क्रांति की लपट उठी
क्रांति की लपट उठी
शांति की जली कुटी
तिनका-तिनका जल रहा
चिंगारियों का झुंड बाँधकर हुजूम चल रहा
क्रांति-दीप तरुण! आज द्वार-द्वार जल रहा
सुलग रहा हवन-कुंड आज राष्ट्र का, किशोर!
चाह रहे अगर देखना स्वतंत्रता का भोर
आहुतियाँ बन-बन कर तुम चले चलो जवान!
तुम बढ़े चलो महान!
“श्री ‘विमल’ राजस्थानी बिहार के एक किशोरवय सुकवि हैं जिनकी प्रतिमा शनैः शनैः किन्तु, सुनिश्चित क्रम से प्रस्फुटित होती जा रही है. प्रेम और पौरुष, दोनों ही आवेगों पर उनकी सामान रूप से, आसक्ति है. उनके प्रेम की दुनिया में फूल, नदी, नारी, किरण, नभ-नीलिमा, कोयल, चाँद और तारे आदि कितनी ही अपरूप विभूतियाँ जगमगाती और कलरव करती हैं.
पौरुष के लोक में उन वीरों के मन का अंगारा चमकता है जो देश के लिए यातनाओं को हँस-हँस कर गले लगा रहे हैंl
उनका स्वप्न कभी तो मिट्टी से जन्म लेकर मिट्टी की ओर उड़ता है और कभी आकाश में जन्म लेकर मिट्टी की ओर आता है. इसे मैं शुभ लक्षण मानता हूँ.
भाषा उनकी उर्दू-मिश्रित और सरल है. किन्तु, मैं आशा करता हूँ की वह अभी और निखर कर शक्ति और सुंदरता प्राप्त करेगी. शुभमस्तु!”
‘दिनकर’
पटना
५-९-४५
आकाशवाणी, पटना
राष्ट्र-कवि रामधारी सिंह दिनकर
झंझा(कविता)
इन विद्रोहों की झंझा से तुम न डरो ॠतुराज
इन तूफानों के झोकों से भय न करो ॠतुराज.
छवि का घूँघट उलट न आई यह विखेरने लाज
चीखों में न बदलने मीठी कुहू की आवाज
आई यह न हिलाने फल-फूलों से लदे निकुंज
आई यह न गिराने तुम पर असमय पतझर-गाज.
यह आई झकझोर जलाने कायरता का बाग
यह आई घर-घर सुलगाने अमर-क्रांति की आग
यह झंझा जिसके पीछे-पीछे लाखों तूफान
यह फूँकेगी भारत के जिन्दे-मुर्दों में प्राण.
जंजीरों में जो युग-युग से पाले आ रहे लाल
रूपों के जादू का जिन पर पड़ा सुनहला जाल
अंगूरी में डूब, युवतियों की बाहों में झूल
जो झुक-झुक चूमते बुजदिली के चरणों की धूल.
यह आई करने उनका ही कुंकुम-चर्तित भाल
यह आई पहिनाने उनको अंगारों की भाल
यह फूँकेगी उनकी नस-नस में विप्लव की ज्वाल
उछल चलेगें बलि-वेदी की ओर देश के लाल.
उन्हें न रोक सकेंगे रूपों के जादू के जाल
उन्हें न बांध सकेंगे काली अलकों के छवि-व्याल
वे तो हँस माँ के चरणों पर वारेंगे तन-प्राण
उनके बली-प्रदान पर निश्चय चौकेंगे भगवान.
लायेंगे वे छीन पुनः अपना हीरों का ताज
अपना सोने का सिंहासन, अपना स्वर्ण-स्वराज.
जेठ की घूप
अब जग उठा जन-जन
हमारे भारत का जन-जन
दुलारे भारत का जन-जन.
माँ के पद-पद्मों पर
लुट जाने को तत्पर.
चालीस कोटी तन-मन
चालीस कोटि यौवन
चालीस कोटि जीवन.
अब जाग उठा जन-जन
हमारे भारत का जन-जन.
कुछ दिन पहले ही तो—
आँखों में घूमा ‘सत्तावन’
पहले से कहीं अधिक—
मस्ती से झुमा ‘सत्तावन’.
इनने देखा, उनने देखा, दुनिया ने भी देखा—
दिल खोल जवानी जुझी थी
कुछ कर देने की सूझी थी
चालीस कोटि कर बड़े काटने माता के बंधन.
हमारे भारत के बंधन
दुलारे भारत के बन्धनं
रे जाग उठा जन-जन, हमारे भारत का जन-जन.
जब बनी ‘माँग की अरुण रेख’
तलवारों की लाली
जब-दमन-फूँक से बुझी कई
कुटियों की दीवाली.
जुल्मों की, अत्याचारों की जब—
घटा घिरी काली
पूरब से तभी ‘किसी स्नेही’ ने
फेंकी उजियारी.
उस उजियारी में चमक उठा फिर भारत का कण-कण
हमारे भारत का कण-कण
दुलारे भारत का कण-कण.
‘उस’ वीर तपस्वी ने हममें–
कुछ ऐसी शक्ति भरी
इस वयोवृद्ध भारत के प्रति—
कुछ ऐसी भक्ति भरी
उसने हममें आजादी की—
ऐसी अनुरक्ति भरी
हमने फिर हँसकर हाथों में—
ले ली तलवार गिरी.
फिर उछल जवानी ने ली अँगड़ाई, चमका जीवन
फिर बना ‘जेठ की धूप’ हमारी आँखों का सावन
फिर जग उठा यौवन
हमारे भारत का यौवन.
हमने सोचा, हमने समझा, हमने देखा-भाला
सुलगी है जन-जन के मन में विद्रोहों की ज्वाला.
वह रात गयी काली-काली, यह दिवास गया काला
अब दूर नहीं है आजादी का झिलमिल उजियारा.
चालीस कोटि कंठों में क्रंदन के बदले गर्जन
बल भरते ‘जयप्रकाश’, ‘सहगल’, औ’ ‘शाहनवाज’ ‘ढिल्लन’.
अब जाग उठा जन-जन
हमारे भारत का जन-जन.
जब गली-गली डोली आँधी
जब अवसानों के पनघट पर
कितनों के जीवन-घट फूटे
दुनिया की भूल-भुलैया में
जब कितनों के साथी छूटे.
कितनी सतियों की माँग धुली
कितनी ललनाएँ ज्वाल बनीं
यौवन की चिता सजी क्षण में
जीवन के शत बंधन टूटे.
जब देश-दहन में ‘स्वाहा’ कर कितनों ने शीश चढ़ाए हैं
तब कहीं क्रांति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.
संघर्षों की झंझा में जब
जीवन-तरुओं के पात झरे
जब गली-गली डोली आँधी
उजड़े कानन जब हरे-भरे.
अब आकुल करुणा-क्रन्दन से
भर गया हमारा घर-आँगन
घर-बार गिरे, काँपी ज़मीन,
प्रासाद हिले, काँपे-सिहरे.
जब जीवन के कंटक-पथ पर तरुणों ने पाँव बढाए हैं
तब कहीं क्रांति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.
जीवन की फूली फसलों को
जब काट गया कोई ज़ालिम
दुख की खाई को उत्पीड़न—
से पाट गया कोई ज़ालिम.
जब हमने अपनी आँखें भर
पानी माँगा, दाने मांगे
तब हाय, हमारे आँसू को—
भी चाट गया कोई ज़ालिम.
जब अपनी दुनिया में जीने के लिए लाल चिल्लाये हैं
तब कहीं क्रांति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.
हम-से दरियादिल कौन? जो की
जालिम को ही समझाते हों
उसके पापों को छोड़ सदा
उस मानव को अपनाते हों.
उससे कहते हों, लो अपना
दे दो नं हमारी थाती तुम
हम-से बेबस कितने हैं जो
आँसू से आग बुझाते हो.
जब अत्याचारों के मुँह पर जीवन-यौवन मुस्काते हैं
तब कहीं क्रांन्ति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.
मुझको प्रकाश दे दो
मुझको प्रकाश दे दो
अपने करुण नयन का मुझको प्रकाश दे दो
मुझको प्रकाश दे दो
छाया घना अंधेरा, प्रभु! दूर है सबेरा
डाले हुए है ”षट-रिपु“ औ’ ”अष्ट पाश“ घेरा
अपने अरुण अयन का टुक भ्रू-विलास दे दो
मुझको प्रकाश दे दो
अपने करुण नयन का मुझको प्रकाश दे दो
प्रभु! रोम-रोम में शुभ, शुचि भक्ति-भाव भर दो
पद-पù पर निछावर श्रद्धा अजर-अमर दो
अपने विराट मन का शाश्वत विकाश दे दो
मुझको प्रकाश दे दो
अपने करुण नयन का मुझको प्रकाश दे दो
प्रभु मुक्त-हस्त से, हँस, करुणा लुटा रहे हैं
भव-सिन्धु-संतरण को तरणी जुटा रहे हैं
दुर्भाग्य हाय! माया के क्रीत-दास बनकर
भव-चक्रवाल में पड़ हम छटपटा रहे हैं
तुम कोष हो कृपा के, सागर क्षमा-दया के
शत-दल कमल-सुमन का हिम-हेम-हास दे दो
मुझको प्रकाश दे दो
अपने करुण नयन का मुझको प्रकाश दे दो
अपने विराट मन का शाश्वत विकाश दे दो
मुझको प्रकाश दे दो
-श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, 1960
टहनी
मैं टहनी हूँ पारिजात की
प्रथम-प्रथम मुझको ही चूमे अरुण किरण स्वर्णिम प्रभात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की
भोला पंछी बात न माने
स्वर्ण-किरण को तिनका जाने
ज्यौं-ज्यौं चंचु खोलकर भागे
पंछी पीछे, किरणें आगे
चंचु खोल ज्यौं वन-वन लाँघे एक बूँद के लिये चातकी
मैं टहनी हूँ पारिजात की
मुझ पर पंछी झूला झूलें
चहकें, फुदकें, सुध-बुध भूलें
ठोर-ठोर से जब मिल जाती
मैं झुक, झूम-झूम इठलाती
ठहर-ठहर कर फर-फर फहरे हरी चुनरिया नये पात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की
सम्मुख नील झील का दर्पण
छाया लगती सहज समर्पण
जल-पंखों पर तिरते बादल
बज उठती बूँदों की पायल
ले जाते हैं मेघ उड़ाकर चादर तारों जड़ी रात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की
जब-जब मलय-झकोरा आये
मेरा अंग-अंग गदराये
झिमिर-झिमिर-झिम बदरा बरसे
अमृत झरे पूनम-गागर से
तारों से चर्चा करती हूँ वन-वैभव की बात-बात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की
पात-पात जब झर जाते हैं
सब शृंगार उतर जाते हैं
पंछी लेते नहीं बसेरा
हट जाता बाँहों का घेरा
नील झील के दर्पण में परछाँही हिलती नग्न गात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की
-25.7.1976
ओ वर्षा के पहले बादल!
ओ वर्षा के पहले बादल! मेरी ‘दुपहर’ पर मत छाना
जो पीछे आ रहे उन्हें भी मेरी यह बिनती बतलाना
ओ वर्षा के पहले बादल!
यह ‘दुपहर’ तो बहुत भली है
‘उपहारों’ के संग मिली है
अति सुखकर, अतिशय शीतल है
जलते जीवन का सम्बल है
तिल-तिल जलते देख मुझे तुम मत करुणा के कण बरसाना
ओ वर्षा के पहले बादल!
इसकी तपन बहुत मीठी है
इसकी आँच बहुत प्यारी है
मेरी यह ‘दुपहरी’ अनूठी
जग की दुपहर से न्यारी है
प्रिय की यह प्रिय देन इसे तुम छाया भी अपनी न छुलाना
ओ वर्षा के पहले बादल!
प्रिय ने दी यह आग कि जल-जल-
कर जग में प्रकाश फैलाऊँ
दर्दों की दी बीन कि गा-गा-
कर दुनिया का मन बहलाऊँ
आँसू दिये कि खुद प्यासा रह सीखूँ जग की प्यास बुझाना
ओ वर्षा के पहले बादल!
यादों की कौंधों के आगे
तेरी बिजली फीकी-फीकी
हिम से भी शीतल मन बाला
जलन भला क्या जाने जी की
विरह-यज्ञ के हवन-कुंड की इन लपटों को मत पी जाना
ओ वर्षा के पहले बादल!
-6 अगस्त, 1976
थरथराते होंठों का गीत
आज जी भर प्यार कर लो ओ सुहागिन!
क्या पता यह रात रसवन्ती पुनः आये न आये
निमिष की ही सही घन-राशि दृग मिचौनी
क्या पता छवि-छाँह का यह खेल फिर खेला न जाये
तारकों के छवि-निकुंजों की लुनाई
चाँदनी पूतों-फली, दूधों नहाई
आज तो सम्मुख खड़ी छवि-दीप बाले
श्याम घन-कुंतल उरोजों पर सँभाले
आज तो घन-छाँह देती है निमंत्रण
क्या पता मधु मेघ ज्योतिस्नात फिर छाये न छाये
कूकती कोयल, हुई है रात आधी
हो सकी पूरी न अब तक बात आधी
थरथराते होंठ चुम्बन के चितेरे
तप्त तन-मन को सुलगती प्यास घेरे
आज तो रति-पति निछावर प्राण-पण से
क्या पता कल केलि की सौगात फिर लाये न लाये
काल का रथ-चक्र क्या रोके रुकेगा
पंथ थकता है न, पंथी ही थकेगा
बाँध लो इन भागते छùी क्षणों को
गूँथ लो गल-हार में जीवन-कणों को
आज दिशि-दिशि में निनादित वेणु के स्वन
क्या पता कल यह विहंगिनि प्राण की गाये न गाये
-विवाह की छब्बीसवीं वर्ष-गाँठ पर
18 फरवरी, 1976
इठला-इठला सावन बरसे
दो जोड़े नील नयन बरसें
ज्यौं काजर कारे घन बरसें
पा विरहातप पीड़ा पिघली
बन बूँद-बूँद बाहर निकली
सुधियों की बिजली चमक-दमक-
कर रही विभासित प्रेम-गली
दर्दों की तप्त दुपहरी में
इठला-इठला सावन बरसे
भोला मन बात नहीं माने
छलना को सहज सही जाने
रेतों के दामन को सौंपे
अनमोल मोतियों के दाने
यह बात हुई कुछ ऐसी ही
मरघट में ज्यौं जीवन बरसे
यह देश नहीं दीवानों का
अल्हड़ प्रेमी मस्तानों का
है प्यार पुस्तकों का कैदी
जब वैरी है मुस्कानों का
नोटों की खिर-खिर प्रेम-गीत
छवि के शव पर न सुमन बरसे
कुछ ऐसा कर मंजीर बजे
इस जीवन की जंजीर बजे
खुलकर यह प्राणों की वंशी
गहरी यमुना के तीर बजे
उस ओर नाव का रुख कर दे
दिन-रात जहाँ गुंजन बरसे
उस बगिया में ले नीड़ बसा
जिस बगिया को नंदन तरसे
सौ-सौ स्वर्गों का मन तरसे
नरम फूल की पंखुरी से
जले ये रसीले अधर क्यौं
बजाये बिना बाँसुरी से
नयन ने पखारे ही तो थे
चरण वे गुलाबी-गुलाबी
नयन के दुलारे ही तो थे
नयन वे शराबी-शराबी
निछावर किया था खुदी को
बिछाया था तलवों तले दिल
तराशा गया फिर हृदय क्यौं
नरम फूल की पंखुरी से
गरम साँस के बाजुओं में
सिमट कर समाया न कोई
धड़कते हुए दिल को दिल से
दबाने भी आया न कोई
दिखा कर अधूरी अदायें
उमड़ रह गयी थीं घटायें
पड़े अपने आँसू ही पीने
भरी अपनी ही अंजुरी से
-3.1.1973
कंकर घुल जलजात हो गया
सारी रात कटी आँखों में, हँसते-रोते प्रात हो गया
लाल हुई आँखों की लाली से ही लाल प्रभात हो गया
तुम क्या जानो कितनी गहरी ठेस लगी इस कोमल मन को
आहों की आँधी ने कितना झकझोरा प्रसून-जीवन को
यदि विश्वास न हो तो अम्बर की बिखरी करुणा को देखो
पिघला गयी परायी पीड़ा उज्ज्वल-कज्जल-श्यामल घन को
कजरारी आँखों का काजल धुलकर काली रात हो गया
छलक-छलक उठना नयनों का झिमिर-झिमिर बरसात हो गया
जीवन-बीन पड़ी थी गुमसुम विश्व-कक्ष में एक किनारे
बीत रही थीं दुख की घड़ियाँ, आँसू पी-पी, गिन-गिन तारे
चौखट चूम लौट आया था मन प्रीतम को बिना पुकारे
तभी किन्हीं अदृश्य हाथों ने हँस, वीणा को दिया बजा रे
जनम-जनम का वैरी उँगली का हल्का आघात हो गया
व्रीड़ा-जन्य हुआ अरुणानन संध्या की सौगात हो गया
झूमी डाल, पात भी थिरके, फुनगी तनी बनी गर्वीली
फूल खिलखिलाया, कोमल कलियां भी हुईं और शर्मीली
मन-कोयल कूकी, सपनों की उड़ीं तितलियाँ नीली-पीली
तभी बही जग की ईर्षा की आँधी लिये हवा जहरीली
साँसों के सुरभित समीर पर हावी झंझावात हो गया
मेरा मन-विहंग पतझर का उड़ता पीला पात हो गया
जब तक रहे उफनती धारा, कब दोनों तट मिल पाते हैं
खो जाती है धार रेत में, तब दोनों तट मिल जाते हैं
है दुर्भाग्य सदानीरा के कूल-किनारों के बासी हैं
दुनियावालों की चिकोटियाँ सहने के चिर अभ्यासी हैं
दुर्लभ मिलन, वियोग-विरह की सौगातें ही मिली जगत से
इतना हुआ कि प्यार हमारा अधर-अधर की बात हो गया
जग ने मुँह बिचका-बिचका कर कंकर मार लहर हो छेड़ा
किन्तु, हमारे दरियादिल में कंकर घुल जलजात हो गया
-27.9.1975
जिस क्षण मन का दरपन टूटा
देने वाले तो मिले बहुत घावों की अनगिन भेंट, मगर-
सिसकी भरते, दुखते दिल को सहलाने वाला नहीं मिला
काटी चिकोटियाँ तो दुनियावालों ने हँस-हँसकर, जी भर
आहत मन को करुणा देकर बहलाने वाला नहीं मिला
लजवन्ती कलियों के घूँघट
रवि-कर ने उलट-पलट डाले
दूबों के हरे-भरे मुखड़े-
चुम्बन से पीत बना डाले
चुपके चोरों-सा दबे पाँव
मलयानिल भी आया हौले
रति-तृषित प्रकृति के केलि-
कक्ष के मुँदे हुए छवि-पट खोले
तानों-तिसनों की झड़ियों से पपनियाँ भिंगोयी गयीं, मगर-
रवि को, मलयानिल को दोषी बतलाने वाला नहीं मिला
जग के तीखे उपदेशों के-
दंशों ने हृदय बींध डाला
तम को अपने हिस्से में रख
मुझको दे डाला उजियाला
फिर खुलकर रास रचाने में-
जग को तो बाधा नहीं मिली
पर प्रेम-प्रकाशित गलियों में-
मोहन को राधा नहीं मिली
दिल खोल हँसी दुनिया उस क्षण, जिस क्षण मन का दरपन टूटा
थी भीड़ परायों की, अपना कहलाने वाला नहीं मिला
लेकिन अचरज की बात हुई, कालिख से पुता हृदय जग का
उसको मोहन की गीता के मन का उजियाला नहीं मिला
-30-31/1/1975
है इन्द्र-धनुष दृग के आगे
पचपनवें जन्म-दिवस पर
मेरा कवि-पिक मन-मधुवन में रह-रहकर टेर लगाता है
‘चौवन’ तक बचपन रहता है, ‘पचपन’ में यौवन आता है
झुनझुना थमाकर हाथों में
बहला न सकेगी अब दुनिया
‘बुइयों’ का भय दिखला-दिखला
दहला न सकेगी अब दुनिया
ऊखल में बँध-बँध जाने की बेला बीती, अब तो मेरे-
मन का पंछी उड़ते-उड़ते शत-शत योजन उड़ जाता है
गुड्डे-गुड्डी का खेल न अब-
मेरे मन को भरमायेगा
मिट्टी के बने घरौंदों में-
मन नहीं उलझ अब पायेगा
नाथे हैं नाग कई, कालीदह में कूदा हूँ कई बार
मथ-मथ डालूँ मैं इसीलिये सागर पद-तल दुलराता है
वृन्द वन की छवि-कुंज गली-
कोसों पीछे को छूटी है
अब आकर्षण का केन्द्र नहीं-
रह पायी वीर वहूटी है
सच्चा सुख मिलता है दु्रपदा का चीर अछोर बनाने में
रथ वाह किसी अर्जुन का बनने को युग-धर्म बुलाता है
बचपन की आँख-मिचौंनी में-
हैं धोखे कई बार खाये
यौवन की खुली-धुली आँखों-
नैसर्गिक सपने मँडराये
रेशमी तन्तु के पिंजरे से अब मुक्त विहग मेरे मन का-
चढ़ चन्द्र-किरण के झूले पर राका से रास रचाता है
बचपन का भोलापन भूला
माया-नगरी पीछे छूटी
झूठी विष-भरी हँसी की वे-
छल-छùी हथकड़ियाँ टूटीं
घूँघट के भीतर झाँक कलंकित चन्द्र कई देखे मैंने
अब निष्कलंक चन्दा से ही बस कवि-जीवन का नाता है
है इन्द्र-धनुष दृग के आगे
उड़-उड़ मन का पंछी भागे
अगवानी में दिन-रैन विकल
सूरज जागे, चन्दा जागे
सातों स्वर्गों के द्वार खुले, पीयूष-वृष्टि से प्राण धुले
कवि प्राण-वेणु पर मन्द्र-मधुर नित अनहद नाद बजाता है
-धनतेरस
31.10.1975
दीपों के झिलमिल प्रकाश में
दीपों के झिलमिल प्रकाश में तुम कितनी सुन्दर लगती हो
तारावलियों के हुलास में तुम कितनी मनहर लगती हो
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
दूर गगन के एक किनारे
चाँद किरण की बाँह पसारे
तारों की बोली में अपनी
यामा को चुपचाप पुकारे
पर तुम तो ऐसी जैसे चाँदनी सिमट कर खड़ी हो गयी
इन अवाक, अपलक, आँखों को तुम कितनी मनहर लगतो हो
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
साँसों के पथ पर फूलों की
भीनी गंध बनी फिरती हो
मेरे जीवन के सरवर में-
तुम कलहंसनि बन तिरती हो
ओ मेरे यौवन की पुलकन! गीतों की सुकुमार प्रेरणे!!
मैं सोता, तुम रात-रात भर मेरे सपनों में जगती हो
झिलमिल रूपों के सुहास में तुम कितनी सुन्दर लगती हो
तुम कितनी मनहर लगती हो
-दीपोत्सव
1956
मनसिज का ताल
सैंतीसवें जन्म दिवस पर
मनसिज का ताल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
उस रोज अचानक वीणा के तारों में थिरक उठा कंपन
कोटर के तिनकों में थिरका असमय कोकिल का कल-कूजन
ताका कलियों ने फूलों ने झिझकी आँखों से बार-बार
ऋतुपति ने मलयज-अंजलि से जी भर बरसाये हरसिंगार
चौंका अम्बर, ठिठके बादल, धरती पर कौंधी रूप-ज्वाल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
झुक गई किरण कवि-चरणों में घुटनों के बल जब ‘चाँद’ चला
बन्दन में हाथ जुड़े रवि के, स्वागत में शशि का दीप जला
मेरे किशोर कवि पर अल्हड़ मलयानिल विजन डुलाता था
यौवन चमके से मिलने को तारों की छाँह बुलाता था
आलिंगन को फैलाता था अम्बर अनगिन बाहें विशाल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
हँसते गाते जब जीवन ने तय कर ली थी आधी मंजिल
यौवन के अल्हड़ झोंकों से मनसिज का ताल बना ऊर्मिल
पल भर को आँखों में चमकी उल्लास-हास की किरण एक
पड़ गया किन्तु क्षण में उस पर झीना, उजला आवरण एक
आँखों की राह उमड़ फूटा अन्तर के आतप का उबाल
हँसते-गाते लो बीत गये इस जीवन के सैंतीस साल
जीवन की भूल भुलैया में जो कुछ पाया था, सब खोया
चाँदी के चकमक पत्थर पर सिर मारा, पछताया, रोया
रोजी-रोटी के चरणों पर कर दी न्यौछावर किलकारी
दब गई राख की ढेरी में प्रतिभा की नन्हीं चिनगारी
है कसक यही छवि के पथ पर मैं जल न सका बनकर मशाल
रोते-गाते यों बीत गये कवि-जीवन के सैंतीस साल
-धनतेरस
1956
प्राणों का दीप
ज्योति से निज घर-आँगन लीप
जल रहा है प्राणों का दीप
जूही के कुंजों में चुपचाप
नयन में स्वर्णिम सपने पाल
विभा रानी की सुरभित साँस
यत्न से उर में सँजों-सँभाल
अश्रु की मोहक मदिरा पिये
किसी के जीवन-कुंज-समीप
जल रहा है प्राणों का दीप
झूमती आती मलय बयार
चूम लौ को दे जाती प्यार
झिमिर-झिम झुक-झुक आते मेघ
सौंप जाते आँसू दो-चार
अँधेरी रात, किसी के लिए
जल रहा तिल-तल तरुण प्रदीप
जल रहा है प्राणों का दीप
-आकाशवाणी के पटना केंद्र से प्रसारित
23.5.1940
तुम चमकी मेरे जीवन में
तुमने मुझको बाँध लिया है मधुर स्नेह की डोर से
मेरा भावुक मन बाँधा है छवि-अंचल के छोर से
कल-परसों की बात, हृदय ने झाँका छवि को ओट से
दिल ही तो था, घायल हो बैठा चितवन की चोट से
तुम विहँसी, मेरे सपनों पर झरे जुही के फूल री
अनजाने गुँथ गईं टहनियाँ, वायु बही अनुकूल री
भींग गई जीवन की धरती, सुख के उदधि-हिलोर से
गूँज उठा यौवन का मधुवन आनन्दों के रोर से
मेरा जग था सूना-सूना घोर तिमिर ही साथ था
और सहारे के मिस अपने में ही अपना हाथ था
तुम चमकी मेरे जीवन में जैसे बिजुरी बाबरी
दृक्पथ से अन्तर पर उतरी बाँकी झाँकी सांवरी
तुमने दिये उछाल अश्रु हँस कर उँगली की पोर से
काली रात बदल दी तुमने अमर सुहासी भोर से
तुमने मुझको बाँध लिया है मधुर स्नेह की डोर से
-19.4.1940
शिशिर की चाँदनी
एक कवि को छोड़, बोलो तो भला-
कौन झेलेगा नयन पर यह शिशिर की चाँदनी?
दूर, पश्चिम में बिदा होते दिवा-पति की भुजाओं में सिमटती-
सान्ध्या रानी के कपोलों पर अरुणिमा छा रही थी
और इधर
सोलहों शृंगार कर छवि-यामिनी गज-गामिनी-सी-
शशि-प्रिया नभ-केलि-कुंजों में विहँसती आ रही थी
रात में यमुना किनारे ‘ताज’ की सौन्दर्य श्री पर-
टिक गयीं आँखें, ठिठक कर वह ठगी-सी-
देखती रह गयी-इंशान के पावन प्रणय की-
अश्रु-सी उज्ज्वल कहानी; रस-पगी-सी
एक उजली बूँद आँसू की अचानक चूपड़ी ‘स्मृति-चरण’ पर
हो उठी कृत-कृत नन्हीं दूब वे छवि-कण वरण कर
जग उन्हें शबनम कहे या ओस कह ले
किन्तु, वे हैं रात के आँसू रुपहले
चिह्न जो समवेदना के, अर्चना के
शीत कह जिनसे सभी बचते रहे हैं
युग युगों से उन अमर मुक्ता-कणों की-
वंदना में छंद हम रचते रहे हैं
कुन्तलों में गूँथ कर हिम-हास की छवि
एक कवि को छोड़ कर किसकी कला
आज छेड़ेगी विमोहन रागिनी?
एक कवि को छोड़, बोलो तो भला-
कौन झेलेगा नयन पर यह शिशिर की चाँदनी?
-आकाशवाणी, पटना की कवि गोष्ठी में प्रसारित
15.1.1940
दर्द का बोझ
दर्द तो इतना दिया लेकिन, दवा तुम दे न पायी
याचना मेरी तुम्हारा द्वार छू कर लौट आयी
आँसुओं से भर दिया दृग का खुला आकाश तुमने
एक नन्हें नीड़ पर भेजे पवन उनचास तुमने
आह भर कर मर्मरी सौगात पतझर की सहेजी
ले लिया वापस विहँस ओ निर्दयी! मधुमास तुमने
जुही जैसी गुदगुदी को छीन, पद से रौंद डाला
पीर ऐसी तीव्र दी जो रोम-कूपों में समायी
बिंध गया उपहास-शर से फूल-सा कोमल कलेजा
दर्द का यह बोझ अब मुझसे नहीं जाता सहेजा
आँसुओं का वेग मन के बाँध से रुकता नहीं है
साँस का यह कारवाँ हा! क्या करूँ, थकता नहीं है
क्या हुआ जो कट गये बंधन तुम्हारे क्रूर हाथों
टीस-पीड़ा-वेदना से हो गयी मेरी सगाई
दर्द तो इतना दिया लेकिन, दवा तुम दे न पायी
याचना मेरी तुम्हारा द्वार छू कर लौट आयी
-1.11.1973
व्यथा समिधा बनी है
हृदय की बीन के ये तार कुछ यों झनझनाते हैं
कुँआरी नींद को सपने सुहागिन कर न पाते हैं
सिसकते प्रेम के सिर पर बँधा है पीर का सेहरा
न आँसू पी सके मन; आँख पर आदर्श का पहरा
किसी की बेवफाई से हुई मन की सगाई है
लिये आँसू हजारों इश्क की बारात आयी है
बजाते श्याम घन शहनाइयाँ दृग-ब्याह-मंडप में
महकती याद के चुम्बन सुमंगल गान गाते हैं
उदासी की हथेली पर रचायी टीस ने मेंहँदी
व्यथा समिधा बनी है, सुलगती है विरह की बेदी
कराहे क्रूर नियमों से बिंधी छवि-छंद की छाती
विभाशित प्राण के मंगल कलश पुर दर्द की बाती
स्वयंवर वर्जना के डमरुओं से गूँज जाता है
मिलन दुर्लभ, हुआ क्या शिव-धनुष शत टूट जाते हैं
-14.12.1974
मत निहारो कि दरपन पिघल जायेगा
काँच को रूप की आँच लग जायगी
मत निहारो कि दरपन पिघल जायगा
कुन्तलों से न सावन बिखेरा करो
यह बहारों का मौसम बदल जायगा
यूँ ही साँसों से साँसें मिलाती रहो
आँख में आँख डाले पिलाती रहो
पालने पर पलक के झुलाती रहो
हुस्न के इस नशे को जिलाती रहो
वर्ना आ जायगा होश बेहोश को
लड़खड़ाता ये आलम सँभल जायगा
स्याह नागिन-सी चोटी का गल-हार है
रस कलश युग्म प्राणों का आधार है
आँजना रेख काजल की बेकार है
यह नजर तो यूँ ही तीर-तलवार है
तिरछे-तिरछे न मुड़-मुड़ के ताका करो
मुँह को आया कलेजा फिसल जायगा
हँस के, रह-रह के यूँ लो न अँगड़ाइयाँ
टूट कर ये सितारे बिखर जायँगे
चाँद को बदलियों से न बाहर करो
इन बहारों के तेवर सँवर जायँगे
ये नियम कायदे सब रहेंगे धरे
दिल ही तो है, किसी दिन मचल जायगा
है प्यार यहाँ करना मुश्किल
समझो है पीर बराबर जब हों चारों आँखें भरी-भरी
जग ने फेंकी होंगी तक-तक कंकरियाँ कस कर रुक-रुक कर
फूटी होगी शायद दोनों रस छलकाती मन की गगरी-
है प्यार यहाँ करना मुश्किल
कर लो तो है जीना मुश्किल
हम प्यासे ही रह जाते हैं
पानी रहते पीना मुश्किल
तेवर के तीर बरसते हैं, पग-पग पर व्याधे बसते हैं
मिलने को प्राण तरसते, पर हिरनी-सी आँखें डरी-डरी
कलियाँ खिलने को अकुलातीं
बाँहों में झूल-झूल जातीं
तब तथाकथित नैतिकता की-
त्यौरियाँ हजारों बल खातीं
पर्दे के भीतर रातों को नित रास रचाये जाते हैं
धर्मों की नीवों पर पापों के महल उठाये जाते हैं
लेकिन यदि सच्ची लगन लगी, कुहराम मचा देती नगरी
-आकाशवाणी के पटना केंद्र से प्रसारित
9.11.1973
ऊपर तो मात्र धुआँ जाता
प्राणों की कोयल तो उड़ कर जा बैठी अनजाने तरु पर
सिसकी भर-भर, छल-छल आँखों हम नंगी डाल निहार रहे
जब तक साँसें थीं, जीवन था
जब तक कोयल थी, मधुवन था
साँसें न रहीं, जीवन न रहा
कोयल न रही, मधुवन न रहा
कूहू के बैन सुना कर ही तो मधुवन देता था परिचय
स्वर की रूठी रानी को अब तरु रो-रो चीख-पुकार रहे
आने में नौ-दस मास लगे
जाना तो हुआ निमिष भर में
खुशियां लेकर आये, लौटे-
कुहराम मचा कर घर-घर में
आलिंगन से, भुजपाशों से जाने वाला कब रुका यहाँ
डबडब आँखों, आश्वासन से हम सूनी माँग सँवार रहे
चन्दन-केशर से पुता बदन
जल-जल कर राख हुआ जाता
सब कुछ तो यहीं धरा रहता
ऊपर तो मात्र धुआँ जाता
मिट्टी में मिट्टी मिल जाती, जल जल में घुल-मिल जाता है
जाने वाले के पीछे तो बस दारुण हाहाकार रहे
सोने-चाँदी की रौनक में
यों ही दुनिया भरमायी है
जितनी ज्यादा आँखें गीली
बस, उतनी ही ऊँचाई है
कुछ ऐसा कर तू ही न तरे, संसार तरे, तेरे पीछे-
यश का जय-घोष रहे, जन-जन के कंठों में जयकार रहे
-11.12.1974
जय शारदे
जय-जयति-जय-जय शारदे !
अयि शारदे ! मा शारदे !!
मन बीन को झंकार दे
सद्भाव-पारावार दे
अभिनव स्वरों का ज्वार दे
मा शारदे ! मा शारदे !!
पद-पद्म का आधार दे
मा ! अमित प्यार-दुलार दे
रस की अमिय बौछार दे
मा शारदे ! मा शारदे !!
कवि-कल्पना को धार दे
कृति को निखार-सँवार दे
श्री, सिद्धि, जय-जयकार दे
मा शारदे ! मा शारदे !!
मस्ती का गीत
बीता है आज खुशी से दिन फिर कल की चिन्ता कौन करे
तकदीरों पर, तदबीरों पर
युग-युग से मानव रोता है
उसको समझाये कौन यह कि-
होनेवाला ही होता है
दुनिया की कौन कहे-अपने
तन से दो दिन का नाता है
आता नर खाली हाथ और-
खाली वापस हो जाता है
पिंजरे से दूर खड़ा कोई-
जब चुपके हमें बुलाता है
उड़ जाती प्राण-पिकी हौले,
घर सुलग-सुलग जल जाता है
पीछे मुट्ठी भर भस्म और-
यश-अपयश ही रह जाता है
जग इन बातों को क्या समझे
जग इस चर्चा को क्या जाने
दुख में ही सुख पाने वाले
अल्हड़ कवि को क्या पहचाने
मेरे कवि ने यह समझा है
मेरे कवि ने यह जाना है
अपने को, ईश्वर को, इनको-
उनको, सबको पहचाना है
इसलिए हमेशा कहता हूँ-दुख दर्दों के इस आलम में
आँसू की मधुरिम रिमझिम में-मंगल की चिन्ता कौन करे ?
मैं तो न कभी मन्दिर-मन्दिर
घण्टियाँ डुलाता हूँ
मैं तो न पत्थरों पर कोमल
फल-फूल चढ़ाता हूँ
मैं तो अपने मन-मन्दिर में
भगवान बुलाता हूँ
आँसू के फूल चढ़ा, दर्दों-
की बीन बजाता हूँ
गाता हूँ दुख के गीत-
झूमकर उसे सुनाता हूँ
कुछ ‘उसकी’ सुनता-गुनता हूँ
कुछ ‘उसे’ सुनाता हूँ
वर्षों से इसी मधुर मंगल-
एकांत अर्चना में-
अंतर की आँखें खोल
ब्रह्म के दर्शन पाता हूँ
जब घर में ही भगवान बसे, जंगल की चिन्ता कौन करे
पोथी पतरे, चंदन-चिमटे, वल्कल की चिन्ता कौन करे ?
पीने को अंजलि भर जल,
खाने को मुट्ठी भर नाज मिला
जब तन को कुछ चिथड़े; सिर ढँपने-
को काँटो का ताज मिला
गाने को जीवन-गीत, बजाने-
को दर्दों का साज मिला
जब नभ से क्षिति तक गूँज
रही-आवाजों का अंदाज मिला
अंतर की आँखें खुलीं और-
जब जन्म-मरण का राज़ खुला
पावन आँसू की बूँदों से जब-
प्राणों का अज्ञान धुला
तब चरणामृत, तुलसीदास, गंगाजल की चिन्ता कौन करे ?
जब अपनी राह अलग जग के दलदल की चिन्ता कौन करे ?