आँगन-आँगन जारी धूप
आँगन-आँगन जारी धूप
मेरे घर भी आरी धूप
क्या जाने क्यूँ जलती है
सदियों से बिचारी धूप
किस के घर तू ठहरेगी
तू तो हैं बंजारी धूप
अब तो जिस्म पिघलते हैं
जारी जा अब जारी धूप
छुप गई काले बादल में
मौसम से जब हारी धूप
हो जाती है सर्द कभी
और कभी चिंगारी धूप
आज बहुत है अँधियारा
चुपके से आ जारी धूप
बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
लेकिन अपने घर में आ कर सोया मैं
जब भी थकन महसूस हुई है रस्ते की
बूढ़े-बरगद के साए में बैठा मैं
क्या देखा था आख़िर मेरी आँखों ने
चलते चलते रस्ते में क्यूँ ठहरा मैं
जब भी झुक कर मिलता हूँ मैं लोगों से
हो जाता हूँ अपने क़द से ऊँचा मैं
ठंडे मौसम से भी मैं जल जाता हूँ
सूखी बारिश में भी अक्सर भीगा मैं
जब जब बच्चे बूढ़ी बातें करते हैं
यूँ लगता है देख रहा हूँ सपना मैं
सारे मंज़र सूने सूने लगते हें
कैसी बस्ती में ‘ताबिश’ आ पहुँचा मैं
ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
अगर सोचो तो फिर बिखरा हुआ हूँ
मुझे देखो तसव्वुर की नज़र से
तुम्हारी ज़ात में उतरा हुआ हूँ
सुना दे फिर कोई झूठी कहानी
पैं पिछली रात का जागा हुआ हूँ
कभी बहता हुआ दरिया कभी मैं
सुलगती रेत का सहरा हुआ हूँ
जब अपनी उम्र के लोगों में बैठूँ
ये लगता है कि मैं बूढ़ा हुआ हूँ
कहाँ ले जाएगी ‘ताबिश’ न जाने
हवा के दोश पर ठहरा हुआ हूँ
गिर गए थे सब्ज़ मंज़र टूट कर
गिर गए थे सब्ज़ मंज़र टूट कर
रह गया मैं अपने अंदर टूट कर
सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
रो रहा था नीला अम्बर टूट कर
मैं सिमट जाऊँगा ख़ुद ही दोस्तो
मैं बिखर जाता हूँ अक्सर टूट कर
और भी घर आँधियों की जद में थे
गिर गया उस का ही क्यूँ घर टूट कर
रो रहा है आज भी तक़्दीर पर
सब्ज़-गुम्बद से वो पत्थर टूट कर
अब नहीं होता मुझे एहसास कुछ
मैं हूँ अब पहले से बेहतर टूट कर
चंद ही लम्हों में ‘ताबिश’ बह गया
मेरी आँखों में समुंदर टूट कर
कितने हाथ सवाली हैं
कितने हाथ सवाली हैं
कितनी जेबें ख़ाली हैं
सब कुछ देख रहा हूँ मैं
रातें कितनी काली हैं
मंज़र से ला-मंज़र तक
आँखें ख़ाली ख़ाली हैं
उस ने कोरे-काग़ज़ पर
कितनी शक्लें ढाली हैं
सिर्फ़ ज़फ़र ‘ताबिश’ हैं हम
‘ग़ालिब’ ‘मीर’ न ‘हाली’ हैं
न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
आओ ख़ामोशियों के लब खोलें
बस्तियाँ हम ख़ुद ही जला आए
किसी बरगद के साए में सो लें
कुछ नए रंग सामनें आएँ
आ कई रंग साथ में घोलें
ज़र्द मंज़र अजीब सन्नाटे
खिड़कियाँ क्यूँ घरों की हम खोलें
रास्ते सहल हैं मगर ‘ताबिश’
कौन है साथ जिस के हम हो लें