छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
जब मिलेंगे ये सहारा ही बनेंगे ।।
सामने जब रेत हो पानी नही हो
लिख रहा हो वक्त रेतीले कथानक,
मंच पर जब पात्र सारे सज गए हों
और पर्दा गिर पड़े जैसे अचानक ।
छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
ये मरुस्थल में सदा सावन रचेंगे ।।
बात जब घुटने लगे यों ही हृदय में
बात वह जग के लिए अज्ञात होगी,
खूब खुलकर तुम हृदय की बात करना
बात निकलेगी तभी तो बात होगी ।
छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
ये बहुत खुलकर सभी बातें करेंगे ।।
ढल रहे हों अश्रु युग की आँख से जब
गीत ही बढ़कर समय की पीर लेंगे,
जबकि धीरज टूटता होगा समय का
गीत ही बढ़कर समय को धीर देंगे ।
छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
कंठ में ये ही समय का विष धरेंगे ।।
इस समय में भाव विकृत हो गए हैं
शब्द है, पर शब्द के मानी नही है,
और मन का व्याकरण इतना जटिल है
आँख है, पर आँख का पानी नही है ।
छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
गीत भावों को सदा जीवित रखेंगे ।।
स्वप्न आया
सिलवटें उभरी हुई है चादरों पर
नींद ही आई न हमको स्वप्न आया ।।
स्वप्न वाली सीढियां चढ़ते उतरते
मैं थकन को ओढकर कुछ रुक गया था
दंडवत करना पड़ा जैसे स्वयं को
स्वयं के सम्मुख अधिक ही झुक गया था ।
दर्पणों में झांककर देखा स्वयं को
और मैं लगने लगा खुद को पराया ।।
रात को जब मैं अचानक जागता हूँ
रोज़ मेरे साथ चिंता जागती है
प्रश्न के हल पूछता तो हल न देती
प्रश्न के उत्तर मुझी से मांगती है ।
रात भर चिंता रही मुझको जगाती
रात भर इसको वहां मैने सुलाया ।।
कुछ दिनों से बात मन को मथ रही जो
सोचता था मैं छुपाकर रख रहा हूँ
जो न कह सकता स्वयं मन से कभी मैं
सिर्फ मन के द्वार जाकर रख रहा हूँ ।
जब हृदय पीड़ा अचानक पूछता है
सोचता हूँ मैं इसे किसने बताया ?
देखता हूँ मैं यहां उभरी लकीरें
लग रहा है एक चेहरा गढ़ रही है
करवटों के व्याकरण इतने अबूझे
सिलवटें ही सिर्फ इनको पढ़ रही है ।
पीर का जो चित्र था मैंने संजोया
आज जैसे हूबहू इसने बनाया ।।
मिला नहीं संवाद
कई दिनों से मिला नहीं है
मित्र मुझे संवाद तुम्हारा ॥
नकली पहचानॉ का बोझा
धरे हुए हो अपने काँधे,
या फिर चलते अलग राह पर
अनुभव की गाँठों को बाँधे ।
कुछ मौलिकता बची हुई है,
या कि हुआ अनुवाद तुम्हारा ॥
क्या धुंधली अभिलाषा लेकर
महाशून्य में ताक रहे,
या फिर बढ़कर किसी शिखर की
ऊँचाई को आँक रहे ।
मन में चिडिया चहक रही है,
या साथी अवसाद तुम्हारा ॥
क्या मन हुआ तुम्हारा शहरी
या गाँवों में रचे- बसे हो,
गाँवों – से उन्मुक्त बने या
शहरों जैसे कसे – कसे हो ?
क्या शहरों ने छीन लिया है,
मिसरी जैसा स्वाद तुम्हारा ॥
अंतर्मन में अपनेपन के
क्या अब भी सन्दर्भ बचे है ?
अंतर के मंगल घट पर क्या –
नेह-भरे साँतिए रचे है ?
याकि प्रेम करना लगता है,
तुमको ही अपराध तुम्हारा ॥
याद हो गया
ऐसा कैसे हुआ कि तुमको
मैं पूरा ही याद हो गया ?
ठीक ठीक मुझको पढ़ पाना
कठिन नही तो सरल भी नही,
मान रहा हूँ ठोस नही हूँ
लेकिन उतना तरल भी नही ।
बिल्कुल भी अनुमान न जिसका
ये कैसा अपवाद हो गया ?
दिखती है जो मेरे तन पर
एक अकेली सतह नही है,
मेरे तन पर रहने वाला
बिल्कुल मेरी तरह नही है ।
खुद से अलग थलग रहने का
मुझसे ही अपराध हो गया ।।
सब कैसे पहचाना तुमने
सिर्फ देखकर या फिर छूकर ?
भला हर्ष है या विषाद है
टपका जो आँखों से चू कर ।
आँखों ने आभास पढ़ लिए
भावों का अनुवाद हो गया ।।
आसमान पर उगी धुंध है
आसमान पर उगी धुंध है
और उसे मैं छांट रहा हूँ ।।
सदियाँ गुज़र गयी जो ढोते
खुद पर ऐसा बोझ रहा हूँ,
हूँ अपने ही इंतज़ार में
अपने को ही खोज रहा हूँ ।
खुद से जो खुद की दूरी है
धीरे-धीरे पाट रहा हूँ ।।
ठीक-ठीक तो पता नहीं है
मगर सुना है, यहीं सुबह है,
यहीं धुंध के पार कहीं पर
छिपी हुई चम्पई सुबह है ।
मैं हरकारा हूँ सूरज का
किरणों के ख़त बाँट रहा हूँ ।।
निश्चित ही कुछ उजली होगी
धूसर सी काया वितान की,
छोटे-छोटे दीप करेंगे
दूर समस्या दिवसमान की ।
मैंने इक सूरज सिरजा है
मैं उजियारा कात रहा हूँ ।।
कहो कबीरा
ठंड लगी है, सिकुड़ रहे हो
कहो कबीरा ! चादर दूँ ?
मन की पीर नही ले सकता
तन के हित क्या लाकर दूँ ?
मेरी चादर कुछ मैली है
थोडा सा सह लोगे क्या ?
अभी भोर में बहुत देर है
अपनाकर रह लोगे क्या ?
तुमसे एक जुलाहे तुम ही,
तुमको क्या बनवाकर दूँ ?
काशी में कबीर हो जाना
आज शिष्ट व्यवहार नही,
और नगर ये उलटबांसियां
सहने को तैयार नही।
सुनो कबीरा ! वहाँ न जाना
धूनी यही रमाकर दूँ ?
हो सकता है समय लगे
“मगहर” होने में काशी को,
कबिरा से अल्हड फ़कीर का
घर होने में काशी को ।
बोलो तुम्हें कहाँ से सुख दूँ,
कहो कौनसा आदर दूँ ?
दुनिया की हालत है जैसे