तोते
उग रहा रक्त
उगते -उगते
चुग रहा रक्त
फल रहा रक्त
फलते फलते
चल रहा रक्त
दो पहर -पेड़
खिड़की पर खड़े -खड़े
सहसा
रुक गया वक्त
कहो
हवा से कहो
तुम्हारे खालीपन भरे
अंधेरे से कहो
तुम्हे नदी पार कराये
आसमान से कहो
तुम्हें मकान ढूंढ दे
सड़कों से कहो
तुम्हे काम पर लगा दे
शब्दों से कहो
……….
नहीं !
शब्दों से
कुछ मत कहो
जीवनी
सब अनर्थ है
कहा अर्थ ने
मुझे साध कर
तू अनाथ है
कहा नाथ ने
मुझे नाथ कर
इसी तरह
शह देते आए
मुझे मातबर
पहुचना घर
मगर उन्हें भी
मुझे लाद कर
पनपे खर –
पतवार सभी तो
मुझे खाद कर
धूम
बहुत दूर तक साथ
चली थी
पर्वतमाला
बहुत दूर तक साथ
चला था जंगल अपने
फिर था वह सब बिला गया
सूने सन्नाटे में
…………..
चलते- चलते
दीखा अचानक
सूखी एक सपाट नदी के
वक्षस्थल पर
गायों- भैंसों का हहराता
पूरा एक
हुजूम….
जैसे कोई सभा
वहाँ होने वाली हो
आने ही वाले हों कोई
महामहिम-हाँ
कोई
पशुपतिनाथ
इस तरह
मची हुई थी
धूम!!!
यात्रा कब की बीत चुकी
पर
बीत नहीं पाया वह दृश्य
अभी तक
सोते- जगते
कहीं कभी भी
हहराने लगता है मुझमें
अरे! वही का वही समूचा
पूरा एक हुजूम
मचने लगती मुझमें
वैसी की वैसी वह
गूंगेपन की
धूम!
एक किंवदती का पीछा करते हुए
जंगल का कवच ओढ़
छका सगे रिपुओं को
कठिन था पहँचना इस सुरक्षित चोटी तक
करने अज्ञातवास
लेकिन…उतरना यूँ…ख़ामख़ाह
बिना किसी मार्ग के
समय से पूर्व ही
किसनें था प्रेरा हमें?
किस स्वप्नादेश का
पीछा करते हुए
भटक रहे कबसे हम?
मुँह बाए खाइयाँ…खड्ड खुले चौतरफ़ा
कंकरीली चूर-चूर चट्टानें लुढ़कतीं
पाँवों और पहियों से भी सरपट…
हमें है भरोसा सिर्फ़
अगम-अगोचर उस
अपने मार्गदर्शक का
जो
पहुँच से परे हमारी चीखों-कराहों के
खींचे लिए जाता हकम
एक किंवदंती सा
आगे…और आगे, बस
जैसे चरमकोण पर
मरुस्थल की प्यास के
भेंटती मरीचिका
वैसे ही, अकस्मात्
दूर…किसी अतलांत
गह्वर से उठी गूँज
टकराई कानों से
किस कदर रपटीली
आखिरी रपट थी वह!
लुढ़कते पुढ़कते हम
आ गए गुफ़ा के द्वार
जिसका था दिखा स्वप्न
जिस पर जड़ा ताला
और” महावतार बाबा की गफ़ा”
लिखा देखकर
” जय हो” – यह बोला ज्यों
बियावान
खुद हमसे
थोड़ा और उतरते ही
समतल हो गई राह
उतर गया
जंगल का कवच भी
अपने-आप
ओढ़ खुलापन फिर से
परिचित पठार का
निकले हम फिर अपने
जन्मजात शत्रुओं से
मांगने अपना घर
जाने कौन सी बार!
एक मरणासन्न व्यक्ति के समीप
सभी दिशाओं से यह किसका सिमट रहा है जाल?
डूब रहा यह कौन ढूँढता अपना ही पाताल?
लहर टूट जुड़ रही वहाँ, ज्यों लहरों में हों लोग
जान चुका, था जिन्हें जानना? सचमुच वे संजोग
फेंट रहे होंगे अब भी तो कहीं किसी के हाथ
पहुँचाता क्या प्रलय इसी बिध फिर अपनों के साथ?
दिवस- मास-संवत्सर बीते, बीते कितने अब्द
रह जाता हर बार शेष जो,–यही, यही क्या लब्ध
बन अदृष्ट फिर दस्तक देगा बन्द सृष्टि के द्वार?
छूटा हुआ पकड़ लेने को फिर कोई आकार
बासी पड़ जाती हर दुनिया झलका कर कुछ सार
एक नया प्रारंभ और फिर, जाने कितनी बार
चुका नहीं जो अब तक इसका, कैसा वह प्रारब्ध?
जाते जाते इसे घेर फिर क्यों बैठे ये शब्द?
समझ
किसने बनाई समझ?
चीज़ें किसकी समझ हैं?
चीज़ों से बनीं समझ
या कि चीज़ें समझ से?
चीज़ों के पीछे पड़ी, चीज़ों के आगे अड़ी
चीज़ों के बाहर खड़ी
तू भी क्या चीज़ है!
मेरी समझ वापिस ला
उबार ले अब भी मुझे
नामरूप चीज़ों की
कामरूप
समझ!
गोलू के मामा
गोलू के मामा आए,
देख रहे सब मुँह बाए!
मुँह उनका है गुब्बारा,
था किसने उन्हें पुकारा।
नारंगी उनको भाए,
गोलू के मामा आए!
वे पूरब से हैं आते
गोलू से गप्प लड़ाते,
हौले से उसे सुलाकर
फिर पच्छिम को उड़ जाते।
सच बात अगर मैं बोलूँ,
तो पोल पुरानी खोलूँ।
सूरज का फटा पजामा,
सिलते गोलू के मामा।
पर जाने क्या जादू है
रहते हैं सब पर छाए,
सब देख रहे मुँह बाए
गोलू के मामा आए!
ये बड़े दिनों में आए
झोले में हैं कुछ लाए,
हमको तो पता चले तब
जब गोलू हमें खिलाए।
लो दिखा दिखा नारंगी
देते हैं एक बताशा,
यूँ सबको देते झाँसा
करते ये खूब तमाशा।
हर पंद्रह दिन में कैसे
आ जाते बिना बुलाए,
मैं देख रहा मुँह बाए
गोलू के मामा आए।
हाँ भई हाँ, हाँ भई हाँ
खाओ तो भी पछताओ,
छोड़ो तो भी पछताओ,
लगा दिया मिट्टी के मोल
आ जाओ भई आ जाओ!
ना भई ना, ना भई ना!
हाँ भई हाँ, हाँ भई हाँ
ऐसी गाजर मिले कहाँ,
लाल टमाटर मिले कहाँ,
एक रुपए में पाँच किलो,
जल्दी-जल्दी आकर लो,
ले लो, ले लो, अंटी खोल!
ना भई ना, ना भई ना!
हाँ भई हाँ, हाँ भई हाँ
ककड़ी ले लो नरम-नरम,
देखो जी मत करो शरम,
इसके आगे नारंगी-
भी लगती फीकी-फीकी,
दूँगा देखो पूरा तोल!
ना भई ना, ना भई ना!
हाँ भई हाँ, हाँ भई हाँ
ले जाओ किशमिश बादाम,
पके पके ये मीठे आम,
कलमी और दशहरी हैं,
ले जाओ मिट्टी के दाम,
खा भी लो चीजें अनमोल!
ना भई ना, ना भई ना!
हाँ भई हाँ, हाँ भई हाँ
जल्दी जल्दी आ जाओ,
जी भरकर सब कुछ खाओ,
फुरसत से फिर पछताओ!
ना भई ना, ना भई ना!
हाँ भई हाँ, हाँ भई हाँ