अलविदा केदार
एकाएक से एक खबर का मिलना
तुम न रहे
स्तब्ध कर देती है किसी-किसी का जाना
मैंने देखा है
कि जब एक पीढ़ी का अंतराल
करवट लेकर
मिट्टी पर मिट्टी डाल देता है
तो इन दो परतों के बीच
शिकायत के सारे शब्द और विस्मय को लग जाता है
एक गाढ़ा पूर्णविराम
कि जाना एक खौफनाक क्रिया तो है
किंतु ये भी क्या कम है
कि तुम घुटते घिसटते तो न गए
देखो तो सही!
कि तुम्हारे जाने से
विच्छिन्न पड़ी हैं रेखाएँ
ये तुम्हारा बनारस आज भी
तुम्हारी खींची रेखाचित्र में रंग भरता सामने खड़ा है
तुम्हारा सारस का झुण्ड
एक अजीब अकाल के व्यूह में
फंसा पड़ा है
अब ये उड़ भी कहाँ पा रहा
एकाकी शुक्र
सुनो!
आजकल नींद ने ओढ़ ली है
बंदिशों की खाल
फिर से
ये रंज-ओ-गम की फसलें
उग आती हैं बिना बोये
लंबी जाग से चिड़कती पलकें
और अनवरत चुभना चीजों का …बारीक
कि जैसे लोहे को क्षय करता है रोज-ब-रोज
बूंद-बूंद गिरता पानी
बहो!
कि पीड़ा की धुरी टूट ही जाए
अच्छा है
इन्हें निर्माण का सामान न बनाया जाए …
काया बदलती रात के दोनों छोर
ऐसे ही तुम्हारी तरह
देखा करते हैं शुक्र का खड़ा रहना
देखो!
कि उसका निरा एकाकी रहना चक्कर लगाना
विष पीना
दण्ड ही तो है
कभी सोचा है …
अकाल भोगते इस पिण्ड को
लोग तारा क्यों
ये कौन सी प्रकृति है?
ये कौन-सी प्रकृति है?
जेठ के ताप को धोता रहा है पानी
अनादि
ये कोरे शोर
और घड़ी भर रोशनी
नाद बजे कि चिहुंके
गौरैय्यों का झुंड बैठा है पंक्तिबद्ध शाख पर
खला को निहारती
ये सस्मित खामोश आंखें
हा! ये कौन भरता रहता है
बुनियाद के कणों में कंपन
लंबी तपिश से झुलसी
ये मिट्टी गीला हुआ चाहती है
नामालूम कितनी ही पीड़ाएँ
सोख जाता है सावन
यहाँ तपते जेठ को अषाढ़ न मिले
निगोड़ी धरती लावा बनने को तुली जाती है
बादल अब के फिर न बरसेंगे
ये मिट्टी गीली तो न होगी
कहते हैं?
कहा था
कहा था … याद है?
जमीं बड़ी कोमल
कि इसको ज़िल्द पहना चाहिए
वो क्षितिज …
क्षिप्रा के पार
उसे जो चूमता-सा दिख रहा है शाम ढलते
कोई माशूक-सा लगता …आवारा
कहो है सत्य कितना?
बराबरी की बात करते बाज़ुबां तुम
कसम से नाच उठते
… याद है?
न समझा … नोंच लोगे लुंचे मांस
क्षितिज से भी निठुर तुम
नुचे गर्दन से बहते रक्त कत्थई
क्षिप्रा के ठंडे धार धोएंगे
स्मृति के कोठार पर
वो जो कहीं छुपकर
रोशनी में नहाता है … मैं नहीं
मेरा मैं
वो नहीं जो मैं होता रहता हूँ यक्सर
गिनने को ख़ला में और क्या-क्या हैं?
ये पंक्तिबद्ध टांकी गिरहें रेजगारियाँ
जिस्मो-जां के हजारों पैबंद
पुराने होते नहीं… न होंगे
मेरा नसीब और मैं
कि जैसे सेमल के फूल सेता परिंदा
और कांटे यहाँ उलटे उगते हैं
दफ़्न हुई ख़लिश की मोटी परतें
स्मृति के कोठार पर खामोश खड़ी
आज भी जिंदा हैं
ये दुनिया के मेले … नाक़ाफी
झुंड का कोई नाम कहाँ होता है
अनगिन धागों की फांस से जकड़ा पतंग ही तो हूँ
उड़ता जाता हूँ अनिर्दिष्ट
गिनने को होंगी दस दिशाएँ … मेरी ज़द मेरी नहीं
हवा की रौ उसकी मनमर्जियाँ
मेरी परवशता … मेरा प्रारब्ध
ये फांसें कण्ठहार हैं … स्वीकार
तुमको मालूम …?
ये जो अनंत स्वतंत्र फैला है
स
हां मेरी तुम
हाँ मेरी तुम
व्यर्थ तुमसे बात करनी थी मुसलसल
जानता हूँ
कुछ पहर ही शेष थे अब
खत्म होता चाहता है
मैं सहज ही जान जाता क्या बुरा था
वो अदब के घर नहीं थे कूप थे
कवच की मानिंद तेरी खाल था चिपका पड़ा था
देर जाना
केंचुली-सा त्याज्य हूँ मैं वह त्वचा था
भूत का प्रारब्ध भोगे जी रहा हूँ
यक़-ब-यक़ सुनना तेरी बेलौस़ बातें
बाण ही थे विष लपेटे
काठ-सा सूखा पड़ा हूँ वृक्ष तेरा दांत काटा
हाँ मेरी तुम
मैं समय के पार जाता वो हवा था
ब तेरा
मेरे हिस्से का आकाश मेरा नहीं
एक अजीब-सा खालीपन
मिलन बिछुड़न तड़प तन्द्रा
और जाने क्या-क्या था
वक्त बदले तो ये चीज़ें भी नामुरादों में शुमार हुईं
कैसे कहूँ…
ये सिर्फ़ साथ बिताए लम्हों का मोल चुकाने की बातें नहीं थी
न करार पर खरे उतरने की ज़िद्द
तुम कितने ग़लत थे तुम जानो
मेरी मैं
ये बेतरतीब बिख़रे मसनूई हालात और हम
साथ संगत मुनासिब भी हुए अब अगर
फायदा क्या?
कितने भी रसमिश्रण घोल लो
व्यर्थ है
एक हर्फ़ न पहुंचेंगे
चलना राह पर आकाश तकते
हश्र क्या?
ये आशाओं के महल दुमहले
डुबोकर रंग में
फिराना कूचियाँ
सारा प्रयास
गढ्ढों को भरने का मतिभ्रम है
ये भरते नहीं
…और बड़े गहरे की नींव डालते हैं
मुंदी हैं, सोेई नहीं
कैसी अलामत है
मिला जब से कोई दरवेश
कि ज्यों ही देखते देखा
पलटकर चल पड़ा फिर राह अपनी
सन्न-सा
स्वप्न सोने ही नहीं देते हैं तब से
रात फूलों को खिलते देखा है कई दफ़े
भ्रम के वशीभूत
तुम्हें छूने की कोशिश
जैसे गंदले पोखर में गोता लगाना
और खोजना मोती
देखा था …
स्वाति की बूंद पिया सीप
कीचड़ की तहें छेद छिपा बैठा है
ग्रहों के चक्र की निराधार गणना
कि जैसे ऊंगली से खींचना
पानी पर कोई लकीर
ये कैसी आतिश है?
रात देखा है फिर से
लाल अयालों वाला श्वेतवर्ण सिंह