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रजब अली बेग ‘सुरूर’की रचनाएँ

अभी से मत कहो दिल का ख़लल जावे तो बेहतर है 

अभी से मत कहो दिल का ख़लल जावे तो बेहतर है
ये राह-ए-इश्क़ है यहाँ दम निकल जावे तो बेहतर है

लहू आँखों से बदले अश्क के तो हो गया जारी
रही है जान बाक़ी ये भी गल जावे तो बेहतर है

शिकस्ता दिल का तो अहवाल पहूँचे ऐ ‘सुरूर’ उस तक
ये शीशा ताक़-ए-उल्फ़त से फिसल जावे तो बेहतर है

फ़स्ल-ए-गुल में जो कोई शाख़-ए-सनोबर तोड़े

फ़स्ल-ए-गुल में जो कोई शाख़-ए-सनोबर तोड़े
बाग़बाँ ग़ैब का उस का वहीं फिर सर तोड़े

दस्त-ए-सय्याद में कहती थी ये कल बुलबुल-ए-ज़ार
क्या रिहाई का मज़ा है जो मिरे पर तोड़े

ख़ाक भी ख़ून की जा निकली न यहाँ ऐ प्यारे
बे-सबब हाए ये फ़ज़ा दून ने नश्तर तोड़े

वस्ल के तिश्ना-लबों को न हो मायूसी क्यूँ
दौर पर उन के फ़लक हाए जो साग़र तोडे़

मेरे दिल-बर को मिला दे जो कोई मुझ से ‘सुरूर’
अभी देता हूँ ज़र-ए-सुर्ख़ के सतर तोड़े

इस तरह आह कल हम उस अंजुमन से निकले 

इस तरह आह कल हम उस अंजुमन से निकले
फ़स्ल-ए-बहार में जूँ बुलबुल चमन से निकले

आती लपट है जैसी ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं से
क्या ताब है जो वो बू मश्क-ए-ख़ुतन से निकले

तुम को न एक पर भी रहम आह शब को आया
क्या किया ही आह ओ नाले अपने दहन से निकले

अब हैं दुआ ये अपनी हर शाम हर सहर को
या वो बदन से लिपटे या जान तन से निकले

तो जानियो मु़कर्रर उस का ‘सुरूर’ आशिक़
कुछ दर्द की सी हालत जिस के सुख़न से निकले

करूँ शिकवा न क्यूँ चर्ख़-ए-कुहन से 

करूँ शिकवा न क्यूँ चर्ख़-ए-कुहन से
कि फ़ुर्क़त डाली तुझ से गुल-बदन से

तिरी फ़ुर्क़त का ये सदमा पड़ा यार
ज़बाँ ना-आश्ना हो गई सुख़न से

दम-ए-तकफ़ीन भी गर यार आवे
तो निकलें हाथ बाहर ये कफ़न से

खिला है तख़्ता-ए-लाला-जिगर में
हमें क्या काम अब सैर-ए-चमन से

न पहुँचा गोश तक इक तेरे हैहात
हज़ारों नाला निकला इस दहन से

दिमाग़-ए-ज़ाँ में है ये बू-ए-काकुल
कि नफ़रत हो गई मुश्क-ए-ख़ुतन से

जिगर पर लाख तीशे ग़म के नित हैं
रही निस्बत हमें क्या कोह-कन से

‘सुरूर’ आताहै जब वो याद-दिलबर
तो जाँ बस मेरी हो जाती है सन से

किस तरह पर ऐसे बद-ख़ू से सफ़ाई कीजिए

किस तरह पर ऐसे बद-ख़ू से सफ़ाई कीजिए
जिस की तीनत में यही हो कज-अदाई कीजिए

जब मसीहा की हो मर्ज़ी कज-अदाई कीजिए
इस जगह क्या दर्द-ए-दिल की फिर दवाई कीजिए

उस से खिंच रहता हूँ जब तब ये कहे है मुझ से दिल
आशिक़ी या कीजिए या मीरज़ाई कीजिए

गर ये दिल अपना कहे में अपने होवे नासेहा
बैठ कर कुंज-ए-क़नाअत में ख़ुदाई कीजिए

क्या यही थी शर्त कुछ इंसाफ़ की ऐ तुंद-ख़ू
जो भला हो आप से उस से बुराई कीजिए

वो भला चंगा हुआ बर्गश्ता मुझ से और भी
क्या बयाँ नाले की अपने ना-रसाई कीजिए

खा गया लग्जिश क़दम ऐसा बुतों को देख कर
जी में ये आया कि तर्क-ए-पारसाई कीजिए

अक्स हो मालूम उस का घर ही बैठे ऐ ‘सुरूर’
पहले ज़ंग-ए-दिल की जब अपने सफ़ाई कीजिए

क्या ग़ज़ब है कि चार आँखों में 

क्या ग़ज़ब है कि चार आँखों में
दिल चुराता है यार आँखों में

चश्म-ए-कै़फी के सुर्ख़ डोरों से
छा रही है बहार आँखों में

गिर पड़ा तिफ़्ल-ए-अश्क़ ये मचला
मैं ने रोका हज़ार आँखों में

नहीं उठती पलक नज़ाकत से
सुरमा होता है बार आँखों में

इतनी छानी है ख़ाक तेरे लिए
छा रहा है ग़ुबार आँखों में

जब से अपना लक़ब हुआ है ‘सुरूर’
रोज़ ओ क्या ग़ज़ब है कि चार आँखों में
दिल चुराता है यार आँखों में

चश्म-ए-कै़फी के सुर्ख़ डोरों से
छा रही है बहार आँखों में

गिर पड़ा तिफ़्ल-ए-अश्क़ ये मचला
मैं ने रोका हज़ार आँखों में

नहीं उठती पलक नज़ाकत से
सुरमा होता है बार आँखों में

इतनी छानी है ख़ाक तेरे लिए
छा रहा है ग़ुबार आँखों में

जब से अपना लक़ब हुआ है ‘सुरूर’
रोज़ ओ शब है ख़ुमार आँखों मेंशब है ख़ुमार आँखों में

 

लाज़िम है सोज़-ए-इश्क़ का शोला अयाँ न हो

लाज़िम है सोज़-ए-इश्क़ का शोला अयाँ न हो
जल-बुझिये इस तरह से कि मुतलक़ धुआँ न हो

ज़ख़्म-ए-जिगर का वा किसी सूरत वहाँ न हो
पैकान-ए-यार इस में शक्ल-ए-ज़बाँ न हो

अल्लाह रे बे-हिसी कि जो दरिया में ग़र्क़ हों
तालाब की तरह कभी पानी रवाँ न हो

गुल ख़ंदा-ज़न है चहचहे करती है अंदलीब
फैली हुई चमन में कहीं ज़ाफ़राँ न हो

भागो यहाँ से ये दिल-ए-नालाँ की है सदा
बहके हो यारो ये जर्स-ए-कारवाँ न हो

हस्ती अदम से है मिरी वहशत की इक शलंग
ऐ ज़ुल्फ़-ए-यार पाँव की तू बेड़ियाँ न हो

लेना ब-जाए फ़ातिहा तुर्बत पे नाम-ए-यार
मरने पे ये ख़याल है वो बद-गुमाँ न हो

नाक़ा चला है नज्द में लैला का बे-महार
मजनूँ की बन पड़ेगी अगर सार-बाँ न हो

चालों की चर्ख़ की ये मिरा अज़्म है ‘सुरूर’
इस सर-ज़मीं पे जाऊँ जहाँ आसमाँ न हो

मरीज़-ए-हिज्र को सेहत से अब तो काम नहीं

मरीज़-ए-हिज्र को सेहत से अब तो काम नहीं
अगरचे सुब्ह को ये बच गय तो शाम नहीं

रखो या न रखो मरहम उस पे हम समझे
हमारे ज़ख़्म-ए-जुदाई को इल्तियाम नहीं

जिगर कहीं है कहीं दिल कहीं हैं होश ओ हवास
फ़क़त जुदाई में इस घर का इंतिज़ाम नहीं

कोई तो वहशी है कहता है कोई है दीवाना
बुतों के इश्क़ में अपना कुछ एक नाम नहीं

सहर जहाँ हुई फिर शाम वाँ नहीं होती
बसान-ए-उम्र-ए-रवाँ अपना इक मक़ाम नहीं

किया जो वादा-ए-शब उस ने दिन पहाड़ हुआ
ये देखियो मिरी शामत कि होती शाम नहीं

वही उठाए मुझे जिस ने मुझ को क़त्ल किया
कि बेहतर इस से मिर ख़ूँ का इंतिक़ाम नहीं

उठाया दाग़-ए-गुल अफ़सोस तुम ने दिल पे ‘सुरूर’
मैं तुम से कहता था गुलशन को कुछ क़याम नहीं

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