समय की शिला पर
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।
किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।
शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।
भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाए, उषा ने सुलाए।
सुरभि की अनिल-पंख पर मोर भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिन्दु बनकर बिखर पर गए स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाए, लहर ने बहाए।
देखेगा कौन
बगिया में नाचेगा मोर,
देखेगा कौन?
तुम बिन ओ मेरे चितचोर,
देखेगा कौन?
नदिया का यह नीला जल, रेतीला घाट,
झाऊ की झुरमुट के बीच, यह सूनी बाट,
रह-रह कर उठती हिलकोर,
देखेगा कौन?
आँखड़ियों से झरते लोर,
देखेगा कौन?
बौने ढाकों का यह वन, लपटों के फूल,
पगडंडी के उठते पाँव, रोकते बबूल,
बौराये आमों की ओर,
देखेगा कौन?
पाथर-सा ले हिया कठोर,
देखेगा कौन?
नाचती हुई फुल-सुंघनी, बनतीतर शोख,
घास पर सोन-चिरैया, डाल पर महोख,
मैना की यह पतली ठोर,
देखेगा कौन?
कलंगी वाले ये कठफोर,
देखेगा कौन?
आसमान की ऐंठन-सी धुएँ की लकीर,
ओर-छोर नापती हुई, जलती शहतीर,
छू-छूकर सांझ और भोर,
देखेगा कौन?
दुखती यह देह पोर-पोर,
देखेगा कौन?
मुझको क्या-क्या नहीं मिला
राजा से हाथी घोड़े
रानी से सोने के बाल,
मुझको क्या-क्या नहीं मिला
मन ने सब-कुछ रखा संभाल।
चँदा से हिरनों का रथ
सूरज से रेशमी लगाम,
पूरब से उड़नखटोले
पश्चिम से परियाँ गुमनाम।
रातों से चाँदी की नाव
दिन से मछुए वाला जाल!
बादल से झरती रुन-झुन
बिजली से उड़ते कंगन,
पुरवा से सन्दली महक
पछुवा से देह की छुवन।
सुबहों से जुड़े हुए हाथ
शामों से हिलती रूमाल!
नभ से अनदेखी ज़ंजीर
धरती से कसते बन्धन,
यौवन से गर्म सलाखें
जीवन से अनमाँगा रण।
पुरखों से टूटी तलवार
बरसों से ज़ंग लगी ढाल!
गलियों से मुर्दों की गंध
सड़कों से प्रेत का कुआँ,
घर से दानव का पिंजड़ा
द्वार से मसान का धुआँ!
खिड़की से गूँगे उत्तर
देहरी से चीख़ते सवाल!
मुझको क्या-क्या नहीं मिला
मन मे सब-कुछ रखा संभाल!
वक़्त की मीनार पर
मैं तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।
तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
जंगलों में या पहाड़ों में,
मंदिरों में, खंडहरों में,
सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,
मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।
शाल-वन की छाँव में
चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
पास मृगछौने बुलाता हूँ,
पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।
रेत में सूखी नदी की
मैं अजन्ताएँ बनाता हूँ,
द्वार पर बैठा गुफ़ा के
मैं तथागत गीत गाता हूँ,
बोढ के वे क्षण, मुझे लगता
कि मैं ख़ुद से बड़ा हूँ।
इन झरोखों से लुटाता
उम्र का अनमोल सरमाया,
मैं दिनों की सीढ़ियाँ
चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,
हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।
जीवन-लय
शब्द है,
स्वर है,
सजग अनुभूति भी
पर लय नहीं है!
कट गए पर हैं
अगम इस शून्य में,
उल्का सदृश
गिरते हुए मुझको
कहीं आश्रय नहीं है!
थम गए क्षण हैं
दुसह क्षण
अन्तहीन, अछोर निरवधि काल के;
फिर भी मुझे
कुछ भय नहीं है!
एक ही परिताप प्राणों में
सजग अनुभूति
पर क्यों लय नहीं है?
तमसो मा ज्योतिर्गमय
बुझी न दीप की शिखा अनन्त में समा गई।
अमंद ज्योति प्राण-प्राण बीच जगमगा गई!
अथाह स्नेह के प्रवाह में पली,
अमर्त्य वर्त्तिका नहीं गई छली,
असंख्य दीप एक दीप बन गया
कि खिल उठी प्रकाश की कली-कली
घनांधकार जल गया स्वयं नहीं हिली शिखा,
प्रकाश-धार में तमस भरी धरा नहा गई!
अकम्प ज्योति-स्तम्भ वह पुरूष बना,
कि जड़ प्रकृति बनी विकास-चेतना,
न सत्य-बीज मृत्तिका छिपा सकी
उगी, बढ़ी, फली अरूप कल्पना,
न बंध सका असत्-प्रमाद-पाश में प्रकाश-तन
विमुक्त सत्-प्रभा दिगन्त बीच मुस्कुरा गई!
मरा न कामरूप कवि बना अमर,
कि कोटि-कोटि कण्ठ में हुआ मुखर
मिटा न, काल का प्रवाह बन घिरा
असीम अन्तरिक्ष में अनन्त स्वर,
न मंत्र-स्वर-अमृत संभाल मृण्मयी धरा सकी,
त्रिकाल-रागिनी अनन्त सृष्टि बीच छा गई!
नवनिर्माण का संकल्प
विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!
यहाँ राह अपनी बनाने चले हम,
यहाँ प्यास अपनी बुझाने चले हम,
जहाँ हाँथ और पाँव की ज़िन्दगी हो
नई एक दुनिया बसाने चले हम;
विषम भूमि को सम बनाना हमें है
निठुर व्योम को भी झुकाना हमें है;
न अपने लिये, विश्वभर के लिये ही
धरा व्योम को हम रखेंगे उलटकर!
विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!
अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!
लहर गिरि-शिखर सी उठी आ रही है,
हमें घेर झंझा चली आ रही है,
गरजकर, तड़पकर, बरसकर घटा भी
तरी को हमारे ड़रा जा रही है
नहीं हम ड़रेंगे, नहीं हम रुकेंगे,
न मानव कभी भी प्रलय से झुकेंगे
न लंगर गिरेगा, न नौका रुकेगी
रहे तो रहे सिन्धु बन आज अनुचर!
अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!
कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर!
बना रक्त से कंटकों पर निशानी
रहे पंथ पर लिख चरण ये कहानी
,
बरसती चली जा रही व्योम ज्वाला
तपाते चले जा रहे हम जवानी;
नहीं पर मरेंगे, नहीं पर मिटेंगे
न जब तक यहाँ विश्व नूतन रचेंगे
यही भूख तन में, यही प्यास मन में
करें विश्व सुन्दर, बने विश्व सुन्दर!
कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर!
लोग
सोनहँसी हँसते हैं लोग
हँस-हँस कर डसते हैं लोग ।
रस की धारा झरती है
विष पिए हुए अधरों से,
बिंध जाती भोली आँखें
विषकन्या-सी नज़रों से ।
नागफनी को बाहों में
हँस-हँस कर कसते हैं लोग ।
जलते जंगल जैसे देश
और क़त्लगाह से नगर,
पाग़लख़ानों-सी बस्ती
चीरफाड़घर जैसे घर ।
अपने ही बुने जाल में
हँस-हँस कर फँसते हैं लोग ।
चुन दिए गए हैं जो लोग
नगरों की दीवारों में,
खोज रहे हैं अपने को
वे ताज़ा अख़बारों में ।
भूतों के इन महलों में
हँस-हँस कर बसते हैं लोग ।
भाग रहे हैं पानी की ओर
आगजनी में जलते से,
रौंद रहे हैं अपनों को
सोए-सोए चलते से ।
भीड़ों के इस दलदल में
हँस-हँस कर धँसते हैं लोग ।
वे, हम, तुम और ये सभी
लगते कितने प्यारे लोग,
पर कितने तीखे नाख़ून
रखते हैं ये सारे लोग ।
अपनी ख़ूनी दाढ़ों में
हँस-हँस कर ग्रसते हैं लोग ।
रोशनी के लिए
यों अँधेरा अभी पी रहा हूँ,
रोशनी के लिए जी रहा हूँ ।
एक अँधे कुएँ में पड़ा हूँ
पाँव पर किन्तु अपने खड़ा हूँ,
कह रहा मन कि क़द से कुएँ के
मैं यक़ीनन बहुत ही बड़ा हूँ ।
मौत के बाहुओं में बँधा भी
ज़िन्दगी के लिए जी रहा हूँ ।
ख़ौफ़ की एक दुनिया यहाँ है,
क़ैद की काँपती-सी हवा है,
सरसराहट भरी सनसनी का
ख़त्म होता नहीं सिलसिला है ।
साँप औ’ बिच्छुओं से घिरा भी
आदमी के लिए जी रहा हूँ ।
तेज़ बदबू, सड़न और मैं हूँ,
हर तरफ़ है घुटन और मैं हूँ ।
हड्डियों, पसलियों, चीथड़ों का
सर्द वातावरण और मैं हूँ ।
यों अकेला नरक भोगता भी
मैं सभी के लिए जी रहा हूँ ।
सिर उठा धूल मैं झाड़ता हूँ
और जाले तने फाड़ता हूँ,
फिर दरारों भरे इस कुएँ में
दर्द की खूँटियाँ गाड़ता हूँ ।
चाँद के झूठ को जानता भी
चाँदनी के लिए जी रहा हूँ ।
देश हैं हम
देश हैं हम
महज राजधानी नहीं ।
हम नगर थे कभी
खण्डहर हो गए,
जनपदों में बिखर
गाँव, घर हो गए,
हम ज़मीं पर लिखे
आसमाँ के तले
एक इतिहास जीवित,
कहानी नहीं ।
हम बदलते हुए भी
न बदले कभी
लड़खड़ाए कभी
और सँभले कभी
हम हज़ारों बरस से
जिसे जी रहे
ज़िन्दगी वह नई
या पुरानी नहीं ।
हम न जड़-बन्धनों को
सहन कर सके,
दास बनकर नहीं
अनुकरण कर सके,
बह रहा जो हमारी
रगों में अभी
वह ग़रम ख़ून है
लाल पानी नहीं ।
मोड़ सकती मगर
तोड़ सकती नहीं
हो सदी बीसवीं
या कि इक्कीसवीं
राह हमको दिखाती
परा वाक् है
दूरदर्शन कि
आकाशवाणी नहीं ।
उत्खनन
उत्खनन किया है मैंने
गहराई तक अतीत का ।
सिन्धु-सभ्यता से अब तक
मुझको एक ही स्तर मिला,
ईंट-पत्थरों के घर थे
सोने का नहीं घर मिला,
युद्धों के अस्त्र मिले पर
वृत्त नहीं हार-जीत का ।
यज्ञकुण्ड अग्निहोत्र के
मिले नाम गोत्र प्रवर भी
सरस्वती की दिशा मिली
पणियों के ग्राम-नगर भी
कोई अभिलेख पर नहीं
सामगान के प्रगीत का ।
क़ब्रों में ठठरियाँ मिलीं
टूटे उजड़े भवन मिले,
मिट्टी में ब्याज मिल गए
पर न कहीं मूल-धन मिले,
आदमी मिला कहीं नहीं
जीवित साक्षी व्यतीत का ।
मिट्टी के खिलौने मिले
चित्रित मृतभाण्ड भी मिले ।
सड़कों-चौराहों के बीच
हुए युद्ध-काण्ड भी मिले,
कोई ध्वनि-खण्ड पर नहीं
मिला किसी बातचीत का ।
मन्दिर गोपुर शिखर मिले
देवता सभी मरे मिले
उकरे युगनद्ध युग्म भी
दीवारों पर भरे मिले ।
सहते आए हैं अब तक
जो संकट ताप-शीत का ।
अरुणाचल
पर्वत से छन कर झरता है पानी,
जी भर कर पियो
और पियो ।
घाटी-दर-घाटी ऊपर को जाना,
धारण कर लेना शिखरों का बाना,
देता अक्षय जीवन हिमगिरी दानी,
हिमगिरी को जियो
और जियो ।
अतिथि बने बादल के घर में रहना
हिम-वर्षा-आतप हँस-हँस कर सहना
अरुणाचल-धरती परियों की रानी
सुन्दरता पियो
और पियो ।
किन्नर-किन्नरियों के साथ नाचना
स्वर-लय की अनलिखी क़िताब बाँचना,
उर्वशियाँ घर-घर करती अगवानी,
गीतों को जियो
और जियो ।
देना कुछ नहीं और सब कुछ पाना,
ले जाना हो तो घर लेते जाना,
यह सुख है और कहाँ ओ अभिमानी !
इस सुख को पियो
और पियो ।
नदी
एक मीनार उठती रही
एक मीनार ढहती रही
अनरुकी अनथकी सामने
यह नदी किन्तु बहती रही
पर्वतों में उतरती हुई
घाटियाँ पार करती हुई,
तोड़ती पत्थरों के क़िले
बीहड़ों से गुज़रती हुई,
चाँद से बात करती रही
सूर्य के घात सहती रही ।
धूप में झलमलती हुई
छाँव में गुनगुनाती हुई,
पास सबको बुलाती हुई
प्यास सबकी बुझाती हुई,
ताप सबका मिटाती हुई
रेत में आप दहती रही ।
बारिशों में उबलती हुई
बस्तियों को निगलती हुई,
छोड़ती राह में केंचुलें
साँप की चाल चलती हुई ।
हर तरफ़ तोड़ती सरहदें,
सरहदों बीच रहती रही ।
सभ्यताएँ बनाती हुई
सभ्यताएँ मिटाती हुई,
इस किनारे रुकी ज़िंदगी
उस किनारे लगाती हुई ।
कान में हर सदी के नदी
अनकही बात कहती रही ।
वक़्त की मीनार पर
मैं तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।
तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
जंगलों में या पहाड़ों में,
मंदिरों में, खंडहरों में,
सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,
मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।
शाल-वन की छाँव में
चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
पास मृगछौने बुलाता हूँ,
पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।
रेत में सूखी नदी की
मैं अजन्ताएँ बनाता हूँ,
द्वार पर बैठा गुफ़ा के
मैं तथागत गीत गाता हूँ,
बोढ के वे क्षण, मुझे लगता
कि मैं ख़ुद से बड़ा हूँ।
इन झरोखों से लुटाता
उम्र का अनमोल सरमाया,
मैं दिनों की सीढ़ियाँ
चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,
हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।
तुम जानो या मैं जानूँ
जानी अनजानी, तुम जानो या मैं जानूँ।
यह रात अधूरेपन की, बिखरे ख्वाबों की
सुनसान खंडहरों की, टूटी मेहराबों की
खंडित चंदा की, रौंदे हुए गुलाबों की
जो होनी अनहोनी हो कर इस राह गयी
वह बात पुरानी-तुम जानो या मैं जानूँ।
यह रात चांदनी की, धुंधली सीमाओं की
आकाश बाँधने वाली खुली भुजाओं की
दीवारों पर मिलती लम्बी छायाओं की
निज पदचिन्हों के दिए जलाने वालों की
ये अमिट निशानी, तुम जानो या मैं जानूँ।
यह एक नाम की रात, हजारों नामों की
अनकही विदाओं की, अनबोल प्रणामों की
अनगिनित विहंसते प्रान्तों, रोती शामों की
अफरों के भीतर ही बनने मिटने वाली
यह कथा कहानी, तुम जानो या मैं जानूँ।
यह रात हाथ में हाथ भरे अरमानों की
वीरान जंगलों की, निर्झर चट्टानों की
घाटी में टकराते खामोश तरानों की
त्यौहार सरीखी हंसी, अजाने लोकों की
यह बे-पहचानी, तुम जानो या मैं जानूँ।