तीन बिल्लियाँ चिलबिल्ली
थीं तीन बिल्लियाँ चिलबिल्ली, जो ऊधम मचाती थीं,
दिनभर म्याऊँ-म्याऊँ करके, चीजें भी खूब चुराती थीं!
बप्पा की घड़ी उठा लेतीं, दिद्दा का कलम लिया करतीं,
अम्माँ की चाभी के गुच्छे से, रस्साकशी किया करतीं!
दिन एक उठा लाईं मिलकर, वे बाबा की सुँघनीदानी,
लड़ और झगड़कर उस पर वे, करती थीं अपनी मनमानी!
इतने में डिबिया खुली और, सुँघनी सभी झट गई बिखर,
खाने की अच्छी चीज समझ, वे तीनों टूट पड़ीं उस पर!
पर ज्यों ही झरफ लगी उसकी, वे भागीं होकर बेकरार,
नथनों में हुई तिलमिलाहट, वे लगीं छींकने बार-बार!
खुजलातीं अपने थूथन को, धरती पर नाक रगड़ती थीं,
छींकों पर छींके आती थीं, वे भागी-भागी फिरती थीं!
आवाज़ तड़ातड़ उठती थी, भेजा था हुआ पिलपिला-सा,
छींकों का ताबड़ तोड़ लगा, तीनों के, विकट सिलसिला-सा!
घरवाले हड़बड़ दौड़ पड़े, समझे हालाडोला आया,
मुन्नू बोला-इन तीनों ने, चोरी करने का फल पाया!
गोदी में लेकर तीनों को, उनके मुँह पोंछे चुन्नू ने,
तब बंद हुईं उनकी छींकें, जब दूध पिलाया छुन्नू ने!
चाऊ माऊ बेहद खाऊ
चाऊ-माऊ बेहद खाऊ उनकी भूख अपार,
चीजें बहुत उन्होंने खाईं पर ली नहीं डकार।
खाए पर्वत, खाए दर्रे, खाए जंगल रूख,
खाया भोला भाला तिब्बत, तब भी गई न भूख।
चीनी जनता की आज़ादी खाई, खाई जान,
सिर खाया परसों नेहरू का खाए उनके कान।
कुतर-कुतरकर वे भारत की खाते रहे जमीन,
जब हमने रोका, तब दौड़े ले-लेकर संगीन।
क्या-क्या खाया, कितना खाया, इसका कौन शुमार,
इस पर भी चाहते हिमालय का करना आहार।
उस पर दाँत लगे तो जानो गई बत्तीसी टूट,
रहे अभी तक हम गम खाते, अब न मिलेगी छूट।
-साभार: हीरोज पत्रिका, इलाहाबाद