बाज़ार में खड़े होकर
कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के खिलाफ़ देखो
उन चीज़ों के खिलाफ़
जिन्हें पाने के लिए आये हो इस तरफ़
ज़रूरतों की गठरी कन्धे से उतार देखो
कोने में खड़े होकर नकली चमक से सजा
तमाशा-ए-असबाब देखो
बाज़ार आए हो कुछ लेकर ही जाना है
सब कुछ पाने की हड़बड़ी के खिलाफ़ देखो
डण्डी मारने वाले का हिसाब और उधार देखो
चैन ख़रीद सको तो ख़रीद लो
बेबसी बेच पाओ तो बेच डालो
किसी की ख़ैर में न सही अपने लिये ही
लेकर हाथ में जलती एक मशाल देखो
कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के खिलाफ़ देखो.
सम्मोहित आलोक
कविता में जहाँ शब्द रखा है
चिमटे से उठाकर वहाँ अंगारा रख दो
अर्थ के सम्मोहित आलोक में
जहाँ मर्म खुलता दिखता हो
दीवट में उसके थोड़ा तेल भर दो
कुछ पल रुककर
गौर से देखो उस तरफ़
जो झिप रहा
वह नेह भर बाती का उज़ाला है
जो चमक रहा
वह सत्य की दिशा में खुलने वाला रास्ता है.
एक ही आशय में तिरोहित
सत्य का मुख देखते हुए
अपनी सुई में डालता है जुलाहा धागा
संशय की महीन बुनावट से परे
जारी रखता है अपना काम
सिलाई तगाई और टाँकने की शर्तें
सूर्य की ओर ताकते हुए
उड़ती हैं अनगिन सतरंगी चिडि़याँ
बसेरे से दूर अनथक लगी रहतीं
दाने तिनके की आस में
देखने में ये दोनों दृश्य अलग-अलग हैं
मगर भाषा के मानसरोवर में
एक ही आशय में तिरोहित हुए जाते हैं.
ताना-भरनी
प्रेम का ताना
विश्वास की भरनी से
जीवन की बिछावन
तागी थी
न ताना कमजोर था
न ही भरनी थी ढीली
फिर भी बिछावन थी
जो फटती ही चली गयी
कम होता गया
दिन ब दिन उसका सूत
जैसे प्रेम का
विश्वास का दरक गया हो धागा
अब बिछावन है
जो पड़ी है धरती पर
फटेहाल अपना सिर उठाए
जीवन है
चल रहा इसी तरह
गँवा चुका विश्वास
थोड़ा सा प्रेम बचाए.
पनघट
अगर आप इस कविता से
उम्मीद करते हैं यहाँ पानी मिलेगा
तो आप ग़लती पर हैं
तमाम दूसरे कारणों से उभर आयी
प्यास के हिसाब का
लेखा-जोखा भी नहीं मिलेगा यहाँ
मल्हार की कोई श्रुति छूट गयी हो
ऐसा भी सम्भव नहीं लगता
यह कविता का पनघट है
शब्दों की गागर भरी जाती यहाँ
डगर भले ही बहुत कठिन क्यों न हो.
कामना
एक सुई चाहिए
हो सके तो एक दर्जी की उंगलियाँ भी
सौ-सौ चिथड़ों को जोड़कर
एक बड़ी सी कथरी बनाने के लिए
एक साबुन चाहिए
हो सके तो धोबिन की धुलाई का मर्म भी
बीसों घड़ों का पानी उलीचकर
कामनाओं का चीकट धोने-सुखाने के लिए
एक झोला चाहिए
हो सके तो कवियों का सन्ताप भी
अर्थ गँवा चुके ढेरों शब्दों को उठाकर
नयी राह की खोज में जाने के लिए
सुई साबुन पानी और कविता के अलावा
कुछ और भी चाहिए
शायद भाषा का झाग भी
मटमैले हो चुके ढाई अक्षर को चमकाकर
एक नया व्याकरण बनाने के लिए.
कहाँ जाएँगे
हम अपने घर जला देंगे
तो कहाँ जाएँगे?
क्या सुख के लिए
कुछ और तरीके काम आएँगे?
सुस्ताने के लिए एक कथरी
ओढ़ने के लिए वही पुरानी चादर
बिछाने के लिए आधी-अधूरी चटाई
सब बिसराकर किधर जाएँगे?
हम अपने घर जला देंगे
तो क्या पाएँगे?
प्यास बुझाने के लिए वह उदास घड़ा
खाने के लिए काँसे की बरसों पुरानी थाली
पाने के लिए एक भारी लोटे में
जमा होते रहे कुछ अनमने सपने
सब कुछ गँवाकर क्या बचाएँगे?
क्या सुख के लिए
कुछ और रास्ते मिल जाएँगे?
हम अपने घर जला देंगे
तो कहाँ जाएँगे?
विलम्बित में
तुम्हारा सब-कुछ इतना तत्काल है
शायद ही कोई तुम्हें गा सकता हो
विलम्बित में
तुम्हें विलम्बित में ले जाना
संगीत को प्रपात की गरिमा से दूर ले जाना है
जैसे दुनिया अपने होने को
धीरे-धीरे स्थगित किये जाती है
वैसे ही तुम उसका होना
तुरन्त वहाँ सम्भव करते हो
ऐसे में तत्काल को
विलम्बित में बाँधने का विचार ही
झरने के कोलाहल से दूर जाने जैसा लगता है
बहुत सारी चीज़ों को
फटकारकर एक ही बार में
दुरुस्त कर देने वाली तुम्हारी युक्ति देखकर
यही लगता है
जैसे रागों की धैर्य भरी साधना में
क्रान्ति
द्रुत में ही सम्भव है
वहाँ विलम्बित में बाँधने का जतन
उतना ही विस्मय भरा है
जितना तुमको तत्काल से छिटकाकर
अवकाश में पसार देना.
हम पर इतने दाग़ हैं
हम पर इतने दाग़ हैं
जिसका कोई हिसाब ही नहीं हमारे पास
जाने कितने तरीकों से
उतर आए ये हमारे पैरहन पर
रामझरोखे के पास बैठकर
जो अनिमेश ही देख रहा हमारी तरफ
क्या उसे भी ठीक-ठीक पता होगा
कितने दाग़ हैं हम पर?
और कहाँ-कहाँ से लगाकर
लाये हैं हम इन्हें?
क्या कोई यह भी जानता होगा
दाग़ से परे भी जीवन वैसा ही सम्भव है
जैसा उन लोगों के यहाँ सम्भव था
जो अपनी चादर को
बड़े जतन से ओढ़ने का हुनर रखते थे.
बानी
उसने बानी दिया
जैसे रेत में ढूँढ़कर पानी दिया
उसने बानी दिया
जैसे रमैया से पूछकर
गुरु ग्यानी दिया
उसने बानी दिया
जैसे जीवन को नया मानी दिया.