जय, देवि, दुर्गे, दनुज गंजनि
जय, देवि, दुर्गे, दनुज गंजनि,
भक्त-जन-भव-भार-भंजनि,
अरुण गति अति नैन खंजनि,
जय निरंजनि हे।
जय, घोर मुख-रद विकट पाँती,
नव-जलद-तन, रुचिर काँती,
मारु कर गहि सूल, काँती,
असुर-छाती हे।
जय, सिंह चढ़ि कत समर धँसि-धँसि,
विकट मुख विकराल हँसि-हँसि,
शुंभ कच गहि कएल कर बसि,
मासु गहि असि हे।
जय अमर अरि सिर काटु छट् छट्,
गगन गय महि परत भट्-भट्,
खप्पर भरि-भरि शोषित झट्-झट्,
घोंटल घट-घट हे।
जय कतहु योगिनि नाचु महि मद्,
उठति, महि पुनि गिरति भद्-भद्,
रिपुर धुरिकत माँसु सद्-बद्,
गिरल गद्-गद् हे।
जय कतहु योगिनि नाचु हट्-भट्,
कतहु करत श्ाृगाल खट्-खट्,
दनुज हाड़ चिबाव कट्-कट्,
उठत भट्-भट् हे।
जय ‘छत्रपति’ पति राखु श्यामा,
हरखि हँसि दिल सकल कामा,
जगत-गति अति तोहरि नामा,
जगत-गति अति तोहरि नामा,
शंभु बामा हे।
राम नाम जगसार और सब झुठे बेपार
राम नाम जगसार और सब झुठे बेपार।
तप करु तूरी, ज्ञान तराजू, मन करु तौलनिहार।
षटधारी डोरी तैहि लागे, पाँच पचीस पेकार।
सत्त पसेरी, सेर करहु नर, कोठी संत समाज।
रकम नरायन राम खरीदहुँ, बोझहुँ, तनक जहाज।
बेचहुँ विषय विषम बिनु कौड़ी, धर्म करहु शोभकार।
मंदिर धीर, विवेक बिछौना, नीति पसार बजार।
ऐसो सुघर सौदागर संतो, जौं आवत फिरि जात।
‘छत्रनाथ’ कबहूँ नहिं ताको, लागत जमक जगात।