बंद कमरे में जो मिली होगी
बंद कमरे में जो मिली होगी
वो परेशान ज़िन्दगी होगी
यूँ भी कतरा के गुज़रने की वज़ह
हम में तुम में कहीं कमी होगी
हम सितम को वहम समझ बैठे
कौन-सी चीज़ आदमी होगी
और भी कई निशान उभरे हैं
तेरी मंज़िल यहीं कहीं होगी
ये है दस्तूर-ए-आशनाई “तपिश”
उनकी आँखों में भी नमी होगी
इक तेरे राज़ को दुनिया से छुपाने के लिए
इक तेरे राज़ को दुनिया से छुपाने के लिए
बातें क्या-क्या न तलाशी हैं बहाने के लिए
मेरी अख़लाक़ मंदियों का ज़र्फ़ तो देखो
ज़िन्दगी कम पड़ी ग़ैरों पे लुटाने के लिए
अपनी परछाईं से हम ने सवाल पूछा है
कौन आएगा अन्धेरों को मिटाने के लिए
बेगुनाही का आज दे गए सबूत मुझे
साथ में आइना लाए थे दिखाने के लिए
ऐ “तपिश” धड़कनें देती हैं ज़िन्दगी का पता
लापता लाश कहाँ जाए ठिकाने के लिए
ज़िन्दगी तल्ख़ सही फिर भी बहुत प्यार किया
ज़िन्दगी तल्ख़ सही फिर भी बहुत प्यार किया
मौत भी आई न वादे पे इंतज़ार किया
अपनी परछाई पे उनसे यकीं किया न गया
हमने गैरों की मसीहाई पे एतबार किया
लोग चलते हैं रक़ीबों से बचा के दामन
मेरा दामन तो दोस्तों ने तार-तार किया
ग़ैर कह के चलो अच्छा किया के भूल गए
कम से कम इक नमाज़ी को ही मैख़्वार किया
हमने तौबा तो गुनाहों से की “तपिश” लेकिन
फिर तेरी चाह ने तौबा को गुनहगार किया
कुछ हम ने कह दिया तो बुरा मान गए हैं
कुछ हम ने कह दिया तो बुरा मान गए हैं
कुछ हम ने सुन लिया तो बुरा मान गए हैं
दुनिया के हर सितम वो मेरे नाम कर गए
सब हमने सह लिया तो बुरा मान गए हैं
अपने ज़मीर का हम सौदा न कर सके
ये ज़ुर्म्र कर लिया तो बुरा मान गए हैं
वो गुलपसंद थे हमें ख़ारों से प्यार था
इक खार चुन लिया तो बुरा मान गए हैं
शीरी जुबान अब तो खंज़र-सी हो गई है
मुँह हमने सी लिया तो बुरा मान गए हैं
उनको यकीं था शायद घुट जाएंगी साँसें
कुछ दिन तपिश जिया तो बुरा मान गए हैं
कुछ तो हूँ और कुछ नहीं हूँ मैं
कुछ तो हूँ और कुछ नहीं हूँ मैं
चंद लम्हों की रुत नहीं हूँ मैं
मुझको सज़दा करो न पूजो तुम
संगमरमर का बुत नहीं हूँ मैं
मेरे नीचे है अंधेरों का वजूद
शाम से पहले कुछ नहीं हूँ मैं
यूँ न तेवर बदल के देख मुझे
ज़िन्दगी तेरा हक़ नहीं हूँ मैं
बेख़ुदी में तपिश ये आलम है
वो ख़ुदा है तो ख़ुद नहीं हूँ मैं
लड़खड़ाते हुए तुमने जिसे देखा होगा
लड़खड़ाते हुए तुमने जिसे देखा होगा
वो किसी शाख़ से टूटा हुआ पत्ता होगा
अजनबी शहर मैं सब कुछ ख़ुशी से हार चले
कल इसी बात पे घर-घर मेरा चर्चा होगा
ग़म नहीं अपनी तबाही का मुझे दोस्त मगर
उम्र भर वो भी मेरे प्यार को तरसा होगा
दामने ज़ीस्त फिर भीगा हुआ-सा आज लगे
फिर कोई सब्र का बादल कहीं बरसा होगा
क़ब्र मैं आ के सो गया हूँ इसलिए अय तपिश
उनकी गलियों मैं मरूंगा तो तमाशा होगा