सारा दिन चलती रहती है इधर से उधर
अन्दर से बाहर
बाहर से अन्दर
अपने सपने में बसे घर के लिए
पर घर है
जैसे भारत देश की पंचवर्षीय योजनाएँ
यह औरत घर के लिए जितना ज़्यादा परेशान होती है
उतना ज़्यादा डूबती है नदी में
विचारों में घर का ख़ूबसूरत नक़्शा बनाती है
और यथार्थ में
पीछे की दीवार ढह जाती है
सोफ़े का खोल बदलने की बात सोचती है
और बैठकखाने की चादर फट जाती है
साहब दिखें जिन्स में स्मार्ट
कि बच्चे हो जाते हैं नंगे
या फट जाती है उसकी अपनी ही साड़ी
क्यों होता है ऐसा ?
कैसे हो यह सब ??
वह परेशान होती है
यह औरत जितना ज़्यादा परेशान होती है
उतना ज़्यादा दूर होता जाता है
उसका घर ।