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बशर नवाज़ की रचनाएँ

अज़ल ता अबद

उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़ ये धुँदलके का आलम
ये हद-ए-नज़र तक
नम-आलूद सी रेत का नर्म क़ालीं कि जिस पर
समुंदर की चंचल जवाँ बेटियों ने
किसी नक़्श-ए-पा को भी न छोड़ा
फ़ज़ा अपने दामन में बोझल ख़मोशी समेटे है लेकिन
मचलती हुई मस्त लहरों के होंटों पे नग़्मा है रक़्साँ
ये नग़्मा सुना था मुझे याद आता नहीं कब
मगर हाँ
बस एहसास है इक क़दर क़र्न-हा क़र्न पहले
कि गिनना भी चाहे तो कोई जिन्हें गिन न पाए
भला रेग-साहिल के फैले हुए नन्हे ज़र्रों को कोई कहाँ तक गिने
मचलती हुई मस्त लहरों को साहिल से छूटने का ग़म ही नहीं है
विदा-ए-सुकूँ जैसे कोई सितम ही नहीं है
जिस क़र्न-हा क़र्न पहले भी मैं ने सुना था
जिसे लोग सूरज के बुझने तलक यूँही सुनते रहेंगे

क़र्ज़

मोहर होंटों पे
समाअत पे बिठा लें पहरे
और आँखों को
किसी आहनी ताबूत में रख दें
कि हमें
ज़िंदगी करने की क़ीमत भी चुकानी है यहाँ

ना-रसा

मुझे ख़्वाब अपना अज़ीज़ था
सो मैं नींद से न जगा कभी
मुझे नींद अपनी अज़ीज़ है
कि मैं सर-ज़मीन पे ख़्वाब की
कोई फूल ऐसा खिला सकूँ
कि जो मुश्क बन के महक सके

कोई दीप ऐसा जला सकूँ
जो सितारा बन के दमक सके

मेरा ख़्वाब अब भी है नींद में
मेरी नींद अब भी है मुंतज़िर
कि मैं वो करिश्मा दिखा सकूँ
कहीं फूल कोई खिला सकूँ
कहीं दीप कोई जला सकूँ

एक ख़्वाहिश

अब की बार मिलो जब मुझ से
पहली और बस आख़िरी बार
हँस कर मिलना
प्यार भरी नज़रों से तकना
ऐसे मिलना
जैसे अज़ल से
मेरे लिए तुम सरगर्दां थे
बहर था मैं तुम मौज-ए-रवाँ थे
पहली और बस आख़िरी बार
ऐसे मिलना
जैसे तुम ख़ुद मुझ पे फ़िदा हो
जैसे मुजस्सम मेहर-ए-वफ़ा हो
जैसे बुत हो तुम न ख़ुदा हो

फ़ासला

न फिर वो मैं था
न फिर वो तुम थे
न जाने कितनी मसाफ़तें दरमियाँ खड़ी थीं
उस एक लम्हे के आईने पर
न जाने कितने बरस परेशान धूल की तरह से जमे थे
जिन्हें रिफ़ाक़त समझ के हम दोनों मुतमइन थे
इस एक लम्हे के आईने में
जब अपने अपने नक़ाब उलट कर
ख़ुद अपने चेहरों को हम ने देखा
तो एक लम्हा
वो एक लम्हे का आईना कितनी सदियों कितने हज़ार मीलों की शक्ल में
दरमियाँ खड़ा था
न फिर वो मैं था न फिर वो तुम थे
बस एक वीराँ ख़मोश सहरा बस एक वीराँ ख़मोश सहरा

मुझे जीना नहीं आता

मैं जैसे दर्द का मौसम
घटा बन कर जो बस जाता है आँखों में
धनक के रंग ख़ुशबू नज़्र करने की तमन्ना ले के जिस मंज़र तलक जाऊँ
सियह अश्कों के गहरे कोहर में डूबा हुआ पाऊँ
में अपने दिल का सोना
प्यार के मोती
तरसती आरज़ू के फूल जिस दर पर सजाता हूँ
वहाँ जैसे मकीं होता नहीं कोई
बना हूँ एक मुद्दत से सदा-ए-बाज़गश्त ऐसी
जो दीवारों से टकराए
हिरासाँ हो के लौट आए
धड़कते दिल के सूने-पन को सूना और कर जाए
मैं अपने आप को सुनता हूँ
अपने आप को छूता हूँ
अपने आप से मिलता हूँ ख़्वाबों के सुहाने आइना-घर में
तो मेरा अक्स मुझ पर मुस्कुराता है
ये कहता है
सलीक़ा तुझ को जीने का न आना था नहीं आया
सदाएँ पत्थरों की तरह मुझ पर
मेरे ख़्वाबों के बिखरते आइना-घर पर बरसती हैं
उधर तारा इधर जुगनू
कहीं इक फूल की पत्ती कहीं शबनम का इक आँसू
बिखर जाता है सब कुछ रूह के सुनसान सहरा में
मैं फिर से ज़िंदगी करने के अरमाँ में
इक इक रेज़े को चुनता हूँ सजाता हूँ नई मूरत बनाता हूँ
धनक के रंग ख़ुशबू नज़्र करने की तमन्ना में क़दम आगे बढ़ाता हूँ
तो इक बे-नाम गहरी धुँद में सब डूब जाता है
किसी से कुछ शिकायत है न शिकवा है
कि मैं तो दर्द का मौसम हूँ
अपने आप में पलता हूँ अपने आप में जीता हूँ
अपने आँसुओं में भीगता हूँ मुस्कुराता हूँ
मगर सब लोग कहते हैं
तुझे जीना नहीं आता

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