कभी है अमृत, कभी ज़हर है, बदल-बदल के मैं पी रहा हूँ
कभी है अमृत, कभी ज़हर है, बदल-बदल के मैं पी रहा हूँ
मैं अपनी मर्ज़ी से जी रहा हूँ या तेरी मर्ज़ी से जी रहा हूँ।
दुखी रहा हूँ, सुखी रहा हूँ कभी धरा पर, कभी गगन पर
यह कैसा जीवन मुझे मिला है यह कैसा जीवन मैं जी रहा हूँ।
कभी जो दिन चैन से है बीता तो रात की नींद उड़ गई है
कभी जो रात को नींद आई तो दिन में हर पल दुखी रहा हूँ।
कभी जो फूलों की राह देखी तो चल पड़ा उस पै गीत गाता
मगर थे फूलों के साथ काँटे मैं जब भी ज़ख़्मों को-सी रहा हूँ।
‘अरुण’ मगर यह भी सोचता हूँ कि चार दिन की जो ज़िन्दगी है
चलो अधिक न सही तो चार दिन में मैं एक दिन तो सुखी रहा हूँ।
मंज़िल इतनी दूर रहेगी, यह कब सोचा था
मंज़िल इतनी दूर रहेगी, यह कब सोचा था
मुझे तो पैरों की ताक़त पर बहुत भरोसा था।
इतने काँटे राह में होंगे और इतने पत्थर
चलने से पहले रहबर ने कब समझाया था।
इतनी दूर निकल आया हूँ अपने घर से मैं
अब लौटूँ तो भूलूँ उस का कौन-सा रस्ता था।
अब मैं रहबर का रहबर हूँ क्योंकि वह कहता है
इस सरहद के पार वह अब तक कभी न आया था।
अगर ‘अरुण’ को छोड़ न देता रस्ते में रहबर
कैसे कहता मंज़िल पर वह तन्हा पहुँचा था।
काम अधूरे पूरे करना बस यह सोचा था
काम अधूरे पूरे करना बस यह सोचा था
मैं जब सर्जन के नश्तर के नीचे लेटा था।
उस में जो मेरा दायाँ था बायाँ दिखता था
आईना सच्चा होकर भी कितना झूटा था।
तुम जाम-ए-जमशेद की बातें क्या करते हो मित्र!
आज में मैं ने देखा कल जो आने वाला था।
बहुत अधिक सपने आंखों में कहाँ समाते हैं
सच इस लिए वह हुआ कि मेरा एक ही सपना था।
जिस ने भी अपने बचपन में साहस दिखलाया
मन से वह मज़बूत बहुत था, तन से बच्चा था।
अब कमरे बन गए वहाँ पर जहाँ था आम का पेड़
जिस लंबे-चौड़े आंगन में कभी मैं खेला था।
सच बोलो, क्या यही है मंज़िल, यही है क्या मंज़िल!
इस के निकट तो कई बार मैं ‘अरुण’ जी आया था।
मेरा कोई शत्रु नहीं, कोई मित्र नहीं
मेरा कोई शत्रु नहीं, कोई मित्र नहीं
दुनिया वालों क्या यह बात विचित्र नहीं!
चित्रकार! यह चित्र है तो मुँह से बोले
आड़ी सीधी रेखाएँ तो चित्र नहीं।
यह अनमोल पसीना प्यार के पथ का है
यह बाज़ार में बिकने वाला इत्र नहीं।
आए मेनका और डिगाए अब मुझ को
मैं वह पहला-सा अब विश्वामित्र नहीं।
दीन हूँ फिर भी दीन दुखी मैं नहीं ‘अरुण’
हीन हूँ फिर भी मेरा हीन चरित्र नहीं।
जब भी दिल में उफान आता है
जब भी दिल में उफान आता है
मुझ को तेरा ही ध्यान आता है।
आदमी की परख है मुश्किल चीज़
आते आते ही ज्ञान आता है।
डूबा जाता है दिल तो हर इक पल
देखो! कब मेहरबान आता है।
ले के कितने ही टुकड़े सूरज के
रात को आसमान आता है।
जब भी जाता है उस के दर पै ‘अरुण’
कुछ नहीं दिल में ठान आता है।
मेरी उस से बात अगर हो चमत्कार होगा
मेरी उस से बात अगर हो चमत्कार होगा
और उस पर भी रात अगर हो चमत्कार होगा।
उस असूर्यपश्या से मेरा अन्त: पुर में ही
मिला गात से गात अगर हो चमत्कार होगा।
रात अमावस्या को ब्याहने दूल्हे चान्द के साथ
तारों की बारात अगर हो, चमत्कार होगा।
प्यार की धरती को सूखे का शाप मिले और फिर
अनायास बरसात अगर हो, चमत्कार होगा।
‘अरुण’ के जीवन-संध्याकाल में नवयौवन आए
सचमुच ऐसी बात अगर हो, चमत्कार होगा।
सौ बीहड़ मरुथल पार किए तब कहीं यहाँ तक आया हूँ
सौ बीहड़ मरुथल पार किए तब कहीं यहाँ तक आया हूँ
और मुझ से पूछ रहे हो तुम मैं भेंट में क्या-क्या लाया हूँ।
पाओं में छाले और मुख पर है जगह-जगह की धूल लगी
उपहार समझना चाहो तो उपहार यही मैं लाया हूँ।
गंतव्य उलाहना देता है मैं इतनी देर से क्यों पहुंचा
वह क्या जाने इक पथिक को भी मैं खींच-खींच कर लाया हूँ।
जो ऋतु आने पर लोगों को मीठे फल भी दे देता है
पर जो पथिकों को सदा मिले मैं उस तरुवर की छाया हूँ
जब किसी तरह मैं पहुंच गया तब लक्ष्य से मैं ने यह पूछा
इतनी कठिनाइयाँ राहों में क्यों? उत्तर था ‘अरुण’ मैं माया हूँ।
दुख का परबत जब भी मेरी राह में लाया गया
दुख का परबत जब भी मेरी राह में लाया गया
देखते ही देखते उस पार मैं पाया गया।
भेज कर न्योता दुखों को सुख मुझे मिलता है मित्र!
लो वह दुख आया, वह दुख आया, वह दुख आया, गया!
सुख का भी सिक्का वही और दुख का भी सिक्का वही
बस इन्ही चित पट को ले कर यह है ढलवाया गया।
दुख की निस्बत सुख बहुत ही कम है इस संसार में
हो महाभारत कि रामायण, यही पाया गया।
धन्य ऐ मेरे ‘अरुण’ ! तू क्या निराला गीत है
सुख में भी गाया गया और दुख में भी गाया गया।
ग़म के शहर से निकल तो आया पर किस ओर तू जाएगा
ग़म के शहर से निकल तो आया पर किस ओर तू जाएगा
चारों ओर है रेत का सागर कैसे रस्ता पाएगा!
पारस जैसी चीज नहीं है ऐ सुनार! क्या तेरे पास
मेरे खोट को कर अब सोना कितना मुझे तपाएगा!
माना तेरी डोर है लंबी पर सूरज है दूर बहुत
इक पतंग से उसको छूना तेरी हंसी उड़ाएगा।
चांद का यह चांदी का गोला दूरी ही से बनता है
दूरी से धरती का गोला चांदी का बन जाएगा।
दीवानों में नंगे सिर जाने में उसे नहीं ख़तरा
मगर सयानों की महफ़िल में पगड़ी बांध के जाएगा।
ऋण तो मिला किसान को लेकिन खड़ी फ़सल बरबाद हुई
जो देता है अन्न जगत को ज़हर वही अब खाएगा।
भारत माँ के अंग-अंग से खून बहेगा विजय ‘अरुण’
तलवारों से एक दूजे का जब तू ख़ून बहाएगा।
कब से गोरी है घूंघट में
कब से गोरी है घूंघट में
कठिनाई है बहुत उलट में।
हीरा हीरा ही रहता है
ताज में या कूड़ा करकट में।
पी की मूरत मन में उतरी
कुछ तो पाया नींद उचट में।
चेहरे का उपहार बंधा है
सजनी की इस सुंदर लट में।
कभी याद-सी जल उठती है
सीने के सूने मरघट में।
यह अब ज़हर-सा क्या बहता है
गंगा जी के पावन तट में।
‘अरुण’ जाम से पीने वाला
आज वह क्या ढूंढे तलछट में।
मेरे नाम की ग़ैर भी लगे माला जपने
मेरे नाम की ग़ैर भी लगे माला जपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं
जो मेरे अपने हैं वे तो हैं हीअपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।
मुझे विरह की रात कभी भी नहीं सताती,
मैं जागूँ तो उनका ध्यान करूँ मैं
और अगर सो जाऊँ देखूं उन्ही के सपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।
भारत देश विशाल, हो जब कश्मीर में सर्दी,
तो मैं कोच्चि में जा कर करूँ बसेरा
फिर कश्मीर, लगे जब कोच्चि गर्मी से तपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।
हो अरविन्द केजरीवाल कि या फिर वे सब,
राजनीति के दल विशेष भारत के
जनता के बित्ते से दोनों लगे हैं नपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।
‘अरुण’ यह मेरे उद्यम का परिणाम है कि अब,
कवि सम्मलेन वाले मुझे बुलाते
पत्र पत्रिकाओं में भी अब लगा हूँ छपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।
तेरा रूप निखर कर जब शृंगार में आया
तेरा रूप निखर कर जब शृंगार में आया
मन से उठ कर एक ज्वार-सा प्यार में आया।
पैरों के घुंघरू वैसे ऊंचा बजते थे
पर आनन्द तो पायल की झंकार में आया।
सागर में कितने ही बड़े-बड़े मोती हैं
पर है मुल्य उसी का जो बाज़ार में आया।
स्थिर पानी में नाव चलाना क्या दुष्कर था
परखा गया वह मांझी जब मंझधार में आया।
‘अरुण’ प्रेमिका से जैसी भी हुई हों बातें
रस ही आया; प्यार में आया, रार में आया।
और किसी ने लूटी थी, या खुद मैं ने ही लूटी थी
और किसी ने लूटी थी, या खुद मैं ने ही लूटी थी
मेरी लुटी हुई दुनिया की हर सच्चाई झूटी थी।
क्या सूरज थम गया वहीं पर, होता नहीं उजाला क्यों
घड़ियों पहले तो देखा था आस किरण-सी फूटी थी।
ठीक रास्ता नहीं लिया तो देर से पहुंचा मंज़िल पर
पथरीले छोटे रस्ते से मेरी किस्मत फूटी थी।
भाग्य बुरा था फिर भी मैंने मेहनत से मंज़िल पाई
मेरी सांस नहीं टूटी थी, भाग्य की रेखा टूटी थी।
जनमानस बेहोश पड़ा है, कोई तो औषध लाओ
अब भी तो मिलती ही होगी जो संजीवन बूटी थी।
वो ख़ुश हुआ कि नाख़ुश, मैं कुछ समझ नहीं पाया यारो
देख के मुझ को दीवाने ने अपनी छाती कूटी थी।
सम्बल संचित करते-करते हुआ विलम्ब ‘अरुण’ को आज
उस को था जिस नाव से जाना, अभी-अभी वह छूटी थी।
वह बदलेगा, यह जब सोचा बदल कर ही तू दम लेगा
वह बदलेगा, यह जब सोचा बदल कर ही तू दम लेगा
तू बदलेगा, तो बदलेगा यह तेरा भाग्य बदलेगा।
मेरे हमदम! फिसल जाने को गिर जाना नहीं कहते
फिसलनी है जो यह दुनिया कहीं तो पांव फिसलेगा।
इरादे नेक हों जिस के जिसे उस पर भरोसा हो
वह जिस रास्ते पै चल देगा वही मंजिल पर निकलेगा।
न साक़ी फ़िक्रे ज़ाहिद कर कि वह संभलेगा अब कैसे?
वह हर पग पर ख़ुदा का नाम लेगा और संभलेगा।
तेरी जन्नत की चीज़ों से मेरी रुचियाँ नहीं मिलतीं
मुझे अफ़सोस है ज़ाहिद यह दिल उन से न बहलेगा।
अगर दिल में खुशी होगी तो बातों में भी झलकेगी
जो होगा हौज़ में पानी तो फ़व्वारा भी उछलेगा।
‘अरुण’ का प्रेम ऐसा है जो अवरोधों से बढ़ता है
अरुण को अभ्र ढक लेगा तो सूरज बनकर निकलेगा।
अब जीवन में कहाँ हैं वे दिन
अब जीवन में कहाँ हैं वे दिन, रात-रात भर बातें करना
दिन को बेख़बरी से सोना और दिनों को रातें करना।
वे कैसे खुश होंगे मुझ से, यही सोचते रहना दिन भर
सीधे सादे प्रेम भाव को, कला बनाना, घातें करना।
मिलन में उनकी राह देखना, उनके न आने पर रो देना।
याद है अब तक रुत बसंत को, रो-रो कर बरसातें करना।
मीठे प्यारे बोल सोचना, वे यह कहें, तो तुम यह कहना
प्यार में जब भी मौक़ा आए, बातों की ख़ैरातें करना।
हाँ मेरी थी एक प्रेमिका, जिस ने मुझ को छोड़ दिया था
वर्तमान की बात ‘अरुण’ कर, क्या अतीत की बातें करना।
हसीन आँखों की बात हो या
हसीन आँखों की बात हो या, हसीं लबों की वह सब ग़ज़ल है
ग़ज़ल मुहब्बत की दास्तां है कि दिल के कहने का ढब ग़ज़ल है।
ग़ज़ल की तारीफ़ अब नहीं हैं कि हो ‘सुख़न अज़ ज़नान गुफ़्तन[1]
समाए इस में हर एक मज़मूं, बहुत वसीअ है जो अब ग़ज़ल है।
ग़ज़ल हो मुख़्तसर[2] कि हो जामा[3], मगर हर इक शे’ र हो नगीना
कि सुनते ही दिल में बैठ जाए, अगर हो ऐसा तो तब ग़ज़ल है।
जहान भर में हर एक क़ायल, अगर है अब उर्दू शायरी का
तो इस के बारे में सच यही है कि इस का वाहिद[4] सबब ग़ज़ल है।
वो नज़्म हो कि क़ता, रुबाई, वह गीत हो या दोहा, चौपाई
ये सब है पैग़मबराने शे’री, मगर’ अरुण’ जो है रब ग़ज़ल है।
इश्क़ ने बर्बाद कर दी ज़िन्दगी, हाए रे इश्क़
इश्क़ ने बर्बाद कर दी ज़िन्दगी, हाए रे इश्क़
कम हुई फिर भी न उसकी दिलकशी, हाए रे इश्क़।
तैरता ग़म के समुन्दर में हो जैसे कोई शख़्श
और मुट्ठी में हो उसकी हर ख़ुशी, हाए रे इश्क़।
एक दिल आशिक़ का है और तंज़ के सौ तीर हैं
फिर भी होंटों पर है उस के इक हंसी, हाए रे इश्क़।
धूप खुशियों की है बेशक हर तरफ फैली हुई
आँख आशिक़ की है फिर भी शबनमी, हाए रे इश्क़।
‘हाँ! मुझे भी तुम से उल्फ़त है’ ये सुनने के लिए
ऐ ‘अरुण’ इक उम्र मैं ने काट दी, हाए रे इश्क़।
तेरा मिलना है मिलना ख़ुशी का
तेरा मिलना है मिलना ख़ुशी का
और मक़सद भी क्या ज़िन्दगी का।
जिस ने बरसों मुझे ताज़गी दी
वो था झोंका तिरे हुस्न ही का।
ले पहन ले लिबास-ए-मुहब्बत
छोड़ चोला निरी दोस्ती का।
तेरा चन्दन का टीका पुजारन
तेरे माथे पै चंदा का टीका।
मैं ये समझा बजी तेरी पायल
क्या छनाका था तेरी हंसी का।
ऐ ‘अरुण’ जब भी वह सामने हों
शग़्ल चलता रहे दिलकशी का।
दिल के दरिया में चाँद जब उतरा
दिल के दरिया में चाँद जब उतरा, प्यार में क्या ही कसमसाता था
हाथ लहरों के गुदगुदाते थे और वह खिलखिलाए जाता था।
देख लीजे कि मैं वही तो हूँ, आप की नींद जो उड़ाता था
नींद आ जाए भी तो मैं ही था, आप के ख़ाब में जो आता था।
याद आता है एक दीवाना, रंज में भी जो मुसकुराता था
जो किसी और की ख़ुशी के लिए, क्या ही ख़ुशियों के गीत गाता था।
हाथ ज़ख़्मी तिरे भी मेरे भी, रोज़ होते थे फ़र्क ये है मगर
ख़ार औरों की राह में प्यारे, तू बिछाता था मैं हटाता था।
मेरी उम्मीद का वह शहज़ादा, ढूंढने को हसीन शहज़ादी
चान्द तारों की सरज़मीनों तक, रोज़ जाता था, रोज़ आता था।
अब मुहज़्ज़ब[1] है आदमी यारो! खुल के हंसता न खुल के रोता है
दूर जाता था अपनी फ़ितरत से, कब मगर इतनी दूर जाता था।
वो गुनहगार था न राहिब[2] था, वह ख़ुदा भी नहीं था ऐ यारो!
फिर भी अब तक ये राज़-राज़ रहा, क्यों वह दुनिया से मुँह छुपाता था।
सच कहूँ हुस्न, हुक्मरान या हक़, ये न थे जो मुझे नचाते थे
इन की सूरत में था कोई जो और वह था ज़र जो मुझे नचाता था।
शह्र में है तो नाम दरिया है, गाओं में था तो आबशार[3] था नाम
वो जो अब सिर्फ़ गुनगुनाता है, कभी ऊंचे सुरों में गाता था।
क्यों जवां हो गई मिरी क़िस्मत, ऐसी रूठी है मानती ही नहीं
इस की तो बच्चों जैसी फ़ितरत थी, मान जाती थी जब मनाता था।
तू तो राज़िक़[4] है ऐ ख़ुदा-ऐ-मन[5], फिर भी देखा नहीं कि क्यों ये ‘अरुण’
जिस को होना था वक़्फ़े फ़िक्रे सुख़न[6], फ़िक्रे रोज़ी में सर खपाता था।
ऐ बशर! तब तिरी दुनिया में उजाला होगा
ऐ बशर! तब तिरी दुनिया में उजाला होगा
जब तिरे पहलू में कुछ नूर का तड़का होगा।
आज लड़ जाऊंगा दुनिया से जो होगा होगा
हश्र[1] इक हश्र से पहले यहीं बरपा[2] होगा।
जितना ही रिज़्क़ की ख़ातिर कोई होगा बेताब
उतना ही हिर्स[3] की ज़ंजीर में जकड़ा होगा।
आदमी ऐसा भी होगा कि ख़ुदा ही से लड़े
सोचा होगा न ख़ुदा ने भी कि ऐसा होगा।
तू ख़लाओं[4] में फ़रिश्ता-सा उड़े लाख मगर
आदमी बन के ज़मीं पर तुझे चलना होगा।
दिल की जानिब ही नज़र जब न हुई दीवाने
फिर तिरी दूर निगाही से भला क्या होगा।
क्या कहा आज जोई देखा है तू ने इंसां
ऐ ‘अरुण’ शोबदा[5] होगा, कोई धोका होगा।
मिरी चाहत, मिरी राहत, मिरी जन्नत तुम हो
मिरी चाहत, मिरी राहत, मिरी जन्नत तुम हो
लाख अफ़साना हूँ मैं, मेरी हक़ीक़त तुम हो।
यूं तो सब ख़्वाब मिरे एक से हैं बढ़ कर एक
ये मगर सच है कि इन ख़्वाबों की ज़ीनत[1] तुम हो।
इश्क़ का इश्क़ परस्तिश की परस्तिश ठहरी
मिरे मन्दिर की चमकती हुई मूरत तुम हो।
मिरा आकाश को छू लेना हुआ यूं मुमकिन
मैं ने जब देख लिया धरती की अज़मत[2] तुम हो।
मैं जो जी रहने पै आमादा हुआ करता हूँ
इस के पीछे है शारारत, वह शरारत तुम हो।
मिरे दरवाज़े पै हर बार रिया[3] ही आई
हो मुआफ़ी कि न पहचाना, मुहब्बत तुम हो!
आँखें बेअश्क हैं कब से तिरी ज़ुल्फ़ों की क़सम
जो बरसती है घटा बन के वह रहमत तुम हो।
इक ज़रूरत है ये दुनिया, हो मगर साथ ‘अरुण’
क्या ज़रूरत की ज़रूरत है, ज़रूरत तुम हो।
शेख़ साहिब! शराब पी लीजे
शेख़ साहिब! शराब पी लीजे
मेरे आली जनाब पी लीजे.
कीजिए कोई भी न इस पर सवाल
चीज़ है लाजवाब पी लीजे.
नशा भी इसमें और महक भी है
ये नशीला गुलाब पी लीजे.
अब तो पीने पिलाने के दिन हैं
जोश पर है शबाब पी लीजे.
आप को भी है पीने की ख़्वाहिश
छोड़िए सब हिजाब[1] पी लीजे.
आप के नाम की ‘अरुण’ साहिब
कुछ बची है शराब पी लीजे
हाले दिल मेरा सुनो अपना सुनाओ यारो
हाले दिल मेरा सुनो अपना सुनाओ यारो
हो अगर यार तो यारी को निभाओ यारो।
कुछ तो ऐसा हो अगर मुझ पै कभी वक़्त पड़े
काम आओ न अगर, याद तो आओ यारो।
तुम ये कहते हो सदा तुम ने मिरा साथ दिया
इक इसी बात पै आंखें तो मिलाओ यारो।
हुस्न फिर हुस्न है वह मुझ को सताए भी तो क्या
तुम मिरे यार हो तुम तो न सताओ यारो।
डूब जाओगे अगर मुझ को बचाने आए
है बहुत तेज़ मुहब्बत का बहाओ, यारो।
दिल के जब जाम मुहब्बत से है ख़ाली तो फिर
पेश करते हो ये क्या जाम, हटाओ यारो।
कितना मुख़लिस था ‘अरुण’ कितना वह यारों का था यार
उस को भी आप ने धोका दिया, जाओ यारो।
अगर मुझ पर तिरी चश्मे करम इक बार हो जाए
अगर मुझ पर तिरी चश्म ए करम[1] इक बार हो जाए
तो मेरे वस्फ़-ए-पिन्हाँ[2] का अभी इज़हार हो जाए.
वफ़ा कर और इतनी कर सिला दुश्वार हो जाए
नहीं तो वह जफ़ा कर हर जफ़ा शहकार[3] हो जाए.
तुम अपने हुस्न पर नाज़ां मैं अपने इश्क पर नाज़ां
अगर दोनों ही नाज़ां हैं, मिरी सरकार हो जाए.
तिरा डर रोज़े महशर का बहुत उम्दा रहा नासेह
मगर नासेह! अगर फिर भी किसी को प्यार हो जाए.
अजब क्या आऊँ मैं तेरे ख़ुदा की सम्त भी ज़ाहिद
ज़रा इन्साने कामिल का मिरा किरदार हो जाए.
चला आया था ठुकरा कर दर-ए-दैर-ओ-हरम[4] साक़ी!
कहाँ जाऊँ जो तू भी बर-सरे-पैकार[5] हो जाए.
जगा दूंगा मैं सोज़े इश्क़[6] को हर संगदिल बुत में
ज़रा इक बख़्ते-ख़ुफ़्ता[7] ऐ ‘अरुण’ बेदार हो जाए.
वो ख़ुदा है तो वह नायाब नहीं हो सकता
वो ख़ुदा है तो वह नायाब नहीं हो सकता
हर जगह है वुही कमयाब नहीं हो सकता।
हाँ वह दुश्वार तो है फिर भी है मुम्किन ऐ दोस्त
दूर अब कोई भी महताब नहीं हो सकता।
है हक़ीक़त तो हक़ीक़त, है अगर ख़ाब तो ख़ाब
वो हक़ीक़त है तो फिर ख़ाब नहीं हो सकता।
नाख़ुदा और ख़ुदा दोनों संभालें जिस को
वो सफ़ीना कभी ग़रक़ाब नहीं हो सकता।
बाग़बां ख़ून पसीने से न जिस को सींचे
बाग़े शाही भी हो शादाब नहीं हो सकता।
हर भंवर से है बड़ा सोच समुन्दर का जहाज़
ये सफ़ीना तहे गिरदाब नहीं हो सकता।
लाख अहबाब करें दुश्मनी मुझ से ऐ ‘अरुण’
फिर भी मैं दुश्मने अहबाब नहीं हो सकता।
ये दुनिया है फ़रेबी, चल सकोगे
ये दुनिया है फ़रेबी, चल सकोगे
नए सांचों में पल-पल ढल सकोगे।
बताओ चान्द से ऐ ख़ूबसूरत
ज़मीं पर साथ मेरे चल सकोगे।
रहोगे जो कली बन कर चमन में
तो फिर काँटों में भी तुम पल सकोगे।
उजाला आग दोनों चाहता हूँ
कहो क्या तुम दिए-सा जल सकोगे।
‘अरुण’ कहते हो मिट्टी से जुड़े हो
ये मिट्टी अपने मुँह पर मल सकोगे।
शर्म के बेजा लबादे से ज़रा बाहर आ
शर्म के बेजा लबादे से ज़रा बाहर आ
आ गया है तू मिरे दर पै तो अब अन्दर आ।
तिरा दरबान तो दरबान है, वह क्या जाने
इक फ़रिस्ता-सा है दर पर तिरे, तू बाहर आ।
हाँ ये आन्धी है जो आई तिरे पीछे पीछे
ले उड़ेगी तुझे मन्ज़िल को, न इस से घबरा।
- बुत तराशूंगा मैं क्या, वह तो है तुझ में मौजूद
बस जो ज़ायद है हटा दूं उसे, ओ पत्थर आ।
क्यों गई रूठ के, घर छोड़ के तू ऐ क़िस्मत
जोड़ के हाथ ये कहता है ‘अरुण’ अब घर आ।
जांगुसल नग़्मा था, क्यों गाया गया
जांगुसल[1] नग़्मा था, क्यों गाया गया
मैं बमुश्किल होश में लाया गया।
‘कुछ कहो’ जब-जब ये फ़रमाया गया
मैं हमा-तन-गोश[2] ही पाया गया।
कब सवाले दीन सुलझाया गया
हर तरह से इस को उलझाया गया।
बात थी सो हो गई आई गई
एक दिल था हो गया आया गया।
बेख़ुदी[3] फिर भी न हासिल हो सकी
जाम को भी काम में लाया गया।
ख़ूबरू[4] का भी तसव्वुर ख़ूब है
एक झोंके की तरह आया, गया।
ऐ ख़ुदा! तू लाख हो ख़लवतनशीं[5]
नक्श-ए-पा[6] फिर भी तिरा पाया गया।
मैं असाबरदार[7] हूँ, हाकिम नहीं
मुझ से तो इक बोझ उठवाया गया।
जो तबस्सुम अब किसी लब पर नहीं
तेरे लब पर क्यों ‘अरुण’ पाया गया।
जो मेरे दिल को भा जाए कहाँ वह इन हसीनों में
जो मेरे दिल को भा जाए कहाँ वह इन हसीनों में
चमक कैसे मिलेगी चाँद सूरज की नगीनों में।
जो माहिर जौहरी है वह मुझे पहचान लेते हैं
मिला दे मुझ को बेशक कोई कितने ही नगीनों में।
मुहब्बत है, नहीं ये हिर्स[1] का पौदा कि फैलेगा
ये वह है बेल जो फैले कहीं जा कर महीनों में।
हूँ क़ायल मैं भी पर्दे का मगर इस का नहीं क़ायल
कि होगी पाकदामानी[2] फ़क़त पर्दानशीनों में।
मिरे हाकिम! किसानों की तरफ़ से मत हो बेपरवा
‘अरुण’ जो अन्न उगता है, तो उगता है ज़मीनों में।