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लोकतंत्र अगर यही है 

लोकतंत्र अगर यही है
तो हमारे लिए नहीं है
वैसे यह तमाशा है
या परिवर्तन
अथवा इस प्रदर्शन का भी
कोई एक दर्शन है
सवाल यह अकारण नहीं है क्योंकि
हिजड़ों के देश में
ताली बजाना अपना शौक नहीं
बल्कि परिस्थितियों का एक नर्तन है
और इसी उधेड़बुन में
जीती हुई जनता धीरे-धीरे
स्वाद के नाम पर
अब नीम से कहीं ज्यादा
तिक्त हो चुकी है
और स्वयं से तंग आकर
मृत्यु की वेदना से पहले ही
मुक्त हो चुकी है…।

पुण्य

कितना भी जवाँमर्द हो
अपने पर गाज गिरते ही
अक्ल ठिकाने आ जाती है
और फिर उसके मुंँह से भी
ऐन वक्त पर
गीता की जगह गाली ही फूटती है
लेकिन इतनी-सी बात से
यह तो पता चल ही जाता है कि
कौन कितना गैर
और कौन कितना अनन्य है
वैसे
लाचारी में किया गया पुण्य
पाप जितना ही जघन्य है ।

बेसुरे विचार

बेसुरे विचारों के फ्यूजन से
संवेदनाओं की वर्णमाला
धीरे-धीरे सिकुड़ रही है
आज़ादी जो एक ख्वाब -सी
पलती थी हमारी आंँखों में
मेले -सी लगकर
धीरे -धीरे उजड़ रही है
प्रियवर
आपने अजाने ही
ऐसी मर्मभेदी बात कही है
जो सुनने में
कितनी भी ग़लत लगे
अनुभव में
एकदम सही है

सूरज तो अपने हिसाब से निकलेगा 

इस मौसम में जहांँ खुशियांँ
जीवन से
पत्तियों की तरह झर रही हैं
और चढ़ती हुई रात
ऊंँचे स्वर में
दिन का मरसिया पढ़ रही है
सोचता हूंँ
हौसलों के बल पर
अंँधेरे के ख़िलाफ़
जागते रहने से
कुछ तो वक़्त गुजरेगा
यह अलग बात है
कि जोर चाहे जितना लगा लूंँ
सूरज तो अपने हिसाब से निकलेगा

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