मातृभूमि
जन्म दिया माता-सा जिसने, किया सदा लालन-पालन।
जिसके मिट्टी जल से ही है, रचा गया हम सबका तन।।
गिरिवर गण रक्षा करते हैं, उच्च उठा के शृंग महान।
जिसके लता द्रुमादिक करते, हमको अपनी छाया दान।।
माता केवल बाल-काल में, निज अंकों में धरती है।
हम अशक्त जब तलक तभी तक, पालन पोषण करती है।।
मातृभूमि करती है मेरा, लालन सदा मृत्यु पर्यन्त।
जिसके दया प्रवाहों का नहि, होता सपने में भी अन्त।।
मर जाने पर कण देहों के, इसमें ही मिल जाते हैं।
हिन्दू जलते यवन इसाई, दफ़न इसी में पाते हैं।।
ऐसी मातृभूमि मेरी है, स्वर्गलोक से भी प्यारी।
जिसके पद कमलों पर मेरा, तन मन धन सब बलिहारी।।
’कविता कौमुदी भाग दो’ में प्रकाशित
मातृभूमि
जन्म दिया माता-सा जिसने, किया सदा लालन-पालन।
जिसके मिट्टी जल से ही है, रचा गया हम सबका तन।।
गिरिवर गण रक्षा करते हैं, उच्च उठा के शृंग महान।
जिसके लता द्रुमादिक करते, हमको अपनी छाया दान।।
माता केवल बाल-काल में, निज अंकों में धरती है।
हम अशक्त जब तलक तभी तक, पालन पोषण करती है।।
मातृभूमि करती है मेरा, लालन सदा मृत्यु पर्यन्त।
जिसके दया प्रवाहों का नहि, होता सपने में भी अन्त।।
मर जाने पर कण देहों के, इसमें ही मिल जाते हैं।
हिन्दू जलते यवन इसाई, दफ़न इसी में पाते हैं।।
ऐसी मातृभूमि मेरी है, स्वर्गलोक से भी प्यारी।
जिसके पद कमलों पर मेरा, तन मन धन सब बलिहारी।।
’कविता कौमुदी भाग दो’ में प्रकाशित
उदबोधन
हिमालय सर है उठाए ऊपर, बगल में झरना झलक रहा है।
उधर शरद् के हैं मेघ छाए, इधर फटिक जल छलक रहा है।।१।।
इधर घना बन हरा भरा है, उपल पर तरुवर उगाया जिसने।
अचम्भा इसमें है कौन प्यारे, पड़ा था भारत जगाया उसने।।२।।
कभी हिमालय के शृंग चढ़ना, कभी उतरते हैं श्रम से थक के।
थकन मिटाता है मंजु झरना, बटोही छाये में बैठ थक के।।३।।
कृशोदरी गन कहीं चली हैं, लिए हैं बोझा छुटी हैं बेनी।
निकलकर बहती हैं चन्द्र मुख से, पसीना बनकर छटा की श्रेनी।।४।।
गगन समीपी हिमाद्री शिखरों, घरों में जलती है दीपमाला।
यही अमरपुर उधर हैं सुरगण, इधर रसीली हैं देवबाला।।५।।
गिरीश भारत का द्वार पर है, सदा से है ये हमारा संगी।
नृपति भगीरथ की पुण्य धारा, बगल में बहती हमारी गंगी।।६।।
बता दे गंगा कहाँ गया है, प्रताप पौरुष विभव हमारा?
कहाँ युधिष्ठिर, कहाँ है अर्जुन, कहाँ है भारत का कृष्ण प्यारा।।७।।
सिखा दे ऐसा उपाय मोहन, रहैं न भाई पृथक हमारे।
सिखा दे गीता की कर्म शिक्षा, बजा के वंशी सुना दे प्यारे।।८।।
अँधेरा फैला है घर घर में माधो, हमारा दीपक जला दे प्यारे।
दिवाला देखो हुआ हमारा, दिवाली फिर भी दिखा दे प्यारे।।९।।
हमारे भारत के नवनिहालो, प्रभुत्व वैभव विकास धारे।
सुहृद हमारे हमारे प्रियवर, हमारी माता के चख के तारे।।१०।।
न अब भी आलस में पड़ के बैठो, दशोदिशा में प्रभा है छाई।
उठो, अँधेरा मिटा है प्यारे! बहुत दिनोम पर दिवाली आई।।११।।
’कविता कौमुदी भाग दो’ में प्रकाशित
विनती
विनती सुन लो हे भगवान,
हम सब बालक हैं नादान।
विद्या-बुद्धि नहीं कुछ पास,
हमें बना लो अपना दास।
बुरे काम से हमें बचाना,
खूब पढ़ाना, खूब लिखाना।
हमें सहारा देते रहना,
खबर हमारी लेते रहना।
तुमको शीश नवाते हैं हम,
विद्या पढ़ने जाते हैं हम।
भगवान श्रीकृष्ण
पाप से सद्धर्म छिप जाता जगत में जब कभी
ईश सब सन्ताप हरने को प्रकट होता तभी
धर्म-रक्षा हेतु करके दुर्जनों का सर्वनाश
दूर कर संसार का तम सत्य का करता विकाश
इस तरह अवतार लेता विश्व में विश्वेश है
शेष रहता फिर कहाँ आपत्ति का लवलेश है
कंस ने उत्पात भारी जब मचाया था यहाँ
द्यूतकारी मद्यपी धन लूटता पाता जहाँ
डर उसे था हर घड़ी श्रीकृष्ण के अवतार का
देवती को दुख मिला पतियुक्त कारागार का
भाद्र की कृष्णाष्टमी सब ओर छाया अंधकार
चञ्चला घनघोरमाला में चमकती बार बार
ज्योति निर्मल देवकी के गर्भ में हो भासमान
विश्वपति शिशुरूप में लाया गया गोकुल निदान
नन्द ने अपना समझ कर प्रेम से पाला उसे
इसलिए संसार कहता नन्द का लाला उसे
कृष्ण वंशी को बजा गायें चराता था कभी
दूध माखन चोर कर मन को चुराता था कभी
पूतना केशी तथा कंसादि का संहार कर
द्वारिका जाके बसाया देवद्विज का कष्ट हर
बात ही उलटी हुई हा! अब मुरारी हैं नहीं
अब हमारे बीच में व्रज का विहारी है नहीं
किन्तु उसका रूप सुन्दर है नहीं दिल से हटा
याद आती हाय! अब भी साँवली सुन्दर छटा
है मुझे विश्वास, फिर भी श्याम आवेगा कभी
मोहनेवाली मधुर बंशी बजावेगा कभी
पाप-तापों से हमें वह फिर छुड़ावेगा कभी
सर्व दु:खों को दयामय फिर मिटावेगा कभी
’सरस्वती’ पत्रिका के हीरक जयंती विशेषांक में प्रकाशित
आम रसीले
पके-पके क्या आम रसीले,
हरे-लाल हैं नीले-पीले!
आँधी अगर कभी आ जाती,
आम हजारों पीट गिराती!
इनको लेकर चलो ताल पर,
वहाँ खूब पानी से धोकर!
सौ-पचास तक खाएँगे हम,
आज न भोजन पाएँगे हम!
’सरस्वती’ पत्रिका के हीरक जयंती विशेषांक में प्रकाशित