जाने किसकी राह देखतीं, आस भरी बूढ़ी आँखें
जाने किसकी राह देखतीं, आस भरी बूढ़ी आँखें ।
इंतज़ार की पीड़ा सहतीं, रात जगी बूढ़ी आँखें ।
दुनिया का दस्तूर निराला, स्वारथ के सब मीत यहाँ
फ़र्क नहीं कर पातीं कुछ भी, नेह पगी बूढ़ी आँखें ।
आते हैं दिन याद पुराने, अच्छे-बुरे, खरे-खोटे,
यादों में डूबी-उतरातीं, बंद-खुली बूढ़ी आँखें ।
मंचित होतीं युवा पटल पर, विस्मयकारी घटनाएँ,
दर्शक मूक बनी रहने को, विवश झुकी बूढ़ी आँखें ।
अनुभव के गहरे सागर में, आशीषों के मोती हैं
जितना चाहो ले लो ‘वर्षा’, बाँट रही बूढ़ी आँखें ।
मुझको घर-बार बुलाती हैं वो बूढ़ी आँखें
मुझको घर-बार बुलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
दे के थपकी-सी सुलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
जब कभी पाँव में चुभ जाते हैं काँटे मेरे
बोझ पीड़ा का उठाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
वही चौपाई, वही कलमा, वही हैं वाणी
अक्स जन्नत का दिखाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
कौन कहता है कि उनमें है नएपन की कमी
फूल खुशियों के खिलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
ज़िन्दगी का ये सफ़र यूँ ही नहीं कटता है
थाम कर हाथ चलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
जब भटकता है युवा मन किसी गलियारे में
राह अनुभव की दिखाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
चाह कर भी मैं कभी दूर नहीं हो पाती
बूँद ‘वर्षा’ की सजाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
बूढ़ी आँखें जोह रही हैं इक टुकड़ा संदेश
बूढ़ी आँखें जोह रही हैं इक टुकड़ा संदेश ।
माँ-बाबा को छोड़ के बिटवा, बसने गया विदेश ।
घर का आँगन, तुलसी बिरवा और काठ का घोड़ा
पोता-पोती बहू बिना, ये सूना लगे स्वदेश ।
जी०पी०एफ़० से एफ़० डी० तक किया निछावर जिस पे,
निपट परायों जैसा अब तो वही आ रहा पेश ।
‘तुम बूढ़े हो क्या समझोगे?’ यही कहा था उसने
जिसकी चिन्ता करते-करते, श्वेत हो गए केश ।
‘वर्षा’ हो या तपी दुपहरी, दरवाज़े वो बैठा
बिखरी साँसों से जीवित है, जो बूढ़ा दरवेश ।
रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आँखों का
रहा नहीं कहने को कोई अपना बूढ़ी आँखों का ।
शायद ही पूरा हो पाए सपना बूढ़ी आँखों का ।
अपना लहू पराया हो कर जा बैठा परदेस कहीं
व्यर्थ हो गया रातों-रातों जगना बूढ़ी आँखों का ।
रहा नहीं अब समय कि गहरे पानी की ले थाह कोई
किसे फ़िक्र है कैसा रहना-सहना बूढ़ी आँखों का ।
जीने को कुछ भ्रम काफ़ी हैं, सच पर पर्दा रहने दो
यही सुना है मन ही मन में कहना बूढ़ी आँखों का ।
हवा चले चाहे जिस गति से फ़र्क भला क्या पड़ना है!
तय तो यूँ भी है अब ‘वर्षा’ बुझना बूढ़ी आँखों का ।
वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें
वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें ।
उम्र की उतरन बूढ़ी आँखें ।
कौन समझ पाएगा पीड़ा
ओढ़े सिहरन बूढ़ी आँखें ।
जीवन के सोपान यही हैं
बचपन, यौवन, बूढ़ी आँखें ।
चप्पा-चप्पा बिखरी यादें
बाँधे बंधन बूढ़ी आँखें ।
टूटा चश्मा घिसी कमानी
चाह की खुरचन बूढ़ी आँखें ।
एक इबारत सुख की खातिर
बाँचे कतरन बूढ़ी आँखें ।
सपनों में देखा करती हैं
‘वर्षा’-सावन बूढ़ी आँखें ।
शायरी मेरी सहेली की तरह
शायरी मेरी सहेली की तरह ।
मेंहदी वाली हथेली की तरह ।
हर्फ़ की परतों में खुलती जा रही
ज़िन्दगी जो थी पहेली की तरह ।
मेरे सिरहाने में तक़िया ख़्वाब का
नींद आती है नवेली की तरह ।
आग की सतरें पिघल कर साँस में
फिर महकती है चमेली की तरह ।
ये मेरा दीवान ‘वर्षा’-धूप का
रोशनी की इक हवेली की तरह ।
आँखों में झलकता था सपनों का हरा जंगल
आँखों में झलकता था सपनों का हरा जंगल ।
ख़ामोश वो मौसम था देता था सदा जंगल ।
मैं बन के परिंदा जब शाखों पे चहकती थी
छूता था मेरी पलकें ख़्वाबों से भरा जंगल ।
ख़ुदगर्ज़ इरादों से बच भी न कोई पाया
जब आग बनी दुनिया धू-धू वो जला जंगल ।
कहते हाँ कि ख़ुशबू भी जंगल में ही रहती थी
ख़ुशबू की कथाओं में मिलता है घना जंगल ।
रंगों के जहाँ झरने, चाहत के खजाने हों
‘वर्षा’ को उगाना है, फिर से वो नया जंगल ।
हाथ में आया जो दामन दोस्ती का
हाथ में आया जो दामन दोस्ती का
हो गया जारी सफ़र फिर रोशनी का
चल पड़े, कल तक जो ठहरे थे क़दम
रास्ता फिर मिल गया है ज़िन्दगी का
साथ गर यूँ ही निभाते जाएँगे
बुझ न पाएगा दिया ये आरती का
चाहतों का चित्र यूँ आकार लेगा
रंग भरना तुम वफ़ा का, सादगी का
हीर-रांझा, कृष्ण-मीरा, मेघ-‘वर्षा’
प्यार से रिश्ता पुराना बंदगी का ।
बीच हमारे कुछ दूरी है
बीच हमारे कुछ दूरी है ।
शायद उसकी मजबूरी है ।
संवादों से लगे पराया
दिल ही दिल में मंज़ूरी है ।
मन बहकाए, तन बहकाए
गंध प्यार की कस्तूरी है ।
जब-जब बरसी प्यार की ‘वर्षा’
भीगी ये दुनिया पूरी है ।
नयन में उमड़ा जलद है
नयन में उमड़ा जलद[1] है ।
नभ व्यथा[2] का भी वृहद[3] है ।
आँसुओं से तर-बतर है
यह कथानक[4] भी दुखद है ।
इस दफ़ा मौसम अजब है
आग मन में तन शरद[5] है ।
दोष क्या दें अब तिमिर[6] को
रोशनी को आज मद[7] है ।
नींद को कैसे मनाएँ
ख़्वाब की खोई सनद है ।
त्रासदी ‘वर्षा’ कहें क्या ?
शत्रु अब तो मेघ ख़ुद है ।
है दरख़्तों की शायरी जंगल
है दरख़्तों की शायरी जंगल ।
धूप-छाया की डायरी जंगल ।
हो न जंगल तो क्या करे कोई
चाँद-सूरज की रोशनी जंगल ।
बस्तियों से निकल के देखो तो
ज़िन्दगी की है ताज़गी जंगल ।
फूल, खुशबू, नदी की, झरनों की
पर्वतों की है बाँसुरी जंगल ।
दिल से पूछो ज़रा परिंदों के
ख़ुद फ़रिश्ता है, ख़ुद परी जंगल ।
नाम ‘वर्षा’ बदल भी जाए तो
यूँ न बदलेगा ये कभी जंगल ।
तुम नहीं तो.
ओह, मन का भ्रम
ये शायद
आग भी पानी लगे
तुम नही तो प्यास की
चर्चा भी बेमानी लगे ।
बात कुछ ऐसी कि
लगती ज़िन्दगी
ठण्डी बर्फ़-सी
भीड़ में खोए हुए अपनत्व-सी
कौन जाने क्या हुआ
हर चीज़ बेगानी लगे ।
सूर्य को मुट्ठी में
भर कर
चूमने की चाह में
होंठ अक्सर
जल गए हैं आह रूपी दाह में
नेह की परछाईं भी
अब तो अनजानी लगे ।
फड़फड़ा कर पंख उड़ते पल
आज भी आई नहीं पाती तुम्हारी ।
फड़फड़ा कर पंख उड़ते पल
सारस की तरह उजले
क्षितिज की ओर के सब दॄश्य भी
अब हो गए धुँधले
रोशनी परछाइयाँ लाती तुम्हारी ।
प्रतीक्षा की नियति का दर्द
आँखों में उमड़ पड़ता
किसे दूँ दोष ? मन भी तो
हरेक पल-छिन कसक उठता
अब तुम्हारी याद ही थाती तुम्हारी ।
सूनेपन का पोखर भी
लबालब यूँ भरा लगता
कि जिसमें डूबता जीवन
कहीं शैवाल में फँसता
दूर से कुछ आहटें आतीं तुम्हारी ।
दुख मेरे आँगन की बेरी
दुख
मेरे आँगन की बेरी ।
हँसी गुमी
धूप कहाँ
पात हिले
यहाँ वहाँ
आँचल में बंद गई छँहेरी ।
विरह गंध
फूल बसी
आँसू-सी
ख़ूब झरी
मैं भी तो प्रियतम की चेरी ।
साँसों के
दिवस चार
काँटों के
आर-पार
रामा! अब काहे की देरी ।
एक आहट सी आ रही है अभी
एक आहट सी आ रही है अभी ।
ज़िन्दगी गुनगुना रही है अभी ।
होगी ‘वर्षा’ सुखन की, शेरों की
शायरी मुस्कुरा रही है अभी ।
तुम मेरे साथ चल के तो देखो
तुम मेरे साथ चल के तो देखो ।
रोशनी में भी ढल के तो देखो ।
मायने ज़िन्दगी के बदलेंगे
बन के ‘वर्षा’ पिघल के तो देखो ।