दोहा / भाग 1
लखत सरस सिंधुर वदन, भालथली नखतेस।
बिघन-हरन मंगल-करन, गौरी-तनय गनेस।।1।।
नमो प्रेम-परमारथी, इहि जाचत हों तोहि।
नन्दलाल के चरन कौं, दे मिलाइ किन मोहि।।2।।
अब तौ प्रभु तारैं बनै, नातर होत कुतार।
तुमही तारन-तरन हौ, सो मोरै आघार।।3।।
कैइक स्वांग बनाइ कै, नाचौ बहु बिधि नाच।
रीझत नहिं रिझवार वह, बिना हिए के साँच।।4।।
तेरी गति नन्द लाड़ले, कछू न जानी जाइ।
रजहू तैं छोटो जु मन, ता मैं बसियत आइ।।5।।
सब सुख छाड़े नेहिया, तुव सुख लेत उठाइ।
सब सुख चाहत सब रहै, तुव सुख नहीं मिठाइ।।6।।
मोहे नैकु न नैन जे, मन मोहन कै रूप।
नीरस निपट निकाम ज्यौं, बिन पानी कै कूप।।7।।
साँची सी यह बात है, सुनियो सज्जन सन्त।
स्वांगी तौ वह एक है, वहि के स्वांग अनन्त।।8।।
आपु फूल आपुहिं भँवर, आपु सुबास बसाइ।
आपुहि रस आपुहि रसिक, लेत आपु रस आइ।।9।।
हिन्दू मैं क्या और है, मुसलमान मैं और।
साहिब सब का एक है, ब्याप रहा सब ठौर।।10।।
दोहा / भाग 2
करत फिरत मन बावरे, आप नहीं पहिचान।
तो ही मैं परमातमा, लेत नहीं पहिचान।।11।।
तूँ सज्जन या बात कौं, समुझ देख मन माहिं।
अरे दया मैं जो मजा, सो जुलमन मैं नाहिं।।12।।
प्रीतम इतनी बात को, हिय कर देखु बिचार।
बिनु गुन होत सुनिकहूँ, सुमन हिए कौ हार।।13।।
हित करियत यह भाँति सौं, मिलियत है वह भाँत।
छरि नीर तैं पूछ लै, हित करिबे की बात।।14।।
रूप-समुद्र छवि-रस भरौ, अति ही सरस सुजान।
ता में तैं भर लेत दृग, अपनै घट उनमान।।15।।
अरे मीत या बात कौ, देख हिए कर गौर।
रूप दुपहरी छाँह कब, ठहरानी इक ठौर।।16।।
लाल भाल पै लसत है, सुन्दर बिन्दी लाल।
कियौ तिलक अनुराग ज्यौं, लख कै रूप रसाल।।17।।
बिधि ने जग मैं तैं रच्यौ, ऐसी भाँति अनूप।
आभूषन कौ है लला, आभूषन तुव रूप।।18।।
और सवादन पै लखौ, भूलहु चित्त न देइ।
अँखिया मोहन रूप कौं, बिन रसना रस लेइ।।19।।
जो भावै सो कर लला, इन्हैं बाँध वा छोर।
हैं तुव सुबरन रूप के, ये मेरे दृग चोर।।20।।
दोहा / भाग 3
पल पींजरन मैं दृगसुवा, जदपि मरत है प्यास।
तदपि तलफ जिय राखही, रूप-दरस-दस-आस।।21।।
जब जब वह ससि देत है, अपनी कला गँवाइ।
तब तब तुव मुख चंद पै, कला माँगि लै जाइ।।22।।
सुमन सहित आँसू-उदक, पल-अँजुरिन भरि लेत।
नैन-ब्रती तुव चंद-मुख, देखि अरघ कौं देत।।23।।
जब लग हिय दरपन रहै, कपट मोरचा छाइ।
तब लग सुन्दर मीत-मुख, कैसे दृगन दिखाइ।।24।।
कानन लग कैं तैं हमैं, कानन दियौ बसाइ।
सुचिती ह्वै तैं बाँसुरी, बस अब ब्रज मैं आइ।।25।।
मोहन बसुरी सौं कछू, मेरौ बस न बसाइ।
सुर-रसरी सौं सुवन-मगु, बाँधि मनै लै जाइ।।26।।
बिछुरत सुन्दर अधर तैं, रहत न जिहि घट साँस।
मुरली सम पाई न हम, प्रेम-प्रीत को आँस।।27।।
प्रेम-नगर दृग जोगिया, निस दिन फेरी देत।
दरस-भीख नन्दलाल पै, पल-झोरिन भरि लेत।।28।।
रूप ठगौरी डारि कै, मोहन गौ चितचोरि।
अंजन मिस जनु नैन ये, पियत हलाहल घोरि।।29।।
साधत इक छूटत सहस, लगत अमिन दृग गात।
अरजुन सम बानावली, तेरे दृग करिजात।।30।।
दोहा / भाग 4
बिदित न सनमुख ह्वै सकैं, अँखियाँ बड़ी लजोर।
बरुनी सिरकिन ओट ह्वै, हेरत मोहन ओर।।31।।
प्रथमहि नैन-मलाह जे, लेत सुनेह लगाइ।
तब मझयावत जाय कै, गहिर रूप दरियाइ।।32।।
रसनिधि मोहन रूप तौ, जिहिं मैं तिहिं सरसाइ।
तिनकौ राखौ नेहियन, नैन माँझ ठहराइ।।33।।
मन सुबरन घरिया हियो, लाल सुहाग मिलाइ।
दृग-सुनार हित आँच दै, कुन्दन कियौ तपाइ।।34।।
एक नजरिया कै लखै, जो कोइ होइ निहाल।
तौ यामैं तुव गाँठ कौ, कहा जात है लाल।।35।।
नैना मोहन रूप सौं, मन कों देत मिलाइ।
प्रीत लगै मन की बिथा, सकै न ये फिर पाइ।।36।।
दृग माली ये डीठ कर, निरखि रूप की बेल।
लेत सु चुन छवि की कली, पल झोरिन सौं झेल।।37।।
तीन पैर जाकै लखौ, त्रिभुवन मैं न समाहिं।
धन राधे राखत तिन्हैं, लोइन कोइन माहिं।।38।।
मेरे नैननि ह्वै लखौ, लाल आपुनौ रूप।
भावत ह्वै गौ भावतो, कैसी भाति अनूप।।39।।
सृहृद जगत मैं दृगन से, रसनिधि दूजे नाहिं।
बड़े दृगन लखि आप तौ, तन मन हियौ सिहाहिं।।40।।
दोहा / भाग 5
रिस रस दधि सक्कर जहाँ, मधु मधुरी मुसकान।
घृत सनेह छवि पय करै, दृग पंचामृत पान।।41।।
क्यौं न रसीले होहिं दृग, जे पोखे हित लाल।
खाटे आम मिठात हैं, भुस मैं दीनै पाल।।42।।
यातैं पल-पलना लगत, हेरत आनन्द कंद।
पियत मधुर छवि दृगन कै, जात ओठ ह्वै बन्द।।43।।
यह छोटे बित नैन ये, करत बंड से काम।
तिल तारन बिच लै धरे, मोहन मूरति स्याम।।44।।
भौंह कुटिल वरुनी कुटिल, नैना कुटिल दिखात।
बेधन कौं नेही हियौ, क्यौं सूधे ह्वै जात।।45।।
नैन-बान ििह उर छिदै, कसकत लेत न साँस।
मीतहि उनकी है दवा, मिलै न बैदन पास।।46।।
जौ कछु उपजत आइ उर, सो वै आँखैं देत।
रसनिधि आँखैं नाम इन, पायौ अरथ समेत।।47।।
उपजत जीवन-मूर जहँ, मीत दृगन मैं आइ।
तिनके हेरे तुरत ही, अतन सतन ह्वै जाइ।।48।।
श्रवत रहत मन कौ सदा, मोहन गुन अभिराम।
तातैं पायौ रसिक निधि, श्रवन सुहायौ नाम।।49।।
जो कहियै तौ साँच कर, को मानै यह बात।
मन के पग छाले परे, पिय पै आवत जात।।50।।
दोहा / भाग 6
मन मैला मन निरमला, मन दाता मन सूम।
मन ज्ञानी अज्ञान मन, मनहि मचाई धूम।।51।।
उड़ौ फिरत जो तूल सम, जहाँ तहाँ बेकाम।
ऐसे हरुये कौ धरयो, कहा जान मन नाम।।52।।
को अवराधे जोग तुव, रहु रे मधुकर मौन।
पीताम्बर के छोर तैं, छौर सकै मन कौन।।53।।
निरख छबीले लाल कौ, मन न रहौ मो हाथ।
बँधौ गयौ ता बसि भयौ, छबी-दान के साथ।।54।।
मटकी मटकी सीस धर, चल कछु बकि मुसकाइ।
लखि वह घट की सुध गई, छवि अँटकी दृग आइ।।55।।
इही मतौ ठहराइये, अली हमारे जान।
जान न दीजै कान्ह कौं, जान दीजिए जान।।56।।
सब दरदन की ज्यौं दवा, जग मैं बिधि कर हीन।
बेदरदी महबूब की, काहे खोइ न दीन।।57।।
जसुमति या ब्रज मैं कहौ, अब निबाह क्यौं होइ।
तब दधि चोरी होत ही, अब चित चोरी होइ।।58।।
सुध त रही देखतु रहै, कल न लखै बिन तोहिं।
देखै अनदेखै तुहै, कठिन दुहूँ बिधि मोहिं।।59।।
नींद दुहुन के दृगन मैं, सकै नपल ठहराई।
जो चोरी कौ फिरत है, जिहि चित चोरो जाइ।।60।।
दोहा / भाग 7
उदौ करत जब प्रेम-रवि, पूरब दिसि तैं आइ।
कहू नैम तम जात है, देखौ जात बिलाइ।।61।।
चसमन चसमा प्रेम कौ, पहिले लेहु लगाइ।
सुंदर मुख वह मीत कौं, तब अवलोकौ आइ।।62।।
अद्भुत गत यह प्रेम की, बैनन कही न जाइ।
दरस भूख लागै दगन, भूखइ देत भगाइ।।63।।
प्रेम-पियाला पी छके, तेई हैं हुसियार।
जे माया मद सौं भरे, ते बूड़े मँझधार।।64।।
हरि बिछुरत बीती जु हिय, सो कछु कहत बनैन।
अकथ कथा यह प्रेम की, जिय जानै कै नैन।।65।।
उरझत दग बँधिं जात मन, कहौ कौन यह रीति।
प्रेम नगर मैं आई कै, देखी बड़ी अनीति।।66।।
नेम न ढूँढ़े पाइयै, जेहिं थल बाढ़ै प्रेम।
रहत आइ हरि दरस के, प्रेम आसरै नेम।।67।।
मन मैं बस कर भावते, कहौ कवन यह हेत।
प्रकट दृगन कों आइ कै, क्यों न दिखाई देत।।68।।
तौ तुम मेरै पलन तैं, पलक न होते ओट।
व्यापी होती जो तुमैं, ओट भये की चोट।।69।।
वह पीताम्बर की पवन, जब तक लगै न आइ।
सुमन कली अनुराग की, तब तक क्यौं बिगसाइ।।70।।
दोहा / भाग 8
अद्भुत गत यह प्रेम की, लखौ सनेही आइ।
जुरैं कहूँ, टूटै कहूँ, कहूँ गाँठ परि जाइ।।71।।
और लतन सों हित-लता, अद्भुत गति सरसाइ।
सुमन लगै पहिलै इहै, पाछे कै हरियाइ।।72।।
बार बार ब्रज बाल कौं, यह बिध हियौ डराइ।
नेह लगै मोहन दसा, मत हम सी होइ जाइ।।73।।
कहनावत यह मैं सुनी, पोषत तन कों नेह।
नेह लगायै अब लगी, सूखन सगरी देह।।74।।
तुम गिरि लै नख पै धर्यो, इन तुम कों दृग कोर।
दो मैं तै तुमही कहौ, अधिक कियौ केहि जोर।।75।।
बारक तुम गिर कर धर्यो, गिरधर पायौ नाम।
सदा रहै तुम उर धरै, उनकौ अबला नाम।।76।।
अँधियारी निस कौ जनम, कारै कान्ह गुबाल।
चित-चोरी जो करत हौ, कहा अचम्भौ लाल।।77।।
गोपी जो तुहि प्रेम करिं, करती नहीं सनाथ।
को कहतौ तुहि नन्द-सुत, जग मैं गोपीनाथ।।78।।
जो न मिलेंगे स्याम-घन, वाहि तुरतही आइ।
बिरह अगिन सौं राधिका,दैहै ब्रजहि जराइ।।79।
बिरह-अगिन सुन सुन लगै, जब जब उर मैं आन।
तब तब नैन बुझावहीं, बरस सरस अँसुवान।।80।।
दोहा / भाग 9
जब लग काँचे घट पके, बिरह अगिन मैं नाहिं।
नेह नीर उनमैं अरे, भरे कौन बिधि जाहिं।।81।।
बेग आइ कै मीत अब, कर हिसाब यह साफ।
मेहर नजर कै बिरह की, बाकी कर दै माफ।।82।।
कहियौ पथिक सँदेस यह, मन मोहन सौं टेर।
बिरह-बिथा जो तुम हरी, हरी भई ब्रज फेर।।83।।
जीवै लैवा जोत कौ, दोऊ देहु मिलाइ।
ऊधौ जोग बियोग मैं, अंतर कह ठहराइ।।84।।
मन हरिबे की ज्यों पढ़े, पाटी स्याम सुजान।
तौ यहऊ पढ़ते कहूँ दीबौ दरसन-दान।।85।।
जिते नखत बिधि दृग तिते, जो रच देतौ मोहि।
तृपित न होते वे तऊ, निरख भावते तोहि।।86।।
नेही दृग जोगी भए, बरुनी जटा बढ़ाइ।
अरे मीत तैं दै इन्हैं, दरसन भिच्छा आइ।।87।।
मोहन लखि जो बढ़त सुख, सो कछु कत बनै न।
नैनन कै रसना नहीं, रसना कै नहिं नैन।।88।।
लगत कमल-दल नैन जल, झपट लपट हिय आइ।
बिरह लपट अकुलाइ जब, भाज हिए तैं जाइ।।89।।
अमरैया कूकत फिरै, कोइल सबै जताइ।
अमल भयौ ऋतुराज कौ, रुजू हौहु सब आइ।।90।।
दोहा / भाग 10
अरी मधुर अधरान तैं, कटुक बचन मत बोल।
तनक खुटाई तैं घटै, लखि सुबरन को मोल।।91।।
अलगरजी धन सौं नहीं, सुनियौ संत सुजान।
अरजी चात्रिक दीन की, गरजी सुनै न कान।।92।।
क्योला हू आगी लगै, उज्वल होत अँगार।
विरह जरत जो काहु के, गोरे होत मुरार।।93।।
खोल न घूँघट ससि मुखी, होइ न कहूँ अकाज।
बाढ़ न आवे उदधि में, लौट न जाँइ जहाज।।94।।
नेह भरे दृग दीप में, बाती लाज जराइ।
जो पिय की आरति करै, आरत कौन न जाइ।।95।।
को न बहानो जानि है, वृथा छुड़ावत बाँह।
बैनन में नाहीं बसी, नैनन में वहि नाँह।।96।।
सन्ध्या माँहिं सँयोग की, दृग-दिहरी के बीच।
विरह तोहि पिय मारिहै, हिरना कुस सौ नीच।।97।।
मिल्यो न उन ब्रज तरुन हूँ, भये जु जरिकैं राख।
राख चढ़ाये हरि मिलत, देओ ऊधो साख।।98।।
लाखन सौहें मात के, आँखन सौहैं जात।
माँखन सौहैं खात है, माखन सौहैं खात।।99।।
राधा सब बाधा हरैं, श्याम सकल सुख देंय।
जिन उर जा जोरी बसै, निरबाधा मुख लेंय।।100।।