रंग
चढ़ते-उतरते हैं रंग
रंग उतरते-चढ़ते हैं
कितने ही रंग कर जाते हैं रंगीन
जीवन मटमैला
अदृश्य सीढ़ी हैं रंग
आने-जाने वाले दृश्य के बाहर
दृश्य का सिंहावलोकन विचार
आकाश की टपकती छत से
कितने रंग बिखरे हैं
कितने ही बिखरने को हैं
जिन हाथों में ब्रश हैं
आधे-अधूरे चित्र चित्रित जिनमें
वे कैनवॉस छिन गए
रंगों से खेलते चले आ रहे हैं वर्षों से
फाग अब फ़ाल्गुनी उत्सव भर नहीं है
रंगों टोलियाँ
काँपते-छूजते
अचानक में
आवाजाही करती है
देश का रंग
उतर रहा है लगातार बेहद शान्त।
पृथ्वी के कक्ष में
पहले की तरह नहीं होगा पहला
आज की नंगी आँखों में
उदित होती उम्मीद
कल की देह में अस्त हो जाएगी
सूर्य की आत्मा में
उदित होगा कल
पृथ्वी के कक्ष में चलेगी कक्षा
कक्षा के बाहर आते ही
आकाश का नहीं रहेगा नामोनिशान ।
समय की नब्ज
जिधर से निकलते हैं वे
उधर हो जाती है उतनी जगह बंजर
फूल छूते ही
मुरझा जाते हैं
ख़ुशबू उड़ जाती है तुरन्त
बहती नदी में अचानक्सूखा आ गिरे
उतर जाता है पानी नदी का
उन बातों में उनकी
कोई दिलचस्पी नहीं होती
जिन बातों में
कोमल सुबह के होंठों पर फ़ैली रक्तिम आभा उतरती है
आहिस्ते-आहिस्ते
आज से अधिक
कल की आँखों में डूबी स्मृति को बचाए वे
जर्जरित खोजी नक्शा
अपाहिज इतिहास को उठा लाते हैं
रक्तरंजित नक़्शे में
सब कुछ था
सिर्फ़ समय की नब्ज रुकी थी।
धुएँ के आकाश में
धुएँ के आकाश में
धरती के उजाड़ में
हवा आँखें खोलती है
खण्डहर होते मनुष्यों में
कितनी कहानियाँ खण्डित
कुछ भी नहीं अखण्डित
यतीम बच्चे के
यतीम चेहरे पर
यतीम वर्तमान के चिह्न किस क़दर बेशुमार
ध्वस्त भविष्य
और भी यतीम।
भाषा की नींद
ऊँची आवाज़ों को सुना
नीचे कानों ने
कुछ कहा गया कुछ सुना गया
सन्न हो गया कहना-सुनना
जितने मुँह खुले थे
उतने ही स्वर सधे थे
भाषा की नींद में शब्द के स्वप्न अन्तिम नहीं
टूटती नींद में
टूटते सपने
सघन अंधेरे की
सघन छाया
गाहे-बगाहे चढ़ती रहती है
देश की तीली पर
रोग़न सघन
पुल की तरह खुला है दिन
सुबह से तनकर
बिछा है पूरा दिन
पिछली रात के अनंत स्पर्श लिए |
धरती से कुछ ऊपर
आकाश से कुछ नीचे
पुल की तरह खुला है दिन |
तमाम अनुभूतियाँ / स्मृतियाँ
जुड़ेंगी
इसके अंतिम छोर
रात की किरकिराती आँखों में
पूरा दिन फिर आएगा
हमेशा
व्यतीत की तरह |
फिर उद्भव
फिर अंत
मनुष्यों की यादगार की अंतहीन
पुनर्जीवित गाथाएँ
पुल से गुज़रेंगी
कुछ पुल के ऊपर
कुछ पुल के नीचे |
नींद नहीं सपने नहीं
रात
अनगिनत सपने बाँटती है हर रात
कई सपने
भटक कर लौट आते हैं
उन सपनों को
अपनी नींद में उतारती है रात !
सुबह तक वह
भूल जाती है
टूटती जुड़ती
अनगढ़ सपनों की दुनिया
सुबह से दिन भर के सारे एकांत समेट कर
व्यथित हुए
अपने निहंग संसार को
अँधेरे में बुनकर
बाँटती है
लौट-लौट आते हैं
थक
कर सपने
पिछली कई रातों से
रात की आँखों में
नींद नहीं
सपने नहीं
उतर आये हैं मनुष्य !
जो भोर होते-होते
बे नींद
जीवन में लौट जाते हैं !
निर्वासित
असह्य उदास
निरीह बूढ़े आदमी की तरह
हाँफ़ता
निर्वासित दुःख
जो मेरा नहीं
नहीं कह सकता कि मेरा नहीं !
इस क़दर अकेला
गुमसुम होकर
अपने निरपेक्ष चेहरे पर
उजाड़ होती शिकायतों के बाहर फैली ख़ामोशी में
समय के आख़िरी क्षण को समेट कर रखता है
अँधेरे खण्डहर स्वप्नों के लिए !
उसका
निराश आक्रोश
अभिशप्त के शरीर से बाहर झाँक कर
कितने ही इंतज़ारों में
देखता है
शताब्दियों की मर्मान्तक यातना !
हर दम आता-जाता रहा उसका आना जाना
उसकी आहट में
अतीत है
आकाश है
मन के अँधेरे से फूटता उजाला है
और …..करुणा की असीम ऊष्मा है !
व्यतीत
समय
घड़ी की तरह
शायद दीवार में
दिनारम्भ की फड़फड़ाती चेतना के साथ सूर्य
रोज़ाना
रोज़ाना ही उतरता जाता रहा है
कितने समय से
पता नहीं
कितने समय से
ये भी पता नहीं
कौन व्यतीत हो रहा है
समय या मनुष्य !
दिन का बीत जाना नहीं है
शायद बीतना दिन का स्वभाव है
बीत गए कई दिन |
कई दीवारें बनीं टूटीं
खण्डहर
बनते बिगड़ते चलते रहे
साँसों में उतरते….
छोटी-छोटी बातें
धड़कनों में बजती रहीं
स्मृतियों में
डूबती रही
शांति की लय
सहसा
चौंककर आसपास
वे दिन लौट आते हैं
आत्मा में धँस कर….