स्त्री – एक
एक दाना दो
वह अनेक दाने देगी
अन्न के ।
एक बीज दो
वह विशाल वृक्ष सिरजेगी
घनी छाया और फल के ।
एक कुआँ खोदो
वह जल देगी शीतल
अनेक समय तक अनेक लोगों को
तृप्त करती ।
धरती को कुछ भी दो
वह और बड़ा,
दोहरा-तिहरा करके लौटाएगी ।
धरती ने बनाया जीवन सरस,
रहने-सहने और प्रेम करने लायक
स्त्रियाँ क्या
धरती जैसी होती हैं ?
स्त्री – दो
यह जो जल है विशाल जलराशि का अंश
इसी ने रचा जीवन
इसी ने रची सृष्टि ।
यह जो मिट्टी है, टुकड़ाभर है
ब्रह्माण्ड के अनेकानेक ग्रह-नक्षत्रों में
इसी के तृणांश हम ।
यह जो हवा है
हमें रचती बहती है
हमारे भीतर–बाहर प्रवाहित ।
ये जो बादल हैं
अकूत जलराशि लिए फिरते
अपने अँगोछे में
जल ने रचा इन्हें हमारे साथ-साथ
उन्होंने जल को
दोनों समवेत रचते हैं पृथ्वी-सृष्टि ।
ये वन, अग्नि, अकास-बतास
सबने रचा हमें
प्रेम का अजस्र स्रोत हैं ये
रचते सबको जो भी सम्पर्क में आया इनके ।
क्या पृथ्वी, जल,
अकास, बतास ने सीखा
सिरजना स्त्री से
याकि स्त्री ने सीखा इनसे ?
कौन आया पहले
पृथ्वी, जल, अकास, बतास
या कि स्त्री ?
स्त्री – तीन
वे जो महुए के फूल बीन रही थीं
फूल हरसिंगार के
प्रेम में निमग्न थीं ।
वे जो गोबर पाथ रही थीं
वे जो रोटी सेंक रही थीं
वे जो बिटियों को स्कूल भेज रही थीं
सब प्रेम में निमग्न थीं ।
वे जो चुने हुए फूल एक-एक कर
पिरो रही थीं माला में
अर्पित कर रही थीं
उन्हें अपने आराध्य को
प्रेम में निमग्न थीं ।
स्त्रियाँ जो थीं, जहाँ थीं
प्रेम में निमग्न थीं ।
उन्होंने जो किया —
जब भी जैसे भी
प्रेम में निमग्न रहकर किया
स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर ।
प्रेममय जो है
स्त्रियों ने रचा ।
स्त्री – चार
वे जो चली जा रही हैं क़तारबद्ध,
गुनगुनाती, अण्डे उठाए चीटियाँ
स्त्रियाँ हैं ।
वे जो निरन्तर बैठी हैं
ऊष्मा सहेजती डिम्ब की
चिड़ियाँ, स्त्रियाँ हैं ।
जो बाँट रही हैं चुग्गा
भूख और थकान से बेपरवाह
स्त्रियाँ हैं ।
जीभ से जो हटा रही हैं तरल दुःख
और भर रही हैं जीवन
चाटकर नवजात का तन
स्त्रियाँ हैं ।
जो उठाए ले जा रही हैं
एक-एक को
पालना बनाए मुँह को
स्त्रियाँ हैं ।
स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं
प्रेम में निमग्न हैं
एक हाथ से थामे दलन का पहिया
दूसरे से सिरज रही दुनिया ।
स्त्री – पाँच
जो रान्धी जा रही थीं
सिंक रही थीं धीमी आँच में तवे पर
जो खुद रसोई थीं रसोई पकाती हुई
स्त्रियाँ थीं ।
व्यँजन की तरह सजाए जाने से पहले
जिनने सजाया ख़ुद को
अनचिन्ही आँखों से बस जाने के लिए
वे स्त्रियाँ थीं ।
शिशु के मुँह से लिपटी
या प्रेमी के सीने से दबी
जो बदन थीं, खालिश स्तन
स्त्रियाँ थीं ।
जो तोड़ी जा रही थीं
अपनी ही शाख से
वे स्त्रियाँ ही थीं ।
वे कादो बना लेती थीं ख़ुद को
और रोपती जाती थीं बिचड़े
अपने शरीर के खेत में ।
साग टूँगते हुए वे बना लेती थीं
ख़ुद को झोली
जमा करती जाती थीं
बैंगन, झिंगनी, साग, या कुछ भी
और ऐसे चलतीं जैसे गाभिन बकरी
जैसे छौने लिए जा रही कँगारू माँ
वो एक बड़ा आगार थीं
जो कभी ख़ाली न होता था
देखना कठिन था
लेकिन उनका ख़ालीपन
सूना कोना-आन्तर !
स्त्री – छह
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
वह दुख समझना चाहता हूँ
जो उठाती हैं स्त्रियाँ
उनके प्रेमपगे आस्वाद को किरकिरा करने वाली
जानना चाहता हूँ ।
जनम से लेकर मृत्यु तक
हलाहल पीना चाहता हूँ
प्रताड़णा और अपमान का
जो वो पीती हैं ताउम्र ।
महसूसना चाहता हूँ
नर और मादा के बीच में भेद के
काँटे की चुभन ।
नज़रों का चाकू कैसे बेधता है
कैसे जलाती है
लपलपाती जीभ की ज्वाला
स्त्रीमन की उपेक्षा की पुरुषवादी प्रवृत्ति
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
उनकी सतत मुस्कुराहट
पनीली आँखों
कोमल तन्तुओं का रचाव
और उत्स समझना चाहता हूँ ।
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
सन्ताप
हंसते-हंसते वह चीख़ने लगी
फिर चुप हो गई ।
उसकी इठलाती कई-कई मुद्राएँ क़ैद हैं मोबाइल में
अब एक अदम्य दुख से अकड़ा जा रहा उसका तन
वह ठोक रही धरती का सीना अपनी हथेलियों से
न फटती है वो न कोई धार फूटती है ।
उसकी चीख़ में शामिल है
सूनी माँग की पीड़ा
उस आदमी के जाने का दुख
बैल की तरह जुतने के बाद भी
जो बचा ना पाया अपने खेत ।
उसकी चीख़ में शामिल
अबोध लड़की का दुख
हमारे समय की तमाम लड़कियों, औरतों की चीख़
रौंद डाले गए जिनकी इच्छाओं
और सम्भावनाओं के इन्द्रधनुष ।
उनकी चीख़ में शामिल
मर्दाना अभिमान का दुख
धर्म और जात का दुख
प्रेम के तिरोहन का दुख ।
उसकी चीख़ में शामिल
इस अकाल-काल का दुख ।
अनुनय
उदास किसान के गान की तरह
शिशु की मुस्कान की तरह
खेतों में बरसात की तरह
नदियों में प्रवाह की तरह लौटो ।
लौट आओ
जैसे लौटती है सुबह
अन्धेरी रात के बाद ।
जैसे सूरज लौट आता है
सर्द और कठुआए मौसम में ।
जैसे जनवरी के बाद फरवरी लौटता है
फूस-माघ के बाद फागुन, वैसे ही
वसन्त बन कर लौटो तुम !
लौट आओ
पेड़ों पर बौर की तरह
थनों में दूध की तरह
जैसे लौटता है साइबेरियाई पक्षी सात समुन्दर पार से
प्रेम करने के लिए इसी धरा पर ।
प्रेमी की प्रार्थना की तरह
लहराती लहरों की तरह लौटो !
लौट आओ
कि लौटना बुरा नहीं है
यदि लौटा जाए जीवन की तरह ।
हेय नहीं लौटना
यदि लौटा जाए गति और प्रवाह की तरह ।
न ही अपमानजनक है लौटना
यदि संजोये हो वह सृजन के अँकुर ।
लौटने से ही सम्भव हुईं
ऋतुएँ, फ़सलें, जीवन, दिन-रात
लौटो, लौटने में सिमटी हैं सम्भावनाएँ अनन्त !
प्रतीक्षा
यह ध्यान की सबसे ज़रूरी स्थिति है
पर उतनी ही उपेक्षित
निज के तिरोहन
और समर्पण के उत्कर्ष की स्थिति
कुछ भी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं
जितनी प्रतीक्षा
प्रियतम के सम्वाद की, संस्पर्श की
मुस्कान की प्रतीक्षा ।
चुपचाप
बूँदें गिर रही हैं बादल से
एकरस, धीरे-धीरे, चुपचाप।
पत्ते झरते हैं भीगी टहनियों से
पीले-गीले-अनचाहे, चुपचाप।
रात झर रही है पृथ्वी पर
रुआँसी, बादलों, पियराए पत्तों सी, चुपचाप।
अव्यक्त दुख से भरी
अश्रुपूरित नेत्रों से
विदा लेती है प्रेयसी, चुपचाप।
पीड़ित हृदय, भारी क़दमों से
लौटता है पथिक, चुपचाप।
उम्मीद और सपनों भरा जीवन
इस तरह घटित होता है, चुपचाप।
विध्वंस
प्रथमेश गणेश ने दे मारी है सूँढ़
धरती के बृहद नगाड़े पर
और दसों दिशाओं में गूँजने लगी है
नगाड़े की आवाज़ – ढमढम ढमढम ।
आधी रात निकल पड़े हैं धर्मवीरों के झुण्ड
तरह तरह के रूप धरे
इस बृहद ढमढम की संगत में
मुख्य मार्गों को रौंदते
टेम्पो, ट्रकों, दैत्याकार वाहनों में
अपनी आवाज़ बहुगुणित करते
वे लाएँगे – लाकर मानेंगे
एक नया युग – धर्मयुग, पृथ्वी पर
निर्णायक है समय, साल
यहीं से आरम्भ होना है नवयुग
तैयारी शुरू कर दी गई है समय रहते —
बस अभी, यहीं, इसी रात से।
इस युग में कुछ न होगा धर्म के सिवा
केवल एक रँग उगेगा
सूरज के साथ चलेगा एक रँग
पसर जाएगा आसमान में
छीनते हुए उसका नीलापन
पहाड़ों से छीन लेगा धूसर रंग
धरती से छीनी जा सकती है हरीतिमा
वे जो रँग न पाएँगे
उस एक पवित्र रँग में
ओढ़ा दिया जाएगा उनपर
लाल रँग रक्तिम
धरती की उर्वरा बढ़ाएँगे वे अपने रक्त से ।
महाद्वीप के इस भूभाग की धरती
सुनेगी केवल एक गीत, एक लय, एक सुर में
ओढ़ेगी अब महज एक रँग
एक सा पहनेगी
बोलेगी एक सी भाषा में एक सी बात
मतभेद की कोई गुँजाइश नहीं रह जाएगी
गाएगी एक सुर में धर्मगान ।
कोई दूसरा रँग, राग-लय-गान
बचा न रहेगा — बचने न पाएगा
धरती करेगी एक सुर में विलाप !