फलक ने रंज तीर आह से मेरे ज़ि-बस खेंचा
फलक ने रंज तीर आह से मेरे ज़ि-बस खेंचा
लबों तक दिल से शब नाले को मैं ने नीम रस खेंचा
मिरे शोख़-ए-ख़राबाती की कैफ़िय्यत न कुछ पूछो
बहार-ए-हुस्न को दी आब उस ने जब चरस खेंचा
रहा जोश-ए-बहार इस फ़स्लगर यूँही तो बुलबुल ने
चमन में दस्त-ए-गुल-चीं से अजब रंग उस बरस खेंचा
कहा यूँ साहिब-ए-महमिल ने सुन कर सोज़ मजनूँ का
तकल्लुफ़ क्या जो नाला बे-असर मिस्ल-ए-जरस खेंचा
नज़ाकत रिश्ता-ए-उल्फ़त की देखो साँस दुश्मन की
ख़बरदार ‘आरज़ू’ टुक गर्म कर तार-ए-नफ़स खेंचा
सात परवाने की उल्फ़त सती रोते रोते
सात परवाने की उल्फ़त सती रोते रोते
शम्अ ने जान दिया सुब्ह के होते होते
दाग़ छूटा नहीं ये किस का लहू है क़ातिल
हाथ भी दुख गए दामन तिरा धोते धोते
किस परी-रू से हुई रात मिरी चश्म दो चार
कि मैं दीवाना उठा ख़्वाब से रोते रोते
ग़ैर लूटे हैं समन मुफ़्त तिरे ख़त की बहार
हम यूँही अश्क के दाने रहे बोते बोते
आता है सुब्ह उठ कर तेरी बराबरी को
आता है सुब्ह उठ कर तेरी बराबरी को
क्या दिन लगे हैं देखो ख़ुर्शीद-ए-ख़ावरी को
दिल मारने का नुस्ख़ा पहुँचा है आशिक़ों तक
क्या कोई जानता है इस कीमिया-गरी को
उस तुंद-ख़ू सनम से मिलने लगा हूँ जब से
हर कोई जानता है मेरी दिलावरी को
अपनी फ़ुसूँ-गरी से अब हम तो हार बैठे
बाद-ए-सबा से ये कहना उस दिलरूबा परी को
अब ख़्वाब में हम उस की सूरत को हैं तरसते
ऐ आरज़ू हुआ क्या बख़्तों की यावरी को