उसको धोखा कभी हुआ ही नहीं
उसको धोखा कभी हुआ ही नहीं ।
उसकी दुनिया में आईना ही नहीं ।
उसकी आंखों में ये धनक कैसी,
उसका रंगों से वास्ता ही नहीं ।
उसने दुनिया को खेल क्यों समझा,
घर से बाहर तो वो गया ही नहीं ।
सबकी खुशफहमियां बढाता है,
आईना सच तो बोलता ही नहीं ।
आसमानों का दर्द क्या जानें,
उसके तारा कभी चुभा ही नहीं ।
तुम उसे शे’र मत सुनाओ ‘विजय’,
शब्द के पार जो गया ही नहीं
कितने आसान सबके सफर हो गए
कितने आसान सबके सफर हो गए ।
रेत पर नाम लिख कर अमर हो गए ।
ये जो कुर्सी मिली, क्या करिश्मा हुआ ।
अब तो दुश्मन भी लख्तेजिगर हो गए ।
सॉंप-सीढी का ये खेल भी खूब है ।
वो जो नब्बे थे, बिल्कुल सिफर हो गए ।
एक लानत, मलामत मुसीबत बला ।
तेग लकडी की थी, सौ गदर हो गए ।
सबके चेहरे पर इक सनसनी की खबर ।
जैसे अखबार वैसे शहर हो गए ।
ये शिकायत जहाजों की है आजकल ।
उथले तालाब भी अब बहर हो गए
बर्फ के परवत पिघलते जाऍंगे
बर्फ के परवत पिघलते जाऍंगे ।
बात कीजे हल निकलते जाऍंगे ।
धूप के लिक्खे को जल्दी बॉंचिये ।
बारिशों में हर्फ घुलते जाऍंगे ।
अवसरों में मुश्किलें मत देखिये ।
हाथ से अवसर निकलते जाऍंगे ।
मुश्किलों में देखिये अवसर नये ।
रास्ते खुद आप खुलते जाऍंगे ।
सब हवा कर कान देते हैं ‘विजय’ ।
हम हवा पर ऑंख रखते जाऍंगे ।
जैसे-जैसे हम बडे होते गए
जैसे-जैसे हम बडे होते गए ।
झूठ कहने में खरे होते गए ।
चांदबाबा, गिल्ली डण्डा, इमलियां ।
सब किताबों के सफे होते गए ।
अब तलक तो दूसरा कोई न था ।
दिन-ब-दिन सब तीसरे होते गए ।
एक बित्ता कद हमारा क्या बढा ।
हम अकारण ही बुत होते गए ।
जंगलों में बागबां कोई न था ।
यूं ही बस, पौधे हरे होते गए ।
यार देहलीज छूकर न जाया करो
यार देहलीज छूकर न जाया करो ।
तुम कभी दोस्त बन कर भी आया करो ।
क्या जरूरी है सुख-दुख में ही बात करो ।
जब कभी फोन यों ही लगाया करो ।
बीते आवारा दिन याद करके कभी ।
अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो ।
वक्त की रेत मुट्ठी में कभी रूकती नहीं ।
इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो ।
हमने गुमटी पे कल चाय पी थी ‘विजय’ ।
तुम भी आकर के मजमे लगाया करो ।
केंचुआ
केंचुओं में भी छोटा बड़ा केंचुआ।
कितने ऊँचे पे जा के चढ़ा केंचुआ।
गन्दे नाले का पानी क्यों रुकने लगा
लो देखो मुहाने अड़ा केंचुआ।
शक्तिशाली के आगे तो बेबस है वो
आम जन के लिए नकचढ़ा केंचुआ।
यों तो सब के लिए मांस का लोथड़ा
केंचुए की नज़र में गड़ा केंचुआ।
या बस सन्नाटा बाँटा
आओ देखें हमने अब तक किस किस को क्या बाँटा
हमने कुछ दर्द बताए या बस सन्नाटा बाँटा
बाँट छूट कर रोटी सब्जी खाना जिसने सिखलाया
मान वो किसके हिस्से आई जब था दरवाज़ा बांटा
आग लगी थी शहर में जब जब गली मोहल्ले थे भूखे
तब हमने आगी ही बाटी या थोड़ा आता बाँटा
कुछ सपने घर में पलते थे कुछ आये डोली के संग
सास बहूँ ननदी भाभी नें क्यों घर का चूल्हा बाँटा
नदियाँ नाले, झील समंदर ताल तलैया का पानी
हमने बाँटा इन सब ने कब था अपना कुनबा बाँटा
शायरी खुद खिताब होती है
पीर जब बेहिसाब होती है
शायरी लाजवाब होती है
इक न इक दिन तो ऐसा आता है
शक्ल हर बेनकाब होती है
चांदनी जिसको हम समझते हैं
गर्मी-ए-आफ़ताब होती है
बे मज़ा हैं सभी क़ुतुब खाने
शायरी खुद किताब होती है
शायरी तो करम है मालिक का
शायरी खुद किताब होती है
अंदर कहीं उतरा हुआ
मुझ्क आँगन में दिखा पदचिन्ह इक उभरा हुआ
तू ही आया था यहाँ पर या मुझे धोखा हुआ
मेरे घर मे जिंदगी की उम्र बस उतनी ही थी
जब तलाक था नाम तेरा हर तरफ बिखरा हुआ
अब नजर इस रूप पर ठहरे भला तो किस तरह
है नज़र मे तू नज़र की राह तक फैला हुआ
क्या करूँ क्या क्या करूँ कैसे करूँ तेरा बयां
तो तो बस अहसास है अंदर कहीं उतरा हुआ
बाकी आना जाना है
मन का मिलना ही मिलना है तन तो एक बहाना है
तेरा आना ही आना है बाकी आना जाना है
झरने परबत सपने तारे बादल नैया गीत गजल
वो था एक ज़माना अपना ये भी के ज़माना है
इस मेले में इक पल दो पल उस मेले कुछ ज्यादह पल
लौंट चलें अब पीछे यारों सांझ हुई घर जाना है
मंदिर मंदिर मूरत बेबस हर चौगड्ढे मस्जिद चुप
तेरा दर तेरा होना है बाकी खेल पुराना है
सुबह
आँख मलते हुए जागती है सुबह
और फिर रात दिन भागती है सुबह
सूर्य के ताप को जेब में डाल कर
सात घोंडों का रथ हांकती है सुबह
रात सोई नहीं नींद आई नहीं
सारे सपनों का सच जानती है सुबह
बाघ की बतकही जुगनुओं की चमक
मर्म इतना कहाँ आकती है सुबह
आहटें शाम के रात की दस्तकें
गुड़मुड़ी दोपहर लांघती है सुबह
दोपहर
भागते भागते हो गई दोपहर
मुंह छपाने लगी रोतली दोपहर
सर पे साया उसे जो मिला ही नहीं
तो सुबह ही सुबह आ गई दोपहर
ताजगी से भरे फूल खिलते रहे
आग बरसी रुआंसी हुई दोपहर
बूट पालिश बुरूप कप प्लेटों मे गुम
उसकी सारी सुबह खा गई दोपहर
दिन उगा ही नहीं शाम छोटी हुई
एक लंबी सी हंफनी हुई दोपहर
शाम
दिन बीता चौपाया पंछी सी शाम
थकी थकी घर लौटी दफ्तर सी शाम
रोशन थी चंदा की लदकद से आँख
सारा दिन तरसी थी ममता की शाम
कद भर था साया काँधे थी धूप
कुछ कुछ वो हल्की थी कुछ भारी शाम
अलसाई सुबह थी उकताया दिन
दरवाज़ा तकती थी सूरज की शाम
धरती का साया झुलसाया इतराया
चम चम चम सूरज की टिमटिम सी शाम
सो भी जा
रात के ढाई बजे हैं सो भी जा
लोग सारे सो गये हैं सो भी जा
है सुबह जल्दी जरूरी जागना
काम कितने ही पड़े हैं सो भी जा
लाभ हानि जय पराजय शुभ अशुभ
रोज के ये सिलसिले हैं सो भी जा
बेईमानी के विषय में सोच मत
होंठ सबके ही सिले हैं सो भी जा
कौन्क्या बोला तुझे ये भूल जा
लोग लुछ तो दिलजले हैं सो भी जा
नींव अनाम सिपाही होंगे
होंगे जिल्ले इलाही होंगे
साथी चोर सिपाही होंगे
जो खुद अपने साथ नहीं हैं
किसके क्या हमराही होंगे
खौफज़दा वो कान के कच्चे
क्या जुल्मों के गवाही होंगे
उनकी हस्ती रिश्ते नाते
सब के सब हरजाई होगे
खुद को गलत समझने वाले
अपने ही शैदाई होंगे
नाम अमर चाहे इनका हो
नींव अनाम सिपाही होंगे