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व्योमेश शुक्ल ’की रचनाएँ

जस्ट टियर्स

[ इस लम्बी कविता में दर्ज़ लोग और भूगोल, दर्द और दिक्क़तें नई नहीं हैं, नया है वह कहन, जिसे व्योमेश शुक्ल अपनी कविताओं में मुमकिन करते रहे हैं । आत्मधन्य निज और नकली प्रतिकार की बजाय यहाँ ख़ुद अपनी और परिवेश की बेधक पहचान है, उसमें बहाल, बुलंद और बर्बर होती जा रही चीज़ों, लोगों और घटनाओं को उनके सही नाम से पुकारने का साहस और विवेक है। कई आईने हैं, कई अक्स । ]

भीड़ बढ़ी तक़लीफ़ें बढ़ीं मामा की दवा की दुकान में आकर लोग दवाई माँगने लगे. कुछ लोग सिर्फ़ फुटकर करवाने आते थे जिनसे कहना होता था कि ‘नहीं’. कुछ लोग कुछ लोगों का पता पूछने आते थे जिनसे कहना होता था ‘उधर से उधर से उधर’.

ज़िला अस्पताल के बाहर एक पेड़ था और मरीज़ को उसका नाम नहीं मालूम था. वसंत में उसका यौवन और उसकी खिली हुई आपत्तियां नहीं मालूम थीं. उसे अपनी बीमारी का नाम नहीं मालूम था. उसे अपने गाँव का नाम मालूम था. एक दिन एक लड़की ने मुझसे पूछा कि तुमने अस्पताल के बाहर वाले पेड़ का अजीब देखा है तो मैंने कहा कि हाँ. यह देखने का साझा था. मैं उस पेड़ को हिमाक़त या व्यस्त सड़क पर अतिक्रमण मानना चाहता था लेकिन लड़की के सवाल के बाद कुछ दिनों के लिए मैंने यह मानना चाहना टाल दिया.

लुब्रिकेशन कम हो गया था. हर चीज़ दूसरी चीज़ से रगड़ खा रही थी. माँ के घुटनों की तरह. हर पहले और हर दूसरे के बीच तीसरे तत्व का अभाव था. पलक झपकाने में भी बड़ा घर्षण था. लोग एकटक देखते रह जाते थे. यह देखने की मजबूरी थी. आँखों की बीमारी. कुछ लोगों को लगता था कि इसका इलाज हो सकता है. अब आँखों और पलकों के बीच की चीज़ गायब थी तो रोना मुश्किल हो गया. लोग रोने के लिए घबरा गए. बांधों, घड़ियालों और दलालों को भी दिक्कत हो गई. डॉक्टर पेड़ के अजीब के पड़ोस में बैठकर लुब्रिकेशन की दवा लिखने लगे. दवाई का नाम था जस्ट टियर्स.

मैं बहुत खुश होकर रोने की दवाई बेचने लगा.

जस्ट टियर्स. यह जस्ट फिट का कुछ लगता था. फूफा के लड़के का दोस्त टाइप कुछ. जस्ट फिट और जस्ट टियर्स के बीच कुछ था जो हर पहले और हर दूसरे के बीच के तीसरे तत्व की तरह आजकल नहीं था जैसे जस्ट फिट नाम की दुकान के ऊपर रहने वाले इंसान और जस्ट टियर्स नाम की दवाई बेचने वाले इंसान के बीच कुछ था जो आजकल नहीं था.

रोना लुब्रिकेशन की कमी दूर कर देता. मैं रोना चाहने लगा. बाँधों, घड़ियालों और दलालों की तरह. मैं बाँध होना चाहने लगा. भाखड़ा नांगल, हीराकुंड या रिहंद. मैं नेहरू के ज़माने का नवजात बाँध होता तो राष्ट्र की संपत्ति होता. मेरे बनने में सबकी दिलचस्पी होती. पन्द्रह दिन पर पंत जी और महीना पूरा होने पर पंडित जी मेरा जायज़ा लेने आते. मैं बहुत-से लोगों को विस्थापित कर देता और बहुत-सी मछलियों को संस्थापित लेकिन विस्थापितों के लिए रोने में मुझे जस्ट टियर्स की ज़रूरत न पड़ती. लुब्रिकेशन खत्म न हो गया होता. मेरे और विस्थापितों के बीच कुछ न कुछ होता. मेरे भीतर बहुत-सा पानी होता और बहुत-सी बिजली और बहुत-सी नौक़री और बहुत-से फाटक और बहुत-सी कर्मठता और और बहुत-सी ट्रेड यूनियनें और बहुत-सी हड़ताल और और बहुत-सी गिरफ़्तारी और बहुत-सी नाफरमानी.

मैं कहना न मानता. अन्धकार और दारिद्र्य में मैं पीले रंग का बल्ब बनकर जलता. मुझे बचाने और बढ़ाने की कोशिशें होतीं. मेरा भी दाम्पत्य होता और वसंत पंचमी होती मेरी शादी की सालगिरह. मैं मिठाई बाँटता और पगले कवि की तरह कहता कि मेरा जन्मदिन भी आज ही है. पेड़ के अजीब के साथ मेरा बराबरी का रिश्ता होता. मैं उसके कान में फुसफुसाता : ‘फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन…मफैलुन, मफैलुन…’. मेरे पेट में गाद न जमा होती. मुश्किल में मेरे दरवाज़े कभी भी खुल सकते होते. बिना घूस लिए उत्तर प्रदेश जल निगम जारी करता मेरे स्वास्थ्य का प्रमाण-पत्र. मैं बार-बार खाली होता और बार-बार भरा जाता. मुझसे कमाई होती और कुछ लोग मुझे आधुनिक भारत का मंदिर बताते. मैं सपाइयों-बसपाइयों के हत्थे न चढ़ा होता.

मैं सिद्धांत होता और कुछ देर के लिए ही सही, मैं बहस के एजेंडे को पलट देता. फिर सारी बातचीत पानी पर होने लगती. नागरी प्रचारिणी सभा की तरह मेरा पटाक्षेप न हो गया होता. नेशनल हेराल्ड की तरह, मैं धीरे-धीरे खत्म होता और कुछ कम भ्रष्ट लोग ही मेरे आसपास नज़र आ पाते. मेरे विनाश के अकल्पनीय नतीजे होते. मैं कुत्ते की मौत न मरा होता. मेरे उद्धार की कोशिशें होतीं और अंततः मैं एक प्रहसन बन गया होता. मैं बीमार हो पाता मेरे भी आँसू खत्म हुए होते मुझे भी जस्ट टियर्स की ज़रूरत होती.

मैं बाँध नहीं हो पाया मेरी चिता पर मेले नहीं लगे मैं दवा की दुकान पर बैठने लगा तो मैं पेड़ के अजीब को हिमाक़त या व्यस्त सड़क पर अतिक्रमण मानने ही वाला था कि एक लड़की ने मुझसे पूछा कि हर पीछे आगे होता है और हर आगे पीछे होता है न ? तो मैंने जवाब देने की बजाय सोचा कि जीवन कितना विनोदकुमार शुक्ल है फिर मैंने सोचा कि विनोदकुमार शुक्ल जा रहे होते तो यह कहने की जगह कि जा रहा हूँ, कहते कि आ रहा हूँ फिर मैंने सोचा कि अगर संभव हुआ तो मैं विनोदकुमार शुक्ल से वाक्यविन्यास से ज़्यादा कुछ सीखूंगा फिर मैं आगे चला गया फिर मैंने पाया कि जीवन कितना कम विनोदकुमार शुक्ल है.

लुब्रिकेशन विनोदकुमार शुक्ल की तरह कम हो गया था. हर चीज़ दूसरी चीज़ से रगड़ खा रही थी. जर्जर पांडुलिपियाँ एकदूसरे से रगड़ खाकर टूट रही थीं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘सरस्वती’ की पांडुलिपियों का बंटाधार हो गया. भारतेंदु की ‘कवितावर्धिनी सभा’और ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ की फ़ाइलें पहले ही ठिकाने लग गई थीं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल-संपादित ‘हिंदी शब्द सागर’ को ‘सभा’ के ठेकेदारों ने गैरकानूनी तरीक़े से, पैसा लेकर ‘डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन’, युनाइटेड स्टेट्स की ‘साउथ एशियन डिक्शनरीज़’ नाम की वेबसाइट को बेच दिया है. यानी, अब वह शब्दसागर बनारस में नहीं है अमेरिका में है. लेकिन जैसा कि अमेरिकीकरण के हर आयाम के बारे में सच है, उसमें कुछ न कुछ मज़ा ज़रूर होता है, वह शब्दसागर भी इन्टरनेट पर लगभग मुफ़्त देखा जा सकता है. ठीक है कि पिछले पचास सालों में यह डिक्शनरी एक बार भी अपडेट नहीं हुई है, होगी भी नहीं, लेकिन अब, कम-से-कम देखी तो जा सकती है. एक मज़ा और भी है. इस बार पहले और दूसरे के बीच तीसरा तत्व है. हमारे और शब्दसागर के बीच अमेरिका है. और क्या तो लुब्रिकेशन है.

मैं पेड़ के अजीब को हिमाक़त या व्यस्त सड़क पर अतिक्रमण मानने ही वाला था कि एक लड़की ने मुझसे पूछा कि पब्लिक सेक्टर क्या होता है तो मुझे लगा कि यह खंडहर में जाने की तैयारी है. मैंने लड़की से कहा कि कल बताऊंगा. फिर मैं एक उजाड़ विषय का अध्यापक होना चाहने लगा. पेड़ के अजीब, बाँध और शब्दसागर की तरह मैं पब्लिक सेक्टर होना चाहने लगा. पब्लिक सेक्टर बनने के बाद ज़ोरज़ोर से बोलना पड़ता, फिर भी लोग सुन न पाते तो मैं और ज़ोर से बोलने की तैयारी करने लगा. यह तेज़ आवाज़ में अप्रिय बातें कहने का रिहर्सल था. फिर लड़की ने पूछा कि पहले सरकार ब्रेड क्यों बनाती थी और होटल क्यों चलाती थी तो मन हुआ कि कह दूँ कि अरुण शौरी उन्हें दलाली लेकर बेच सकें इसलिए, लेकिन तभी यह ख़याल आया कि सरकारी ब्रेड की मिठास लुब्रिकेशन की तरह खत्म है तो मैंने बुलंद आवाज़ में कहना शुरू किया कि तब तीसरी दुनिया के किसी भी देश में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सम्मेलन करने लायक कांफ्रेंस हॉल और शामिल देशों के प्रमुखों को टिकाने की जगह नहीं थी. आईटीडीसी का दिल्ली वाला होटल इसीलिए बना था. फिर यह जानते हुए कि कितना भी तेज़ बोलूँ, यह बात किसी को सुनाई नहीं देगी, मैंने कहना शुरू किया कि प्रतिकार के लिए कभी-कभी पाँच सितारा होटल भी बनाना पड़ता है. फिर मैंने पेड़ के अजीब की तरह कहा कि प्रतिकार भी करें हम रचना भी करें और बाँध की तरह कहा कि हमारी रचना हमारा प्रतिकार और शब्द सागर की तरह कहा कि प्रतिकार रचना होता ही है.

लुब्रिकेशन प्रतिकार की तरह कम हो गया था. मैं प्रतिकार की सही दिशा और उसका ठीक समय होना चाहने लगा. मैं प्रतिकार पढ़ना चाहने लगा तो मेरे अध्यापक ने मुझसे कहा कि पहले तुम्हें नकली प्रतिकार से चिढ़ना सीखना होगा. उन्होंने खाँसते-खाँसते कहा कि जिस बात से लोकतंत्र में तुम्हारा भरोसा कम होता हो वह अराजनीतिक बात है फिर उन्होंने कहा कि सारी बातें राजनीतिक बातें होनी चाहिए फिर उन्होंने कहा कि आंदोलन अगर लोकतंत्र को मज़बूत नहीं बनाता तो वह व्यक्तिवाद और पाखंड है फिर उन्होंने कहा कि अत्याचारी का कहना मत मानो.

मैं घूमने चला गया तो जो आदमी घूमने की जगह के बाहर संतरी बनकर खड़ा था उसने पूछा कि तुम किस नदी के हो. मैंने कहा कि मैं एक परिवार एक गाँव एक कस्बे एक शहर एक राज्य का हूँ और यह पहली बार तुमसे पता चला कि मुझे किसी नदी का भी होना चाहिए उसने कहा कि तुम किसी-न-किसी नदी के होते ही हो क्योंकि हरेक किसी-न-किसी नदी का होता है. हमलोग किसी-न-किसी नदी के होते हैं और यह हमें कभी पता होता है कभी नहीं पता होता. उसने आगे कहा कि यह न जानना कि हम किस नदी के हैं, नदी की हत्या करना है. मैंने कहना चाहा कि नदियाँ लुब्रिकेशन की तरह कम हो गई हैं लेकिन संतरी से डर गया.

तब से मैंने कुछ नहीं कहा है.

प्रकृति

वह कई बार

पेड़ों और

दूसरी वनस्पतियों के

पास जाता है लेकिन

वह उनके नाम कम ही जानता है

अपरिचय है यह जानने के बावजूद के ये

एक बड़ी सचाई है दुनिया में

ज्यादा जगह घेरती हैं

जैसे नदियाँ झीलें समुद्र या दूसरे पानी या दूसरे हरे

जब वह इन सब के

बीच होता है तो अपने से अकेला होता है

जैसे यदि इन्हें नहीं जानता या कम जानता है

तो खुद को भी नहीं जानता या

कम जानता हो जाता है

उसके लिए प्रकृति चित्र है

एक बड़ा चित्र

वह शहर में पैदा हुआ

उसने चीज़ों और लोगों को करीब देखा है

और इन करीबों के बीच को ही वह

दूरी की तरह समझ सका

वह अपनी निगाह को

एक छोटे से इर्द-गिर्द में ही

हमेशा रखता आया

इतने बड़े दृश्य पर वह

दृष्टि को कहाँ रखे

उसे एहसास होता है कि

आँखों को इतने विराट में

आराम मिलता होगा

इस तरह देह को भी।

प्रकृति के बीच में वह

चुप हो जाता है

अजनबियों से क्या बोले ?

मैं जो लिखना चाहता था

आँख से अदृश्य का रिश्ता है

मुझे लगा है सारे दृश्य

अदृश्य पर परदा डालते हुए होते हैं

जो कुछ नहीं दिखा सब दृश्य में है

और नहीं दिख रहा है

विजय मोटरसाइकिल मिस्त्री की दुकान शनिवार को खुली हुई है

और उस खुले में दुकान की रविवार बन्दी

नहीं दिखाई दी लेकिन सोमवार को खुला दिख रहा है

इसका उलट लेकिन एक छुट्टी के दिन हुआ

दुकान बन्द थी

बन्द के दृश्य में दुकान अदृश्य रूप से खुली हुई थी

और लोग पता नहीं क्यों

उस दिन मज़े लेकर मोटरसाइकिल बनवा रहे थे

मेरे पास सिर्फ़ एक खचाड़ा स्कूटर है कोई मोटरसाइकिल नहीं है

लेकिन मैं भी सिगरेट पीता हुआ एक बजाज पल्सर बनवा रहा था

अदृश्य से घबड़ा कर मैं दृश्य मैं चला आया

और दोस्त से पूछने लगा इस दुकान के बारे में

तो वह बोला कि आज यह दुकान

ज़्यादा याद आ रही है क्या पता अपनी याद में खुली दुकान में

वह भी मेरी सिगरेट आधी पी रहा हो

मैंने घर आकर मन में कहा पांडिचेरी मैं वहाँ कभी नहीं गया हूँ

वहाँ का सारा स्थापत्य मैंने ख़ुद को बताया कि

पांडिचेरी शब्द की ध्वनि के पीछे है

लेकिन है जरूर

फिर मैंने एक वाक्य लिखना चाहा

लिखने पे चाह अदृश्य है शब्द दृश्य हैं

शब्द की वस्तुएँ दिखाई दे रही हैं और

जो मैं कहना चाहता था उसका कहीं पता नहीं है

वह शायद वाक्य के परदे में है

वह नहीं वह है मैं जो नहीं लिखना चाहता था वह कतई नहीं है

6 दिसम्बर, 2006

पहली और अन्तिम बार

आज 6 दिसम्बर 2006 है

दूसरी चीजें बार-बार हैं

आज गर्व करने लायक धूप और गर्म हवा है

हमेशा की तरह

बच्चे प्रार्थनाएँ और राष्ट्रगान हल्का बेसुरा गा रहे हैं

इसके बाद स्कूल बन्द हो गए

एक प्रत्याशी दिशाओं को घनघोर गुँजाता हुआ कुछ देर पहले नामांकन करने कचहरी

गया है

हमेशा की तरह

एक आदमी फोन पर हँसा बोला

गुटका 1 रुपये का है आज भी

खरीदो खाओ

ठोंक पीट हवा इंजन बोलने रोने चोंने की आवाज़ें हैं

हमेशा की तरह

पंखे और वाटर पम्प बनाने वाली एक छोटी कम्पनी

आज पहली और अन्तिम बार ज़मींदोज हुई है

हमेशा की तरह

चौदह भाई बहन

झेंप से पहले परिचय की याद उसी दिन की

कुछ लोग मुझसे पूछे तुम कितने भई बहन हो

मैंने कभी गिना नहीं था गिनने लगा

अन्नू दीदी मीनू दीदी भानू भैया नीतू दीदी

आशू भैया मानू भैया चीनू दीदी

बचानू गोल्टी सुग्गू मज्जन

पिण्टू छोटू टोनी

तब इतने ही थे

मैं छोटा बोला चौदह

वे हँसे जान गये ममेरों मौसेरों को सगा मानने की मेरी निर्दोष गलती

इस तरह मुझे बताई गई

माँ के गर्भ और पिता के वीर्य की अनिवार्यता

और सगेपन की रूढ़ि

आज-1

जब घर के लोग काम पर या कहीं चले जाते हैं

वे दिनचर्या के तट पर जाकर हँसने लगती हैं लेकिन

आज वे अपनी ज़िम्मेदारियों के छत पर खड़ी

पतंगें उड़ा रही हैं

आसमान में उन्होंने अपनी पतंगें

इतनी दूर तक बढ़ा दी हैं

कि ओझल हो गई हैं

उन्हें वापस लाने में समय लग जाएगा

आज दूसरे कामों का हर्जा होगा

खाना देर में बनेगा कपड़ा देर से धुलेगा

नीचे फ़ोन की घंटी देर तक बजती रहेगी कोई नहीं उठाएगा

एक व्यक्ति दरवाज़ा खटाखटा कर लौट जाएगा

कोई किसी को कुछ देने या किसी से कुछ कहने आएगा तो

यह नहीं हो पाएगा

वे छत पर हैं

आज़-2

आज कोई उससे बोल नहीं रहा है

वह भी ख़ुद को छिपाते हुए

उसकी कोमलता निष्ठा और साहस के साक्ष्य

आज पापा की गिरफ़्त में

प्रेमपत्र कहीं से घर के हत्थे लग गए

यह भी संभव

मैं आठ से ग्यारह साल का था और मेरी शादी नहीं हुई थी
चिढ़ाने और डराने के लिए बाइस साल का बदनाम हट्टाकट्टा श्याम सुंदर
सामने आकर गाने लगता था–जिसकी बीबी मोटी उसका भी बड़ा नाम है
मैं मोटा नहीं था अम्मा स्वस्थ थीं यानी
इस कूटभाषा में बीबी का मतलब माँ था

मुझे सुनाने के लिए बार बार इसे तब गाया गया

धुनों और उपमाओं का इस्तेमाल इस तरह भी संभव है

आर्केस्ट्रा

पतली गली है लोहे का सामान बनता है
बनाने वाले दृढ़ ताली निश्चित लय में ठोंकते हैं
हथौड़ी की उंगली
लोहे का ताल
धड़कनों की तरह आदत है समय को यह
समय का संगीत है
ठ क ठ क ठ क ठ क
या
ठकठक ठकठक ठकठक ठकठक

और भी लयें हैं सब लगातार हैं
लोगों को आदत है लयों का यह संश्लेष सुनने की
हम प्रत्येक को अलग-अलग पहचानते हैं
और साथ-साथ भी

एक दिन गली में लड़का पैदा हुआ है और
शहनाइयां बज रही हैं
पृष्ठभूमि में असंगत लोहे के कई ताल
एक बांसुरी बेचनेवाले बजाता हुआ बांसुरी
गली में दाखिल है और
बांसुरी नहीं बिकी है शहनाई वाले से अब बात हो रही है
वह बातचीत संगीत के बारे में नहीं है पता नहीं किस बारे में है
एक प्राइवेट स्कूल का ५०० प्रति माह पाने वाला तबला अध्यापक
इस दृश्य को दूर से देख रहा है

लेकिन तुम हो कि मुकद्दमा लिखा देती हो

तुम शब्बर चाचा के घर की बग़ल में भी रह सकती थी
तुम गुलिस्ताँ प्राइमरी स्कूल में पढ़ भी सकती थी
तुम्हारे अब्बू शहनाई भी बजा सकते थे

लेकिन बासठ की उमर में तुम उठती हो और वर्सोवा पुलिस थाने जाकर अपने इकहत्तर
साल के पति नेताजी सालंके के खिलाफ उत्पीड़न का मुकद्दमा लिखा देती हो

तुम्हारे साथ बदसलूकी हुई है
तुम्हें थोड़ा आराम कर लेना चाहिए
तुम जो कर सकती थी कर आई हो
और ये दुबली-पतली खबर देश में फैल भी गई है
फ्लैट का दरवाजा भीतर से बंद कर लो

थोड़ी देर में आएगा दिनेश ठाकुर हाथ में रजनीगंधा के फूल लिए
या अमोल पालेकर भी आ सकता है या मैं भी आ सकता हूँ
कोई न कोई आएगा
उसके दरवाजा खटखटाते ही फिल्म शुरू होती है
साठ के अंत की फिल्म सत्तर के शुरू की फिल्म
शहर आने की फिल्म
जेल जाने की फिल्म
बहुत ज्यादा लोगों से कम लोगों की फिल्म
पब्लिक ट्रांसपोर्ट की फिल्म
या पब्लिक सेक्टर की फिल्म शुरू होती है एक फ्लैट का दरवाजा खटखटाने से

लेकिन मेरे और तुम्हारे बीच
सिर्फ दरवाजे भर की दूरी नहीं है

बहुत से जमाने हैं बहुत से लोग
विद्याचरण शुक्ल हैं और बी आर चोपड़ा हैं और प्रकाश मेहरा हैं और मनमोहन देसाई हैं
और आनंद बख्शी हैं और ठाँय-ठाँय और ढिशुम-ढिशुम और ढाँ… है और घटिया फिल्में हैं
और अत्यन्त घटिया राजनीति है और आपातकाल है
दरअसल गिरावट के अन्तहीन मुकाबले चल रहे हैं मेरे और तुम्हारे बीच
और तुम हो कि मुकद्दमा लिखा देती हो

मैं जानना चाहता हूँ कि इस समय तुम क्या कर रही होगी क्या हो रही होगी तुम कुछेक
हिन्दी फिल्मों की एक गुमनाम और मीडियाकर अभिनेत्री तुम परवीन बाबी या जीनत अमान
भी तो हो सकती थी तुम मणि कॉल की सिद्धेश्‍वरी में विद्याधरी भी बन सकती थी
तुम मेरी नानी भी हो सकती थी बेटी हो सकती थी तुम वह बहन हो सकती थी जिसकी शादी
तुम्हारे अस्तित्व की तरह ढहा दी गई थी एक दिन मेरी बीबी हो सकती थी तुम

मेरी माँ साठ साल की हैं और तुम बासठ की
मेरी माँ हो सकती थी तुम
मेरी माँ हो सकती हो तुम
अम्मा……………।

यहीं बनता है एक मानवीय सम्बन्ध
मैं इसे दर्ज करता हूँ
और अपने पिता से तुम्हारी बात पक्की करता हूँ
अगर तुम्हें पसंद हो यह सब तभी

लेकिन तुम हो कि मुकद्दमा लिखा देती हो

लगता था

हमें लगता था कि सबकुछ को ठीक करने के लिए
बातचीत के चालूपन में वाक्य विन्यास को क़ायदे से
सँभाल लिया जाय
पैदल या स्कूटर पर चलते समय रीढ़ की हड्डी को
भरसक सीधा रक्खें
अशांत और अराजक सूचनाओं को भी लें धैर्यपूर्वक
फ़र्जी व्होट डालने पोलिंग बूथ में घुस रहे शोहदों को
चीख़-चिल्लाकर भगा दें
अतीत की घटनाएँ औऱ उनके संदर्भ याद
अकारण भी उल्लसित हो पाएँ आदतन ख़ुशामद न करें
अपने-अपने कारणों से विकल लोगों के साथ
एक मानवीय व्यवहार कर सकें
इतना काफ़ी होगा

लेकिन, फिर बहुत समय बीत गया
औऱ अब लगता है कि हमें ऐसा लगता था

नया

(प्रसिद्ध तबलावादक किशन महाराज की एक जुगलबंदी की याद)

एक गर्वीले औद्धत्य में

हाशिया बजेगा मुख्यधारा की तरह

लोग समझेंगे यही है केन्द्र शक्ति का सौन्दर्य का

केन्द्र मुँह देखेगा विनम्र होकर

कुछ का कुछ हो रहा है समझा जायेगा

कई पुरानी लीकें टूटेंगी इन क्षणों में

अनेक चीज़ों का विन्यास फिर से तय होगा

अब एक नई तमीज़ की ज़रूरत होगी

कुछ देर

तुम्हारी दाहिनी भौं से ज़रा ऊपर

जैसे किसी चोट का लाल निशान था

तुम सो रही थी

और वो निशान ख़ुद से जुडे सभी सवालों के साथ

मेरी नींद में

मेरे जागरण की नींद में

चला आया है

इसे तकलीफ या ऐसा ही कुछ कह पाने से पहले

रोज़ की तरह

सुबह हो जाती है

सुबह हुई तो वह निशान वहाँ नहीं था

वह वहाँ था जहाँ उसे होना था

लोगों ने बताया: तुम्हारे दाहिने हाथ में काले रंग की जो चूड़ी है

उसी का दाग रहा होगा

या कहीं ठोकर लग गई हो हल्की

या मच्छर ने काट लिया हो

और ऐसे दागों का क्या है; हैं, हैं, नहीं हैं, नहीं हैं

और ये सब होता रहता है

यों, वो ज़रा सा लाल रंग

कहीं किसी और रंग में घुल गया है

हालाँकि तब से कहीं पहुँचने में मुझे कुछ देर हो जा रही है

पक्षधरता 

हम बारह राक्षस

कृतसंकल्प यज्ञ ध्यान और प्रार्थनाओं के ध्वंस के लिये

अपने समय के सभी ऋषियों को भयभीत करेंगे हम

हमीं बनेंगे प्रतिनिधि सभी आसुरी प्रवृत्तियों के

‘पुरुष सिंह दोउ वीर’ जब भी आएँ, आएँ ज़रूर

हम उनसे लडेंगे हार जाने के लिये, इस बात के विरोध में

कि असुर अब हारते नहीं

कूदेंगे उछलेंगे फिर-फिर एकनिष्ठ लय में

जीतने के लिये नहीं, जीतने की आशंका भर पैदा करने के लिये

सत्य के तीर आएँ हमारे सीने प्रस्तुत हैं

जानते हैं हम विद्वान कहेंगे यह ठीक नहीं

‘सुरों-असुरों का विभाजन

अब एक जटिल सवाल है’

नहीं सुनेंगे ऐसी बातें

ख़ुद मरकर न्याय के पक्ष में

हम ज़बर्दस्त सरलीकरण करेंगे

दीवार पर

गोल, तिर्यक, बहकी हुईं
सभी संभव दिशाओं और कोणों में जाती हुईं
या वहाँ से लौटती हुईं
बचपन की शरारतों के नाभिक से निकली आकृतियाँ

दीवार पर लिखते हुए शरीफ बच्चे भी शैतान हो जाते हैं

थोड़े सयाने बच्चों की अभिव्यक्ति में शामिल वाक्य
जैसे ‘रमा भूत है’, इत्यादि
हल्दी, चाय और बीते हुए मंगल कार्यों के निशान
कदम-कदम पर गहरे अमूर्तन
जहाँ एक जंगली जानवर दौड़ रहा है
दूसरा चीख रहा तीसरा लेटा हुआ है
असंबद्ध विन्यास

एक बिल्कुल सफेद दीवार का सियापा
इस रंगी पुती दीवार के कोलाहल में मौजूद है
ग्रीस, मोबिल, कोलतार और कुछ ऐसे ही संदिग्ध दाग़
जिनके उत्स जिनके कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता
बलगम पसीना पेशाब टट्टी वीर्य और पान की पीक के चिह्न
चूने का चप्पड़ छूटा है काई हरी से काली हो रही है

इसी दीवार के साये में बैठा हुआ था एक आरामतलब कवि
यहीं बैठकर उसने लिखा था
कि कोई कवि किसी दीवार के साये में बैठा हुआ होगा

किशोर

कहने को यही था कि किशोर अब गुब्बारे में चला गया है लेकिन

वहाँ रहना मुश्किल है दुनिया से बचते हुए

खाने नहाने सोने प्यार करने को

दुनिया में लौटना होता है किशोर को भी

यदि कोई बनाये तो किशोर का चित्र सिर्फ काले रंग से बनेगा

वह बाक़ी रंग गुब्बारे में अब रख आता है

वहीं करेगा आइंदा मेकप अपने हैमलेट होरी घासीराम का

यहाँ बड़ी ग़रीबी है कम्पनी के पर्दे मैले और घायल हैं

हनुमान दिन में कोचिंग सेंटर रात में भाँग की दुकान चलाता है

होरी फिर से कर्ज़ में है

और इस बार उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए

कुछ अप्रासंगिक पुराने असफल चेहरे बिना पूछे बताते हैं कि होरी का पार्ट

एक अर्सा पहले, किशोर ही अदा करता था या कोई और करता था

इस बीच एक दिन वह मुझसे कुछ कह रहा था या पैसे माँग रहा था

असफल लोगों को याद है या याद नहीं है

मुझसे किशोर ने कुछ कहा था या नहीं कहा था

विपत्ति है थियेटर घर फूँककर तमाशा देखना पड़ता है

दर्शक आते हैं या नहीं आते

नहीं आते हैं या नहीं आते

भारतेंदु के मंच पर आग लग गई है लोग बदहवास होकर अंग्रेजी में भाग रहे हैं

किशोर देखता हुआ यह सब अपने मुँह के चित्र में खैनी जमाता है ग़ायब हो जाता है

शाहख़र्च रहा शुरू से अब साँस ख़र्च करता है गुब्बारे फुलाता है

सुरीला था किशोर राग भर देता है गुब्बारों के खेल में बच्चे

यमन अहीर भैरव तिलक कामोद उड़ाते हैं अपने हिस्से के खेल में

बहुत ज्यादा समय में बहुत थोड़ा किशोर है

साँस लेने की आदत में बचा हुआ गाता

सरलीकरण

कुछ दृश्य कुछ आवाजें अकारण याद हैं
बेतुकी यादों का एक विचित्र अल्बम
होता होगा हरेक के पास
88 में सुनी गयी एक आदमी की आवाज़
इसलिए याद है
कि मेरे मामा से मिलती है
टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल के बाहर
एक निर्माणाधीन इमारत के धूसर परिसर में
व्यर्थ पड़ा एक पत्थर का टुकड़ा याद है
जहाँ एक बार जीवन में बाल कटवाया
वह सैलून याद है
जूतों को पार करती हुई
एक भयंकर तलवा गलाऊ ठण्ड याद है
सुने गए कई कवि सम्मलेन कई मंत्रोच्चार
कई सोहर विवाह गीत आदि याद हैं
इस बीच बहुत कुछ याद रखने लायक
मैं और लोग भूल गए
यदि यादों का फंक्शन
सबके लिए ऐसे ही काम करता हो तो
हमारा ज़रूरी दूसरों को व्यर्थ लगता हुआ अकारण याद होगा
इस आधार पर यह सरलीकरण किया जाना अस्वाभाविक नहीं है
कि संसार और समय की
सभी व्यर्थ चीज़ें किसी न किसी को
याद हैं या याद थीं
या याद रहेंगी.

बूथ पर लड़ना

पोलिंग बूथ पर कई चीज़ों का मतलब बिल्कुल साफ़
जैसे साम्प्रदायिकता माने कमल का फूल
और साम्प्रदायिकता-विरोध यानी संघी कैडेटों को फर्जी वोट डालने से रोकना
भाजपा का प्रत्याशी
सभी चुनाव कर्मचारियों
और दूसरी पार्टी के पोलिंग एजेंटों को भी, मान लीजिये कि आर्थिक विकास के तौर पर एक समृद्ध
नाश्ता कराता है
इस तरह बूथ का पूरा परिवेश आगामी अन्याय के प्रति भी कृतज्ञ
ऐसे में, प्रतिबद्धता के मायने हैं नाश्ता लेने से मना करना

हालाँकि कुछ खब्ती प्रतिबद्ध चुनाव पहले की सरगर्मी में
घर-घर पर्चियां बांटते हुए हाथ में वोटर लिस्ट लिए
संभावित फर्जी वोट तोड़ते हुए भी देखे जाते हैं
एक परफेक्ट होमवर्क करके आए हुए पहरुए
संदिग्ध नामों पर वोट डालने आए हुओं पर शक करते हैं

संसार के हर कोने में इन निर्भीकों की जान को खतरा है
इनसे चिढ़ते हैं दूसरी पार्टियों के लोग
अंततः अपनी पार्टी वाले भी इनसे चिढ़ने लगते हैं
ये पिछले कई चुनावों से यही काम कर रहे होते हैं
और आगामी चुनावों तक करते रहते हैं
ऐसे सभी प्रतिबद्ध बूढ़े होते हुए हैं
और इनका आने वाला वक्त खासा मुश्किल है

अब साम्प्रदायिक बीस-बीस के जत्थों में बूथ पर पहुँचने लगे हैं
और खुलेआम सैफुनिया सईदा फुन्नन मियाँ जुम्मन शेख अमीना और हामिद के नाम पर वोट डालते हैं
इन्हें मना करना कठिन समझाना असंभव रोकने पर पिटना तय

इनके चलने पर हमेशा धूल उड़ती है
ये हमेशा जवान होते हैं कुचलते हुए आते हैं
गालियाँ वाक्य विन्यास तय करती हैं चेहरे पर विजय की विकृति
सृष्टि में कहीं भी इनके होने के एहसास से प्रत्येक को डर लगता है

एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच के अंतराल में
आजकल
फिर भी कुछ लोग इनसे लड़ने की तरकीबें सोच रहे हैं

बहुत सारे संघर्ष स्थानीय रह जाते हैं

प्रणय कृष्ण के लिए

जगह का बयान उसी जगह तक पहुँचता है। वहीं रहने वाले समझ पाते हैं बयान उस जगह का जो उनकी अपनी जगह है।

अपनी जगह का बयान अपनी जगह तक पहुँचता है।

एक आदमी सुंदर आधुनिक विन्यास में एक खाली जगह में चकवड़ के पौधे उगा देता है तो रंगबिरंगी तितलियाँ उस जगह आने लगती हैं और उस आदमी को पहचान कर उसके कन्धों और सर पर इस तरह छा जाती हैं जैसे ऐसा हो ही न सकता हो। ऐसा नहीं हो सकता यह जगह के बाहर के लिए है और ऐसा हो सकता है यह जगह के लिए।

तितलियों के लिए तो ऐसा हो ही रहा है।

किस्सों-कहानियों में ख़तरनाक जानवर की तरह आने वाले एक जानवर के बारे में जगह के लोगों की राय है कि वह उतना ख़तरनाक नहीं है जितना बताया जाता है। जबकि जगह के बाहर वह उतना ही ख़तरनाक है जितना बताया जाता है।

जगह के भीतर का यह अतिपरिचित दृश्य है कि गर्मियों की शाम एक बंधी पर सौ साँप पानी पीने आते हैं। जगह में जब साँप पानी पी रहे होते हैं तो जगह के बाहर से देखने पर लगता है कि बंधी से सटाकर सौ डंडे रखे हुए हैं। जगह एक ऐसी जगह है जहाँ साँप को प्यास लगती है। जगह के बाहर न जाने क्या है कि साँप को प्यास नहीं लगती और वह डंडा हो जाता है। जगह के बाहर लोग डंडे जैसी दूसरी-तीसरी चीज़ों को साँप समझ कर डरते रहते हैं।

जगह के बाहर एक आदमी के कई हिजड़े दोस्त हैं। वे उससे पैसा नहीं मांगते, उसे तंग नहीं करते, उसे हिजड़ा भी नहीं मानते, फिर भी उसके दोस्त हैं। वे उससे कभी-कभी मिलते हैं लेकिन जब मिलते हैं दोस्त की तरह। जगह में लोग एक-दूसरे से बात करते हैं, मुलाकात न हो पाने पर एक-दूसरे को याद करते हैं और एक-दूसरे के दोस्त होते हैं। जगह के बाहर मुलाकातें नहीं हो सकतीं। न दोस्त होते हैं, न लोग होते हैं, न होना होता है, न न होना होता है।

मैं रहा तो था.

साफ़ झूठ

शिकायतें वक़्त से भी तेज़ गुज़र रही हैं ख़ुद को तुम्हारी मुस्कराहट से बदलती हुईं
उनकी फ़ेहरिस्त में कई शब्द आ गए हैं कई ग़ैर शब्द
आगामी शिकायतों का संगीत
उन्हें लिखना स्वरलिपियाँ लिखना

और कोई चुपके-चुपके लगा रहता है कि अपनी महान हिन्दी भाषा में कुछ वाक्य लिख ले

अरे महोदय, कितना पेट्रोल और पसीना बहता है ये सब करने में – उसका हिसाब लिखने में मन लगाओ, यही कर्त्तव्य है और तुम इसी के लायक़ भी हो। उनके कमरे में खिड़की खोलने से क्या फ़ायदा? अपने ख़त्म होते अनुभवों पर भरोसा रखो। ताकाझाँकी जैसी चालाकियाँ कुछ समय बाद शोभा देंगी। अभी तो तुम्हारे साफ़ झूठ में भी उसकी सच्ची हँसी की आहट है।

उस शहर की उस गली में

… कि तभी उस शहर की उस गली में उसके नाम का साइनबोर्ड दिखा। उस जैसा। बिलकुल उस जैसा और लगभग उस जैसा। उसके पसीने की बरसात में भीगा हुआ-सा। उसके चेहरे की धूप में चमकता हुआ-सा। उसको देखने-सा। उसके देखने-सा। उसकी चमक के ख़िलाफ़ धुँधला होता हुआ-सा। उसकी ज़बान जितनी ग़लत भाषा में लिखा हुआ। सबको दिखता हुआ-सा। हालाँकि देखने पर वहाँ सिर्फ़ ढाई अक्षर दिखाई देते हैं।

गुज़रना

इतनी बीहड़ क्रूरता के साथ बसे देश में सिर्फ़ तुम्हारे घर के नीचे, अफ़सोस, कभी ट्रैफ़िक जाम नहीं लगता जिसमें फँसा जा सके। वहाँ से ख़याल की तरह गुज़रना होता है।

दोनों एक ही बातें हैं

ऋतुओं के विहँसते सूर्य की तरह, दोपहर की झपकी की तरह, गर्भ की तरह, प्यास या ख़ास तुम्हारी शर्म की तरह, क्रूरतम अप्रैल में मई के आगमन की तरह

मैं रहा तो था

थकान की तरह मोज़ों के पसीने में तुम्हारे, वर्तनी की भूलों में, क्रियापदों के साथ लिंग के लड़खड़ाते रिश्ते में। तुम्हारी नाराज़गी में – ख़ुद को न देख पाता हुआ या सिर्फ़
ख़ुद को देखता हुआ या दोनों एक ही बाते हैं।

एक दिन

बृहस्पतिवार – तुम काजल लगा के नहीं आई थी। (उस दिन अपनी पेशी के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कई झूठ बोले और कई धमकियाँ दीं।)

अब हो

आज मैंने मसलन बी.ए. पास कर लिया। आज मैं श्यामसुंदरदास बी.ए.। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में अपनी शिशुभाषा का पाठ्यक्रम बनाने वाला और एक भारी-भरकम बवालिया संस्था का निर्माता मैं आज। तीस साल का होने के तीन महीने पहले वह अगर ऐसे ही नाहक़ नाराज़ हो जैसे आज मुझसे हुई है तो तुम भी संस्थापक, प्रधानमंत्री या रूलिंग पार्टी के जनरल सेक्रेटरी हो सकते हो। ख़ैर, मेरी फ़िक्र न करो और आगे से मत डराओ। आगे तो तय है कि बहुत सा अपमान और उचाट है। बहुत सा पीछे है आगे। ख़ात्मा है आगे।

अब हो।

एक और दिन

शुक्रवार – फिर नहीं । ( आज सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस महानुभाव ने तमाम गुज़ारिशों के बावजूद मोदी के साथ मंच शेयर किया )

क्यों

इतने ग़ौर से क्यों सुनती हो तुम आँखों से क्यों सुनती हो?

या शायद

मैंने सोचा कि उनको या कहूंगा और सोचने लगूंगा कि इस चीज़ का नाम अब तक क्या रहा था और जानकर हैरान हो जाऊंगा कि जितनी आवाज़ें हैं उतने तो नाम हैं इसके और शायद इसे या भी बार-बार कहा गया होगा तो इसका एक नाम शायद भी हो सकता है और इसे कई बार कुछ नहीं कहा गया है तो इसका एक नाम कुछ नहीं या कुछ हो सकता है।

कुछ हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है। एक फूल खिल सकता है नाम देने के लिए। बहुत से फूलों के बीच एक फूल। दूसरे फूल दूसरों के नाम के लिये। ये फूल उन निगाहों का नाम हो सकता है।

कुछ भी हो सकता है कुछ नहीं भी हो सकता है। उनको देखने लिये उनकी ओर देखना पड़ सकता है और यह तो अक्सर होता है कि उनको देखने के लिए उनकी ओर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

यह उलझन दूर तक जा सकती है और यह उलझन बीच में ही ख़त्म हो सकती है ।

कुछ हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है

जब कुछ भी हो सकता है तो तुम भी कुछ भूल सकती हो। तुम जानबूझकर या भूल से भी भूल सकती हो काजल लगाना। यों उस महान क्रिया का जन्म होता है जिसका नाम है काजल लगाना भूलना।

चुप हो जाने के लिए

जब जीवन में बहुत से अंक हासिल करने का शोर मचा हुआ था, तुम उसमें कैसा तो अनाप-शनाप संगीत सुनने में लग गई, शोर के भीतर का संगीत, शोर की बेक़ाबू साँस का संगीत, शोर का उल्टा संगीत। तुम नहीं जानती कि ऐसे सुनने ने शोर को कितना नामुमकिन कर दिया है। सबसे ज़्यादा नुक़सान मेरा हुआ, मेरी शोर मचाती कविताओं का। उन्हें भी संगीत की तरह सुनोगी तुम, यह एहसास ही काफ़ी है चुप हो जाने के लिये।

धूप नहीं

धूप की कालीन बिछी थी और तुम्हारे उस पर से गुज़रने भर से वह सिर्फ़ धूप की कालीन नहीं रह गई। विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के पन्नों पर एक साथ उगे दो सूर्य सिर्फ़ पन्नों पर नहीं उगे थे। मैंने देखा उस सूर्य को तुम्हारे चेहरे पर और तुम्हारे चेहरे के सूरज को वहाँ उगते हुए।

पार

देशभक्ति का कालजयी नाटक पढ़ते हुए हमारी आँखें मिलीं और तुम्हें पता ही नहीं। हद है। शब्दों और वाक्यों को आईने की तरह इस्तेमाल करते हुए मैंने उस चीज़ को देखा जिसे बोलचाल की भाषा में राष्ट्रप्रेम वगैरह कह दिया जाता है।

वे तुम्हारी आँखें थीं राष्ट्र के पार देखती हुईं। तुमको नहीं पता था तुम्हारी आँखों को पता था मेरी आँखों का। तुमको नहीं पता था तुम्हारी आँखों को पता था कि न देखते हुए कैसे देखा जाता है?

सपना

कलाई में दिल की धड़कन थी बायप्सी की रिपोर्ट में दाँत दर्द का अनुवाद कैंसर किया गया था नींद बहुत लम्बे-लम्बे वाक्यों में जागने का सपना थी सारी थकान एक बहुत चुस्त चालाकी में बदली हुई थी शरीर आत्मा पर फ़िदा हुआ जा रहा था सारे दुश्मन दोस्त हो गए थे सभी स्पर्शों की गिनती और सारे स्विच ऑफ़ मोबाइल फ़ोनों के नंबर याद हो गए थे जिस नदी को इस पार से उस पार तक सत्तर धोतियों से बाँधा जाता था वह अब दस धोतियों में पूरी हो जाती थी

हम ख़ुद से शर्माए जा रहे थे और आज इसका कितना शिद्दत से अफ़सोस था कि लोरी लिखना नहीं आता और एक ग़ैर निबंधात्मक प्रेमपत्र भी लिखना हुआ तो असलियत सामने आ जायेगी.

यहाँ

पीले पन्नों वाली किताब में छपी बच्चा कविता में से निकलकर आया था मामू मौसम के बिल्कुल पहले आम लेकर.
मामू सरकारी कर्मचारी है
वह आया तो सरकार आयी हमारी हैसियत भर की
और नींद में उसकी आवाज़ उसकी आवाज़ का सप्तक उसकी तक़लीफ़ उसका रिटायरमेंट उसकी पेंशन उसके लड़के का पैकेज
इन सभी मुद्दों पर अम्मा की हाँ-हूँ

मामू जगाता नहीं
और कौन जागना चाहता है इस छंदमय जगनींद से उस जागरण में

वहाँ सिर्फ़ तुम हो और तुम हो और तुम हो

और यहाँ भी

पों‌‌‌‌ऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ

यार, ख़ूब मन लगाकर शादी कीजिए

फिर ख़ूब मन लगाकर बनारस आ जाइए

सुनिए उस कारख़ाने के सायरन की आवाज़, जो सन 2000 में ही बन्द हो गया

रोज़ाना 8 बजे, 1 बजे, 2 बजे, 5 बजे

धिन-धिन-धा-धमक-धमक मेघ बजे

आइए, तो मिलकर पता लगाया जाय कि वह आवाज़ आती कहाँ से है। यह भी संभव है कि वह आवाज़ सिर्फ़ मुझे ही सुनाई देती हो। एकाध बार मैंने रमेश से पूछा भी कि कुछ सुनाई दे रहा है आपको तो वह ऐसे मुस्कराए जैसे मेरा मन रखने के लिए कह रहे हों कि हाँ

दिक्क़त है कि लोग सायरन की आवाज़ सुनना नहीं चाहते। नए लोग तो शायद सायरन की आवाज़ पहचानते भी न हों। सायरन बजता है और वे उसकी आवाज़ को हॉर्न, शोर, ध्वनि प्रदूषण और न जाने क्या-क्या समझते रहते हैं। नाक, कान, गले के डॉक्टर ने मुझसे कहा कि तुम्हारे कान का पर्दा पीछे चिपक गया है और ढंग से लहरा नहीं पा रहा है – इसकी वजह से तुम्हें बहुत सी आवाज़ें सुनाई नहीं देंगी तो मैंने उनसे कहा कि मुझे तो सायरन की आवाज़ बिलकुल साफ़ सुनाई देती है – रोज़ाना 8 बजे 1 बजे 2 बजे 5 बजे, तो वह ऐसे मुस्कराए जैसे मेरा मन रखने के लिए कह रहे हों कि हाँ

यार, ख़ूब मन लगाकर शादी कीजिए फिर ख़ूब मन लगाकर बनारस आ जाइए आप में हीमोग्लोबिन कम है और मुझे सायरन की आवाज़ सुनाई देती रहती है। आइए, तो मिलकर पता लगाया जाय कि वह आवाज़ आती कहाँ से है।

कारख़ाना बन्द है तो सायरन बजता क्यों है ? जहाँ कारख़ाना था वहाँ अब एक होटलनुमा पब्लिक स्कूल है। स्कूल में प्रतिदिन समय-समय पर घण्टे बजते हैं, लेकिन सायरन की आवाज़ के साथ नहीं बजते। सायरन की आवाज़ के बारे में पूछने के लिए मैंने स्कूल की डांस टीचर को फ़ोन किया तो वह कहने लगी कि पहले मेरा उधार चुकाओ फिर माफ़ी आदि माँगने पर उसने कहा कि उसकी कक्षा में नृत्य चाहे जिस ताल में हो रहा हो, ऐन सायरन बजने के मौक़े पर सम आता ही है। परन, तिहाई, चक्करदार – सब – सायरन के बजने की शुरूआत के बिन्दु पर ही धड़ाम से पूरे हो जाते हैं।

मसलन तिग दा दिग दिग थेई, तिग दा दिग दिग थेई, तिग दा दिग दिग पोंऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ

(यहाँ – तिग दा दिग दिग – कथक के बोल

पोंऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ – सायरन की आवाज़)

सायरन की आवाज़ न हुई, ब्लैकहोल हो गया। बहुत सी चीज़ों का अन्त हो जाता है उस आवाज़ की शुरूआत में – पिता, पंचवर्षीय योजना, पब्लिक सेक्टर, समूह, प्रोविडेंट फ़ण्ड, ट्रेड यूनियन और हड़ताल – सब – सायरन के बजने की शुरूआत के बिन्दु पर ही धड़ाम से पूरे हो जाते हैं

कभी-कभी धुएँ और राख़ और पानी और बालू में से उठती है आवाज़. वह आदमी सुनाई दे जाता है जो इस दुनिया में है ही नहीं। कभी-कभी मृत पूर्वज बोलते हैं हमारे मुँह से। बहुत सी आवाज़ें आती रहती हैं जिनका ठिकाना हमें नहीं पता। वैसे ही, सायरन बजता है रोज़ाना – आठ बजे, एक बजे, दो बजे, पाँच बजे।

जैसे मेरा, वैसे ही सायरन की आवाज़ का, आदि, मध्य और अन्त बड़ा अभागा है। बीच में हम दोनों अच्छे हैं और आप सब की कुशलता की प्रार्थना करते हैं। बीच में, लेकिन यही दिक्कत है कि पता नहीं लगता कि हम कहाँ हैं और ज़माना कहाँ है? नींद में कि जाग में, पानी में कि आग में, खड़े-खड़े कि भाग में।

आइए, यार ! तो ढूँढ़ा जाय कि सायरन की आवाज़ कहाँ से आती है और हमलोग कहाँ हैं ?

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