बरगुज़ीदा हैं हवाओं के असर से हम भी
बरगुज़ीदा हैं हवाओं के असर से हम भी
देखते हैं तुझे दुनिया की नज़र से हम भी
अपने रस्ते में बड़े लोग थे रफ़्तार-शिकन
और कुछ देर में निकले ज़रा घर से हम भी
रात उस ने भी किसी लम्हे को महसूस किया
लौट आए किसी बे-वक़्त सफ़र से हम भी
सब को हैरत-ज़दा करती है यहाँ बे-ख़बरी
चौंक पड़ते थे यूँ ही पहले ख़बर से हम भी
ज़र्द चेहरे को बड़े शौक़ से सब देखते हैं
टूटने वाले हैं सर-सब्ज़ शजर से हम भी
कौन सा ग़ैर ख़ुदा जाने यहाँ है ऐसा
बुर्क़ा ओढ़े हुए आए थे इधर से हम भी
यूँ ही हमदर्द अपना खो रहे हैं
यूँ ही हम दर्द अपना खो रहे हैं
यही रोना है हम क्यूँ रो रहे हैं
क़यामत-ख़्वाब से आँखें खुली थीं
फिर आँखें खोल कर हम सो रहे हैं
बहुत ज़र-ख़ेज़ सैलाब-ए-बला था
यहाँ अब ख़ूब फ़सलें बो रहे हैं
हवा-ए-वस्ल ने वो ख़ाक उड़ाई
अभी तक हाथ मुँह हम धो रहे हैं
दिए सारे बदन में तैरते हैं
क्यूँ इतना पानी पानी हो रहे हैं
बहुत राहत-रसाँ है ख़ौफ़-ए-जाँ भी
सुलगती रुत में ठंडे हो रहे हैं
आईने मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गए
आईने मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गए
दरमियाँ हम उन के हाइल हो गए
कुछ न होते होते इक दिन ये हुआ
सैकड़ों सदियों का हासिल हो गए
कश्तियाँ आ कर गले लगने लगीं
डूब कर आख़िर को साहिल हो गए
और एहसास-ए-जिहालत बढ़ गया
किस क़दर पढ़ लिख के जाहिल हो गए
अपनी अपनी राह चलने वाले लोग
भीड़ में आख़िर को शामिल हो गए
तंदुरुस्ती ज़ख़्म-कारी से हुई
ये हुआ शर्मिंदा क़ातिल हो गए
हुस्न तो पूरा अधूरे-पन में है
सब अधूरे माह-ए-कामिल हो गए
बहुत कुछ वस्ल के इमकान होते
बहुत कुछ वस्ल के इमकान होते
शरारत करते हम शैतान होते
सिमट आई है इक कमरे में दुनिया
तो बच्चे किस तरह नादान होते
किसी दिन उक़दा-ए-मुश्किल भी खुलता
कभी हम पर भी तुम आसान होते
ख़ता से मुँह छुपाए फिर रहे हैं
फ़रिश्ते बन गए इंसान होते
हर इक दम जाँ निकाली जा रही है
हम इक दम से कहाँ बे-जान होते
दिल लगा कर पढ़ाई करते रहे
दिल लगा कर पढ़ाई करते रहे
उम्र भर इम्तिहाँ से डरते रहे
एक अदना सवाब की ख़ातिर
जाने कितने गुनाह करते रहे
जान पर कौन दम नहीं देता
सूरत ऐसी थी लोग मरते रहे
कोई भी राह पर नहीं आया
हादसे ही यहाँ गुज़रते रहे
हैरतें हैरतों पे वारफ़्ता
झील में डूबते उभरते रहे
आख़िरश हम भी इतना सूख गए
लोग दरिया को पार करते रहे
क्या न था इस जहाँ में आख़िर
हम भी क्या ही तलाश करते रहे
आख़िर एज़ाज़ उस ने बख़्श दिया
कैसा ख़ुद को ज़लील करते रहे
इशारे मुद्दतों से कर रहा है
इशारे मुद्दतों से कर रहा है
अभी तक साफ़ कहते डर रहा है
बचाना चाहता है वो सभी को
बहुत मरने की कोशिश कर रहा है
समंदर तक रसाई के लिए वो
ज़माने भर का पानी भर रहा है
कहीं कुछ है पुराने ख़्वाब जैसा
मेरी आँखों से ज़ालिम डर रहा है
ज़माने भर को है उम्मीद उसी से
वो ना-उम्मीद ऐसा कर रहा है
ख़ुशी से अपना घर आबाद कर के
ख़ुशी से अपना घर आबाद कर के
बहुत रोएँगे तुम को याद कर के
ख़याल ओ ख़्वाब भी हैं सर झुकाए
गुलामी बख़्श दी आज़ाद कर के
जो कहने के लिए ही आबरू थी
वो इज़्ज़त भी गई फ़रियाद कर के
परिंदे सर पे घर रक्खे हुए हैं
मुझे छोड़ेंगे ये सय्याद कर के
यहाँ वैसे भी क्या आबाद रहता
ये धड़का तो गया बर्बाद कर के
कहाँ हम-दर्दियों की दाद मिलती
बहुत अच्छे रहे बे-दाद कर के
उसे भी क्या पता था हाल अपना
तड़पता है सितम ईजाद कर के
पानी पानी रहते हैं
पानी पानी रहते हैं
ख़ामोशी से बहते हैं
मेरी आँख के तारे भी
जलते बुझते रहते हैं
बेचारे मासूम दिए
दुख साँसों का सहते हैं
जिस की कुछ ताबीर न हो
ख़्वाब उसी को कहते हैं
अपनों की हम-दर्दी से
दुश्मन भी ख़ुश रहते हैं
मस्जिद भी कुछ दूर नहीं
वो भी पास ही रहते हैं
ज़र्द गुलाबों की ख़ातिर भी रोता है
ज़र्द गुलाबों की ख़ातिर भी रोता है
कौन यहाँ पर मैले कपड़े धोता है
जिस के दिल में हरयाली सी होती है
सब के सर का बोझ वही तो ढ़ोता है
सतही लोगों में गहराई होती है
ये डूबे तो पानी गहरा होता है
सदियों में कोई एक मोहब्बत होती है
बाक़ी तो सब खेल तमाशा होता है
दुख होता है वक़्त-ए-रवाँ के ठहरने से
ख़ुश होने को वही बहाना होता है
शरमाते रहते हैं गहरे लोग सभी
दरिया भी तो पानी पानी होता है
नूर टपकता है ज़ालिम के चेहरे से
देखो तो लगता है कोई सोता है