वृन्द के दोहे / भाग १
नीति के दोहे
रागी अवगुन न गिनै, यहै जगत की चाल ।
देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 1
अपनी पहुँच विचारिकै, करतब करिये दौर ।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 2
कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर॥ 3
विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन ।
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन ॥ 4
बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।
जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥ 5
मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥ 7
सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥ 8
अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।
ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥ 9
लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।
चाटेहूँ कहुँ ओस के, मिटत काहु की प्यास ॥ 10
वृन्द के दोहे / भाग २
नीति के दोहे
जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥ 11
अपनी-अपनी गरज सब, बोलत करत निहोर ।
बिन गरजै बोले नहीं, गिरवर हू को मोर ॥ 12
जैसे बंधन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और ।
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकलै भौंर ॥ 13
स्वारथ के सबहिं सगे,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।
सेवै पंछी सरस तरु, निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14
मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पंडित होय ।
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥ 15
बिन स्वारथ कैसे सहे, कोऊ करुवे बैन ।
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन ॥ 16
होय बुराई तें बुरो, यह कीनों करतार ।
खाड़ खनैगो और को, ताको कूप तयार ॥ 17
जाको जहाँ स्वारथ सधै, सोई ताहि सुहात ।
चोर न प्यारी चाँदनी, जैसे कारी रात ॥ 18
अति सरल न हूजियो, देखो ज्यौं बनराय ।
सीधे-सीधे छेदिये, बाँको तरु बच जाय ॥ 19
कन –कन जोरै मन जुरै, काढ़ै निबरै सोय ।
बूँद –बूँद ज्यों घट भरै, टपकत रीतै तोय ॥ 20
वृन्द के दोहे / भाग ३
नीति के दोहे
कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचौ नीर ॥21
उद्यम कबहूँ न छाड़िये, पर आसा के मोद ।
गागर कैसे फोरिये, उनयो देकै पयोद ॥22
क्यों कीजे ऐसो जतन, जाते काज न होय ।
परबत पर खोदै कुआँ, कैसे निकरै तोय ॥ 23
हितहू भलो न नीच को, नाहिंन भलो अहेत ।
चाट अपावन तन करै, काट स्वान दुख देत ॥ 24
चतुर सभा में कूर नर, सोभा पावत नाहिं ।
जैसे बक सोहत नहीं, हंस मंडली माहिं ॥ 25
हीन अकेलो ही भलो, मिले भले नहिं दोय ।
जैसे पावक पवन मिलि, बिफरै हाथ न होय ॥ 26
फल बिचार कारज करौ, करहु न व्यर्थ अमेल ।
तिल ज्यौं बारू पेरिये, नाहीं निकसै तेल ॥ 27
ताको अरि का करि सकै, जाकौ जतन उपाय ।
जरै न ताती रेत सों, जाके पनहीं पाय ॥ 28
हिये दुष्ट के बदन तैं, मधुर न निकसै बात ।
जैसे करुई बेल के, को मीठे फल खात ॥ 29
ताही को करिये जतन, रहिये जिहि आधार ।
को काटै ता डार को, बैठै जाही डार ॥ 30
वृन्द के दोहे / भाग ४
नीति के दोहे
गुन-सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत ।
गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति उदोत ॥31
ऊँचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात ।
घन तें गिरि पर गिरत जल, गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32
आए आदर न करै, पीछे लेत मनाय ।
घर आए पूजै न अहि, बाँबी पूजन जाय ॥33
उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय ।
पर्यौ अपावन ठौर को, कंचन तजत न कोय ॥34
दुष्ट न छाड़ै दुष्टता, बड़ी ठौरहूँ पाय ।
जैसे तजै न स्यामता, विष शिव कण्ठ बसाय ॥35
बड़े-बड़े को बिपति तैं, निहचै लेत उबारि ।
ज्यों हाथी को कीच सों, हाथी लेत निकारि ॥36
दुष्ट रहै जा ठौर पर, ताको करै बिगार ।
आगि जहाँ ही राखिये, जारि करैं तिहिं छार ॥37
ओछे नर के चित्त में, प्रेम न पूर्यो जाय ।
जैसे सागर को सलिल, गागर में न समाय ॥38
जाकौ बुधि-बल होत है, ताहि न रिपु को त्रास ।
घन –बूँदें कह करि सके, सिर पर छतना जास ॥39
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।
जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घट जात ॥40
वृन्द के दोहे / भाग ५
नीति के दोहे
करत-करत अभ्यास ते, जडमति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान॥41॥
जो पावै अति उच्च पद, ताको पतन निदान।
ज्यौं तपि-तपि मध्यान्ह लौं, अस्तु होतु है भान॥42॥
जो जाको गुन जानही, सो तिहि आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है, काग निबौरी लेत॥43॥
मनभावन के मिलन के, सुख को नहिंन छोर।
बोलि उठै, नचि नचि उठै, मोर सुनत घन घोर॥44॥
सरसुति के भंडार की, बडी अपूरब बात।
ज्यौं खरचै त्यौं-त्यौं बढै, बिन खरचे घटि जात॥45॥
निरस बात सोई सरस, जहाँ होय हिय हेत।
गारी प्यारी लगै, ज्यों-ज्यों समधिन देत॥46॥
ऊँचे बैठे ना लहैं, गुन बिन बडपन कोइ।
बैठो देवल सिखर पर, बायस गरुड न होइ॥47॥
उद्यम कबहुँ न छोडिए, पर आसा के मोद।
गागरि कैसे फोरिये, उनयो देखि पयोद॥48॥
कुल कपूत जान्यो परै, लखि-सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात॥49॥
मोह महा तम रहत है, जौ लौं ग्यान न होत।
कहा महा-तम रहि सकै, उदित भए उद्योत॥50॥
वृन्द के दोहे / भाग ६
कछु कहि नीच न छेडिए, भले न वाको संग।
पाथर डारै कीच मैं, उछरि बिगारै अंग॥51॥
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर॥52॥
बुरे लगत सिख के बचन, हिए बिचारो आप।
करुवे भेषज बिन पिये, मिटै न तन को ताप॥53॥
फेर न ह्वैहैं कपट सों, जो कीजै ब्यौपार।
जैसे हांडी काठ की, चढै न दूजी बार॥54॥
नैना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निरमल आरसी, भली-बुरी कहि देत॥55॥
अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चंदन देत जराय॥56॥
भले बुरे सब एक से, जौं लौं बोलत नाहिं।
जान परतु है काक पिक, रितु बसंत का माहिं॥57॥
सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौं, दीपहिं देत बुझाय॥58॥
अति हठ मत कर हठ बढे, बात न करिहै कोय।
ज्यौं-ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय॥59॥