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आषाढ़ तो आया

आषाढ़ तो आया
घास नहीं
हो उठी झरबेरी
हरी हरी।

हथेलियाँ पसार दीं
शूलों पर वार दीं
टुकड़े हो टूट पड़ा
आसमान धरती पर
घूँघट में धूल की
कल तक थी डरी डरी
आज है हरी हरी ।

कैसे क्या ले आऊँ
सूनापन भर जाऊँ
रुकती नहीं है
गति ये कलेण्डर की
ओ रे पहुना रे घन !
कमरव की आँखें हैं
भरी भरी
हो उठी झरबेरी
हरी हरी।

माँग रहा लेकर कटोरा

माँग रहा लेकर कटोरा
भटक गई किस्मत का सावधान छोरा।

ढकी मुँदी आँखों के कजरारे द्वार
इकतारी काया के कर का प्रस्तार
टूट नहीं पाता है अम्बर का धीर
धरती पी जाती है होंठों में पीर

उड़ती कनकैया का
धारदार डोरा
माँग रहा लेकर कटोरा
दूषित समाज का गहन लगा छोरा।

असमय में कबीर के गीतों का साथ
पोंछ रहा कमलों से शबनम का माथ
माँग रहा कण कण में दुर्दिन का ईश
दाता की खैर कुशल सस्ती आशीष

माटी की गोद भली
संयम का बोरा
माँग रहा लेकर कटोरा
नियति के नवासे का नया नया छोरा ।।

कोहरे की आँख में 

कोहरे की आँख में
मील का धुआँ

फसलें मजबूरी की
क्वाटर के पास
हरे हरे घावों की
आस पास घास
भारी से आँगन में
रोग का कुआँ ।

 

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