इस तग-ओ-दौ ने आख़िरश मुझ को निढाल कर दिया
इस तग-ओ-दौ ने आख़िरश मुझ को निढाल कर दिया
जीने के एहतिमाम ने जीना मुहाल कर दिया
अब हम असीर-ए-ज़ुल्फ़ हैं किस के किसी को क्या ग़रज़
उस ने तो अपनी क़ैद से हम को बहाल कर दिया
बज़्म-ए-तरब सजाएँ क्या अब हम हँसें हँसाएँ क्या
तुम ने तो हम को जान-ए-जाँ वक़्फ़-ए-मलाल कर दिया
शेर ओ सुख़न का इक हुनर रखते थे हम सो शुक्र है
कुछ दिल की बात कह सके कुछ अर्ज़-ए-हाल कर दिया
कुछ इश्क विश्क हो गया कुछ शेर वेर कह लिए
करने का कोई काम तो ‘राशिद’ जमाल कर दिया
ख़मोश झील में गिर्दाब देख लेते हैं
ख़मोश झील में गिर्दाब देख लेते हैं
समुंदरों को भी पायाब देख लेते हैं
ज़रा जो अज़्मत-ए-रफ़्ता पे हर्फ़ आने लगे
तो इक बची हुई मेहराब देख लेते हैं
उचटती नींद से हासिल भी और क्या होगा
कटे फटे हुए कुछ ख़्वाब देख लेते हैं
हमें भी जुरअत-ए-गुफ़्तार होने लगती है
जो उन के लहजे को शादाब देख लेते हैं
सफ़र का अज़्म तो बाक़ी नहीं रहा ‘राशिद’
बस अब बंधा हुआ अस्बाब देख लेते हैं
तमाम क़ज़िया मकान भर था
तमाम क़ज़िया मकान भर था
मकान क्या था मचान भर था
ये शहर-ए-ला-हद-ओ-सम्त मेरा
ग्लोब में इक निशान भर था
रिवायतों से कोई तअल्लुक़
जो बच रहा पान-दान भर था
गुमान भर थे तमाम धड़के
तमाम डर इम्तिहान भर था
तुमानियत बारिशों में हल थी
जो ख़ौफ़ था साएबान भर था
जो जस्त थी एक मुश्त भर थी
जो शोर था आसमान भर था
प्यारा सा ख़्वाब नींद को छू कर गुज़र गया
प्यारा सा ख़्वाब नींद को छू कर गुज़र गया
मायूसियों का ज़हर गले में उतर गया
आँखों को क्या छलकने से रोका ग़ज़ब हुआ
लगता है सारा जिस्म ही अश्कों से भर गया
देखे तह-ए-चराग़ घनी ज़ुल्मतों के दाग़
और मैं फ़ुज़ूँ-ए-कैफ़-ओ-मर्सरत से डर गया
तन्हाइयाँ ही शौक़ से फिर हम-सफ़र हुईं
जब नश्शा-ए-जुनून-ए-रिफ़ाक़त उतर गया
कूचे से भी जो अपने गुज़रता न था कभी
क्या सोच कर उठा था कि जाँ से गुज़र गया
मामूली है कि सुब्ह जलाता हूँ ख़ुद को मैं
होता ये है कि रोज़ सर-ए-शाम मर गया
अब जिस को जो समझना हो समझा करे तो क्या
‘राशिद’ तिरा सुकूत अजब काम कर गया
भले दिन आएँ तो आने वाले बुरे दिनों का ख़याल रखना
भले दिन आएँ तो आने वाले बुरे दिनों का ख़याल रखना
तमाम खुशियों के जमघटों में भी थोड़ा थोड़ा मलाल रखना
वो जा रहा हो तो वापसी के तमाम इम्कान जान लेना
जो लौट आए तो कैसे गुज़री ये उस से पहला सवाल रखना
अगर कभी यूँ लगे कि सब कुछ अँधेरी रातों के दाओ पर है
तो ऐसी रातों में डर न जाना तो चाँद यादें उजाल रखना
फ़क़त तसन्नो फ़क़त तकल्लुफ़ तमाम रिश्ते तमाम नाते
तो क्या किसी का ख़याल रखना तो क्या रवाबित बहाल रखना
यूँ ही अकेले रहा किए तो उदास होगे निराश होगे
जो आफ़ियत चाहते हो ‘राशि
मैं दश्त-ए-शेर में यूँ राएगाँ तो होता रहा
मैं दश्त-ए-शेर में यूँ राएगाँ तो होता रहा
इसी बहाने मगर कुछ बयाँ तो होता रहा
कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर तो था कहीं न कहीं
वो ख़ुश-गुमाँ न सही बद-गुमाँ तो होता रहा
उसे ख़बर ही नहीं कितने लोग राख हुए
वो अपने लहजे में आतिश-फ़िशाँ तो होता रहा
न एहतियाज के नाले न एहतिजाज की लय
बस एक हमहमा-ए-राएगाँ तो होता रहा
हम ऐसे ख़ाक-नशीनों की बात किस ने की
अगरचे तज़्करा-ए-कहकशाँ तो होता रहा
सुबुक-सरी के लिए तुम ने क्या किया ‘राशिद’
फ़लक से शिकवा-ए-बार-ए-गिराँ तो होता रहा
द’ तो चंद रिश्ते सँभाल रखना