पुराने अध्यापक
अध्यापकों से हाथ मिलाते समय
अनिश्चय-सा छा जाता है
एकाएक हिल जाता है मन
सिर ऊँचा नहीं हो पाता
अपने बढ़ने के अहसास पर भी
कद में हम बढ़ जाते हैं
झुक जाती है उनकी कमर
शब्द सिखाने वाले अध्यापक
अध्यापक कहानी सुनाने वाले
मुर्गा बनाने वाले अध्यापक
उनके बढ़े हुए हाथ
जब अन्दर तक चले जाते हैं
सुबह की घंटियाँ बजाते
बरबस झुकने को मन करता है
जब एकाएक हाथ बढ़ा देते हैं पुराने अध्यापक
उन्होंने समय सोचा
उन्होंने समय सोचा
गोल-गोल
अपनी जगह घूम-घूम
फरमाया समय
वृत्त की तरह गोल है
आता है वापस इसीलिए
प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार
समय के सीधेपन पर
उन्होंने दिया विमर्श
उसके समानान्तर
रीढ़ की हड्डी सीधी की
सरल रेखा-सा सीधा समय
हाय-हाय लौट कर नहीं आता
ऋजु है ससुरा
समय ए डमरू को
नचाया और बजाकर साब
दिखा दिया किए हैं तमाशा
समय तो है रेत घड़ी
होती है उल्ट-पुल्टा और
झरता है समय
बेलन की तरह है समय
गोलाइयों के बीच नाचता
बम्बे के पाइप में सुबह
खुँखवाता है ज़ोर-ज़ोर
शंकु की तरह
समय को किया सिद्ध
महाशय ने ब्लैक बोड पर
और डस्टर से मिटा कर
बोले फुला कर सीना
कि समझ गए होंगे आप
कविता में समय को लिखो
पंचभुज की तरह
षटभुज की तरह तो
नहीं हो सकता समय
कितनी-कितनी तरह से समझाया
गया समय मुझ को
ज्यामिति की आकृतियों में
पर समझ में नहीं आया समय
जटिल रस का परिपाक
किसी जटिल चीज़ की तलाश है
हम स्वयं उलझाना चाहते हैं
कोई तो होगा रहस्य
समझने की कोई बात नहीं
न समझ में आवे तो भी
आनन्द तो उसी में है
जटिल रस का यह परिपाक
पुस्तकों में इसी की तलाश
वर्ना बचा एक रस : नीरस
हे ईश्वर हमें अमूर्तन दो
अपने ही जैसा जटिल-असुलझ
बोरिंग न हो जो परिवेश जैसा
अनागत
कोई नहीं जानता
किस तरह बनेगी
वह आकृति
जो अभी परिकल्पना तक में नहीं
बि जो ज़मीन में नहीं डाला गया
उसकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ
किन-किन दिशाओं में फैलेंगी
अभी तो यह मालूम नहीं
आसमान का रंग कैसा होगा
कल की सुबह
परिस्थिति की प्रतिकूलता में
अनुमान तक पाप है
गद्दार विचरों के चलते
सहज हैं शंकाएँ
बीज की नैसर्गिक क्षमता के विरुद्ध
भूमि की ऊर्जस्विता के खिलाफ़
हवा, पानी और आसमान के प्रति
कोई परिवर्तन प्रतिदिन होता है
अवश्यम्भावी वर्तमान की तरह
हमारे बीच में जनमता है
जिसे हम बख़ूबी पहचानते हैं।
पढ़ी हुई पुस्तक
मैं उस पुस्तक को
बहुत दिनों बाद खरीदूंगा
किसी रद्दी की दुकान से
धूल से धुंधलाए चश्मे वाले
दुकानदार से
बहुत कम दामों पर
उतर आएंगे उसके दाम तब तक
निश्चित रूप से उतर आएंगे
बंद हो चुकी होंगी चर्चाएँ
उत्सुकता गुज़र चुकी होगी
किसी उत्तेजक समाचार की तरह
इतिहास में बदल कर
चार रुपया किलो भर
तब मैं उस पुस्तक को खरीदूंगा
आराम से पढ़ सकूंगा उसे
बग़ैर जल्दबाज़ी के
शोकेस के नीचे होगी वह
पढ़ी गई किताबों की भीड़ में
उस पर काफ़ी-काफ़ी निशान होंगे
और जगह-जगह मार्जिन लिए
किसी के हस्ताक्षर
किसी का पता
उसके दाम काफ़ी गिर चुके होंगे
मुझे नहीं होगी कोई परेशानी
उस बचत-सी ख़रीद में
कंक्रीट में गुलाब
साफ़ धुली ठण्डी फ़र्श पर
उससे भी कठोर कंक्रीट का गमला
जिसमें भूमि का भ्रम पैदा करती
थोड़ी-सी मिट्टी
जंगल का भ्रम पैदा करती
हरी पत्तियाँ और टहनी
उसकी चोटी पर एक गुलाब
घर के बाहर है गुलाब
मगर सड़क की असुरक्षा में नहीं
हवाओं के विरुद्ध जीवनबीमा है चारदीवारी
पशुओं के विरुद्ध जी० पी० एफ़० है गेट
थोड़ी-सी खाद मिलती है महंगाई-भत्ते की तरह
हल्का-सा पानी ओवरटाईम की तरह
ज़रूरत के मुताबिक
इसके लिए ही बनाया गया है दो कमरे का फ़्लैट
एक में सोते हैं बच्चे
दूसरे में पति-पत्नी
दिन में जो हो जाता है ड्राइंग-रूम
इसी गुलाब की खातिर
पति रोज़ भीड़ चीरता जाता है आफ़िस
पत्नी दिन भर करती है काम
बच्चों को भेजा जाता है स्कूल
पति-पत्नी और बच्चों के बीच उगा
यह गुलाब चमकता है
आफ़िस से लौटे थके पति की मुस्कान में
बोर हुई पत्नी की औपचारिकताओं में
क़िताब में दबे बच्चे की अस्वाभाविक हँसी में
हफ़्ते में सन्डे की तरह है यह गुलाब
दीवारों पर टँगे इच्छाओं के चित्र की तरह
थकान के बाद साथ चाय पीते मित्र की तरह
समय निकालकर देखे गए मैटिनी शो जैसा
गर्मी में बच्चे की एक आइसक्रीम की तरह
पुलिस के डण्डे की तरह है यह
हमारे और पागल कर देने वाली वानस्पतिक सुगन्धों के बीच
जो जंगलों की स्वतन्त्र सघनता में ही जनमती है
जिसकी एक छाया भर नहीं है यह
हममें और इन्द्रधनुषी रंगों के बीच
शासनादेश की तरह टंकित
धरती की सोंधी प्रफ़ुल्लित बरसाती महक के
विस्तार के चारों ओर काँटेदार बाड़ की तरह
एक आवर्जन भर है
कंक्रीट में उगा
लगभग कंक्रीट-सा
यह गुलाब
तितलियाँ
पंख फड़फड़ाती उड़ती हैं तितलियाँ
रोककर अपने पर एकाएक
हो जाती हैं आँखों से ओझल
इन्हें पकड़ना कोई कठिन नहीं
अगर ये फूलों पर बैठी हों
मेरे कोट पर आकर बैठ जाती है
मटमैली सफ़ेद या चमकीली तितली
भूल से या शायद आश्वस्त भाव से
घर नहीं होते हैं तितलियों के,
वे फूलों पर ही सो जाती हैं
छत्ते नहीं बनाती हैं शहद के
खुली वादियों में अक्सर
रंग बिखेरती हैं तितलियाँ
वातावरण को ख़ुशनुमा बनातीं।
उत्सव
ख़ूब कविताएँ पढ़ी गईं
लोगों ने पीटी ख़ूब तालियाँ
ख़ूब हुई वाह-वाह
हूट औ’ हिट हुई कविताएँ
इतनी ज़ोर-शोर से
उत्साहपूर्वक पढ़ी गईं कविताएँ
शब्द ही शब्द फैले आकाश पर
कुछ कविताएँ बम की तरह फटीं
हवा में छितरा गईं कुछ कविताएँ
अनार की तरह कुछ कविताएँ बिखरीं
ऎसा कुछ समाँ बंधा चारों ओर
कि जनता को भी सुन्दर लगी कविताएँ
पीड़ादायी पुनर्जन्म
एकाएक
बदल जाते हैं सारे रंग
गिरने लगती हैं पत्तियाँ
उड़ने लगती है धूल
कुछ ऎसा होता है एक दुपहर
सूरज की रोशनी खटकने लगती है
आँखों में उड़ आती है किरकिरी
असंभव-सा लगता है हरापन
छूँछी हो जाती हैं आशाएँ
फट जाते हैं आकाश में पखने
हर बार गुज़रता हूँ
इस पीड़ादायक पुनर्जन्म से
फिर भी डूबने लगता है मन
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-
- न जाने क्यों
-
हरा केन्द्रीय रंग नहीं है
हरा केन्द्रीय रंग नहीं है
बसंत के मौसम में भी
हरा केन्द्रीय रंग नहीं है
हरे के अलावा भी
बहुत से रंग हैं बिखरे
हरा केन्द्रीय रंग नहीं है
भले ही परिवेश में हो मुख्य
जिन्हें हम नहीं देखते
नहीं कह पाते उन्हें रंग
दुनिया का केन्द्रीय रंग कौन सा है?
हरा केन्द्रीय रंग नहीं है
बूमरैंग
एक भीड़ है
धुएँ जैसी छा जाती है
बादलों की तरह दृश्य ढँकती
समुद्र तटों पर
साइक्लोन की तरह
वह निकालती है
कुछ घुड़सवार
उन्हें तलवार पकड़ाती है
माथे पर तिलक लगाकर
भेजती है बादलों के पार
बहुत ख़ुश है सहस्त्राक्षी भीड़
अपने नायकों को देखकर
जाते हैं वे उस पार
शत्रुओं से छीन लाएंगे
भविष्य के स्वप्निल यथार्थ
सुनहले
हर बार यही होता है
शहर अपने नायकों को
खो देता है धूप में
ओस के वाष्पन की तरह
लोग आकाश निहारते-निहारते
लौट आते हैं वापस
अपने घरों को निराश
दीवार पर टँगी भूलों को
खाली निगाहों से तकते
आशाओं के घुड़सवार
विरोधियों की ओर से
आते हैं शहर की ओर
ख़बरों की तरह
लोग घरों से निकलते हैं
आश्चर्य से भयाक्रान्त
और यह विजयिनी इच्छा
नियंत्रित कर पाने की थोड़ा ही सही
खीस निपोर घिसटन के साथ-साथ
विश्व-विजय न कर पाने की विवशता
से उपजा ड्राइंगरूम का युयुत्सु निर्णय
शस्त्रों के बदले काँटें, चम्मच छुरी, चाय
औपचारिक बिस्कुटों की सधी पूर्णता में
सभ्य हाव-भाव से चलाए गए शब्द
रोज़-रोज़ हारने पर अपना परिवेश
अहं के चतुर्दिक अभेद्य बाड़ घेरने के
साथ-साथ वार कर पाने के उपक्रम
बातों में ही किसी तरह जीत जाने की
फिर एक स्वच्छंद आह्लाद में फैलकर
अपनी महत्ता के पाँव पसारने की
यह उत्कट विजयिनी इच्छा
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- अन्तत: ।
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