लग जाए न कोई कलंक
मेरे पास
तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं है
तुमने मुझे प्रेम के रूप में
अपना विरह दिया
और मैं पीने लगी
गरल आँसू ही आँसू
कहते हैं,
प्रेम तो पवित्र होता है
लेकिन तुमसे जुड़कर
मैं सारे जहाँ बदनाम हो गई
अपनी साफ
आँचल को भी
तुम्हारे लिए मैली कर गई
इसे अपना सौभाग्य
कह-कहकर
मन को तसल्ली देती हूँ
तुम्हारे प्रेम से मिली
हर ग्लानि को
धीरे-धीरे
सह लेती हूँ
मुख में
दिन-रात
आलाप,
तुम्हारा नाम जपती हूँ
इस प्रेम में
पता नहीं कैसे?
कभी नहीं थकती हूँ
इस प्रेम को
न तो जग अपनाता है
मैं कहती हूँ
मुझे तुम अपना लो
लग जाए न कोई कलंक
मेरे चरित्र पर
इस अश्लील जग से
मुझे बचा लो
समाप्त
मैंने
एक महान कार्य किया है
उस सुनहरी
चंचल मछली को
जिसकी आँखे
कथाई-सी थी
और शरीर
चितकाबरा
जो मेरे उजड़े
कमरे का
रौनक बढ़ाया करती थी
और उन तमाम
बोझिल करने वाली
परेशानियों से
राहत पहुँचाया करती थी
अपनी दिलकश
अदाओ से,
मेरा
उसंर मन मोह लेती थी
आज मैंने
उसे काँच के
पिन्जरे से
ले जाकर
विशाल समुद्र में
आजाद कर दिया
यह सोचे बिना
कि अब
मेरे कमरे की
बस्ती और रौनक
समाप्त हो जाऐगे
और जीवन विरान।
पैगाम
अकारण ही
जो खुशहाली
अपने मार्ग से
भटक गई थी
मेरी ओर आते-आते
और मैं हो गई बैचेन
मुझे कागा का
पैगाम मिला है
अभी-अभी
उसने सीधा रास्ता पकड़ा है
जिस वृक्ष की
जड़ो को
प्रेम-जल से
सींचा न हो
और वो भीतर से
ठूँठ बना हो
भला वह छाया क्या देगा?
अकारण ही
उसकी स्नेहिल छाया
अपने मार्ग से
भटक गई थी
मेरी ओर आते-आते
और मैं हो गई बैचेन
मुझे कागा का
पैगाम मिला है
अभी-अभी
प्रेममय-सावन ने
उस वृक्ष को
पोषित किया है
और उसकी छाया ने
सीधा रास्ता पकड़ा है।
मैं इसी प्रतीक्षा में हूँ
नदियों से
नदियाँ मिल जाती है
पेड़ो से
लता लिपट जाती है
लेकिन
तुम क्यों हो मुझसे अलग-अलग?
मेरी परछाई बनकर
चलते हो
तुम क्यों मुझसे अलग-अलग?
तुम्हारे साथ
कल्पनाओं के
दरिया में डूबकर
जीवन जी लेती हूँ
लेकिन
वास्तविकता होती है
अलग-अलग
क्या तुम मुझे मिलोगे?
क्या मेरे उपवन में
तुम्हारे प्रेम के पुष्प खिलेंगे?
लेकिन
यह मेरी सोच है
तुम्हारी भी सोच होगी
अलग-अलग
पता नही?
यह सम्बन्ध कैसा है?
तुमने मुझ प्रेमपाश मे
छुप्पा लिया है
लेकिन
मैं हूँ
तुमसे अलग-अलग
इस वियोग का अन्त कब होगा?
क्या मेरे जीवन में?
तुम्हारे प्रेम की बाहार आयेगी
मैं इसी प्रतीक्षा में हूँ ।
वह तो प्रवासी है
यह ईर्ष्या क्यों?
वह तो प्रवासी है
उसका ठौर-ठिकाना
कहीं ओर
तुझको
उसके शहर
न जाना
फिर यह कौनसी उलझन?
उसको देखकर
क्यों व्यथित मन?
न वह
मेरी प्रतिस्पर्धा में खड़ा
फिर राह में
क्यों बाधा समझूँ?
फिर यह ईर्ष्या क्यों?
वह तो प्रवासी है।