ग़ज़लें
उसने हमसे कभी वफ़ा न की
रचना काल: 2004
उसने हमसे कभी वफ़ा न की
और हमने भी तमन्ना न की
बहुत बोलते हैं सब ने कहा
हमने आदत-ए-कमनुमा[1] न की
बहुत से आये बहुत गये मगर
मैंने जाँ किसी पे फ़िदा न की
उसने कही और हमने मानी
उसकी कोई बात मना न की
ख़ता-ए-इश्क़ के बाद ख़ुदाया
फिर दूसरी कोई ख़ता न की
इक बात थी सो दिल में रह गयी
सामने पड़े तो नुमाया[2] न की
जिससे मुँह फेर लिया एक बार
फिर कभी बात आइंदा न की
उम्मीद मर गयी सो मर गयी
वह बाद में कभी ज़िन्दा न की
चोट दोस्तों ने ही दी ‘नज़र’
किसी से नज़रे-आशना न की
अब ‘विनय’ तेरे ग़म से ग़ाफ़िल नहीं रहा
लेखन वर्ष: 2005
अब ‘विनय’ तेरे ग़म से ग़ाफ़िल नहीं रहा
देख तो वह मग़रूर संगदिल नहीं रहा
हमें शिबासी दो कि तेरा राज़ न खोला
पर जानाँ आज से मैं बातिल नहीं रहा
तेरी कही-सुनी सब मुझे वक़्त ने भुला दी
ये ग़ैर अब दुश्मनी के क़ाबिल नहीं रहा
हमें जब नाज़ थे तो ये दर्द किसलिए हैं
तेरे बाद कोई रुख़ मुस्तक़िल नहीं रहा
वह बेरंग शाम-ए-माज़ी की तन्हाई
कभी वो इतना दिल में दाख़िल नहीं रहा
तुमने ख़ुद मुझको दोस्त बनाया होता
तुम्हें तो कभी कुछ भी मुश्किल नहीं रहा
हमसे एक-एक कर सब हाथ छूटते गये
मेरे कूचे में माहे-कामिल[1] नहीं रहा
सद्-हैफ़ो-अफ़सोस से कलेजा भर आया
हाए मुझे सिवा ग़म कुछ हासिल नहीं रहा
ख़ुदा मुझे दे ताक़ते-नज़्ज़ाराए-हुस्न
सुना है मेरी राह में हाइल[2] नहीं रहा
साँसों का धुँआ दिल को दर्द दे रहा है
ज़िन्दगी में बाइसे-मसाइल[3] नहीं रहा
वो गुफ़्त-गू वो मशविरे वो बयान, ख़ुदा…
तेरे ज़ख़्म देखे तो मैं बिस्मिल[4] नहीं रहा
गर्दिशे-अय्याम की रवानी को देखकर
मेरा ये दिले-सौदा मुज़महिल[5] नहीं रहा
अब तो इस चमन में फिरती है खुश्क सबा
मस्जूदा, कोई जल्वाए-गुल नहीं रहा
हाँ, किसके दिन उम्रभर एक से रहते हैं
मुझमें तो अब वह हुस्ने-अमल नहीं रहा
मेरी काविश[6] का किसी राह तो हासिल है
हैफ़ वह मेरे ग़म की मंज़िल नहीं रहा
बता अहदे-ज़ीस्त[7] करके किससे तोड़ूँ
मुझे तफ़रकाए-नाक़िसो-कामिल[8] नहीं रहा
मुझे तुम छोड़ के गये लेकिन क्या बताऊँ
एक अरसा बर्क़े-सोज़े-दिल[9] नहीं रहा
तुमको जाना है तो जाओ कब रोका है
इस फ़ुर्क़त का ग़म मुझे बिल्कुल नहीं रहा
तेरे इस दरया को ख़्वाहिश है समंदर की
और अब्र[10] का बरसना मुसलसल[11] नहीं रहा
सू-ए-शिर्क सजदे-मस्जूद किये हैं मैंने
कि मैं तेरे कूचे का माइल[12] नहीं रहा
अब किससे करूँगा उसकी जफ़ा का शिकवा
अब कोई दराज़ दस्तिए-क़ातिल नहीं रहा
इस ज़र्फ़[13] कोई आये देखे हाल मेरा
अब वो पुरसिशे-जराहते-दिल[14] नहीं रहा
अच्छा हुआ तुमने रोज़े-आख़िर न बोला
बाद रोज़े-विदा उक़्दाए-दिल[15] नहीं रहा
दुख गिनते-गिनते ये उम्र कट जायेगी
किसी की इनायत वो तग़ाफ़ुल[16] नहीं रहा
ये फ़िज़ा क्यों इतनी ख़ामोश है गुलशन में
क्या आशियाँ में नालाए-बुलबुल नहीं रहा
था तब मिला नहीं, खोकर मिलता है कौन
दिल मुझे ख़्याले-यारे-वस्ल नहीं रहा
दिल, मैं जिसको दोस्त कह नहीं सकता अब
उसके लिए मुझमें जज़्बाए-दिल नहीं रहा
किसे खरोंचे हो अपने नाख़ून से तुम
इस सीने में वो जराहते-दिल नहीं रहा
उर्दि-ओ-दै का अब मैं क्या ख़्याल रखूँ
ये कैसी जलन, मुझे तपिशे-दिल नहीं रहा
मुझे अपनी यकताई[17] पे बेहद नाज़ था
आज भी है लेकिन वो मुक़ाबिल नहीं रहा
दिल, अब भी खिलती है शुआहाए-ख़ुर-फ़ज़िर
मगर फ़िज़ा में वो शाहिद-ए-गुल नहीं रहा
ढूँढ़ा मैंने उसके जैसा, न पाया एक
सच वो नमकपाशे-ख़राशे-दिल नहीं रहा
अब ख़ुल्द[18] में रहें या दोज़ख[19] में रहें हम
ऐ सनम मेरा तो आबो-गिल[20] नहीं रहा
उस फ़ितनाख़ेज़[21] का नहीं है अब डर मुझे
कि मेरे दिल में स’इ-ए-बेहासिल[22] नहीं रहा
आँखों से निक़ाब हटा दो कि हर वहम खुले
आज तुझमें वो तर्ज़े-तग़ाफ़ुल नहीं रहा
कहने को ज़ामिन नहीं मुझसा ज़माने में
मगर जाने क्यों मुझे तहम्मुल[23] नहीं रहा
वो जिसकी चाप[24] से धड़कनें रुक जायें थीं
मेरी ज़िन्दगी में वो हौले-दिल नहीं रहा
ऐ लोगों मैं ख़ुद को किस ज़ात का बताऊँ
सुना है तुममें कुछ दीनो-दिल नहीं रहा
दायम[25] अपने बग़ल में पाओगे तुम हमें
कह भी लो मैं तुझमें मुश्तमिल[26] नहीं रहा
क्यों है मुझे तेरे रूठ कर जाने का ग़म
जबकि मैं कभी भी तेरा काइल नहीं रहा
कहता तो हूँ बात दिल की मगर क्या करूँ
मेरा ख़्याल अब मानिन्दे-गुल नहीं रहा
ख़ामोश आँखों में अयाँ थीं बातें दिल की
वो चाहकर भी कभी सू-ए-दिल नहीं रहा
किया जो मैंने तुम्हें अपना समझ किया
ये दिल तेरी जफ़ा से मुनफ़’इल[27] नहीं रहा
मैंने देखा था उसको ख़ुल्द जाते हुए
वो हलाके-फ़रेब-वफ़ा-ए-गुल नहीं रहा
जो कभी साहिल पर था कभी समंदर में
हाँ, उसको दाग़े-हसरते-दिल नहीं रहा
जिसपे लिखा करते थे तुम अपना नाम
शख़्स वो आज गर्दे-साहिल नहीं रहा
आज फ़ारिग[28] हूँ कि तुम्हीं हो मेरे ग़मख़्वार
सो मैं हरीफ़े-मतलबे-मुश्किल[29] नहीं रहा
कुछ था तो थोड़ा बहुत मैं ये मानता हूँ पर
आज उतना भी तो सोज़िशे-दिल नहीं रहा
मैं दर्द को दिल से जुदा कर तो सकता हूँ
पर वो फ़ुसूने-ख़्वाहिशे-सैक़ल[30] नहीं रहा
अब मैं किस मुँह से जाऊँ बज़्म में उसकी
शैदा ये दिल दरख़ुर-ए-महफ़िल[31] नहीं रहा
देखिए शाइबाए-ख़ूबिए-तक़दीर[32] उसमें
वो दिन गये और रोज़े-अजल नहीं रहा
इश्क़ भटकता था उस रोज़ गलियों-गलियों
आज किसी में इतना भी ख़लल नहीं रहा
बढ़के आया तो लगा तेरा तीर दिल में
चारासाज़ न हुआ पर जाँगुसिल[33] नहीं रहा
किसपे लिख भेजूँ मैं तुझे पयाम अपना
अब पास औराक़े-लख़्ते-दिल नहीं रहा
उसे आस्माँ तक जाने की तमन्ना थी
पर आइना-ए-बेमेहरि-ए-क़ातिल[34] नहीं रहा
तू मेरे मुँह से न सुन वज्हे-सुखन ईसा
ख़ुद गुलों में रंगे-अदा-ए-गुल नहीं रहा
मगर टूटा है किसी का नाज़ुक दिल मुझसे
ये डर कि मैं अब क़ाबिले-सुम्बुल नहीं रहा
मेरा कोई रहनुमा नहीं रहे-इश्क़ में
तुम ख़ुश रहो कि राह में साइल[35] नहीं रहा
अभी बाक़ी कुछ अपने ख़्याल रहने दो
लेखन वर्ष: 2008
अभी बाक़ी कुछ अपने ख़्याल रहने दो
तन्हा ज़िन्दगी में यह सवाल रहने दो
तुम कहाँ चले गये बिना बताये मुझको
तमन्ना से हसरत का विसाल रहने दो
हैफ़, मैं कह भी न सका तुमसे हाले-दिल
अपने-आप से मुझे कुछ मलाल रहने दो
यह वक़्त बीत जायेगा, बदलेगा नहीं
घड़ी की सुइयों में अपनी चाल रहने दो
दुश्मन की गोली का भी डर न रहे मुझे
देश के लिए मेरे लहू में उबाल रहने दो
ईमान बेचकर रुपये कमाने वालों
भूखे पेट के लिए रोटी-दाल रहने दो
हम दोस्त न सही लेकिन दुश्मन भी नहीं
बाहम[1] कभी-कभार बोलचाल रहने दो
हर तरफ़ हंगामा है’ धमाके हैं’ ख़ून है
रोते हुए बच्चों का यह हाल’ रहने दो!
तेरी बातें सोचकर मुस्कुरा लेता हूँ
तुम मेरे गालों पर यह गुलाल रहने दो
कितने ही ज़ख़्म चाक हुए तेरे जाने के बाद
लेखन वर्ष: 2003/2011
कितने ही ज़ख़्म चाक हुए तेरे जाने के बाद
हुए तेरी हसरत में मुए तेरे जाने के बाद
सोहबत[1] किसी दोस्त की रास न आयी हमें
अलग-अलग सबसे रहे तेरे जाने के बाद
कभी पहलू में किसी को किसी के देखा जो
तेरी ही ख़ाहिश में जिये तेरे जाने के बाद
दिल का हर टुकड़ा हर एक साँस पे रोता है
हम आँसू पोंछा किये तेरे जाने के बाद
तुम मिल जाओ अगर ज़ीस्त[2] मिल जाये मुझको
जिस्म को बचाते रहे तेरे जाने के बाद
उज्र[3] हमको नहीं था तुमसे बात करने को
फिर भी नज़्म लिखते रहे तेरे जाने के बाद
तुमसे जो मरासिम[4] है मेरा वो इश्क़ ही है
हम जिसे निभाते रहे तेरे जाने के बाद
फ़िराक़[5] ने साँसों में कुछ गाँठें लगा दी हैं
जतन छुटाने के किये तेरे जाने के बाद
दर्दो-तन्हाई के निश्तर[6] चुभते हैं आज
हम जैसे दिवाने हुए तेरे जाने के बाद
तमाशा गर्चे[7] अपनी मौत का किसने देखा
नज़’अ[8] में साँस ले रहे तेरे जाने के बाद
जबीने-माह पर गेसू की लहर याद आती है
लेखन वर्ष: २००३/२०११
जबीने-माह[1] पर गेसू[2] की लहर याद आती है
वह गुलाबी ख़ुशरंग शामो-सहर[3] याद आती है
जिसने हमें रंगे-ज़िन्दगी[4] का दिवाना कर दिया
वो उसकी तेज़ क़ातिल तीरे-नज़र याद आती है
एक नीली शाल में लिपटी बैठी रहती थी जब तुम
वह सर्दियों की गुनगुनी दोपहर याद आती है
जिसे तुमने घर आके भी न पढ़ा मेरी आँखों में
आज वह फ़ुग़ाँ[5] वह आहे-कम-असर[6] याद आती है
मुझपे बाइस[7] नहीं खुलता तुमसे बिछड़ जाने का
आज भी वह पहला प्यार वह उमर याद आती है
जो होता है भले के लिए होता है
रचनाकाल: २००३/२०११
जो होता है भले के लिए होता है
ख़ुद को ज़िंदा समझने के लिए होता है
इंसान की आदत में है बदल जाना
बना ही बदलने के लिए होता है
बहता वक़्त रुकता है कब किसके लिए
ये आदतन चलने के लिए होता है
सच-झूठ का दुनिया में होगा हिसाब
ये सब मुँह पे कहने के लिए होता है
यहाँ माहिर[1] एक तू ही नहीं ज़ीस्त[2] का
बहाना ख़ुद छलने के लिए होता है
गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है
रचनाकाल : २००३/२०११
गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है
किसलिए यह मुझसे तेरी झूठी लगावट है
ग़ैर की महफ़िल में उफ़! तेरे अंदाज़े-ख़म[1]
मुआ[2] है उदू[3] सरापा कैसी सजावट है
सद-अफ़सोस[4] क्यों नौ-जवाँ[5] हैं मेरे ख़ातिर[6] में
तेरे दिल में जज़्बों की कैसी मिलावट है
सीमाब[7] है लहू में दौड़ता सच्चा इश्क़
यूँ फ़िराक़[8] से धड़कनों में मेरी गिरावट है
फिर वही शाम है और है आँखों में नमी
नमी कहाँ है यह तो लहू की तरावट है
पढ़ते हैं महफ़िल में किसी ग़ैर के अशआर[9]
बताते हैं कि पुरज़े[10] पे मेरी लिखावट है
मैं नाचार हूँ दिल की वादा ख़िलाफ़ी से
वरना अब इख़लास[11] में कैसी रुकावट है
एक जुनून दबाकर सुकूँ पाया है तूने
फ़िजूल[12] आज ऐसी बातों की दिखावट है
वाइज़[13] की मान ली इसलिए यह हश्र हुआ
हरे हैं घाव शायद काई की जमावट है
ऐन वक़्त अपनी बातों से मुकर गये तुम
क्यों शर्मिन्दगी से आँखों की झुकावट है
न रखो वह तस्वीरें हरी जिनसे दिल दुखता हो
लेखन वर्ष: 2003
न रखो वह तस्वीरें हरी जिनसे दिल दुखता हो
कर दो वह ज़मीन बंजर जिनमें घाव उगता हो
क्यों सीने में साँस लेवे दर्द किसी बे-दर्द का
मिटा दो वो शोल:-ए-दाग़ कि जिससे दिल जलता हो
लुत्फ़ लो उस बात में जिसमें न हो माज़ी[1] की सदा
नोंच दो वह हर ख़ार जो उम्मीद पर चुभता हो
रोशनी चाहिए हर क़दम पे हमें भी तुम्हें भी
जलाओ वो दिये किसलिए जिनसे धुँआ उठता हो
आँच बटोरो ग़म पी जाओ ज़ीस्त[2] को जियो ‘वफ़ा’
जोड़ो उस ख़ाब के टुकड़े जो ख़ुद को छलता हो
साँसों में दर्द भरा है
रचनाकाल: २००५/२०११
साँसों में दर्द भरा है
आज हर मंज़र हरा है
वह पहली नज़र से मेरे
शीश:-ए-दिल में ठहरा है
हर-सू, हर शै में वह है
और उसी का चेहरा है
मेरा दर्द सिमटता नहीं
हाले-दिल बहुत बुरा है
अंधेरों की आदत नहीं
सो जुगनुओं का पहरा है
‘नज़र’ वह पसंद है मुझे
उसका दिल भी गहरा है
मन ही मन मुस्कुरा रही है जाड़े की धूप
रचनाकाल : २००३/२०११
मन ही मन मुस्कुरा रही है जाड़े की धूप
सर्द सफ़्हे[1] गरमा रही है जाड़े की धूप
उड़ती फिरती है ये नरमो-सख़्त[2] पत्तों पर
हर दिल में गीत गा रही है जाड़े की धूप
गहरी नीली शाल में लिपटा दिखा था चाँद
बीते पल-छिन[3] उड़ा रही है जाड़े की धूप
कब से मुब्तिला[4] थी गुलाबी गुलों में ख़ुशबू
सारे ख़ाब महका रही है जाड़े की धूप
उफ़क़[5] से शफ़क़[6] तक बह रही है तेरी रोशनी
दिल के ज़ख़्म सहला रही है जाड़े की धूप
ज़िंदगी वक़्त की धुंध में और दिखती नहीं
अश्को-अब्र[7] बरसा रही है जाड़े की धूप
इस सिम्त[8] मैं तड़पता हूँ उस सिम्त तन्हा तुम
हमको इक जा[9] बुला रही है जाड़े की धूप
मैंने कभी कहा नहीं तुमने कभी सुना नहीं
हर्फ़े-इश्क़[10] समझा रही है जाड़े की धूप
नहीं मिटा सकता तो बढ़ा दे दर्द
रचनाकाल: २००३/२०११
नहीं मिटा सकता तो बढ़ा दे दर्द
क्यों न करूँ यार से तज़किर:-ए-दर्द[1]
चुप हूँ तो जलता है मेरा कलेजा
बोलूँ तो लफ़्ज़ों में टपकता है दर्द
आग जो है सो है दिल में अब तलक
कहीं कोई गुलशन न जला दे दर्द
हर आस को टोहकर देखा मैंने
जब भी छुआ है बहुत होता है दर्द
नहीं आसाँ डूबकर उबरना उसमें
इश्क़ जिसको भी कह देता है दर्द
मौत मिले गर तो तेरे हाथों मिले
रोज़ क्यों झूठे ख़ाब दिखा दे दर्द
रोज़े-अजल[2] हो अगर तेरा दीदार
चाहता हूँ मुझे आज मिटा दे दर्द
मैं तूफ़ानो-भँवर का मुसाफ़िर हूँ
जाने कितने फ़ितने[3] उठा दे दर्द
‘नज़र’ को एक दफ़ा देख जाओ तुम
हाँ, वो तुमको अपने गिना दे दर्द
फूलों की शोखी़ से तेरी याद जवाँ होती है
रचनाकाल : २००५/२०११
फूलों की शोखी़ से तेरी याद जवाँ होती है
मेरी हर नज़्म में तेरी बात निहाँ[1] होती है
सावन की पहली बारिश की सौंधी-सौंधी खु़शबू
मुझे तेरे बदन की खु़शबू का गु़माँ[2] होती है
लम्स[3] जो सर्दियों की धूप से मिलता है मुझको
उसमें तुम्हारी उंगलियों की ज़ुबाँ[4] होती है
वो चंचल आँखें इतनी सुन्दर और निर्मल हैं
जैसे हर रोज़ सुबह-सुबह पाक अज़ाँ होती है
उसके गेसू[5] बिखरते हैं मिजाज़ से उड़ते हैं
जो उन्हें देख-भर ले फ़िदा उसकी जाँ होती है
मैं चाँद को देखता हूँ जब कभी ज़रा ग़ौर से
मुझको उसमें भी शक़्ल आपकी अयाँ[6] होती है
उसके होंठ तो ओस में भीगे हुए गुलाब हैं
रात-दिन जिनके बोसे को तिश्नगी रवाँ[7] होती है
‘नज़र’ की मोहब्बत को कोई भी हद नहीं है
जब दिल मांगते हैं वह हाथों में जाँ होती है
कभी विनय कभी नज़र कभी वफ़ा हूँ मैं
रचना काल: २००५
कभी विनय कभी नज़र कभी वफ़ा हूँ मैं
तुझसे हूँ या न हूँ, खु़द से ख़फ़ा हूँ मैं
चला जो मंज़िल को हाइल[1] हर गाम मिले
रहे-इश्क़ में भी दुनिया से बँधा हूँ मैं
तुम जिस राह पे ले चलो मैं चला चलूँ
बारिश में बहता हुआ रास्ता हूँ मैं
खु़दा नहीं मेरा, मेरे खु़दा बन जाओ
सच है तुम्हें देखकर बदल गया हूँ मैं
मेहरो-मोहब्बत का नामो-निशाँ तक नहीं
जाने-मन तेरे लिए बहुत तरसा हूँ मैं
मसाइले-जहान[2] से यह दिल नाचार है
चुप क्यों रहूँ? क्या कोई पारसा[3] हूँ मैं
जो ब-वक़्ते-मर्ग तेरी आरज़ू रहे
लेखन वर्ष: २००५/२०११
जो ब-वक़्ते-मर्ग[1] तेरी आरज़ू रहे
इससे क्या कि उम्रभर रू-ब-रू[2] रहे
गर न कह सके उम्रभर दिल की बात
ये क्या कि आते-जाते गुफ़्तगू रहे
मैं तुम्हें देखूँ तुम मुझे, मुड़-मुड़के
न मुझे सुकूँ रहे, न तुझे सुकूँ रहे
तुम इशारों में कहो मैं जिन्हें पढूँ
दो दिलों को इश्क़ की जुस्तजू रहे
तुमने दिल मेरा आख़िरश[3] जीत लिया
अब दिल में तेरे लिए नया जुनूँ रहे
इस हालात का बाइस[4] महज़ तुम हो
इससे क्या कि निगाह में खू़ब-रू[5] रहे
जब कोई आपको हम-सा मिले हमसे बताइएगा
लेखन वर्ष: २००२/२०११
जब कोई आपको हम-सा मिले हमसे बताइएगा
देखेंगे उसकी जल्वागरी हमसे मिलवाइएगा
हमने देखा है यहाँ लोग मतलब परस्त होते हैं
आप ख़ुद को ऐसे मतलब परस्तों से बचाइएगा
बड़ी मीठी होती है अय्यारी[1] यहाँ ख़ुदगरज़ों की
पेश बहुत चालाक ऐसे अय्यारों से आइएगा
हमने ज़िन्दगी को दो पहलुओं से जिया है हरदम
आप मुझे वक़्त के चाहे जिस मोड़ पर बुलाइएगा
वक़्त इक आदत रही है जो बदल जाया करती है
आप आदतों के ऐसे बदलाव से बाज़ आइएगा
ख़ताए-इश्क़ की इस दिल को सज़ा दी जाए
लेखन वर्ष: २००२
ख़ताए-इश्क़[1] की इस दिल को सज़ा दी जाए
मेरे साथ उसकी तस्वीर जला दी जाए
आँखों में नमी गर एक बूँद भी हो बाक़ी
वो इक बूँद उस गदेली से उठा ली जाए
तहज़ीबे-इश्क़[2] जो उसे सताये ताउम्र
उसे थोड़ी-सी बेवफ़ाई सिखा दी जाए
मैं कौन हूँ मैं क्या हूँ किससे हूँ मेरे ख़ुदा
बिगड़ी बात ‘नज़र’ की आज बना दी जाए
ख़ुदा से हर एक दुआ में माँगा था उसको
काश ‘विनय’ वो हरेक दुआ ठुकरा दी जाए
ख़ुदा मुझको बेवफ़ा करे
ख़ुदा मुझको बेवफ़ा करे
उसपे ऐसे इक जफ़ा करे
बुझाये इश्क़, चराग़ सभी
उसे ख़ुद से यूँ ख़फ़ा करे
आये यूँ अश्को-आँच कभी
वो आँखों को नम रखा करे
ख़ुमारे-ग़म की हो बादा
वो रोज़ जिसको पिया करे
हो हसीं ख़ाब से ख़ौफ़ज़दा
चाहे भी तो न शिफ़ा करे
मिट न सके इक वो निशाँ भी
वो हर रोज़ ज़ख़्म हरा करे
जब भी तेरा नाम याद आयेगा
जब भी तेरा नाम याद आयेगा
मेरी किताबों में पाया जायेगा
वो रातें गुज़रे अगस्त की रातें
मेरा चाँद कब लौट के आयेगा
वो फ़रवरी की धूप देखी नहीं
बसंत शाख़ों पे कैसे आयेगा
ख़ुशज़बाँ[1] बिना ख़ुशियाँ परायी हैं
अब ग़मज़दा[2] होके जिया जायेगा
तारीख़ों की तारीक़[3] में चाँद गुम
रोशनी कौन कैसे उगायेगा
जब भी पढ़ा इस ग़ज़ल को आँखों ने
चेहरा तेरा ही झिलमिलायेगा
ख़ुशबू तेरी इक-इक हर्फ़ में है
हरेक अस्लूब[4] निभाया जायेगा
क़यामत की रात जब भी आयेगी
ज़ुबाँ पर तेरा ही नाम आयेगा
‘नज़र’ की हर ख़ाहिश तुम हो शीना[5]
तुम्हें न पाया तो क्या पायेगा
आदाब तुझे ऐ मेरे वतन लखनऊ
आदाब तुझे ऐ मेरे वतन लखनऊ
आदाब तुझे मेरे जानो-तन लखनऊ
है कभी आइना कभी शराब-सा तू
है मेरी शोख़ी मेरा बाँकपन लखनऊ
है तू ही मुस्लमाँ, तू ही है हिन्दू
निकहते[1] रहे तेरे गुलशन लखनऊ
लहज़ा, लुत्फ़, ज़ुबाँ और मेरी यह ख़ू[2]
हर चीज़ है जैसे मेरा चमन लखनऊ
है जन्नतो-इरम[3] इसमें हर कू[4]
लहू में दौड़ता है जाने-मन लखनऊ
ज़िन्दगी तेरे साथ से क्या मिला जुज़ तन्हाई के
लेखन वर्ष: २००४/२०११
ज़िन्दगी तेरे साथ से क्या मिला जुज़[1] तन्हाई के
हर गाम इक मंज़िल है लोग मिलते रुसवाई के
अब तो भरोसा ही उठ गया दुनिया के लोगों से
अहले-जहाँ [2] कब क़ाबिल थे सनम तेरी भलाई के
ये चाक जिगर यूँ फड़का कि तड़पके फट ही गया
ऐजाज़े-रफ़ूगरी![3] ताग़े टुट गये सिलाई के
वो फ़ज़िर[4] के रंग और वो शाम का हुस्न अब कहाँ
चंद कुछ निशान थे सो मिट गये तेरी ख़ुदाई के
हिज्र[5] के रंगों में सराबोर हैं अब मेरी रातें
काँटों के बिस्तर पे बिताता हूँ दिन जुदाई के
करवटें बदल-बदलकर मेरी रातें गुज़रती हैं
नसीब नहीं अब मुझको हुस्न तेरी अँगड़ाई के
जो लोग अच्छे होते हैं दिखते नहीं हैं
लेखन वर्ष: २००४/२०११
जो लोग अच्छे होते हैं दिखते नहीं हैं
सच्चे दोस्त बाज़ार में बिकते नहीं हैं
ख़ुद से पराया ग़ैरों से अपना रहे जो
सच है ऐसे लोग दिल में टिकते नहीं हैं
सूरतों में जो सीरत को छिपा लेते हैं
वो कभी सादा चेहरों में दिखते नहीं हैं
होती है नुमाया[1] दिल की हर बात, दोस्त!
मन के भेद यूँ परदों में छिपते नहीं हैं
इंसान है वह जो जाने इंसानियत को
हैवान कभी निक़ाबों में छिपते नहीं हैं
वक़्त तले दब जाती हैं कही-सुनी बातें
हम कभी कुछ अपने दिल में रखते नहीं हैं
पलटते हैं जो कभी माज़ी के पन्नों को
ये आँसू तेरी याद में रुकते नहीं हैं
न मरना आसाँ है, न जीना ही आसाँ है
चाहकर भी मिटने वाले मिटते नहीं हैं
शाख़ों पर लौट आये मौसम कोंपलों के
लेखन वर्ष: २००४/२०११
शाख़ों पर लौट आये मौसम कोंपलों[1] के
न क्यों फिर चमन में खिल रहे’ गुल दो दिलों के
मेरी यह उम्र जायेगी तेरे लिए ज़ाया[2]
गर यह फ़ासले रहेंगे यूँ ही मीलों के
तुम नहीं तो रातभर ये चाँदनी उदास रहती है
सभी ताज़ा कँवल[3] सूख गये हैं झीलों के
ज़ब्रो-सब्र[4] से क़ाबू आया है मेरा दिल
लम्हा-लम्हा बढ़ते हैं दौर मुश्किलों के
मैं दोस्तों की भीड़ में तन्हा रहता हूँ
मुझको रंग फ़ीके लगते हैं महफ़िलों के
संदली धूप की छुअन का यह ऐजाज़[5] है
ख़ुशबूओं से भर गये जाम सभी गुलों के
मैं यह बात सोच के जल जाता हूँ सुम्बुल
तुम्हें तीर चुभते होंगे किन मनचलों के
‘नज़र’ आज वाइज़ है बहुत ख़ामोश, वो क्यों?
क्या उसके पास हल नहीं हैं मसाइलों[6] के
देखे जिसे कोई हसरतों से ऐसा तो नहीं हूँ मैं
लेखन वर्ष: २००४/२०११
देखे जिसे कोई हसरतों से ऐसा तो नहीं हूँ मैं
जिसकी अक़ीदत[1] हो जहाँ में वो ख़ुदा तो नहीं हूँ मैं
माना यकता[2] हूँ मेरे जैसा कोई दूसरा नहीं
सच है फिर भी हर मायने में पहला तो नहीं हूँ मैं
मैं जी रहा हूँ अब तलक बिन तुम्हारे तन्हा-तन्हा
जो असरकार हो जायेगी वह सदा तो नहीं हूँ मैं
क्यों न थके मेरी ज़बाँ कहते-कहते सभी को अच्छा
सोचो, कोई बातिल[3] कोई पारसा[4] तो नहीं हूँ मैं
न लड़ मुझसे मेरे रक़ीब तुझसे मेरी इल्तिजा है
जो आते-आते रह जाये वह क़ज़ा[5] तो नहीं हूँ मैं
यक़ीनन वह बेहद ख़ूबसूरत है ‘नज़र’, माह-रू है
वह न मिल सके मुझको इतना भी बुरा तो नहीं हूँ मैं
दिले-सहरा में यह कैसा सराब है
लेखन वर्ष: २००३/२०११
दिले-सहरा[1] में यह कैसा सराब[2] है
ज़ख़्म मवाद है मेरी आँख आब है
क्यूँ इश्क़ ख़ौफ़ज़दा रहा है हिज्र से
नस-नस में मेरे कोई ज़हराब[3] है
सुलगते हैं तेरे ख़्याल शबो-रोज़
गलता हुआ तेज़ाब में हर ख़ाब है
जुज़[4] बद्र[5] कौन मेरा रक़ीब[6] जहाँ में
मेरी ख़ाहिश को लाज़िम इक नक़ाब है
भटकती है ये नज़र किसकी राह में
उल्फ़त को मेरी और क्या हिसाब है
ये ज़िन्दगी कब शक़ खाती है मौत से
मौत को भी ज़िन्दगी से क्या हिजाब[7] है
हर्फ़ मेरे और तसलीम नहीं देते
कि ‘नज़र’ को भी दर्द से क्या इताब[8] है
दूदे-तन्हाई के उस पार क्या है
दूदे-तन्हाई[1] के उस पार क्या है
वो ख़ुद है या उसके हुस्न की ज़या[2] है
बेवजह किसी की याद सताती नहीं
मेरे दिल ने तुझे ही पसन्द किया है
फ़ैज़[3] क्या सोचें राहे-मोहब्बत में
क़ैस[4] न हो हर आशिक़ इतनी दुआ है
सहाब[5] बरसें हैं एक मुद्दत के बाद
ये मेरा नसीब है या उसकी वफ़ा है
हिचकियाँ आये हुए मुझे बरस हुए
क्या तुमने कभी मुझको याद किया है
तेरे जाने के बाद दिल में कुछ न रहा
बस बाक़ी दिल पे तेरा नक्शे-पा[6] है
अब सबा[7] चार-सू चुपचाप बहती है
ये ख़ामोशी कहती है तू ख़फ़ा है
ख़ुश रहो कि जाते हैं तेरी दुनिया से
कि ग़ैर से निबाह में तेरी दुनिया है
‘नज़र’ जो कहता था इश्क़ इक बला है
वो ख़ुद भी आज इश्क़ में मुब्तिला[8] है
ज़िन्दगी से दर्द’ दर्द से ज़िन्दगी मिली है
लेखन वर्ष: २००५/२०११
ज़िन्दगी से दर्द’ दर्द से ज़िन्दगी मिली है
इस वीराने में तन्हाई की धूप खिली है
मैं रेत की तरह बिखरा हुआ हूँ ज़मीन पर
उड़ता चला हूँ उधर’ जिधर की हवा चली है
मैं जानता हूँ उसका चेहरा निक़ाब में है
महज़[1] ख़ाबे-उन्स[2] के लिए शम्अ जली है
फेर लेता है रुख़[3] चाहो जिसे जाँ की तरह
मेरी हर सुबह’ दोपहर’ शाम यूँ ही ढली है
देखा उसको भी जिसे दोस्ती का पास था
देखकर मुझे उसने अपनी ज़ुबाँ सीं ली है
बोलो ‘नज़र’ किसने पहचाना तुम्हें भूलकर
अब तन्हा जियो तुमको ये ज़िन्दगी भली है
मैंने दुआ की ख़ुदा ने क़ुबूल की तुम ज़िन्दगी बन गये
लेखन वर्ष: २००५/२०११
मैंने दुआ की ख़ुदा ने क़ुबूल की तुम ज़िन्दगी बन गये
तुम धड़कनों को महकाकर मेरे सादे ख़्वाब रंग गये
मैं तुम्हारे बारे में दिन भर बैठकर सोचता था
तुमने मुझसे बात की मेरे सभी दर्द बर्फ़ बन गये
तेरी सूरत भी ख़ूब है और तेरी सीरत भी ख़ूब
तुम अपनी प्यारी बातों से मेरे अल्फ़ाज़ रंग गये
तेरी सादगी ने मुझे अपना दीवाना ही कर लिया
और तुम बेक़रार दिल का राहतो-आराम बन गये
हम तन्हा और यह सफ़र तन्हा
लेखन वर्ष: २००४/२०११
हम तन्हा और यह सफ़र तन्हा
तुझे ढूँढ़े जो वह ‘नज़र’ तन्हा
यूँ तो तेरी तस्वीर है दिल में
फिर भी यह दीवारो-दर[1] तन्हा
घर में हम हैं और आइना भी
बिन तेरे हम दोनों, ये घर तन्हा
तुम्हें देखा आज फिर रू-ब-रू[2]
तुम्हें न दिखा, हूँ इस क़दर तन्हा
बिन तुम्हारे कुछ यूँ तन्हा हूँ
जैसे बिन फूल के शज़र[3] तन्हा
बिन तुम्हारे कहीं दिल लगता नहीं
और मैं अब जाऊँ किधर तन्हा
तुम नहीं तो यूँ लगता है मुझे
मैं हूँ आज शहर-ब-शहर[4] तन्हा
जलेंगे सारी-सारी रात हम
रहेगी फिर से रहगुज़र[5] तन्हा
गर तेरी यादें हाथ न बढ़ातीं
तो मैं रहता जीवन भर तन्हा
दरिया का पानी बाँधा किसने
बिन पानी हुई यह नहर तन्हा
न चाँद हँसा, न वो खु़र्शीद[6] ढला
तुम बिन हुई शामो-फ़ज़िर[7] तन्हा
अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता
लेखन वर्ष: २००४/२०११
अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता
गर उनके लबों से हमारा मज़कूर[1] होता
गरचे मैंने छुपाया था राज़े-दिल तुम से
डर था तेरी निगाह में यह न क़ुसूर होता
कहना था पर न कहा इसमें ख़ता मेरी थी
कहता दर्दे-हिज्र[2] भी जो न मजबूर होता
बद-क़िस्मती क़िस्स-ए-इश्क़ मुख़्तसर[3] था बहुत
इक और मोड़ होता तो ज़रा मशहूर होता
तुमने मुझे देखकर जाने किस तरह सोचा होगा
काश मैं शक्लो-सूरत[4] में थोड़ा और होता
ख़ुदाया, क्या हम न पाते अपनी मोहब्बत को
अगर हमें अपनी वक़ालत का शऊर[5] होता
हम-तुम मिल ही जाते किसी मोड़ पर इक रोज़
जो इश्क़ में वस्लतो-क़ुर्ब[6] का दस्तूर होता
हैं आलम में रंग, नये-पुराने, यादों के
तुम भी होते परेशाँ तो मज़ा ज़रूर होता
बहुत तड़प-तड़प के मैंने यह ग़ज़ल लिखी है
काश मेरी क़िस्मत में जमाले-हूर[7] होता
पल-पल बिगड़ रहा है हाल तेरे बीमार का
ऐ ‘नज़र’ काश आज वह मुझसे न दूर होता
मैं हूँ हस्ति-ए-नाचीज़’ मुझसे किसी को चाह नहीं
लेखन वर्ष: २००४/२०११
मैं हूँ हस्ति-ए-नाचीज़’[1] मुझसे किसी को चाह नहीं
मैं हूँ शिगाफ़े-शीशा’[2] मुझसे किसी को राह नहीं
मैं आया हूँ जाने किसलिए इस हसीन दुनिया में
किसी की आँखों में मेरे लिए प्यार की निगाह नहीं
मैं हूँ अपने दर्दो-ग़म आहो-फ़ुगाँ[3] की आप सदा[4]
शायद अब इस गुमनाम रात की कोई सुबह नहीं
वो क्या जाने तन्हाई के साग़र’[5] हमसे पूछो
कि अब मेरे दिल में दर्द है और ख़ाली जगह नहीं
काश यह सन्दली शाम महक जाती
रचना काल: 2004
काश यह सन्दली शाम महक जाती
सबा[1] तेरी ख़ुशबू वाले ख़त लाती
तुझसे इक़रार का बहाना मिलता
तो शायद मेरी क़िस्मत सँवर जाती
दीप आरज़ू का जलता है दिल में
काश तू इश्क़ बनके मुझे बुलाती
दूरियाँ दिल का ज़ख़्म बनने लगीं हैं
ये काश नज़दीकियों में बदल जाती
काश कि फिर वह सहर आती
रचना काल: 2004
काश कि फिर वह सहर[1] आती
जब तू मुझको नज़र आती
तेरी आरज़ू है रात-दिन
कभी तो इस रहगुज़र आती
पलकें सूख़ीं राह तकते
तेरी कुछ खोज-ख़बर आती
दरम्याँ रस्मो-रिवाज़ हैं
पर तू फिर भी इधर आती
सहाब[2] दिखें हैं दरया पे
और बारिश टूटकर आती
कई मौतें मरकर देखीं
ज़िंदगी तू मेरे दर आती
क़रार मिलता मेरे दिल को
तू ख़ाबों में अगर आती
मैं बहुत तन्हा रहा, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
लेखन वर्ष: २००४/२०११
मैं बहुत तन्हा रहा, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
हर साँस ग़म पिरोया, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
सब कुछ खोया कुछ न पाया तेरी दुनिया में
पल-पल हरपल तड़पा, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
आसमाँ ओढ़े बैठी है तेरे लिए सदी[1]
रोशनी न चन्द्रमा, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
बहती रही तेरे ही जानिब, ज़मीं इश्क़ में
न’असरकार[2] है दुआ, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
हम खिंचे चले जाते हैं किस ओर क्या पता
हर तरफ़ नया चेहरा, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
ऊदी[3] आँखों में नम है एक बीता मौसम
हर साँस अटका हुआ, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
था बहुत सख़्तजान[4] तेरा यह उम्मीदवार
‘नज़र’ दर्दख़ाह[5] रहा, बिगैर तेरे ज़िन्दगी
मेरा यह दर्द ख़त्म हो जाये कभी
लेखन वर्ष: २००४/२०११
मेरा यह दर्द ख़त्म हो जाये कभी
तू दुआ में मुझे माँग पाये कभी
टूट चुके हैं मेरी तमन्ना के दोश[1]
तू ख़ुद मुझे संभालने आये कभी
कबसे गया है न आया आज तलक
मेरी चाहत तुझे खींच लाये कभी
यारब[2] मैं भटक रहा हूँ सहराँ[3] में
कोई इस तस्कीं को मिटाये कभी
शामें ग़मगीन[4] हैं और उदास हम
क्यों गुफ़्तगू[5] का मौक़ा आये कभी
मुझसे अब उल्फ़त किये बनती नहीं
मोहब्बत रहे-जुस्तजू[6] पाये कभी
ख़स्ता हाल[7] है दिल बहुत तेरे लिए
तुझको गर मजमूँ[8] समझ आये कभी
तस्वीरें मुझसे बात करती नहीं
तेरा दीवाना सुकून पाये कभी
तेरी कशिश भरी एक नज़र इधर भी हो
दिल पर अपना जादू चलाये कभी
तुम न जानो मेरा प्यार ये अलग बात
पर ख़ुशबू तेरा पयाम लाये कभी
पहली नज़र से जो हसरत है मुझे
काश सुम्बुल उसे समझ पाये कभी
तुम गर हो सीना मुझ को बना लो धड़कन
लेखन वर्ष: २००४/२०११
तुम गर हो सीना मुझको बना लो धड़कन
आतिश बहे नसों में मिटे शीत की कम्पन
जिस सूरत पे दिल आ गया उसपे निसार
है सब, मेरी यह उम्र, यह जान, यह यौवन
रंग-बिरंगे फूल खिले ख़ुशबू बिखरी हर-सू[1]
मन की तितली फिर रही है गुलशन-गुलशन
प्यार का जादू अब समझे क्या होता है
हम-तुम दोनों जैसे पानी और चन्दन
अब्रे-मेहरबाँ[2] एक फ़साना रहे मुझको
चाँद खो गया जिनमें बढ़ा के मेरी लगन
वाद:-ए-निबाह[3] न किये फिर भी टूटे मुझसे
है नसीब मुझको बिन चाँद यह स्याह गगन
तेरी नज़र ने ज़िबह[4] किया बारहा मुझको
रहा ताउम्र मुझ पर तेरा ही पागलपन
‘नज़र’ तेरी मेहर को बैठा है आज तलक
मरासिम[5] बना के जोड़ लो मुझसे बन्धन
जो मुझे होता है वह दर्द तुझ तक पहुँचे
लेखन वर्ष: २००४/२०११
जो मुझे होता है वह दर्द तुझ तक पहुँचे
यूँ इस ख़ला[1] की खोयी गर्द तुझ तक पहुँचे
की है मेरे दिल ने सदा तुझसे मोहब्बत
सादा ही सही इक ये फ़र्द[2] तुझ तक पहुँचे
धूप सारे आलम में महक रही है हर-सू[3]
कि मेरे सीने की ये सर्द तुझ तक पहुँचे
चमन-चमन में है आज मौसमे-गुले-बहार[4]
कभी ये भी हो मौसम-ए-ज़र्द[5] तुझ तक पहुँचे
मेरी मोहब्बत को समझते हो तुम ग़लत, ग़लत नहीं है
लेखन वर्ष: २००४/२०११
मेरी मोहब्बत को समझते हो तुम ग़लत, ग़लत नहीं है
तुमको चाहा है मैंने गर इसमें कुछ ग़लत नहीं है
दिखा दो तुम कोई अपना-सा इस ज़माने में मुझको
मैं अगर फिर चाह लूँ उसको इसमें कुछ ग़लत नहीं है
मेरे दिल को सुकून आया है तेरी सूरत देखकर
यूँ किसी चेहरे से सुकूनो-सबात कुछ ग़लत नहीं है
जो मैंने देखा तेरी आँखों में वो तुझे मालूम है
मोहब्बत की नज़र से तुझे देखना कुछ ग़लत नहीं है
डरते हो तुम अपने-आप से या फिर यूँ ही किया सब
पहले प्यार में दिल का उलझ जाना कुछ ग़लत नहीं है
भीगी हुई आँखों में तस्वीर तुम्हारी है
लेखन वर्ष: २००४/२०११
भीगी हुई आँखों में तस्वीर तुम्हारी है
ख़ुदा! रूठी हुई हमसे तक़दीर हमारी है
मैं तेरा दिवाना राहे-इश्क़ का मुसाफ़िर हूँ
देख तो पाँव में पड़ी ज़ंजीर तुम्हारी है
मैं तुम्हारे लिए अपनी जान तक दे दूँगा
मैं तेरा राँझणा और तू हीर हमारी है
मुहब्बत एक दिन तुमको मुझसे प्यार करना है
मेरे हाथों में प्यार की लक़ीर तुम्हारी है
कैसे मिलूँ तुमसे जो न मिलना चाहो
लेखन वर्ष: 2004
कैसे मिलूँ तुम से जो न मिलना चाहो
चला चलूँ अगर साथ चलना चाहो
नहीं कह देते हो हर बार तुम मुझ से
मैं करता भी क्या, गर ख़ुद जलना चाहो
मैं इक मसख़रा[1] ही सही तुम तो गुल हो
तुम को हँसा दूँ अगर तुम खिलना चाहो
देखोगे मेरी दीवानगी की हद तुम
बिखेर दो मुझे गर तुम संभलना चाहो
तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है
लेखन वर्ष: २००४/२०११
तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है
रह-रहकर रुक-रुककर ये बार-बार उठती है
हम बीमारि-ए-इश्क़ के मारे हुए हैं और
तेरी नज़र पैनी होकर बार-बार उठती है
नाज़ो-नख़्वत[1] के पैमाने किस तरह उठाऊँ
नज़र जब उठे है तो ज़िबह[2] को यार उठती है
हम देखते हैं तेरे जानिब[3] प्यार की नज़र से
तेरी नज़र, तौबा! मानिन्दे-कटार[4] उठती है
उस ग़ैर से तुमको मोहब्बत हुई है बे-वजह
और फिर भी नज़र बाइसे-गुफ़्तार[5] उठती है
हैं चमन में और भी नज़ारे ऐ ‘नज़र’ लेकिन
फिर क्योंकर तेरी नज़र सिम्ते-यार[6] उठती है
हर वो शख़्स जिसको मैंने अपना ख़ुदा कहा
लेखन वर्ष: २००४/२०११
हर वो शख़्स जिसको मैंने अपना ख़ुदा कहा
बादे-मतलब[1] उसने मुझसे अलविदा कहा
जिसको मैं मानता हूँ धोख़:-ओ-अय्यारी[2]
ज़माने ने उसको हुस्न की इक अदा कहा
वह प्यार जिसे एहसास कहते हैं सब लोग
उसने आज उसको बदन की इक सदा[3] कहा
मैं था उसका ज़माने की ग़ालियाँ खाकर
उसने मुझे किसी ग़ैर हुस्न पर फ़िदा कहा
जिन आँखों का तअल्लुक[4] रहा है मस्जिद से
उन्हें उसके यार ने महज़ मैक़दा कहा
उससे थी मेरे अपने ज़ख़्मों की कहानी
और उसने नये ज़ख़्मों को तयशुदा[5] कहा
नहीं आसाँ तो मुश्किल ही सही
लेखन वर्ष: २००४/२०११
नहीं आसाँ तो मुश्किल ही सही
मुझको मोहब्बत है तुमसे ही
आज न पिघला तो कल पिघलेगा
यह बात हम सुनेंगे तुमसे ही
नाज़ हैं तुमको, ग़ुरूर है मुझे
मेरे दिल की ख़ता है तुमसे ही
आज दूरियाँ हैं तुझमें-मुझमें
कि ज़रूर कल मिलेंगे तुमसे ही
बहता वक़्त इक सिफ़र ही तो है
फिर जो मिला दिया है तुमसे ही
ख़ुदाया कभी करम मुझ पर भी
ख़ुदाया[1] कभी करम मुझ पर भी
सुम्बुल[2] की थोड़ी मेहर इधर भी
प्यार क्या है नहीं जानता,
मगर सिखा मुझको ये हुनर भी
तेरे ख़ाब सजाये आँखों में
ख़ाब है चाँद है सहर[3] भी
इश्क़ की आग जो इस दिल में है
एक अक्स[4] रहे इसका उधर भी
मोहब्बत का दावा किया जो
मैं करूँगा रोज़े-महशर[5] भी
चाहिए अगर जान भी ले लो
मगर लेना मेरी कुछ ख़बर भी