आज तक
एक दिन तुम्हें
कह बैठी
सूरज
जल रही मैं
आज तक
बर्फीले लोग
सीली धरती
रह गए
तुम्हारे साथ
उन अंधेरों को भी
ले गया होगा
तुम्हारा ही साया
पर झुलसते गए
मन के कोने
इन्हीं को
अपना कहती रही
आज तक
कब तक
जलती रहूं
तुम्हारी आग में
होने लगी हूं बर्फ
क्या जानने को
तुम्हारे अर्थ
फिर वही किस्सा
वही किस्सा फिर
सुनाने लगे तुम
जिसकी आवाज़ से
भागती रही हमेशा
जिसे भूल जाना
चाहती रही मैं सदा
किस्सा जो
हो नहीं सकता
कभी पूरा
जाग गई इच्छा
तब
क्या करूंगी मैं
मत जगाओ
इतना कि
तरसती ही रहूं
नींद के लिए सदा
सुनाना ही है
तब
सुनाओ वही किस्सा
कि
उनींदी रहूं सदा
स्त्री और घोडे
स्त्री की हथेली से
निकल रहे
सुनहले पंखों वाले
घोडे.
(यह बच्चों की कहानी नहीं है)
टाप दर टाप
उड़ते रहे
फैलते गए
आकाश में
तब
स्त्री की देह से
निकलने लगीं
स्त्रियां
(यह केवल कल्पना नहीं है)
बचा लिए हैं
समस्त नक्षत्र तारे
छा गई हैं
अंतरिक्ष में
हर स्त्री ने
थाम लिए हैं
सुनहले घोडे.
अब वे सिर्फ
गुलाम हैं उनके
(यह एक हकीकत है)
एक सृष्टि फिर
हरसिंगार की
बारिश में
तुम लेटे थे
मैं बैठी थी
रची जा रही थी
एक और सृष्टि
तुम्हारी पीठ पर
पत्ते की नोंक से
लिख बैठी थी
प्यार
उतरती गई
किसी गहराई में
भीगती रही
धरती
उलीचती रही
सागर
तुमने
करवट बदली
लोप हो गई
मैं
कैसे बना सकी खुद को
सोचती रही हूं अक्सर
अंधेरों में कौंधती
बिजलियों के
प्रथम स्पर्श में
क्या दिया था
तुमने
एक फलसफा
जिसे
पढते रहे सब
मगर मैं नहीं
या
एक त्रासदी
जिसे भोगने का
दायित्व दे दिया गया
मुझे
न जाने कब
एक दिन
रंगों से भर गया
कैनवास मेरा
उकेर लिया खुद को
खेल
आंख ठहर जाती है
मिट जाती है
देखने की चाहत
रूक जाती है
दुनिया
ठहर जाता है
समय
तब
दुनिया नहीं दिखती
रह जाती हैं
कठपुतलियां
नचाते हाथों में
रह गई हैं डोरियां
कब देख सकेंगे
सामने बैठकर
कठपुतली वाले का
तमाशा
बजा सकेंगे
खुश होकर
तालियां !!
अब केवल प्रेम
दुःखों में
डूबती ही गई
उबरने के लिए
पीडा.ओं को
सोख लिया
तीन आचमन में
पच गए हैं
सभी शोक संताप
मैं निःशेष
सच या सजा
सब कुछ
गढ़ने के बाद
रह जाता
कुछ अनगढ़
कहां थी पूर्णता
रह जाता है
अपूर्ण
यह अधूरापन
सच है
या तुमसे
विलग होने की
सजा है
क्या था अपना
तन दिया
फिर कर्म भी
सौंप दिया
ऐतबार अपना
दे दिया
वह सब भी
जो था कभी
अपना
पर
कुछ तो रहा
ऐसा जो
नहीं दे सकी
तुम्हें
जहाज के पंछी सा
लौटता रहा
जहां से आया था
मन
कौनसा बीज था
कब एक बीज
आ गिरा था
मुझमें
आंखों में
सरसराई हरीतिमा
मन में
किसकिसाए पत्ते
पलने लगे थे
देह में
रतनारा गुलमोहर
सुनहला अमलतास
दहकता पलाश
या विराट बरगद
भीनी सी रातरानी
महकता महुआ
बरसता हरसिंगार
कि रिसता गुलाब
तुम एक पथिक
थके मांदे
खिंचे चले आए
क्या बता सकोगे
वह हरीतिमा
वह महक कैसी थीं
वे फूल कौन से थे
फिर भी प्रतीक्षा है
तुम्हें एक
दरख्त की तरह
सीने से लगाए
खड़ी रही थी
मैं
तुम चलना
नहीं चाहते थे
और मैं रूकना
इसी असमंजस में
कभी चलती रही
कभी थमती रही
मगर कदमों ने
तुम्हारा साथ न दिया
मेरी आंखों में
तुम्हारे पतझड़
के बाद
फिर कुछ न रहा
मगर हरीतिमा
दरवाजे पर
दे जाती है
हर बार एक
दस्तक
क्या ढूंढ रहा मन
डूब रहा मन
तिरता भी नहीं
तितीर्षा भी
नहीं जागी कभी
तलहटी में
खोजता क्या
जिन्दा रहने के लिए
कुछ शब्द
मधुरिम नाद
या
शब्दों के परे की
ध्वनियां
नदी बहती है सदा
नदी बहती
भीतर भीतर
गुपचुप चुपचुप
आपाधापी के
शिशिर में
जमी है
उदासी की परत
नदी है कि
बहती रही
गरम सोते सी
अपने ही भीतर
देवदार भी
बर्फ की चादर
ओढे. खडा. रहा
उम्मीदों के सूरज की
चाह में
नदी अब भी
बह रही है
देवदार को
शायद
पता ही नहीं
विश्व सुंदरियां
आसमान के
जंगल में
कैक्टस
पसार रहा पांव
सिर्फ एक बार
ओढ़ते हैं ये
फूलों का लिबास
तितलियां
शायद पीड़ित थीं
मौसमी जुकाम से
तभी छली गईं
हर कांटे पर
बिंध गई तितली
मगर
अमर हो गए
उनके पंख
वे नहीं
साक्षी हैं
वे चट्टानें
जो हुआ करती थीं
विश्व सुंदरियां
अभी तक हैं
रक्त स्नाता
जब भी होती है
ऐसी मृत्यु
दिखते हैं
कुछ लोग
लग जाता है
एक और शिलालेख
प्रार्थना
वह सुनता है
प्रार्थना
खाली नहीं लौटाता
कभी
प्रार्थित हाथ
पर
क्या जानते हैं
वे हाथ
प्र्रार्थना हो सके थे
स्वयं भी
किसी एक पल में
बिना चेहरे वाले
कितने दिन हो गए
जागते हुए
नींद भर गई
आंखों में
दिखने लगे हैं
बिना चेहरे वाले
आदमी
वे बोलना चाहते हैं
खाना चाहते हैं
सूंघना चाहते हैं
देखना चाहते हैं
पर
सुन भी नहीं पाते
प्रतिक्र्र्रिया में
शब्द गिर पडे. हैं
किसी कुंए में
मुंडेर पर खड़ा
आसमान
झांक रहा
देख रहा
विस्मय से
क्या
बिना चेहरे वाले
आदमी
माथे का चांद
मेरे माथे के चांद को
चुरा लिया
एक अंधेरी रात ने
मैं ढूंढ़ती उसे
काली रात की पहचान
करूं भी तो कैसे
बस पहचान सकती हूं
अपना चांद
रह गया एक निशान
माथे पर
जहां चमका करता था
चांद
उतरा एक अंधकार
उस सघन अंधकार में
उतरा
एक अहसास
पहले देह पर
फिर मन और
अंत में
आत्मा तक
फिर शुरू हुई
मूलाधार से
सहस्र्र्रार तक की
यात्रा
बुदबुदाते हुए
कविता
लिखी जा रही थी
देह पर
मैं बुदबुदा सकी
सिर्फ तुम्हें
कितनी ही देर तक
सोचती रही
तुम्हारे नाम लिखी
कविता के शब्द
नींद ने यह क्या किया
रोम रोम से
सघन अंधकार को
पीते हुए
समाती गई
एक अहसास में
कि नींद ने
एक हाथ थामा है
दूसरा छोड़ दिया है
अंतस में
अंतस में
एक पक्षी के पंख
सरसराए
फिर फरफराए
और एक
आसमान उतर आया
आंखों में
दण्डक अरण्य
जल नहीं
एक जर्रा भी नहीं
ताक रहा चारों ओर
कि कब
जख्म को मिले
एक स्पर्श
समेट ले सारा लहू
जो बह गया था
शिराओं से
दंडक अरण्य
उग आया है
आंखों में
जंगल के रंग हो रहे
जंगल में
तितलियां ही नहीं
अजगर भी
हुआ करते हैं
उजाले तो नहीं
मगर गहरे अंधरे
हुआ करते हैं
एक काली सी
परछाईं है कि
लील जाती है
जंगल के जंगल
हवा भी दम साधे
देखती रही है
जैसे हो नज़ारा
एक रंगहीन
मुझ में बसी थी धूप
धूप थी मुझमें कि
धूप में थी मैं
जलना तो
बाहर भीतर
दोनों ही रहा
धूप की कुनकुनाहट
गुनगुना कर
क्या कहती रही
तपिश ही थी
चारों ओर
‘रूख’ कहीं आस पास
देखे ही नहीं
तपते थे पाखी
तपता था जग
उसमें तपते रहे हम
किसी का सुख
किसी का
बनी दुःख
मुझमें बसी थी
एक धूप
वही राग है जीवन का
कुछ घोंघे
कुछ शंख छोटे छोटे
नन्हीं सीपियां भी
ढूंढ ली थी
रह गए थे खोल
इनमें था
कभी जीवन
आज मृत्यु का
आलाप है
फिर भी हैं
रंग धुले धुले
जीवन भरे हुए
उसमें होने की ध्वनि का
अर्थ ही
बना जीवन राग है